विदेशियों द्वारा तथा विदेशी शासकों, राजदूतों और दूतों के विरुद्ध वाद
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सिविल कानून

विदेशियों द्वारा तथा विदेशी शासकों, राजदूतों और दूतों के विरुद्ध वाद

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 26-Jul-2024

परिचय:

  • न्यायिक तंत्र के प्रभावी संचालन के लिये मामलों को दो प्रकार की श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है:
    • सामान्य वाद
    • विशेष वाद
  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 83 से 87A में विदेशियों द्वारा तथा विदेशी शासकों, राजदूतों एवं दूतों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद का प्रावधान है।

जब विदेशी वाद संस्थित कर सकते हैं

  • CPC की धारा 83 में यह प्रावधान है कि विदेशी कब वाद संस्थित कर सकते हैं।
  • कौन-से विदेशी पर वाद किया जा सकता है?
    • केंद्र सरकार की अनुमति से भारत में निवास करने वाले विदेशी शत्रु।
    • विदेशी मित्र।
    • विदेशी किस न्यायालय में वाद संस्थित कर सकते हैं?
    • उपर्युक्त विदेशी अन्यथा सक्षम न्यायालय में इस प्रकार वाद दायर कर सकते हैं, मानो वे भारत के नागरिक हों।
    • विदेशी किस पर वाद नहीं कर सकते?
    • केंद्र सरकार की अनुमति के बिना भारत में निवास करने वाले विदेशी शत्रु।
    • विदेशी देश में रहने वाले विदेशी।
    • विदेशी शत्रु किसे कहा जाता है?
    • विदेश में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति;
    • जिसकी सरकार भारत के साथ युद्धरत है और केंद्र सरकार द्वारा दिये गए लाइसेंस के बिना उस देश में व्यापार कर रही है;
    • इस धारा के प्रयोजन के लिये, किसी विदेशी देश में रहने वाला विदेशी शत्रु समझा जाएगा।

विदेशी राज्य कब वाद संस्थित कर सकते हैं

  • धारा 84 में यह प्रावधान है कि विदेशी राज्य कब वाद संस्थित कर सकते हैं।
  • इसमें प्रावधान है कि कोई विदेशी राज्य किसी भी सक्षम न्यायालय में वाद दायर कर सकता है।
  • परंतुक में यह प्रावधान है कि वाद का उद्देश्य, ऐसे राज्य के शासक या ऐसे राज्य के किसी अधिकारी में उसकी सार्वजनिक हैसियत में निहित निजी अधिकार को लागू कराना होना चाहिये।

विदेशी शासकों के विरुद्ध वाद

  • “विदेशी राज्य” और “शासकों” की परिभाषाएँ
    • धारा 87A “विदेशी राज्य” और “शासक” की परिभाषा देती है।
    • धारा 87ए (1)(a) के अनुसार "विदेशी राज्य" की परिभाषा भारत के बाहर किसी भी राज्य के रूप में दी गई है जिसे केंद्र सरकार द्वारा मान्यता दी गई है;
    • धारा 87 ए (1) (b) के अनुसार किसी विदेशी राज्य के संबंध में "शासक" वह व्यक्ति होगा जिसे केंद्र सरकार द्वारा उस समय उस राज्य का प्रमुख माना जाता है।
    • धारा 87A (2) के अनुसार प्रत्येक न्यायालय को इस तथ्य का न्यायिक संज्ञान लेना चाहिये:
      • किसी राज्य को केंद्रीय सरकार द्वारा मान्यता दी गई है या नहीं;
      • कि किसी व्यक्ति को केंद्रीय सरकार द्वारा राज्य का प्रमुख होने के रूप में मान्यता दी गई है या नहीं;
  • विदेशी शासकों का वाद के पक्षकार के रूप में अभिधान
    • धारा 87 में प्रावधान है कि किसी विदेशी राज्य का शासक अपने राज्य के नाम से वाद ला सकता है और उस पर वाद लाया जाएगा।
    • परंतु धारा 86 में निर्दिष्ट सहमति देते समय केंद्रीय सरकार यह निर्देश दे सकेगी कि शासक पर किसी अभिकर्त्ता के नाम से या किसी अन्य नाम से वाद लाया जा सकेगा।
  • विदेशी शासकों, राजदूतों और दूतों के विरुद्ध वाद
    • धारा 86 (1) में यह प्रावधान है कि किसी विदेशी राज्य पर किसी ऐसे न्यायालय में वाद नहीं चलाया जा सकता जो अन्यथा वाद चलाने के लिये सक्षम हो, सिवाय इसके कि केंद्रीय सरकार की सहमति हो जिसे उस सरकार के सचिव द्वारा लिखित रूप में प्रामाणित किया गया हो।
    • परंतु यह कि कोई व्यक्ति, अचल संपत्ति के किरायेदार के रूप में, पूर्वोक्त सहमति के बिना, किसी विदेशी राज्य के विरुद्ध, जिसके पास वह संपत्ति रखता है या रखने का दावा करता है, वाद ला सकता है।
    • धारा 86 (2) में यह प्रावधान है कि ऐसी सहमति किसी निर्दिष्ट वाद के संबंध में या कई निर्दिष्ट वादों के संबंध में या किसी निर्दिष्ट वर्ग या वर्गों के सभी वादों के संबंध में दी जा सकती है और किसी वाद या वादों के वर्ग के मामले में, वह न्यायालय निर्दिष्ट कर सकता है जिसमें विदेशी राज्य पर वाद चलाया जा सकता है, परंतु यह सहमति तब तक नहीं दी जाएगी, जब तक कि केंद्र सरकार को यह प्रतीत न हो कि विदेशी राज्य द्वारा-
      • उस व्यक्ति के विरुद्ध न्यायालय में वाद प्रविष्ट कर दिया है जो उस पर वाद लाना चाहता है, या
      • स्वयं या किसी अन्य द्वारा, न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर व्यापार करता है, या
      • उन सीमाओं के भीतर स्थित अचल संपत्ति पर कब्ज़ा है और उस पर ऐसी संपत्ति के संदर्भ में या उस पर भारित धन के लिये वाद लाया जाना है, या
      • इस धारा द्वारा [इसे] दिये गए विशेषाधिकार को स्पष्ट रूप से या निहित रूप से छोड़ दिया है
    • धारा 86 (3) में प्रावधान है कि केंद्रीय सरकार की सहमति के बिना, जिसे उस सरकार के सचिव द्वारा लिखित रूप में प्रामाणित किया गया हो, किसी विदेशी राज्य की संपत्ति के विरुद्ध कोई डिक्री निष्पादित नहीं की जाएगी।
    • धारा 86 (4) में प्रावधान है कि इस धारा के पूर्ववर्ती प्रावधान निम्नलिखित व्यक्तियों के संबंध में उसी प्रकार लागू होंगे जैसे वे किसी विदेशी राज्य के संबंध में लागू होते हैं:
      • किसी विदेशी राज्य का कोई भी शासक;
      • किसी विदेशी राज्य का राजदूत या दूत;
      • किसी भी राष्ट्रमंडल देश का उच्चायुक्त;
      • विदेशी राज्य के कर्मचारी दल का कोई ऐसा सदस्य या किसी विदेशी राज्य के राजदूत या दूत या किसी राष्ट्रमंडल देश के उच्चायुक्त का कर्मचारी दल या अनुचर दल जिसे केंद्रीय सरकार, सामान्य या विशेष आदेश द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे।
    • धारा 86 (5) में प्रावधान है कि निम्नलिखित व्यक्तियों को इस संहिता के अंतर्गत गिरफ्तार नहीं किया जाएगा:
      • किसी विदेशी राज्य का कोई भी शासक;
      • किसी विदेशी राज्य का राजदूत या दूत;
      • किसी भी राष्ट्रमंडल देश का उच्चायुक्त;
      • विदेशी राज्य के कर्मचारी दल का कोई ऐसा सदस्य या किसी विदेशी राज्य के राजदूत या दूत या किसी राष्ट्रमंडल देश के उच्चायुक्त का कर्मचारी दल या अनुचर दल जिसे केंद्रीय सरकार, सामान्य या विशेष आदेश द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे।
    • धारा 86 (6) में यह प्रावधान है कि जहां उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी सहमति के अनुदान के लिये केंद्र सरकार से अनुरोध किया जाता है, वहाँ केंद्र सरकार अनुरोध को पूर्णतः या आंशिक रूप से स्वीकार करने से प्रतिषेध करने से पहले अनुरोध करने वाले व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर देगी।
  • विदेशी शासकों की ओर से वाद संस्थित करने या बचाव करने के लिये सरकार द्वारा विशेष रूप से नियुक्त व्यक्ति
    • धारा 85 (1) में यह प्रावधान है कि केंद्रीय सरकार किसी विदेशी राज्य के शासक के अनुरोध पर या केंद्रीय सरकार की राय में ऐसे शासक की ओर से कार्य करने के लिये सक्षम किसी व्यक्ति के अनुरोध पर, आदेश द्वारा, ऐसे शासक की ओर से किसी मामले पर वाद चलाने या बचाव करने के लिये किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है और इस प्रकार नियुक्त कोई भी व्यक्ति मान्यता प्राप्त अभिकर्त्ता समझा जाएगा जिसके द्वारा ऐसे शासक की ओर से इस संहिता के अधीन उपस्थिति, कार्य और आवेदन किये जा सकेंगे।
    • धारा 85 (2) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अधीन नियुक्ति किसी विनिर्दिष्ट वाद या कई विनिर्दिष्ट वादों के प्रयोजन के लिये या ऐसे सभी वादों के प्रयोजन के लिये की जा सकेगी, जो समय-समय पर ऐसे शासक की ओर से अभियोजन या बचाव के लिये आवश्यक हों।
    • धारा 85 (3) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अधीन नियुक्त व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को किसी ऐसे वाद या वादों में उपस्थित होने, आवेदन करने तथा कार्य करने के लिये प्राधिकृत या नियुक्त कर सकता है, मानो वह स्वयं उसमें पक्षकार हो।

निर्णयज विधियाँ:

  • मिर्ज़ा अली अकबर काशानी बनाम संयुक्त अरब गणराज्य (1966):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 84 में प्रयुक्त वाक्यांश ‘निजी अधिकार’ के अर्थ पर चर्चा की।
    • किसी व्यक्ति के निजी अधिकार को, जिसे राज्य के निजी अधिकार से अलग माना जाता है, कभी भी किसी भी स्तर पर सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत किसी विदेशी राज्य द्वारा वाद का विषय नहीं बनाया गया था।
    • "निजी अधिकार" शब्दों की व्याख्या करते समय, इस तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि वाद एक विदेशी राज्य द्वारा किया गया है; और इस संदर्भ में, राज्य के निजी अधिकारों को राजनीतिक अधिकारों से अलग किया जाना चाहिये।
    • इस प्रकार, वह निजी अधिकार, जिसका परंतुक में उल्लेख है, अंतिम विश्लेषण पर, राज्य में निहित अधिकार है; यह किसी राज्य के शासक में या ऐसे राज्य के किसी अधिकारी में उसकी सार्वजनिक हैसियत में निहित हो सकता है; किंतु यह ऐसा अधिकार है जो वास्तव में और सारतः राज्य में निहित है।
  • इथियोपियन एयरलाइंस बनाम गणेश नारायण साबू (2011):
    • केंद्र को सहमति देने का अधिकार है; हालाँकि निर्णय मामले के प्रासंगिक तथ्यों पर आधारित होगा और इसे केवल निम्नलिखित परिस्थितियों में ही शामिल किया जाएगा:
      • जब न्यायालय में उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई वाद लाया गया हो जो उस राज्य पर वाद लाना चाहता हो, या
      • न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर व्यक्तिगत रूप से या दूसरों के साथ व्यापार करना, या
      • उन सीमाओं के भीतर स्थित अचल संपत्ति के कब्ज़े में है और ऐसी संपत्ति के संबंध में या उस पर बकाया धन के लिये उस पर वाद चलाया जाना है, या उन सीमाओं के भीतर स्थित अचल संपत्ति के कब्ज़े में है और ऐसी परिसंपत्तियों/संपत्ति के संबंध में या उस पर बकाया धन के लिये उस पर वाद चलाया जाना है, या
      • इस खंड द्वारा प्रदत्त अधिकार का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से परित्याग कर दिया है।
  • हरभजन सिंह ढल्ला बनाम भारत संघ (1987):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अनुमति रोकने के सरकार के अधिकार का बुद्धिमानी से प्रयोग किया जाना चाहिये और यदि कोई मामला धारा 86(2) में निर्धारित आवश्यकताओं को पूरा करता है तो राज्य को सामान्यतः वाद चलाने की सहमति देनी चाहिये।
    • अनुमति देने से प्रतिषेध करने के अधिकार का प्रयोग प्राकृतिक न्याय के आदर्शों के अनुपालन में किया जाना चाहिये तथा अनुमोदन देने से प्रतिषेध करने वाले आदेश में अस्वीकृति के आधारों का उल्लेख होना चाहिये।

निष्कर्ष:

उपर्युक्त प्रावधानों में निर्दिष्ट मामलों के संबंध में विशेष प्रावधान दिये गए हैं। ये धाराएँ उपर्युक्त निर्दिष्ट मामलों से निपटने के लिये प्रक्रिया और संस्थागत तंत्र की व्याख्या करती हैं।