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सांविधानिक विधि

न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियाँ

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 03-Jan-2024

परिचय:

न्यायिक शासन के दौरान उचित व अनुचित को ठीक करने के लिये अंतर्निहित शक्तियों को आवश्यक माना जाता है और उन्हें विशेष रूप से प्रदत्त शक्तियों का पूरक माना जाता है। अंतर्निहित शक्तियों में आवश्यक बुनियाद समाहित हैं, जो न्याय करने के लिये व्यापक हैं।

  • अंतर्निहित शक्तियों से संबंधित कानून नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 148 से धारा 153 A में निहित है, जो विभिन्न परिस्थितियों में शक्तियों के प्रयोग की कल्पना करता है।

CPC की धारा 148:

  • यह धारा अवधि विस्तारण से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जहाँ इस संहिता द्वारा निर्धारित या अनुमत किसी कार्य को करने के लिये न्यायालय द्वारा कोई अवधि तय की जाती है या दी जाती है, तो न्यायालय समय-समय पर अपने विवेक से उक्त अवधि को बढ़ा सकता है, जो अंततः तीस दिनों से अधिक नहीं होगी। भले ही मूल रूप से निर्धारित या दी गई अवधि समाप्त हो गई हो।
  • न्यायालय की यह शक्ति विवेकाधीन प्रकृति की है और इसका अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता।

CPC की धारा 149:

  • यह धारा न्यायालय-फीस की कमी को पूरा करने की शक्ति से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जहाँ न्यायालय-फीस से संबंधित वर्तमान में लागू कानून द्वारा किसी दस्तावेज़ के लिये निर्धारित किसी भी शुल्क का पूरा या उसका कुछ भाग भुगतान नहीं किया गया हो, न्यायालय अपने विवेक से किसी भी स्तर पर व्यक्ति को अनुमति दे सकता है। जिसके द्वारा ऐसी फीस देय है, उसे ऐसी न्यायालय-फीस का जैसा भी मामला हो पूरा या आंशिक भुगतान करना होगा और ऐसे भुगतान पर दस्तावेज़, जिसके संबंध में शुल्क देय है, का वही बल और प्रभाव होगा जैसे कि ऐसा शुल्क पहली बार में भुगतान किया गया हो।

CPC की धारा 150:

  • यह धारा कारोबार के अंतरण से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि उसके सिवाय जैसा अन्यथा उपबंधित है, जहाँ किसी न्यायालय का कारबार किसी अन्य न्यायालय को अंतरित कर दिया गया है, वहाँ जिस न्यायालय को कारबार इस प्रकार अंतरित किया गया है, उसकी वे ही शक्तियाँ होंगी और वह उन्हीं कर्त्तव्यों का पालन करेगा, जो उस न्यायालय को और उस पर इस संहिता द्वारा या इसके अधीन क्रमशः प्रदत्त व अधिरोपित थे, जिससे कारबार इस प्रकार अंतरित किया गया था।

CPC की धारा 151:

  • यह धारा न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की व्यावृत्ति से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि इस संहिता की किसी भी बात के बारे यह नहीं समझा जाएगा कि वह ऐसे आदेशों को देने की न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को पिरिसीमत या अन्यथा प्रभावित करती है, जो न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की आदेशिका के दरुपयोग का निवारण करने के लिये आवश्यक है।
  • यह धारा पक्षकारों को कोई विशेष अधिकार प्रदान नहीं करती है बल्कि इसका उद्देश्य प्रक्रिया के नियमों से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को दूर करना है।

CPC की धारा 152:

  • यह धारा निर्णयों, डिक्री या आदेशों के संशोधन से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि निर्णयों, डिक्री या आदेशों में की लेखन या गणित संबंधी भूलें या किसी आकिस्मक भूल या लोप से हुई गलितयाँ न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर किसी भी समय शुद्ध की जा सकेगी।
  • यह धारा दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित है:
    • न्यायालय के किसी कार्य से किसी भी पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये।
    • यह देखना न्यायालयों का कर्त्तव्य है, कि उनके रिकॉर्ड सही हैं और वे मामलों की सही स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

CPC की धारा 153:

  • यह धारा संशोधन करने की साधारण शक्ति से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि न्यायालय किसी भी समय और खर्च-संबंधी ऐसी शर्तों पर या अन्यथा जो वह ठीक समझे, वाद की किसी भी कायर्वाही में किसी भी त्रुटि या गलती को संशोधित कर सकेगा और ऐसी कायर्वाही द्वारा उठाए गए या उस पर अवलंबित वास्तिवक प्रश्न या विवाद्यक के अवधारण के प्रयोजन के लिये सभी आवश्यक सशोधन किये जाएँगे।

CPC की धारा 153A:

  • यह धारा किसी डिक्री या आदेश में संशोधन करने की शक्ति से संबंधित है, जहाँ अपील संक्षेपतः खारिज़ की जाती है।
  • इसमें कहा गया है कि जहाँ अपील न्यायालय आदेश 41 के नियम 11 के अधीन कोई अपील खारिज़ करता है, वहाँ धारा 152 के अधीन उस न्यायालय की उस डिक्री या आदेश को जिसके विरुद्ध अपील की गई है, संशोधित करने की शक्ति का प्रयोग उस न्यायालय द्वारा जिसने प्रथम बार डिक्री या आदेश पारित किया गया है, इस बात के होते हुए भी किया जा सकेगा कि अपील के खारिज़ किये जाने का प्रभाव प्रथम बार के न्यायालय द्वारा पारित, यथास्थिति, डिक्री या आदेश की पुष्टि में हुआ है।

अंतर्निहित शक्तियों की सीमाएँ:

  • अंतर्निहित शक्तियों के प्रयोग की कुछ सीमाएँ हैं, जैसे -
    • इनका प्रयोग केवल संहिता में स्पष्ट प्रावधानों के अभाव में ही किया जा सकता है।
    • संहिता में स्पष्ट रूप से जो प्रावधान किया गया है, उसके विपरीत उनका प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
    • अपवादित मामलों में इनका प्रयोग किया जा सकता है।
    • शक्तियों का प्रयोग करते समय न्यायालय को विधायिका द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होता है।
    • न्यायालय ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते, जो उन्हें विधि द्वारा प्रदत्त नहीं है।

निर्णयज विधि:

  • राम चंद बनाम कन्हैयालाल (वर्ष 1966) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि CPC की धारा 151 के तहत अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये भी किया जा सकता है।
  • महेंद्र मणिलाल नानावटी बनाम सुशीला (वर्ष 1965) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की प्रकृति पर अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, सिविल प्रकृति के विचारणों हेतु कार्यवाही की प्रक्रियात्मक स्थितियों से निपटने के लिये कानून का एक विशेष भाग है। संहिता के अंतर्गत उक्त कार्यवाही के दौरान विभिन्न परिस्थितियों में न्यायालयों को कुछ अंतर्निहित शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं और न्यायालय व्यक्त प्रावधानों के अभाव में उनका प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन जहाँ संहिता में स्पष्ट प्रावधान हैं, वहाँ न्यायालयों को ऐसी शक्तियों का प्रयोग करने से रोक दिया गया है।