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सांविधानिक विधि

91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003

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 10-Sep-2024

परिचय:

7 जुलाई 2004 को 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम लागू हुआ।

  • यह संशोधन आवश्यक था क्योंकि नेताओं द्वारा दलबदल संबंधी दिशा-निर्देशों की पूरी तरह अवहेलना की गई थी।
  • संशोधन में मंत्रिपरिषद पर सीमाएँ लगाई गई हैं तथा चूककर्त्ताओं को सार्वजनिक पद धारण करने से रोका गया है।

91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • चुनाव सुधारों पर दिनेश गोस्वामी समिति (1990):
    • समिति द्वारा अयोग्यता प्रावधान प्रस्तावित किये गए थे।
    • निर्धारण प्राधिकारी में राष्ट्रपति/राज्यपाल शामिल होते हैं।
  • हलीम समिति (1998):
    • 'स्वेच्छा से राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ना' और 'राजनीतिक पार्टी' शब्दों का पूर्ण स्पष्टीकरण।
    • निष्कासित सदस्यों को सरकारी पद धारण करने में कुछ सीमाओं का पालन करना पड़ेगा।
  • 170वीं विधि आयोग रिपोर्ट (1999):
    • दलबदल विरोधी विधान के अंतर्गत चुनावी मोर्चों को राजनीतिक दल माना जाएगा।
    • व्हिप का प्रयोग केवल तभी सीमित होना चाहिये जब सरकार को खतरा हो।
    • विभाजन एवं विलय के नियम को हटाना होगा।
  • संविधान समीक्षा आयोग (2002):
    • दलबदलुओं को सार्वजनिक जीवन कार्यालय या किसी अन्य राजनीतिक पद पर प्रवेश करने से रोका जाएगा।
    • यदि दलबदलू का वोट सरकार को हटाने के लिये दिया गया हो तो उसे अमान्य माना जाएगा।

91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 का विस्तृत विश्लेषण

91वें संविधान संशोधन द्वारा कुल चार संशोधन किये गए जो इस प्रकार हैं:

  • अनुच्छेद 75:
    • खंड (1A) और खंड (1B) को इस प्रकार जोड़ा गया:
      • खंड (1A) में कहा गया है कि मंत्रिपरिषद में प्रधान मंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होगी।
      • खंड (1B) में कहा गया है कि किसी राजनीतिक दल से संबंधित संसद के किसी सदन का सदस्य, जो दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन उस सदन का सदस्य होने के लिये अर्हित नहीं है, खंड (1) के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त होने के लिये भी अर्हित नहीं होगा, जो उसकी निरर्हता की तिथि से प्रारंभ होकर ऐसे सदस्य के रूप में उसके पद की अवधि समाप्त होने की तिथि तक या जहाँ वह ऐसी अवधि की समाप्ति से पूर्व संसद के किसी सदन के लिये कोई चुनाव लड़ता है, वहाँ से लेकर उसके निर्वाचित घोषित होने की तिथि तक, जो भी पहले हो, की अवधि तक होगा।
  • अनुच्छेद 164:
    • खंड (1A) और खंड (1B) को नीचे जोड़ा गया:
      • खंड (1A) में कहा गया है कि किसी राज्य की मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या उस राज्य की विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
      • परंतु किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या बारह से कम नहीं होगी।
      • आगे यह भी प्रावधान है कि जहाँ संविधान (91वाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 के प्रारंभ पर किसी राज्य में मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या उक्त पंद्रह प्रतिशत से या पहले परंतुक में विनिर्दिष्ट संख्या से अधिक है, वहाँ उस राज्य में मंत्रियों की कुल संख्या को राष्ट्रपति द्वारा सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा नियत की गई तिथि से छह महीने के भीतर इस खंड के उपबंधों के अनुरूप लाया जाएगा।
      • खंड (1B) में कहा गया है कि किसी राज्य की विधानसभा या विधान परिषद वाले राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का कोई सदस्य, जो किसी राजनीतिक दल से संबंधित है और दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन उस सदन का सदस्य होने के लिये निरर्हित है, वह खंड (1) के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त होने के लिये भी निरर्हित होगा, जो उसकी निरर्हता की तिथि से लेकर ऐसे सदस्य के रूप में उसके पद की अवधि समाप्त होने की तिथि तक या जहाँ वह, यथास्थिति, किसी राज्य की विधानसभा या विधान परिषद वाले राज्य के विधानमंडल के किसी सदन के लिये कोई चुनाव लड़ता है, ऐसी अवधि की समाप्ति से पूर्व, उस तिथि तक, जिस तिथि को उसे निर्वाचित घोषित किया जाता है, जो भी पहले हो, की अवधि तक होगा।
  • अनुच्छेद 361 B:
    • लाभकारी राजनीतिक पद पर नियुक्ति के लिये अयोग्यता संबंधी एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया:
      • खंड (1) में कहा गया है कि किसी राजनीतिक दल से संबंधित सदन का कोई सदस्य, जिसे दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन सदन का सदस्य होने के लिये निरर्हित किया जाता है, वह अपनी निरर्हता की तिथि से लेकर ऐसे सदस्य के रूप में उसके पद की अवधि समाप्त होने की तिथि तक या सदन के लिये चुनाव लड़ने और निर्वाचित घोषित किये जाने की तिथि तक, जो भी पहले हो, कोई लाभप्रद राजनीतिक पद धारण करने के लिये भी निरर्हित होगा।
  • 10वीं अनुसूची:
    • पैराग्राफ 1 के खंड (b) में, शब्द और अंक “पैराग्राफ 3 या, जैसा भी मामला हो” को हटा दिया जाएगा;
    • पैराग्राफ 2 के उप-पैराग्राफ (1) में, शब्द और आँकड़े “पैराग्राफ 3, 4 और 5” के स्थान पर शब्द और आँकड़े “पैराग्राफ 4 और 5” प्रतिस्थापित किये जाएंगे;
    • पैराग्राफ 3 हटा दिया जाएगा।

दल-बदल विरोधी विधान क्या है?

  • दल-बदल विरोधी विधान 1985 में 52वें संशोधन अधिनियम 1985 के माध्यम से लागू किया गया था।
  • इसे भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची में शामिल किया गया और यह दल-बदल विरोधी अधिनियम के नाम से लोकप्रिय है।
  • दल-बदल को "निष्ठा या कर्त्तव्य का सचेत परित्याग" के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • इसमें दल-बदल के आधार पर अयोग्यता की प्रक्रिया निर्धारित की गई है।
  • पीठासीन अधिकारी को दल-बदल के सिद्ध आधार पर किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का अधिकार है।
  • इसका लक्ष्य विधायकों को उनके कार्यकाल के दौरान अपनी राजनीतिक संबद्धता परिवर्तित करने से रोकना था।
  • यह संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू होता है।

 91वें संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ:

  • मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होगी।
  • संसद के किसी भी सदन से दल-बदल विरोधी अधिनियम के अंतर्गत प्रतिबंधित सदस्यों को मंत्री के रूप में कार्य करने से प्रतिबंधित कर दिया जाएगा।
  • किसी राज्य की मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या उस राज्य की विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
  • किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या बारह से कम नहीं होगी।
  • राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन से दल-बदल विरोधी अधिनियम के अंतर्गत प्रतिबंधित सदस्यों को मंत्री के रूप में कार्य करने से रोक दिया जाएगा।
  • संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का दल-बदल के कारण प्रतिबंधित कोई भी सदस्य किसी भी लाभकारी राजनीतिक पद पर आसीन होने से भी वंचित रहेगा।
  • 10वीं अनुसूची के अंतर्गत अयोग्यता से दी गई छूट समाप्त कर दी गई।

निष्कर्ष:

91वाँ संविधान संशोधन इसलिये किया गया था ताकि बड़े मंत्रिमंडलों का गठन हो और राज्यों के भारी भरकम बजट को सीमित किया जा सके। इस विधान ने एक तरह से इस बुराई पर अंकुश तो लगाया परंतु इसमें कुछ खामियाँ भी थीं, जिसके कारण बेहतर परिणाम नहीं मिल पाए।