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सिविल कानून
रेस ज्युडिकाटा
« »28-Jun-2024
परिचय:
रेस का अर्थ है "विषय वस्तु" और ज्युडिकाटा का अर्थ है "निर्णयित" और साथ में इसका अर्थ है "निर्णयित विषय वस्तु"।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 11 में रेस ज्युडिकाटा के सिद्धांत या निर्णय की निर्णायकता के नियम को शामिल किया गया है।
- इसमें यह प्रावधान किया गया है कि एक बार जब कोई मामला सक्षम न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से तय कर दिया जाता है, तो किसी भी पक्ष को आगामी वादों में उसी मामले को पुनः चलाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
- यह कार्यवाहियों की बहुलता को रोकने तथा पक्षों को एक ही मामले में दो बार परेशान होने से बचाने का काम करता है।
उद्देश्य:
- रेस ज्युडिकाटा के सिद्धांत का उद्देश्य तीन न्यायिक सिद्धांतों द्वारा ज्ञात किया जा सकता है:
- निमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना एट एडेम कॉसा (Nemo Debet Bis Vexari Pro Una Et Eadem Causa): किसी को भी एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाएगा।
- इंटरेस्ट रिपब्लिका यूट सिट फिनिस लिटियम (Interest reipublicae ut sit finis litium): यह राज्य के हित में है कि विधिक वाद-प्रतिवाद चलाने की एक सीमा होनी चाहिये।
- रेस ज्यूडिकाटा प्रो वेरिटेट असीसीपिटुर (Res judicata pro veritate accipitur): एक न्यायिक निर्णय को सही माना जाना चाहिये।
आवश्यक तत्त्व:
- विवाद्यक मामला समान होना चाहिये: रेस ज्युडिकाटा के सिद्धांत को लागू करने के लिये, बाद में संस्थित किये गए वाद का विवाद्यक मामला पूर्व संस्थित वाद से प्रत्यक्षतः और मूलतः समान होना चाहिये।
- समान पक्षकार: पूर्ववर्ती वाद समान पक्षों के बीच, या उन पक्षों के बीच होना चाहिये जिनके अंतर्गत वे या उनमें से कोई एक दावा करता है।
- समान शीर्षक: पक्षों को पहले और बाद के दोनों वादों में समान शीर्षक के अधीन वाद चलाना होगा।
- सक्षम क्षेत्राधिकार: जिस न्यायालय ने पूर्ववर्ती वाद का निर्णय किया था, उसके पास आगामी वाद या उस वाद की सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार होना चाहिये जिसमें यह मुद्दा उठाया गया हो।
- सुनवाई और अंतिम रूप से निर्णय: विवादित मामले की सुनवाई पूर्व न्यायालय द्वारा की गई होनी चाहिये एवं उस पर अंतिम रूप से निर्णय दिया गया होना चाहिये।
- विस्तार और प्रयोज्यता:
- रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत सिविल वादों, निष्पादन कार्यवाही, कराधान मामलों, औद्योगिक न्यायनिर्णयन, प्रशासनिक आदेशों, अंतरिम आदेशों आदि पर लागू होता है।
- CPC की धारा 11 में संहिताबद्ध रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत संपूर्ण नहीं है।
पूर्व वाद: स्पष्टीकरण I
- CPC की धारा 11 के स्पष्टीकरण I में यह प्रावधान है कि शब्द "पूर्व वाद" का अर्थ ऐसा वाद है जिसका निर्णय प्रश्नगत वाद से पहले हो चुका है, चाहे प्रश्नगत वाद, इस निर्णीत वाद से पहले संस्थित किया गया हो।
- वाद संस्थित करने की तिथि महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि वाद के निर्णीत होने की तिथि महत्त्वपूर्ण है।
- यदि कोई वाद बाद में दायर किया गया हो और यदि उसके समान वाद पर पहले निर्णय हो चुका हो तो भी वह स्पष्टीकरण I के अर्थ में पूर्ववर्ती वाद होगा।
रचनात्मक रेस ज्युडिकाटा: स्पष्टीकरण IV
- CPC की धारा 11 के स्पष्टीकरण IV में रचनात्मक रेस ज्युडिकाटा का नियम शामिल किया गया है।
- इसका उद्देश्य न केवल उन मामलों पर पुनः विचार-विमर्श को रोकना है, जो पहले के वादों में तय हो चुके थे, बल्कि उन मामलों पर भी विचार-विमर्श रोकना है, जिन्हें उठाया जा सकता था और जिन पर निर्णय लिया जा सकता था, परंतु ऐसा नहीं किया गया।
- यह उन सार्वजनिक नीतियों का विरोध करता है जिन पर रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत आधारित है।
प्रतिनिधि वाद: स्पष्टीकरण VI
- CPC की धारा 11 के स्पष्टीकरण VI में कहा गया है कि जहाँ किसी सामान्य व्यक्तिगत या सार्वजनिक अधिकार के संबंध में सद्भावनापूर्ण वाद संस्थित किया जाता है, ऐसे वाद का निर्णय उस अधिकार में हित रखने वाले सभी व्यक्तियों पर रेस ज्युडिकाटा के रूप में कार्य करेगा।
- स्पष्टीकरण VI के अंतर्गत किसी निर्णय को रेस ज्युडिकाटा के रूप में संचालित करने से पहले निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाना चाहिये:
- एक या एक से अधिक व्यक्ति द्वारा स्वयं के लिये तथा अन्य व्यक्तियों के लिये, जिनका नाम वाद में स्पष्ट रूप से नहीं दिया गया है, समान रूप से अधिकार का दावा किया जाना चाहिये।
- वाद सद्भावपूर्वक तथा सभी संबंधित पक्षों की ओर से चलाया जाना चाहिये।
- यदि वाद CPC के आदेश I नियम 8 के अंतर्गत है, तो उसमें निर्धारित सभी शर्तों का कड़ाई से अनुपालन किया जाना चाहिये।
रेस ज्युडिकाटा के अपवाद:
- बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट: रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट पर लागू नहीं होता है।
- धोखाधड़ी या मिली-भगत: यदि मूल निर्णय धोखाधड़ी या मिली-भगत के माध्यम से प्राप्त किया गया था, तो यह बाद के वाद में बाध्यकारी नहीं हो सकता है।
- साक्ष्य में पर्याप्त परिवर्तन: यदि कोई ऐसा नया साक्ष्य सामने आता है, जिसे पूर्व वाद के दौरान समुचित तत्परता से नहीं खोजा जा सका था, तो न्यायालय इस मुद्दे पर पुनः वाद चलाने की अनुमति दे सकता है।
- न्यायालय का अक्षम क्षेत्राधिकार: यदि मूल निर्णय देने वाले न्यायालय के पास उचित क्षेत्राधिकार नहीं था, तो निर्णय का बाध्यकारी प्रभाव नहीं हो सकता है।
निर्णयज विधियाँ:
- दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रेस ज्युडिकाटा का नियम संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिका पर भी लागू होता है।
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नवाब हुसैन (1977):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि स्पष्टीकरण IV में अंतर्निहित सिद्धांत यह है कि जहाँ पक्षकारों के पास वाद में निहित कोई मामला, प्रतिवाद या अभियोजन का आधार था, तो उसे उसी प्रकार माना जाना चाहिये जैसा कि समान मामले पर विवाद हो चुका हो और उस पर निर्णय हो चुका हो।
- गुलाम अब्बास बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1981):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि CPC की धारा 11 के अंतर्गत संहिताबद्ध रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत संपूर्ण नहीं है।
निष्कर्ष:
रेस ज्युडिकाटा का सिद्धांत आधुनिक विधिक प्रणालियों की आधारशिला है, जो न्यायिक निर्णयों की निश्चयात्मकता और स्थिरता सुनिश्चित करता है। वादों की बहुलता को रोककर, यह न्यायिक दक्षता को बढ़ावा देता है, पक्षों को उत्पीड़न से बचाता है और विधिक प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखता है। इसके अनुप्रयोग और अपवादों को समझना विधिक विशेषज्ञों तथा विद्वानों दोनों के लिये आवश्यक है, क्योंकि यह न्याय की तलाश में अंतिमता के महत्त्व को रेखांकित करता है।