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सिविल कानून
आर्थिक क्षेत्राधिकार
« »18-Apr-2024
परिचय:
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 15 न्यायालय के आर्थिक क्षेत्राधिकार को संदर्भित करती है। यह धारा मुकदमा दायर करने वाले को निम्नतम श्रेणी की अदालत में मुकदमा दायर करने का निर्देश देती है।
CPC की धारा 15:
- इस धारा में कहा गया है कि प्रत्येक वाद का विचारण सक्षम निम्नतम श्रेणी के न्यायालय में दायर किया जाएगा।
- इस धारा में निर्धारित प्रक्रिया का नियम है तथा यह न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को प्रभावित नहीं करता है।
- उच्च श्रेणी के न्यायालय द्वारा पारित डिक्री को क्षेत्राधिकार के बिना नहीं कहा जा सकता है। यह महज़ एक अनियमितता है तथा पारित डिक्री अमान्य नहीं है।
CPC की धारा 15 का उद्देश्य:
- इस धारा का मुख्य उद्देश्य, उच्च श्रेणी की न्यायालयों पर मुकदमों का भार न बढ़ाना है|
- यह उन पक्षों एवं साक्षियों को सुविधा प्रदान करता है, जिनसे ऐसे वादों में परीक्षण किया जा सकता है।
वादपत्र में मूल्यांकन:
- वादपत्र में वादी का मूल्यांकन, न्यायालय के क्षेत्राधिकार को निर्धारित करता है, न कि वह राशि, जिसके लिये न्यायालय द्वारा डिक्री पारित की जा सकती है।
- सामान्यतः न्यायालय वाद में वादी के मूल्यांकन को स्वीकार करेगी तथा गुण-दोष के आधार पर वाद का निर्णय करने के लिये प्रक्रिया द्वारा आगे बढ़ेगी।
- बाद में मूल्य परिवर्तनों से क्षेत्राधिकार प्रभावित नहीं होता है।
- इस प्रकार, यदि न्यायालय का आर्थिक क्षेत्राधिकार रु. 10,000 तथा वादी मूल्य निर्धारण के लिये वाद दायर करता है तथा अंत में न्यायालय मूल्यांकन करने पर पाती है कि रु. 15,000 देय हैं, तो ऐसी दशा में न्यायालय इस राशि की डिक्री पारित करने के अपने अधिकार क्षेत्र से वंचित नहीं है।
- यदि वादी ने फोरम चुनने के उद्देश्य से अपने सज्ञान में दावे को कम या अधिक मूल्यांकन किया है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि वादी का सही मूल्यांकन किया गया है तथा इसे वापस करना न्यायालय का कर्त्तव्य है।
आर्थिक क्षेत्राधिकार के संबंध में विसंगति:
- यदि प्रतिवादी, वादी द्वारा किये गए मूल्यांकन पर विवाद करता है, तो यह विचारण न्यायालय का कर्त्तव्य है कि, वह इसकी जाँच करे तथा उचित आदेश पारित करे।
- लेकिन किसी भी अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा अधिक मूल्यांकन या कम मूल्यांकन पर कोई आपत्ति तब तक स्वीकार नहीं की जाएगी जब तक कि निम्नलिखित शर्तें पूरी न हो जाए:
- आपत्ति, प्रथम दृष्टया न्यायालय में ली गई।
- इसे यथाशीघ्र संभव अवसर पर तथा उन मामलों में जहाँ, मुद्दों का समापन हो चुका है, मुद्दों के निपटारे के समय या उससे पहले लिया गया।
- इसके परिणामस्वरूप न्याय की विफलता हुई है।