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सिविल कानून

CPC का आदेश XXIII

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 13-Sep-2024

परिचय:

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XXIII में वाद की वापसी एवं समायोजन के नियम का उल्लेख किया गया हैं।

  • इस आदेश में मूल रूप से ऐसे प्रावधान हैं जो न्यायालयों के अतिरिक्त बोझ को कम करने में सहायता करते हैं तथा पक्षों को अपने विवाद को हल करने के लिये वैकल्पिक दृष्टिकोण अपनाने की अनुमति देते हैं।
  • इस आदेश के अंतर्गत बताए गए नियमों का उपयोग पक्षों के मध्य समझौता करार करके एवं पक्षों को वादों या दावों को छोड़ने की अनुमति देकर मुकदमेबाज़ी से बचने के लिये किया जाता है।
  • आदेश XXIII में सात नियम (नियम 1, 1A, 2, 3, 3A, 3B एवं 4) शामिल हैं।

नियमों का विस्तृत विश्लेषण:

  • नियम 1: वाद वापस लेना या दावे के हिस्से का परित्याग करना:
    • वादी प्रतिवादी के विरुद्ध अपना वाद या वाद के किसी भाग को छोड़ सकता है।
    • अप्राप्तवय के मामले में वाद या उसके किसी भाग को छोड़ने के लिये न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता होती है।
    • न्यायालय की अनुमति के लिये आवेदन के एक भाग के साथ अगले मित्र का शपथ-पत्र संलग्न किया जाना चाहिये।
    • जहाँ न्यायालय संतुष्ट हो-
      • किसी औपचारिक दोष के कारण वाद अवश्य ही असफल हो जाना चाहिये।
      • वाद के विषय-वस्तु या दावे के भाग के लिये वादी को नया वाद संस्थित करने की अनुमति देने के लिये पर्याप्त आधार हैं।
    • वह ऐसी शर्तों पर, जिन्हें वह ठीक समझे, वादी को ऐसे वाद या दावे के ऐसे भाग से हटने की अनुज्ञा दे सकेगा, साथ ही उसे ऐसे वाद की विषय-वस्तु या दावे के ऐसे भाग के संबंध में नया वाद संस्थित करने की स्वतंत्रता भी दे सकेगा।
    • जहाँ वादी-
      • उपनियम (1) के अधीन किसी वाद या दावे के भाग का परित्याग करता है।
      • उपनियम (3) में निर्दिष्ट अनुमति के बिना किसी वाद या दावे के भाग से हटता है, तो वह ऐसे व्यय के लिये उत्तरदायी होगा जैसा न्यायालय अधिनिर्णीत कर सकता है तथा उसे ऐसे विषय-वस्तु या दावे के ऐसे भाग के संबंध में कोई नया वाद संस्थित करने से रोक दिया जाएगा।
    • इस नियम की कोई बात न्यायालय को कई वादियों में से किसी एक को उपनियम (1) के अधीन किसी वाद या दावे के भाग को छोड़ने की, या उपनियम (3) के अधीन किसी वाद या दावे के भाग को दूसरे वादी की सहमति के बिना वापस लेने की अनुमति देने के लिये प्राधिकृत करने वाली नहीं समझी जाएगी।
  • नियम 1A: प्रतिवादियों को वादी के रूप में कब बदलने की अनुमति दी जा सकती है।
    • जहाँ नियम 1 के अधीन वादी द्वारा वाद वापस ले लिया जाता है या परित्याग कर दिया जाता है, तथा प्रतिवादी आदेश 1 के नियम 10 के अधीन वादी के रूप में बदलने के लिये आवेदन करता है, वहाँ न्यायालय ऐसे आवेदन पर विचार करते समय इस प्रश्न पर सम्यक ध्यान देगा कि क्या आवेदक के पास अन्य प्रतिवादियों में से किसी के विरुद्ध निर्णय किये जाने के लिये कोई सारवान प्रश्न है।
  • नियम 2: प्रथम वाद से परिसीमा विधि का प्रभावित न होना
    • पिछले पूर्ववर्ती नियम के अंतर्गत दी गई अनुमति पर शुरू किये गए किसी भी नए वाद में, वादी उसी तरह से परिसीमा विधि से आबद्ध होगा जैसे कि पहला वाद प्रारंभ ही नहीं किया गया हो।
  • नियम 3: वाद का समझौता
    • जहाँ न्यायालय के समाधानप्रद रूप में यह सिद्ध हो जाता है कि वाद का पूर्णतः या भागतः किसी विधिपूर्ण लिखित करार या समझौते द्वारा पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित समाधान हो गया है या जहाँ प्रतिवादी ने वाद की संपूर्ण विषय-वस्तु या उसके किसी भाग के संबंध में वादी को संतुष्ट कर दिया है, वहाँ न्यायालय ऐसे करार, समझौते या संतुष्टि को अभिलिखित करने का आदेश देगा तथा उसके अनुसार जहाँ तक ​​उसका वाद के पक्षकारों से संबंध है, डिक्री पारित करेगा, चाहे करार, समझौते या संतुष्टि की विषय-वस्तु वही हो या न हो जो वाद की विषय-वस्तु है।
    • परंतु जहाँ एक पक्षकार द्वारा यह अभिकथन किया जाता है तथा दूसरे पक्षकार द्वारा इसका खंडन किया जाता है कि समायोजन या तुष्टिकरण पर पहुँच गया है, वहाँ न्यायालय प्रश्न का विनिश्चय करेगा; किंतु प्रश्न का विनिश्चय करने के प्रयोजन के लिये तब तक स्थगन नहीं दिया जाएगा जब तक कि न्यायालय, लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से, ऐसा स्थगन देना ठीक न समझे।
  • नियम 3A: वाद संस्थित होने पर रोक
    • इस प्रावधान को सरलता से पढ़ने पर पता चलता है कि पहले के वाद का निपटान पक्षकारों के बीच हुए करार के मद्देनज़र डिक्री पारित करके किया जाना चाहिये था। ऐसी स्थिति में, बाद में दायर किया गया वाद जिसमें यह चुनौती दी गई हो कि पहले के वाद में दर्ज समझौता वैध नहीं था, मान्य नहीं होगा।
  • नियम 3B: न्यायालय की अनुमति के बिना प्रतिनिधि वाद में कोई करार या समझौता नहीं किया जाएगा
    • प्रतिनिधि वाद में कोई भी करार या समझौता कार्यवाही में अभिलिखित न्यायालय की अनुमति के बिना नहीं किया जाएगा; तथा अभिलिखित न्यायालय की अनुमति के बिना किया गया ऐसा कोई भी करार या समझौता शून्य होगा।
    • ऐसी अनुमति प्रदान करने से पहले, न्यायालय ऐसे व्यक्तियों को ऐसी रीति से सूचना देगा, जैसा वह उचित समझे, जो उसे वाद में हितबद्ध प्रतीत होते हैं।
  • नियम 4: डिक्री के निष्पादन की कार्यवाही प्रभावित नहीं होगी
    • इस आदेश की कोई भी बात किसी डिक्री या आदेश के निष्पादन की कार्यवाही पर लागू नहीं होगी।

निर्णयज विधियाँ:

  • बैद्यनाथ नंदी बनाम श्यामा सुंदर नंदी (1943):
    • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि जब कई वादी में से एक उसी मामले के संबंध में नया वाद प्रविष्ट करने की स्वतंत्रता सुरक्षित रखे बिना वाद से हटना चाहता है, तो सह-वादी की सहमति आवश्यक नहीं है।
  • त्रिलोकी नाथ सिंह बनाम अनिरुद्ध सिंह (2020):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि सिविल न्यायालय में दायर किया गया घोषणा-पत्र CPC के आदेश XXIII नियम 3A के अंतर्गत सुनवाई योग्य नहीं है। समझौता कार्यवाही में अजनबियों पर भी प्रतिबंध लागू होता है।
  • मोती दिनशॉ ईरानी एवं अन्य बनाम फ़िरोज़ अस्पंदियार ईरानी एवं अन्य (2024):
    • यह माना गया कि यदि पहले वाला वाद लंबित था तथा उसमें कोई डिक्री पारित नहीं की गई थी, तो CPC के आदेश XXIII के नियम 3A के प्रावधानों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
  • कपूरी बाई एवं अन्य बनाम नीलेश और अन्य (2023):
    • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा है कि यदि अनेक वादियों में से एक वादी, जिसके पास राहत पाने का स्वतंत्र अधिकार है तथा जो अन्य वादियों द्वारा दावा किये गए अधिकार से पृथक है, वाद में दावा छोड़ना चाहता है, तो न्यायालय अपने विवेकानुसार ऐसी राहत प्रदान कर सकता है।

निष्कर्ष:

CPC के आदेश XXIII का महत्त्वपूर्ण हिस्सा यह है कि यह मुकदमेबाज़ी को समाप्त करता है। यह पक्षकारों के समय एवं धन की बचत करता है। यह न्यायालयों का बोझ भी कम करता है। यह आदेश पक्षकारों को अपने विवाद को सौहार्दपूर्ण तरीके से हल करने के लिये मुकदमेबाज़ी के अतिरिक्त सबसे अच्छा विकल्प देता है। यह न्यायालय की अनुमति से पक्षों के बीच समझौते को प्रोत्साहित करता है।