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सिविल कानून

लिखित कथन

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 27-Dec-2023

परिचय:

एक लिखित कथन का तात्पर्य प्राय: वादी द्वारा दायर वाद के उत्तर से होता है। यह प्रतिवादी की दलील है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure- CPC) के आदेश 8 में ‘लिखित कथन’ के संबंध में प्रावधान हैं।

लिखित कथन:

आदेश 8 का नियम 1 लिखित कथन से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि -

  • प्रतिवादी, उस पर समन तामील किये जाने की तिथि से तीस दिन के भीतर, अपनी प्रतिरक्षा का लिखित कथन प्रस्तुत करेगाः
  • परंतु जहाँ प्रतिवादी उक्त तीस दिन की अवधि के भीतर लिखित कथन दाखिल करने में असफल रहता है, वहाँ उसे ऐसे किसी अन्य दिन को जो न्यायालय द्वारा ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किये जाएंगे, विनिर्दिष्ट किया जाए, फाइल करने के लिये अनुज्ञात किया जाएगा, किंतु जो समन की तामील की तिथि से नब्बे दिन के पश्चात् का नहीं होगा।
  • परंतु जहाँ प्रतिवादी तीस दिनों की उक्त अवधि के भीतर लिखित बयान दाखिल करने में विफल रहता है, उसे ऐसे अन्य दिन, जैसा कि न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है, लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के लिये और ऐसी लागतों के भुगतान पर जो न्यायालय उचित समझे, लिखित बयान दायर करने की अनुमति दी जाएगी, लेकिन समन की तामील की तिथि से एक सौ बीस दिनों के पश्चात् और समन की तामील की तिथि से एक सौ बीस दिनों की समाप्ति पर प्रतिवादी लिखित कथन दाखिल करने का अधिकार खो देगा तथा न्यायालय लिखित कथन को रिकॉर्ड पर लेने की अनुमति नहीं देगी।

लिखित कथन में नए तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन करना:

  • CPC के आदेश 8 के नियम 2 के अनुसार, प्रतिवादी को अपने अभिवचन द्वारा वे सब बातें उठानी होंगी जिनसे यह दर्शित होता है कि वाद [पोषणीय नहीं था] या विधि की दृष्टि से वह व्यवहार शून्य है या शून्यकरणीय है और प्रतिरक्षा के सब ऐसे आधार उठाने होंगे जो ऐसे हैं कि यदि वे न उठाए गए तो सम्भाव्य है कि उनके सामने आने से विरोधी पक्षकार चकित हो जाएगा। जिनसे तथ्य के ऐसे विवाद्यक उत्पन्न हो जाएँगे जो वाद-पत्र से उत्पन्न नहीं होते हैं। उदाहरणार्थ कपट, परिसीमा, निर्मुक्ति, संदाय, पालन या अवैधता दर्शित करने वाले तथ्य।

लिखित कथन में विशिष्टतः प्रत्याख्यान:

  • CPC के आदेश 8 के नियम 3 के अनुसार, प्रतिवादी के लिये पर्याप्त नहीं होगा कि वह अपने लिखित कथन में उन आधारों का साधारणत: प्रत्याख्यान कर दे जो वादी द्वारा अभिकथित है, किंतु प्रतिवादी के लिये यह आवश्यक है कि वह क्षति के सिवाय ऐसे तथ्य संबंधी हर एक अभिकथन का विनिर्दिष्टतः विवेचन करे जिसकी सत्यता वह स्वीकार नहीं करता है।

लिखित कथन में वाग्छलपूर्ण प्रत्याख्यान:

  • CPC के आदेश 8 के नियम 4 के अनुसार, जहाँ प्रतिवादी वाद में के किसी तथ्य के अभिकथन का प्रत्याख्यान करता है वहाँ उसे वैसा वाग्छलपूर्ण तौर पर नहीं करना चाहिये वरन सार की बात का उत्तर देना चाहिये। उदाहरणार्थ, यदि यह अभिकथित किया जाता है कि उसने एक निश्चित धन की राशि प्राप्त की तो यह प्रत्याख्यान कि उसने वह विशिष्ट राशि प्राप्त नहीं की कि पर्याप्त नहीं होगा वरन उसे यह चाहिये कि वह प्रत्याख्यान करे कि उसने वह राशि या उसका कोई भाग प्राप्त नहीं किया या फिर यह उपवर्णित करना चाहिये कि उसने कितनी राशि प्राप्त की और यदि अभिकधन विभिन्न परिस्थितियों सहित किया गया तो उन परिस्थितियों सहित उस अभिकथन का प्रत्याख्यान कर देना पर्याप्त नहीं होगा।

मुजरा (Set-Off) की विशिष्टियाँ लिखित कथन में दी जाएँगी:

  • आदेश 8 के नियम 6 के अनुसार, जहाँ तक धन की वसूली के वाद में प्रतिवादी न्यायालय की अधिकारिता की धन-संबंधी सीमाओं से अनधिक धन की कोई अभिनिश्चित राशि जो वह वादी से वैध रूप से वसूल कर सकता है वादी की मांग के विरुद्ध मुजरा करने का दावा करता है और दोनों पक्षकार वही हैसियत रखते हैं जो वादी के वाद में उनकी है वहाँ प्रतिवादी मुजरा के लिये चाही गई ऋण की विशिष्टियाँ देते हुए लिखित कथन वाद की पहली सुनवाई पर उपस्थित कर सकेगा, किंतु उसके पश्चात् तब तक उपस्थित नहीं कर सकेगा जब तक कि न्यायालय द्वारा उसे अनुज्ञा न दे दी गई हो।

प्रतिदावा लिखित कथन में बताया जाना चाहिये:

  • CPC के आदेश 8 के नियम 6B के अनुसार, जहाँ कोई प्रतिवादी, प्रतिदावे के अधिकार का समर्थन करने वाले किसी आधार पर निर्भर करता है वहाँ वह अपने लिखित कथन में यह विनिर्दिष्ट कथन करेगा कि वह ऐसा प्रतिदावे (Counter Claim) के रूप में कर रहा है।

अपेक्षित लिखित कथन को उपस्थित करने में पक्षकार की विफलता:

  • CPC के आदेश 8 के नियम 10 के अनुसार, जहाँ ऐसा कोई पक्षकार जिससे नियम 1 या नियम 9 के अधीन लिखित कथन अपेक्षित है, उसे न्यायालय द्वारा यथास्थिति, अनुज्ञात या नियत समय के भीतर उपस्थित करने में असफल रहता है वहाँ न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय सुनाएगा या वाद के संबंध में ऐसा आदेश करेगा, जो वह ठीक समझे और ऐसा निर्णय सुनाए जाने के पश्चात् डिक्री तैयार की जाएगी।
  • परंतु कोई भी न्यायालय लिखित बयान दाखिल करने के लिये इस आदेश के नियम 1 के तहत प्रदान किये गए समय को बढ़ाने का आदेश नहीं देगा।

निर्णयज विधि:

  • कैलाश बनाम नन्खू (2005) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CPC के आदेश 8 के नियम 1 का प्रावधान निर्देशिका और अनुमेय है तथा अनिवार्य नहीं है।
  • सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2005) में, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि CPC के नियम 10 के तहत, न्यायालय के पास 'मुकदमे के संबंध में ऐसा आदेश देने की व्यापक शक्तियाँ हैं जैसा वह उचित समझे।' लिखित कथन दाखिल करने के लिये समय बढ़ाने का यह आदेश नियमित रूप से नहीं दिया जा सकता है। केवल अत्यंत जटिल मामलों में ही यह समय बढ़ाया जा सकता है।