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अक्तूबर 2024
«27-Nov-2024
Yashodeep Bisanrao Vadode v. State of Maharashtra & Anr
यशोदीप बिसनराव वडोडे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य
निर्णय/आदेश की तिथि – 21.10.2024 पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – Justice C.T. Ravikumar and Justice Sanjay Kumar |
मामला संक्षेप में:
- इस मामले में रेणुका (मृतक) की शादी 11 दिसंबर, 2008 को हिंदू रीति-रिवाज़ों के अनुसार राजेश जगन करोटे से हुई थी।
- अभियोजन पक्ष के अनुसार, जनवरी, 2010 से राजेश और उसके रिश्तेदारों ने आवासीय फ्लैट खरीदने के लिये रेणुका से दहेज की मांग शुरू कर दी थी।
- रेणुका को कथित तौर पर इन दहेज मांगों से संबंधित शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की यातनाओं का सामना करना पड़ा।
- इस मामले में अपीलकर्त्ता यशोदीप वडोडे की शादी 26 अक्तूबर , 2010 को सविता (राजेश की बहन) से हुई थी।
- 16 अप्रैल, 2011 को रात करीब 9:00 बजे यशोदीप वडोडे ने रेणुका के पिता को सूचित किया कि उसे मुंबई के सायन अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
- जब तक रेणुका के पिता अपनी पत्नी, बच्चों और अन्य रिश्तेदारों के साथ अस्पताल पहुँचते, तब तक रेणुका की मृत्यु हो चुकी थी।
- रेणुका के शरीर की जाँच करने पर, उसके पिता ने उसके माथे पर खरोंच और गर्दन पर लिगचर के निशान देखे। अप्राकृतिक रूप से मृत्यु होने के संदेह पर रेणुका के पिता ने शिकायत दर्ज कराई।
- इस एक शिकायत से दो अलग-अलग सत्र मामले सामने आए।
- अपीलकर्त्ता उन अभियुक्तों में से एक था, जहाँ उस पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-A (दहेज उत्पीड़न), 304-B (दहेज हत्या), 306 (आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण) तथा 406 (विश्वास का आपराधिक हनन) के साथ धारा 34 (समान आशय) के तहत आरोप लगाए गए थे।
- दोषी ठहराए जाने के बाद अपीलकर्त्ता को ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश के माध्यम से बलभीम कॉलेज, बीड में प्रयोगशाला परिचारक के पद से हटा दिया गया।
- अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष आदेश को चुनौती दी, जिसने भी ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की।
- अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के इस निष्कर्ष के आधार को चुनौती दी कि उसके विरुद्ध "विशिष्ट भौतिक साक्ष्य" थे। उसने सवाल किया कि परिवार के साथ उसके रिश्ते की छोटी अवधि को देखते हुए उसे "अंतिम सांस तक" उत्पीड़न और क्रूरता के लिये कैसे उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
निर्णय:
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ निम्नलिखित हैं:
- IPC की धारा 498-A के आवश्यक तत्त्व:
- न्यायालय द्वारा धारा 498-A के अंतर्गत अपराध सिद्ध करने के लिये आवश्यक तत्त्वों को रेखांकित किया गया:
- पीड़ित विवाहित महिला (या विधवा) होनी चाहिये
- उसके पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा उसके साथ क्रूरता की गई हो
- ऐसी चोट शारीरिक या मानसिक हो सकती है
- क्रूरता में निम्न में से कोई एक शामिल होना चाहिये:
- दहेज की मांग हेतु उत्पीड़न, या
- जानबूझकर किया गया ऐसा आचरण जिससे महिला आत्महत्या कर ले या उसे गंभीर चोट लग जाए
- साक्ष्य पर:
- न्यायालय ने "सूक्ष्म परीक्षण" किया जिसमे अपीलकर्त्ता के खिलाफ कोई विशेष सबूत नहीं पाया गया।
- अभियोजन पक्ष के किसी भी गवाह ने अपीलकर्त्ता द्वारा क्रूरता के किसी भी कृत्य के बारे में विशेष रूप से गवाही नहीं दी थी।
- संबंधित FIR से पहले अपीलकर्त्ता के विरुद्ध कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई थी
- विकृत निष्कर्षों पर:
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि को "बिल्कुल गलत" पाया
- अपराध से उसे जोड़ने वाले साक्ष्य का पूर्ण अभाव था
- दोषी अभियुक्त (सविता) का पति होना उसकी स्वयं की दोषसिद्धि के लिये पर्याप्त आधार नहीं था।
- न्यायालय द्वारा धारा 498-A के अंतर्गत अपराध सिद्ध करने के लिये आवश्यक तत्त्वों को रेखांकित किया गया:
- सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे मामलों में सावधानीपूर्वक जाँच की आवश्यकता पर बल दिया
- न्यायालयों को निर्दोष व्यक्तियों को बदनामी से बचाना चाहिये।
- दोषसिद्धि के लिये सामान्य आरोपों के बजाय विशिष्ट साक्ष्य होने चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अन्य आरोपियों से मात्र संबंध ही दोषसिद्धि का आधार नहीं हो सकता।
- अपराध में भागीदारी के विशिष्ट साक्ष्य आवश्यक हैं।
- अभियोजन पक्ष को प्रत्येक आरोपी के खिलाफ अपराध के प्रत्येक कृत्य को व्यक्तिगत रूप से साबित करना होगा।
- इन टिप्पणियों के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने अंततः धारा 498-A IPC के तहत अपीलकर्त्ता की दोषसिद्धि के संबंध में उच्च न्यायालय और ट्रायल कोर्ट के निर्णयों को रद्द कर दिया।
प्रासंगिक प्रावधान:
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498 A: किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना—
- जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति का रिश्तेदार होते हुए, ऐसी स्त्री के साथ क्रूरता करेगा, वह तीन वर्ष तक के कारावास और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
Janardan Das & Ors. v. Durga Prasad Agarwalla & Ors
जनार्दन दास एवं अन्य बनाम दुर्गा प्रसाद अग्रवाल एवं अन्य
निर्णय/आदेश की तिथि – 26.09.2024 पीठ की संख्या – 3 न्यायाधीश पीठ की संरचना – Justices Vikram Nath, Pankaj Mithal, and Prasann B. Varale |
मामला संक्षेप में:
- यह मामला ओडिशा के बारीपदा में एक संपत्ति विवाद से जुड़ा है, जिसका मूल स्वामित्व स्वर्गीय सुरेंद्रनाथ बनर्जी के पास था।
- 3 जुलाई, 1980 को सुरेंद्रनाथ की मृत्यु के बाद, संपत्ति उनके पाँच उत्तराधिकारियों को समान रूप से विरासत में मिली:
- दो बेटे: बिनयेंद्र बनर्जी (प्रतिवादी नंबर 1) और स्वर्गीय सौमेंद्र नाथ बनर्जी
- तीन बेटियाँ: श्रीमती रेखा मुखर्जी, श्रीमती सिखा दास, और श्रीमती मोनिला पाल (प्रतिवादी संख्या 6-8)
- 14 अप्रैल, 1993 को सभी सह-मालिकों और प्रतिवादी संख्या 9-11 (अपीलकर्त्ता) के बीच संपत्ति को 4,20,000 रुपए में बेचने के लिये मौखिक समझौता हुआ था।
- 6 जून, 1993 को वादी (जिन्होंने हिंदुस्तान पेट्रोलियम के साथ डीलरशिप के तहत संपत्ति पर पेट्रोल पंप संचालित किया) ने केवल प्रतिवादी संख्या 1 और स्वर्गीय सौमेंद्र के साथ 5,70,000 रुपए में संपत्ति खरीदने के लिये एक और समझौता किया, जिसमें 70,000 रुपए बयाना राशि के रूप में दिये गए।
- 6 जून के समझौते के मुख्य बिंदु:
- इस पर केवल दो भाइयों ने हस्ताक्षर किये, तीन बहनों ने नहीं।
- इसमें यह शर्त रखी गई थी कि बहनें तीन महीने के भीतर बिक्री विलेख निष्पादित करने के लिये आएंगी।
- बिक्री विलेख 30 सितंबर, 1993 से पहले निष्पादित किया जाना था।
- 30 दिसंबर, 1982 का एक अपंजीकृत जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी (GPA) था, जिसने कथित तौर पर प्रतिवादी नंबर 1 को अपनी बहनों के लिये कार्य करने का अधिकार दिया था।
- हालाँकि, 17 फरवरी, 1988 के पंजीकृत विभाजन विलेख ने प्रतिवादी नंबर 1 के अधिकार को केवल किराया वसूलने तक सीमित कर दिया था।
- 27 सितंबर, 1993 को सभी पाँच सह-मालिकों (तीनों बहनों सहित) ने प्रतिवादी संख्या 9-11 के पक्ष में ₹4,20,000 में पंजीकृत विक्रय विलेख निष्पादित किया।
- इसके बाद, वादी ने एक मुकदमा दायर किया (T.S. सं. 103, 1994) जिसमें मांग की गई:
- उनके 6 जून, 1993 के समझौते का विशिष्ट निष्पादन
- वैकल्पिक रूप से, प्रतिवादी नंबर 1 और स्वर्गीय सौमेंद्र के शेयरों के लिये विशिष्ट निष्पादन
- ट्रायल कोर्ट ने वादी के विरुद्ध फैसला सुनाया। हालाँकि, हाईकोर्ट ने वादी की अपील स्वीकार की और विक्रय समझौते के विशिष्ट निष्पादन का आदेश दिया। इसके बाद अपीलकर्त्ता ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
निर्णय:
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अलग-अलग हितों वाले कई पक्षों से जुड़े अनुबंधों में, खासकर जब कुछ पक्ष अनुपस्थित हों या हस्ताक्षर न करते हों, तो यह सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी वादी की होती है कि तत्परता तथा इच्छा प्रदर्शित करने के लिये सभी आवश्यक सहमति और भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
- न्यायालय ने माना कि निष्पादन के लिये अपनी बहनों को प्राप्त करने के लिये सह-मालिकों (प्रतिवादी नंबर 1 और स्वर्गीय सौमेंद्र) पर केवल निर्भरता वादी को विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 16 (C) के तहत तत्परता तथा इच्छा प्रदर्शित करने की उनकी ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं कर सकती।
- न्यायालय ने पाया कि वादी द्वारा बहनों से संपर्क करने में विफलता, जो मुकदमे की संपत्ति में 3/5 वें हिस्से की सह-मालिक हैं, और निर्धारित तीन महीने की अवधि के भीतर उनकी सहमति प्राप्त करने के लिये कोई सक्रिय कदम नहीं उठाने का उनका निष्क्रिय दृष्टिकोण निरंतर तत्परता तथा इच्छा की कमी को दर्शाता है।
- सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी (GPA) के संबंध में, न्यायालय ने पाया कि इसे वर्ष 1988 के बाद के पंजीकृत विभाजन विलेख द्वारा प्रभावी रूप से निरस्त कर दिया गया था, जिसने विशेष रूप से प्रतिवादी नंबर 1 के किराये के संग्रह के अधिकार को सीमित कर दिया था, जिसमें बहनों की ओर से संपत्ति बेचने का कोई अधिकार नहीं था।
- न्यायालय ने पाया कि संपत्ति के कई मालिकों से जुड़े अनुबंधों में, सभी सह-मालिकों को या तो व्यक्तिगत रूप से बिक्री के लिए समझौते को निष्पादित करना चाहिये या एक वैध तथा मौजूदा पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से किसी एजेंट को विधिवत अधिकृत करना चाहिये, यह देखते हुए कि एजेंट का अधिकार स्पष्ट और असंदिग्ध होना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि चूँकि वादी इस बात से अवगत थे कि प्रतिवादी नंबर 6-8 समझौते के पक्षकार नहीं थे और वैध बिक्री के लिये उनकी भागीदारी आवश्यक थी, इसलिये वे प्रतिवादी नंबर 1 के बहनों को उनकी स्पष्ट सहमति के बिना बाध्य करने के अधिकार में विश्वास का दावा नहीं कर सकते।
प्रासंगिक प्रावधान:
विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 16: राहत के लिये व्यक्तिगत अवरोध—
- किसी संविदा का विशिष्ट निष्पादन किसी व्यक्ति के पक्ष में लागू नहीं किया जा सकता है— 2
(a) जिसने धारा 20 के अधीन संविदा का प्रतिस्थापित पालन प्राप्त कर लिया है; या
(b) जो उस संविदा का पालन करने में असमर्थ हो गया है, या उसकी ओर से पालन किये जाने के लिये शेष किसी संविदा की आवश्यक शर्त का उल्लंघन करता है, या संविदा के साथ कपट करता है, या संविदा द्वारा स्थापित किये जाने वाले संबंध के साथ जानबूझकर विपरित कार्य करता है, या उसे नष्ट करता है;
(c) जो यह साबित करने में असफल रहता है कि उसने संविदा की उन आवश्यक शर्तों का पालन किया है या करने के लिये सदैव तत्पर और इच्छुक रहा है, जिनका पालन उसके द्वारा किया जाना है, सिवाय उन शर्तों के जिनका पालन प्रतिवादी द्वारा रोका गया है या माफ किया गया है। - स्पष्टीकरण.- खंड © के प्रयोजनों के लिये -
(i) जहाँ किसी अनुबंध में धन का भुगतान शामिल है, वहाँ वादी के लिये प्रतिवादी को वास्तव में कोई धन देना या न्यायालय में कोई धन जमा करना आवश्यक नहीं है, सिवाय इसके कि जब न्यायालय द्वारा ऐसा निर्देश दिया गया हो; (ii) वादी को अनुबंध के सही अर्थों में निष्पादन के लिये तत्परता और इच्छा को साबित करना होगा।
Rama Devi v. State of Bihar and Others (2024)
रमा देवी बनाम बिहार राज्य और 024)
निर्णय/आदेश की तिथि – 03.10.2024 पीठ की संख्या – 3 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
मामला संक्षेप में:
- भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302, 307, 34, 120B, 379 और शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 27 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ की गई थी।
- 13 जून, 1998 को शाम करीब 6:30 बजे न्यायिक हिरासत में बंद बृज बिहारी प्रसाद अपने कई साथियों और अपने हथियारबंद अंगरक्षक लक्ष्मेश्वर साहू के साथ IGIMS अस्पताल के वार्डरूम के बाहर टहल रहे थे।
- दो गाड़ियाँ (एक सूमो और एक एंबेसडर) बेली रोड की तरफ वाले गेट से अस्पताल परिसर में दाखिल हुईं और बृज बिहारी प्रसाद के पास आकर रुकीं।
- गाड़ियों से छह लोग निकले - मंटू तिवारी (स्टेन गन के साथ), विजय कुमार शुक्ला, राजन तिवारी, श्री प्रकाश शुक्ला, सतीश पांडे और भूपेंद्र नाथ दुबे (सभी के पास पिस्तौल थी)।
- भूपेंद्र नाथ दुबे ने हमला शुरू किया, जिसके बाद मंटू तिवारी और श्री प्रकाश शुक्ला ने बृज बिहारी प्रसाद पर गोली चलाई, जबकि सतीश पांडे, विजय कुमार शुक्ला और राजन तिवारी ने लक्ष्मेश्वर साहू को निशाना बनाया।
- हमले में बृज बिहारी प्रसाद और उनके अंगरक्षक लक्ष्मेश्वर साहू दोनों की मृत्यु हो गई, जबकि एक राहगीर रवींद्र भगत गोलीबारी में घायल हो गया।
निर्णय:
- न्यायालय ने कथित अपराधों को सिद्ध करने के लिये विभिन्न साक्ष्य और गवाह प्रस्तुत किये।
- न्यायालय ने क्षेत्राधिकार मजिस्ट्रेट को FIR प्रेषित करने में विलंब के परिणाम का विश्लेषण किया।
- न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्षकार के मामले को खारिज़ करने के लिये केवल विलंब ही पर्याप्त नहीं है।
- जैसा कि राजस्थान राज्य बनाम दाऊद खान (वर्ष 2016) के मामले में माना गया था, जहाँ क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को FIR प्रेषित करने में विलंब हुआ था, यह प्रदर्शित किया जाना चाहिये कि विलंब ने अभियोजन पक्ष के मामले को प्रभावित किया है।
- इसके अतिरिक्त इस मामले में कई गवाह थे, जो मुकर गए।
- न्यायालय ने दोहराया कि जहाँ गवाह मुकर गए हैं, वहाँ गवाह की पूरी गवाही को खारिज़ नहीं किया जाना चाहिये, बल्कि मामले में साक्ष्य के उद्देश्य के लिये गवाही के विश्वसनीय हिस्सों पर विचार किया जाना चाहिये।
- इसलिये इस मामले में न्यायालय ने आरोपियों को दोषी ठहराया।
प्रासंगिक प्रावधान:
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302: हत्या के लिये सजा। -
- जो कोई हत्या करेगा, उसे मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी और वह ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 307: हत्या का प्रयास। -
- जो कोई भी व्यक्ति ऐसे आशय या ज्ञान के साथ और ऐसी परिस्थितियों में कोई कार्य करेगा कि यदि वह उस कार्य से मृत्यु कारित करता, तो वह हत्या का दोषी होता, उसे किसी निश्चित अवधि के लिये कारावास से, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, दंडित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा; और यदि ऐसे कार्य से किसी व्यक्ति को चोट पहुँचती है, तो अपराधी या तो आजीवन कारावास या ऐसे दंड के लिये उत्तरदायी होगा, जैसा कि इसमें पहले वर्णित है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 120B: आपराधिक षड्यंत्र की सजा।--
(1) जो कोई मृत्यु, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक की अवधि के कठोर कारावास से दंडनीय अपराध करने के लिये आपराधिक षड्यंत्र में शामिल है, वहाँ जहाँ ऐसे षड्यंत्र के दंड के लिये इस संहिता में कोई स्पष्ट उपबंध नहीं किया गया है, उसे उसी प्रकार दंडित किया जाएगा मानो उसने ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण किया हो।
(2) जो कोई पूर्वोक्त दण्डनीय अपराध करने के लिये आपराधिक षडयंत्र के अतिरिक्त किसी अन्य आपराधिक षडयंत्र में पक्षकार होगा, उसे छह मास से अधिक अवधि के कारावास या ज़ुर्माने या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
Jitendra & Ors v. State of Uttar Pradesh
जितेंद्र एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
निर्णय/आदेश की तिथि – 04.10.2024 पीठ की संख्या – 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा |
मामला संक्षेप में:
- सभी पाँचों आरोपियों को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 सहपठित धारा 147 और 149 के तहत हत्या का दोषी ठहराया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
- आरोपियों को दोषी ठहराने वाले सत्र न्यायालय के फैसले में कहा गया कि रमेश चंद्र के कहने पर पप्पू ने मृतक का गला काट दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
- इस मामले में अपीलकर्त्ता दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 389 (1) के तहत दोषसिद्धि के निलंबन के लिये न्यायालय आए थे।
- इसलिये मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष था।
निर्णय:
- न्यायालय ने माना कि यदि सत्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया विवरण पूर्ण रूप से सत्य पाया जाता है, तो भी अपीलकर्त्ताओं ने PW3 तथा अन्य को इन सबसे पृथक रखा था ताकि पप्पू द्वारा हत्या के अपराध को अंजाम दिया जा सके।
- इस प्रकार, अपीलकर्त्ताओं के पास यह तर्कपूर्ण मामला है कि क्या उन्हें IPC की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया जा सकता है।
- न्यायालय ने माना कि ये प्रथम दृष्टया अवलोकन हैं तथा इनका उद्देश्य उच्च न्यायालय को प्रभावित करना नहीं है।
- इसके अतिरिक्त न्यायालय ने माना कि केवल अन्य मुकदमे का लंबित होना, जिसमें अपीलकर्त्ता एक अभियुक्त है, इस मामले में सजा के निलंबन के लाभ से इनकार करने के लिये पर्याप्त नहीं माना जा सकता।
- इस प्रकार न्यायालय ने माना कि अपीलकर्त्ताओं ने सजा के निलंबन तथा जमानत पर रिहाई के लिये पर्याप्त आधार प्रस्तुत किये हैं।
प्रासंगिक प्रावधान:
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389 (1): अपील लंबित रहने तक सजा का निलंबन; अपीलकर्त्ता की जमानत पर रिहाई
- किसी दोषी व्यक्ति द्वारा की गई अपील के लंबित रहने पर, अपील न्यायालय, अपने द्वारा लिखित रूप में दर्ज़ किये जाने वाले कारणों से, यह आदेश दे सकता है कि जिस सजा या आदेश के विरुद्ध अपील की गई है, उसका निष्पादन निलंबित कर दिया जाए और साथ ही यदि वह कारावास में है, तो उसे जमानत पर या अपने स्वयं के बॉण्ड पर रिहा किया जाए।
- बशर्ते कि अपील न्यायालय, किसी दोषी व्यक्ति को, जो मृत्युदंड या आजीवन कारावास या कम-से-कम दस वर्ष की अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध के लिये दोषी ठहराया गया हो, जमानत पर या अपने स्वयं के बॉण्ड पर रिहा करने से पहले, लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के विरुद्ध लिखित में कारण बताने का अवसर देगा;
- इसके अतिरिक्त यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जहाँ किसी दोषी व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जाता है, लोक अभियोजक को जमानत रद्द करने के लिये आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता होगी।
Shivkumar Ramsundar Saket v. State of Maharashtra
शिवकुमार रामसुंदर साकेत बनाम महाराष्ट्र राज्य
निर्णय/आदेश की तिथि – 26.09.2024 पीठ की संख्या – 3 न्यायाधीश पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति पी.के. मिश्रा और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन |
मामला संक्षेप में:
- वर्ष 2007 में महाराष्ट्र के अहमदनगर में मुनोट दंपत्ति के लिये दिन में चौकीदार के रूप में कार्य करने वाले शिव कुमार साकेत ने पाँच अन्य लोगों (जिनमें दो दोस्त और तीन पूर्व कर्मचारी शामिल थे) के साथ मिलकर मुनोट के घर पर डकैती और हत्या की योजना बनाई तथा उसे अंजाम दिया।
- 2 दिसंबर, 2007 को, समूह ने मुनोट के बंगले में प्रवेश किया, रात के पहरेदार को बाँध दिया और दंपत्ति की बेरहमी से हत्या कर दी - रमेश मुनोट को कई बार चाकू घोंपा गया, जबकि उनकी पत्नी चित्रा को कुर्सी से बाँध दिया गया और उनका गला रेत दिया गया।
- अपराधियों ने शहर से भागने का प्रयास करने से पहले आभूषण और विदेशी मुद्रा सहित 9 लाख रुपए के कीमती सामान चुरा लिये।
- वर्ष 2013 में ट्रायल कोर्ट ने सभी छह आरोपियों को दोषी ठहराया और उन्हें हत्या, डकैती एवं षणयंत्र सहित विभिन्न अपराधों के लिये आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
- महाराष्ट्र सरकार द्वारा बढ़ी हुई सजा की मांग वाली अपील के बाद, वर्ष 2022 में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने साकेत को दोषी ठहराया जिसमें विश्वासघात करने का एक गंभीर कारक बताते हुए उसकी सजा को मृत्युदंड में बदल दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने साकेत की सजा को बरकरार रखते हुए उच्च न्यायालय की मृत्युदंड की सजा से असहमति व्यक्त करते हुए निचले न्यायालय की आजीवन कारावास की सजा को बहाल कर दिया, यह देखते हुए कि उसकी भूमिका अन्य आरोपियों के समान थी और मामला "दुर्लभतम में दुर्लभ" के रूप में योग्य नहीं था।
- इस मामले ने अंततः स्थापित किया कि उच्च न्यायालय को "दुर्लभतम में दुर्लभ (rarest of rare)" के बारे में अपनी टिप्पणी को विकृत या असंभव पाए बिना निचले न्यायालय की सजा में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये था।
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति पीके मिश्रा और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ के माध्यम से अभियुक्त की सजा में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया, क्योंकि ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय दोनों ने रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों का उचित मूल्यांकन किया था।
- हालाँकि साकेत की मृत्यु की सजा के संबंध में, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा मृत्युदंड देना न्यायोचित नहीं था।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ट्रायल जज ने पूर्व में ही यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि यह मामला 'दुर्लभतम मामलों' की श्रेणी में नहीं आता है, और जब तक यह निष्कर्ष अनुचित या असंभव सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये था।
- एक महत्त्वपूर्ण अवलोकन यह था कि अपराध में साकेत की भूमिका अन्य सभी अभियुक्तों के समान थी, इसलिये मृत्युदंड लगाने के लिये उसके मामले को अलग नहीं किया जा सकता था।
- न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस तर्क को खारिज़ कर दिया कि "विश्वासघात" को केवल साकेत के लिये मृत्युदंड देने हेतु पर्याप्त कारक के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
- साक्ष्य के संबंध में, न्यायालय ने गवाहों की गवाही में विरोधाभासों को नोट किया, विशेष रूप से 4-सुमितकुमार श्रीशामजी तिवारी की गवाही में, जिन्होंने जाँच अधिकारी के साक्ष्य के अनुसार "अपने बयान में काफी सुधार किया था"।
- न्यायालय ने महिलाओं की घड़ी की बरामदगी के बारे में तर्क पर भी विचार किया, और निष्कर्ष निकाला कि ऐसी घड़ियाँ बाज़ार में आमतौर पर पाई जाती हैं, इसलिये एकमात्र यह साक्ष्य साकेत को फँसाने के लिये पर्याप्त नहीं था।
- इन टिप्पणियों के आधार पर; दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए, उच्चतम न्यायालय ने मृत्युदंड को खारिज़ कर दिया और साकेत के लिये आजीवन कारावास की ट्रायल कोर्ट की मूल सजा को बहाल कर दिया।
प्रासंगिक प्रावधान:
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 300: हत्या —
- इसके पश्चात अपवादित मामलों को छोड़कर आपराधिक गैर इरादतन मानव वध हत्या है, यदि ऐसा कार्य, जिसके द्वारा मॄत्यु कारित की गई हो, या मॄत्यु कारित करने के आशय से किया गया हो, अथवा
- दूसरा—यदि कोई कार्य ऐसी शारीरिक क्षति पहुँचाने के आशय से किया गया हो जिससे उस व्यक्ति की, जिसको क्षति पहुँचाई गई है, मॄत्यु होना सम्भाव्य हो, अथवा
- तीसरा —यदि वह कार्य किसी व्यक्ति को शारीरिक क्षति पहुँचाने के आशय से किया गया हो और वह आशयित शारीरिक क्षति, प्रकॄति के मामूली अनुक्रम में मॄत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अथवा
- चौथा — यदि कार्य करने वाला व्यक्ति यह जानता हो कि कार्य इतना आसन्न संकट है कि मॄत्यु कारित होने की पूरी संभावना है या ऐसी शारीरिक क्षति कारित होगी जिससे मॄत्यु होना संभाव्य है और वह मॄत्यु कारित करने या पूर्वकथित रूप की क्षति पहुँचाने का जोखिम उठाने के लिये बिना किसी क्षमायाचना के ऐसा कार्य करे।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 391: डकैती। -
- जब पाँच या अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से डकैती करते हैं या डकैती करने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें डकैती में शामिल कहा जाता है। इसमें वे मामले भी शामिल हैं जहाँ कुछ व्यक्ति आयोग या प्रयास में सहायता कर रहे हैं, और इसमें शामिल लोगों की कुल संख्या पाँच या अधिक है, तो ऐसा करने, प्रयास करने या सहायता करने वाला प्रत्येक व्यक्ति "डकैती" करता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 120A: आपराधिक षड्यंत्र की परिभाषा।—
- जब दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिये सहमत होते हैं या करवाते हैं
(1) कोई अवैध कार्य, या
(2) कोई ऐसा कार्य जो अवैध साधनों द्वारा अवैध नहीं है, ऐसे समझौते को आपराधिक षड्यंत्र कहा जाता है: बशर्ते कि अपराध करने के समझौते को छोड़कर कोई भी समझौता आपराधिक षड्यंत्र नहीं माना जाएगा, जब तक कि समझौते के अतिरिक्त कोई कार्य ऐसे समझौते के एक या अधिक पक्षकारों द्वारा उसके अनुसरण में नहीं किया जाता है। - प्रावधान यह प्रदान करते हैं कि - यह महत्त्वहीन है कि अवैध कार्य ऐसे समझौते का अंतिम उद्देश्य है, या उस उद्देश्य के लिये केवल प्रासंगिक है।
[मूल निर्णय]
Shivkumar Ramsundar Saket v. State of Maharashtra
शिवकुमार रामसुंदर साकेत बनाम महाराष्ट्र राज्य
निर्णय/आदेश की तिथि – 18.10.2024 पीठ की संख्या – 3 न्यायाधीश पीठ की संरचना – 50वें सीजेआई डॉ. धनंजय वाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा |
मामला संक्षेप में:
- सोसाइटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलंटरी एक्शन नामक एक गैर सरकारी संगठन ने भारत में बाल विवाह के मुद्दे को संबोधित करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका दायर की।
- याचिका की मुख्य चिंता यह थी कि बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 (PCMA) के बावज़ूद, भारत में बाल विवाह की दरें चिंताजनक रूप से उच्च बनी हुई हैं।
- PCMA के तहत बाल विवाह को एक ऐसे विवाह के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें दोनों में से कोई एक बच्चा हो - 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियाँ और 21 वर्ष से कम उम्र के लड़के।
- वर्ष 2019-2021 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार, 18 वर्ष से कम उम्र की 23.3% लड़कियों और 21 वर्ष से कम उम्र के 17.7% लड़कों का विवाह वैधानिक उम्र से पहले हो जाती है।
- वैश्विक रुझान के अनुरूप भारत में बाल विवाह दर में उल्लेखनीय गिरावट आई है, जो वर्ष 2006 में 47% से घटकर वर्ष 2019-2021 में 23.3% हो गई है।
- याचिकाकर्त्ता ने मज़बूत प्रवर्तन तंत्र, जागरूकता कार्यक्रम, बाल विवाह निषेध अधिकारियों की नियुक्ति और बाल वधुओं के लिये व्यापक सहायता प्रणाली की मांग की।
- मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि बाल विवाह अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें आत्मनिर्णय, स्वरुचि, स्वायत्तता, कामुकता, स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार शामिल हैं।
निर्णय:
- न्यायालय ने बच्चों के लिये संवैधानिक गारंटी के संदर्भ में बाल विवाह निषेध अधिनियम (PCMA) में खामियों को स्वीकार किया, लेकिन विशिष्ट संवैधानिक चुनौती के बगैर कोई घोषणा करने से परहेज़ किया।
- न्यायालय ने पर्सनल लॉ और PCMA के बीच संबंध में भ्रम की स्थिति को ध्यान में रखते हुए कहा कि इस पर केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को PCMA को पर्सनल लॉ पर वरीयता दी जानी चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि PCMA विवाह की वैधता पर शांत है और साथ ही यह भी कहा कि बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक 2021, जो इस मुद्दे को संबोधित करता है, संसद के समक्ष लंबित है।
- न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यद्यपि PCMA बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाता है, परंतु यह संबंधों पर ध्यान नहीं देता, जो बच्चों के स्वतंत्र चुनाव, स्वायत्तता, स्वतंत्रता और बचपन के अधिकारों का उल्लंघन भी कर सकता है।
- न्यायालय ने सुझाव दिया कि संसद बाल विवाह को गैरकानूनी घोषित करने पर विचार करे, जिसका उपयोग PCMA के अंतर्गत दंड से बचने के लिये किया जा सकता है, तथा यह भी कहा कि CEDAW जैसे अंतर्राष्ट्रीय कानून नाबालिग विवाह के विरुद्ध हैं।
- निर्णय में इसे गृह, महिला एवं बाल विकास, पंचायती राज, शिक्षा, सूचना एवं प्रसारण, तथा ग्रामीण विकास सहित सभी संबंधित मंत्रालयों के सचिवों को प्रेषित करने का निर्देश दिया गया।
- महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को विशेष रूप से निर्देश दिया गया कि वह चार सप्ताह के भीतर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों/प्रशासकों, नालसा और NCPCR को निर्णय प्रसारित करें।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि संबंधित बच्चों को जे.जे. अधिनियम के तहत संरक्षण दिया जा सकता है, लेकिन बाल विवाह की प्रथा को समाप्त करने के लिये लक्षित उपायों की आवश्यकता है।
प्रासंगिक प्रावधान:
भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण
- किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 32: इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिये उपाय
(1) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिये समुचित कार्यवाही द्वारा उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करने के अधिकारों को सुनिश्चित किया गया है।
(2) उच्चतम न्यायालय को इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी के प्रवर्तन के लिये निर्देश या आदेश या रिट जारी करने का अधिकार होगा, जिसके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण रिट भी शामिल हैं, जो भी उपयुक्त हो।
(3) खंड (1) और (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद विधि द्वारा किसी अन्य न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर खंड (2) के अधीन उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रयोक्तव्य सभी या किन्हीं शक्तियों का प्रयोग करने के लिये सशक्त कर सकेगी।
(4) इस अनुच्छेद द्वारा सुनिश्चित अधिकार को इस संविधान द्वारा अन्यथा प्रावधान किये जाने के सिवाय निलंबित नहीं किया जाएगा।