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सिविल कानून

निष्पादन पर रोक

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 27-Jan-2025

परिचय

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश 21 निष्पादन के रोके जाने की प्रक्रिया निर्धारित करता है।
  • निष्पादन पर रोक की अवधारणा भारत में सिविल मुकदमेबाजी का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है, जो सिविल प्रक्रिया संहिता की नियम 26 से 29 द्वारा प्रावधानित है।
  • रोक के आदेश अस्थायी रूप से डिक्री या आदेश के निष्पादन को निलंबित करता है, जो निर्णय ऋणी को अनुतोष प्रदान करते हुए दोनों पक्षकारों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखता है।
  • यह विधिक उपबंध संभावित अन्याय के विरुद्ध एक सुरक्षा के रूप में कार्य करता है और यह सुनिश्चित करता है कि पक्षकारों को बिना किसी तात्कालिक प्रतिकूल परिणामों का सामना किये, अपने विधिक उपचारों का अनुसरण करने के लिये पर्याप्त अवसर प्राप्त हो।
  • रोक प्रदान करने की शक्ति विवेकाधीन होती है, तथा न्यायालयों को इस शक्ति का प्रयोग न्यायपूर्ण ढंग से करना चाहिये, जिसमें मामले के गुण-दोष, सुविधाओं का संतुलन, और पक्षकारों को होने वाली संभावित कठिनाइयों सहित विभिन्न कारकों पर विचार किया जाना चाहिये।

निष्पादन के रोके जाने से संबंधित प्रावधान  

नियम 26 - न्यायालय निष्पादन को कब रोक सकेगा?

  • रोक के लिये अनिवार्य तत्त्व:
    • निष्पादक न्यायालय डिक्री के निष्पादन को युक्तियुक्त समय के लिये रोक स्थगित कर सकता है।
    • निर्णय ऋणी को "पर्याप्त कारण" प्रस्तुत करना चाहिये।
    • उद्देश्य: निर्णय-ऋणी को निम्नलिखित न्यायालयों से संपर्क करने की अनुमति देना:
      • न्यायालय जिसने डिक्री पारित की है।
      • अपीलीय अधिकारिता के लिये सक्षम न्यायालय।
  • संपत्ति/व्यक्ति अभिग्रहण मामले:
    • न्यायालय अभिगृहीत की गई संपत्ति की पुनः प्राप्ति का आदेश दे सकता है।
    • अभिगृहीत किये गए व्यक्ति को उन्मोचन का आदेश दे सकता है।
    • यह आवेदन के परिणाम के लंबित है।
  • प्रतिभूति आवश्यकताएँ:
    • न्यायालय, निर्णय-ऋणी से प्रतिभूति की अपेक्षा करेगा।
    • उस पर ऐसी शर्तें अधिरोपित करेगा जो वह उचित समझे।
    • यह निम्नलिखित से पहले अनिवार्य है:
      • निष्पादन का रोका जाना
      • प्रत्यास्थापन का आदेश देना
      • उन्मोचन का आदेश देना

नियम 27 - निष्पादन अधिकारों का संरक्षण

  • प्रत्यास्थापन / उन्मोचन आदेश निम्न को नहीं रोकते:
    • निष्पादन में संपत्ति को पुनः अधिगृहित किया जाना।
    • व्यक्ति को पुनः गिरफ्तारकिया जाना।
    • डिक्री धारक के निष्पादन अधिकारों का संरक्षण करना।

नियम 28 - आदेशों की आबद्धकारी प्रकृति

  • निष्पादक न्यायालय पर आदेश आबद्धकारी हैं यदि:
    • न्यायालय जिसने डिक्री पारित की है।
    • अपीलीय न्यायालय।
    • निष्पादक न्यायालय को इन आदेशों का पालन करना चाहिये।

नियम 29 - लंबित वाद के दौरान स्थगन

  • लागू होने की स्थिति:
    • डिक्री धारक के विरुद्ध लंबित वाद
    • डिक्री निष्पादन के समान न्यायालय में।
  • न्यायालय की शक्तियाँ:
    • लंबित वाद के विनिश्चय होने तक रोक सकता है।
    • प्रतिभूति के संबंध में शर्तें अधिरोपित कर सकता है।
  • धन की डिक्री के लिये विशेष उपबंध:
    • यदि बिना प्रतिभूति के रोक दिया जाता है।
    • न्यायालय को लिखित में कारण अभिलिखित करने होंगे।

निष्कर्ष

सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन निष्पादन पर रोक का प्रावधान विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकते हुए न्याय सुनिश्चित करने के विधायी आशय को दर्शाते हैं। ये धाराएँ निर्णीत-ऋणी के हितों की रक्षा एवं न्यायिक आदेशों की प्रभावकारिता को बनाए रखने के बीच एक सावधानीपूर्वक संतुलन बनाती हैं। रोक के आदेशों की विवेकाधीन प्रकृति, युक्तियुक्त शर्तों और समय परिसीमाओं की आवश्यकता के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करती है कि वैध विधिक उपचारों का पालन करते समय निष्पादन कार्यवाही में अनावश्यक रूप से विलंब न हो। रोक के आदेशों को संशोधित या रद्द करने की न्यायलयों की शक्ति इन उपबंधों की गतिशील प्रकृति को और अधिक प्रदर्शित करती है, जो बदलती परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलन की अनुमति देती है। इन प्रावधानों को समझना विधिक व्यवसायियों और वादियों दोनों के लिये आवश्यक है, क्योंकि ये भारत की विधिक प्रणाली में सिविल मुकदमेबाजी की रणनीति और डिक्री के प्रवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण भाग हैं।