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सिविल कानून

पक्षकारों का असंयोजन एवं कुसंयोजन

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 08-Jul-2024

परिचय:

जब वाद में किसी पक्ष को अनजाने में संयोजित किया जाता है, तो यह कुसंयोजन का मामला होता है। इसके विपरीत, जहाँ कोई व्यक्ति जो वाद का आवश्यक या उचित पक्ष है, उसे वाद में पक्ष के रूप में शामिल नहीं किया गया है, तो यह असंयोजन का मामला होता है। पक्षकारों के असंयोजन और कुसंयोजन की अवधारणाएँ वाद में पक्षकारों के अनुचित संयोजन या बहिष्करण से उत्पन्न होने वाले मुद्दों को संबोधित करती हैं।

  • ये सिद्धांत सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (CPC) के आदेश I में उल्लिखित हैं, जो सिविल न्यायिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है।
  • CPC के प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विवादों का व्यापक और प्रभावी समाधान प्राप्त करने के लिये सभी आवश्यक पक्षों को शामिल किया जाए तथा अनावश्यक पक्षों को बाहर रखा जाए।

आवश्यक एवं उचित पक्ष:

  • आवश्यक पक्ष वह है जिसकी उपस्थिति वाद के गठन के लिये अपरिहार्य है, जिसके विरुद्ध अनुतोष मांगा गया है और जिसके बिना कोई प्रभावी आदेश पारित नहीं किया जा सकता।
  • उचित पक्ष वह है जिसकी अनुपस्थिति में प्रभावी आदेश पारित किया जा सकता है, परंतु कार्यवाही में शामिल प्रश्न पर पूर्ण और अंतिम निर्णय के लिये उसकी उपस्थिति आवश्यक है।

पक्षों का कुसंयोजन एवं असंयोजन: आदेश I नियम IX 

  • असंयोजन का तात्पर्य किसी आवश्यक पक्ष को छोड़ देने से है, जिसे वाद में शामिल होना चाहिये था, परंतु वह शामिल नहीं हुआ।
  • CPC में यह प्रावधान है कि कोई भी वाद पक्षकारों के एक साथ न आने के कारण विफल नहीं होगा, बशर्ते कि न्यायालय ऐसे पक्षों के बिना भी विवादित मामले को प्रभावी ढंग से निपटा सके।
  • हालाँकि न्यायालय को कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी पक्ष को सम्मिलित करने का आदेश देने का विवेकाधिकार है, यदि वह पूर्ण और अंतिम निर्णय के लिये आवश्यक समझे।
  • यह नियम, असंयोजनकर्त्ता के रूप में व्याख्या किये गए आवश्यक पक्षों पर लागू नहीं होता है।

पक्षकारों को हटाना, संयोजित या प्रतिस्थापित करना: आदेश I नियम X

  • यह नियम न्यायालय को अनुचित तरीके से जुड़े किसी भी पक्ष का नाम हटाने या किसी ऐसे व्यक्ति का नाम संयोजित करने की अनुमति देता है जिसे संयोजित किया जाना चाहिये था। यह कार्यवाही के किसी भी चरण में किया जा सकता है।
  • इसका प्राथमिक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पक्षों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्नों का निर्धारण प्रक्रियागत मुद्दों से बाधित हुए बिना किया जाए।

असंयोजन और कुसंयोजन के परिणाम:

  • आवश्यक पक्षों का असंयोजन:
    • यदि आवश्यक पक्ष शामिल नहीं किया जाता है, तो न्यायालय आवश्यक पक्ष को शामिल किये जाने तक वाद को आगे बढ़ाने से प्रतिषेध कर सकता है।
    • इससे यह सुनिश्चित होता है कि पारित आदेश प्रभावी है तथा विवाद में शामिल सभी पक्षों पर बाध्यकारी है।
  • पक्षों का कुसंयोजन:
    • अनावश्यक पक्षों को शामिल करने से जटिलताएँ तथा विलंब हो सकता है।
    • कार्यवाही को सुचारु बनाने तथा मूल मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये न्यायालय के पास ऐसे पक्षों को हटाने का अधिकार है।

पक्षों के असंयोजन या कुसंयोजन के संबंध में आपत्तियाँ: आदेश I नियम XIII

  • असंयोजन या कुसंयोजन के आधार पर कोई भी आपत्ति यथाशीघ्र उठाई जानी चाहिये। यदि तुरंत नहीं उठाई जाती है, तो आपत्ति को अस्वीकार माना जा सकता है।
  • यदि प्रतिवादी द्वारा आवश्यक पक्षकार को शामिल न करने के संबंध में आपत्ति, प्रारंभिक चरण में उठाई गई है और वादी आवश्यक पक्षकार को शामिल करने में विफल रहता है या संयोजित करने से प्रतिषेध करता है, तो उसे बाद में संशोधन के लिये आवेदन कर त्रुटि को सुधारने के लिये अपील में अनुमति नहीं दी जा सकती है।

निर्णयज विधियाँ:

  • रज़िया बेगम बनाम साहेबज़ादी अनवर बेगम (1958):
    • उच्चतम न्यायालय ने संहिता के आदेश I नियम XI के अंतर्गत पक्षकारों को संयोजित करने की न्यायालय की शक्ति के संबंध में सिद्धांत निर्धारित किये हैं।
  • मोहन राज बनाम सुरेंद्र कुमार (1969):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि कोई विशेष विधान किसी व्यक्ति को कार्यवाही में आवश्यक पक्ष बनाता है तथा यह प्रावधान करता है कि इसमें शामिल न होने पर याचिका अस्वीकार हो जाएगी, तो न्यायालय ऐसे पक्ष के शामिल न होने के परिणामों से बचने के लिये आदेश I नियम XI की उपचारात्मक शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता।
  • पतासीबाई बनाम रतनलाल (1990):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी सक्षम न्यायालय द्वारा पारित आदेश को प्रतिवादी के गलत विवरण प्रदान करने के आधार पर रद्द कर दिया जाएगा।

निष्कर्ष:

सिविल मुकदमेबाज़ी में पक्षों का असंयोजन एवं कुसंयोजन महत्त्वपूर्ण प्रक्रियात्मक मुद्दे हैं। CPC के प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विवादों का व्यापक और प्रभावी समाधान प्राप्त करने के लिये सभी आवश्यक पक्षों को शामिल किया जाए तथा अनावश्यक पक्षों को बाहर रखा जाए। न्यायालयों को ऐसे मुद्दों को सुधारने के लिये आवश्यक संशोधन और आदेश देने का अधिकार है, जिससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को यथावत् रखा जा सके तथा प्रक्रियात्मक प्राविधिकताओं को मूल न्याय में बाधा डालने से रोका जा सके।