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सांविधानिक विधि
भारतीय संविधान, 1950 के अंतर्गत उच्च न्यायालय
« »16-Jul-2024
परिचय:
भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अध्याय V में राज्यों में उच्च न्यायालयों का प्रावधान है। इस भाग के अंतर्गत संविधान की धारा 214-धारा 232 का प्रावधान किया गया है।
उच्च न्यायालयों का गठन:
- संविधान के अनुच्छेद 214 में प्रावधान है कि प्रत्येक राज्य के लिये एक उच्च न्यायालय होगा।
- संविधान के अनुच्छेद 231 में प्रावधान है कि संसद विधि द्वारा दो या अधिक राज्यों के लिये अथवा दो या अधिक राज्यों और एक संघ राज्य क्षेत्र के लिये एक साझा उच्च न्यायालय की स्थापना कर सकती है।
- संविधान के अनुच्छेद 216 में यह प्रावधान है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और ऐसे अन्य न्यायाधीश होंगे, जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे।
उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय होगा:
- अनुच्छेद 215 में प्रावधान है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय होगा।
- इसमें यह भी प्रावधान है कि उच्च न्यायालय को स्वयं की अवमानना के लिये दण्डित करने की शक्ति होगी।
- हालाँकि यह एक संक्षिप्त शक्ति है और इसका प्रयोग अत्यावश्यक परिस्थितियों में ही किया जाता है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 217(2) में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता का प्रावधान है।
- ये निम्नवत हैं:
- भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम 10 वर्षों तक न्यायिक पद पर कार्य किया हो।
- कम-से-कम 10 वर्षों तक एक उच्च न्यायालय या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में लगातार अधिवक्ता रहा हो।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 217(1) के अनुसार उच्च न्यायालय का न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक अपने पद पर बना रहेगा।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 217(3) के अनुसार, यदि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की आयु के संबंध में कोई प्रश्न उठता है, तो उस प्रश्न का निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा और राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होगा।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाना:
- संविधान के अनुच्छेद 217(1) में प्रावधान है कि:
- कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षरित पत्र द्वारा अपना पद त्याग सकता है।
- किसी न्यायाधीश का पद, राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किये जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी अन्य उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किये जाने पर रिक्त हो जाता है।
- न्यायाधीश को अनुच्छेद 124 (उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाना) की धारा (4) द्वारा प्रदत्त तरीके से हटाया जा सकता है।
- अनुच्छेद 218 में प्रावधान है कि अनुच्छेद 124 के खंड (4) और (5) के प्रावधान उच्च न्यायालय के संबंध में उसी प्रकार लागू होंगे जैसे वे उच्चतम न्यायालय के संबंध में लागू होते हैं।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की शपथ और वेतन:
- संविधान के अनुच्छेद 219 में यह प्रावधान है कि न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने वाला प्रत्येक व्यक्ति राज्य के राज्यपाल के समक्ष शपथ लेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा तथा शपथ तीसरी अनुसूची में निर्धारित प्रारूप में होगी।
- अनुच्छेद 221 में प्रावधान है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन संसद द्वारा बनाई विधि से निर्धारित किया जाएगा और जब तक इस संबंध में प्रावधान नहीं किया जाता है तब तक द्वितीय अनुसूची में निर्दिष्ट वेतन ही निर्धारित किये जाएंगे।
उच्च न्यायालयों का क्षेत्राधिकार:
- अनुच्छेद 225 उच्च न्यायालय के पूर्व-संवैधानिक क्षेत्राधिकार को संरक्षित करता है।
- उच्च न्यायालयों के विभिन्न क्षेत्राधिकार इस प्रकार हैं:
- मूल क्षेत्राधिकार:
- संविधान के अनुच्छेद 226(1) में कहा गया है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन एवं अन्य उद्देश्यों के लिये किसी व्यक्ति या सरकार को बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण सहित आदेश या रिट जारी करने की शक्तियाँ होंगी।
- मूल क्षेत्राधिकार:
- अनुच्छेद 226(2) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय को किसी भी व्यक्ति, सरकार या प्राधिकरण को रिट या आदेश जारी करने की शक्ति है-
- इसके क्षेत्राधिकार में स्थित या
- यदि कार्यवाही के कारण की परिस्थितियाँ पूर्णतः या आंशिक रूप से उसके प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के भीतर उत्पन्न होती हैं, तो यह उसके स्थानीय क्षेत्राधिकार से बाहर होगा।
- अनुच्छेद 226(3) में कहा गया है कि जब किसी पक्ष के विरुद्ध उच्च न्यायालय द्वारा निषेधाज्ञा, स्थगन या अन्य माध्यम से अंतरिम आदेश पारित किया जाता है, तो वह पक्ष ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकता है और ऐसे आवेदन का न्यायालय द्वारा दो सप्ताह की अवधि के भीतर निपटारा किया जाना चाहिये।
- अनुच्छेद 226(4) कहता है कि इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति से अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को दिये गए अधिकार में कमी नहीं आनी चाहिये।
- यह अनुच्छेद सरकार सहित किसी भी व्यक्ति या प्राधिकारी के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।
- यह महज एक संवैधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार नहीं है और इसे आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता।
- मौलिक अधिकारों के मामले में अनुच्छेद 226 अनिवार्य प्रकृति का है तथा “किसी अन्य उद्देश्य” के लिये जारी किया गया हो तो विवेकाधीन प्रकृति का है।
- यह न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करता है, बल्कि अन्य विधिकअधिकारों को भी लागू करता है।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका:
- यह एक लैटिन वाक्यांश है जिसका अर्थ है ‘शारीरिक अस्तित्व होना या अस्तित्व प्रकट करना’।
- यह सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली रिट है।
- जब किसी व्यक्ति को सरकार द्वारा गलत तरीके से बंधक बना लिया जाता है, तो वह व्यक्ति, या उसका परिवार या मित्र, उस व्यक्ति को रिहा कराने के लिये बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर सकते हैं।
- परमादेश रिट:
- यह एक लैटिन वाक्यांश है जिसका अर्थ है 'हम आदेश देते हैं’।
- परमादेश एक न्यायिक आदेश है जो सार्वजनिक कर्त्तव्य पालन हेतु जारी किया जाता है।
- इस रिट का उपयोग करने के लिये एकमात्र आवश्यकता यह है कि इसमें अनिवार्य सार्वजनिक कर्त्तव्य होना चाहिये।
- प्रतिषेध की रिट:
- यह एक लैटिन वाक्यांश है जिसका अर्थ है ‘सूचित होना।’
- यह उच्च न्यायालय द्वारा अवर न्यायालय को जारी किया गया आदेश या निर्देश है।
- यह तब जारी किया जाता है जब निचले न्यायालय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
- यदि उच्च न्यायालय को कोई त्रुटि दिखती है तो वह निचले न्यायालय द्वारा दिये गए आदेश को रद्द कर सकता है।
- निषेधाज्ञा रिट:
- इसका सीधा-सा अर्थ है ‘रोकना’।
- यह रिट उच्च न्यायालयों द्वारा अवर न्यायालय (अर्थात् अधीनस्थ न्यायालयों, न्यायाधिकरणों, अर्ध-न्यायिक निकायों) के विरुद्ध जारी की जाती है।
- अधिकार पृच्छा रिट:
- इस शब्द का अर्थ है 'किस अधिकार से'।
- यह किसी निजी व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया जाता है कि वह किस प्राधिकार से उस पद पर आसीन है जिस पर उसका कोई अधिकार नहीं है।
- इस रिट के द्वारा न्यायालय सार्वजनिक अधिकारी की नियुक्ति को नियंत्रित कर सकता है तथा किसी नागरिक को उस सार्वजनिक पद से वंचित होने से बचा सकता है, जिसका वह अधिकारी हो सकता है।
- अपीलीय क्षेत्राधिकार:
- उच्च न्यायालय अनिवार्यतः एक अपील न्यायालय है तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर अपीलीय क्षेत्राधिकार रखता है।
- अपीलीय न्यायालय, निचले न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अभियुक्त की सज़ा कम कर सकता है या उसे दोषमुक्त भी कर सकता है।
- संविधान की धारा 228 में यह प्रावधान है कि यदि उच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में लंबित किसी मामले में संविधान की व्याख्या के संबंध में विधि का कोई सारवान प्रश्न सम्मिलित है तो वह मामले को वापस ले लेगा या ऐसा कर सकता है कि:
- या तो मामले का स्वयं निपटारा कर दें, या
- उक्त प्रश्न का निर्धारण करें और मामले को उस न्यायालय को वापस कर दें जहाँ से इसे वापस ले लिया गया है।
- अधीक्षण की शक्ति:
- संविधान के अनुच्छेद 227 के अनुसार उच्च न्यायालय को भारत के सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर अधीक्षण रखना होगा।
- अधीक्षण की शक्ति में घोर अन्याय या अधिकार क्षेत्र का प्रयोग न करने या दुरुपयोग के मामलों में हस्तक्षेप करने के लिये पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार शामिल है, भले ही आदेश के विरुद्ध कोई अपील या पुनरीक्षण उपलब्ध न हो।
- अधीक्षण की यह शक्ति, अनुच्छेद 226 के तहत रिट के माध्यम से निचले न्यायालयों को नियंत्रित करने के लिये उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति से अधिक व्यापक है।
- यह शक्ति न केवल प्रशासनिक अधीक्षण (विवरण मंगाना, निचले न्यायालयों की कार्यप्रणाली और कार्यवाहियों को विनियमित करने के लिये नियम बनाना) तक सीमित है, बल्कि न्यायिक अधीक्षण तक भी सीमित है।
- अनुशासनात्मक क्षेत्राधिकार:
- प्रत्येक उच्च न्यायालय का अपने कर्मचारियों पर पूर्ण नियंत्रण होता है।
- संविधान के अनुच्छेद 235 के अनुसार उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों पर अनुशासनात्मक क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
उच्च न्यायालय के अधिकारी एवं कर्मचारी:
- संविधान की धारा 229(1) में प्रावधान है कि उच्च न्यायालय के अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्तियाँ न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा की जाएंगी, जैसा वह निर्देश दें।
- धारा 229(2) में यह प्रावधान है कि राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी विधि के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की सेवा की शर्तें ऐसी होंगी जो न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या न्यायालय के किसी अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा बनाए गए नियमों द्वारा निर्धारित की जा सकती हैं, जिसे मुख्य न्यायाधीश द्वारा इस प्रयोजन के लिये नियम बनाने हेतु अधिकृत किया गया हो।
परंतु इस खंड के अधीन बनाए गए नियमों के लिये, जहाँ तक उनका संबंध वेतन, भत्ते, छुट्टी या पेंशन से है, राज्य के राज्यपाल का अनुमोदन अपेक्षित होगा।
- धारा 229 (3) में प्रावधान है कि उच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, जिसमें न्यायालय के अधिकारियों और कर्मचारियों को देय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन शामिल हैं, राज्य की संचित निधि पर भारित किये जाएंगे तथा न्यायालय द्वारा लिया गया कोई भी शुल्क या अन्य धनराशि उस निधि का भाग होगी।
निष्कर्ष:
हमारे देश में कुल 25 उच्च न्यायालय हैं, जिनमें से छह का नियंत्रण एक से अधिक राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों पर है। उच्च न्यायालय न्यायिक प्रणाली का एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भाग हैं। उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है और अपनी अवमानना के लिये दण्डित कर सकता है।