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सांविधानिक विधि
अस्पृश्यता का अंत
« »19-Feb-2024
परिचय:
भारत का संविधान, 1950 (COI) अस्पृश्यता के अंत को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करता है। COI का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता के अंत से संबंधित है।
COI का अनुच्छेद 17:
- इस अनुच्छेद में कहा गया है कि अस्पृश्यता का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा|
- अनुच्छेद 17 के तहत अधिकार निजी व्यक्तियों के विरुद्ध उपलब्ध हैं और यह सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक कार्रवाई करना राज्य का संवैधानिक दायित्व है कि इस अधिकार का उल्लंघन न हो।
- अनुच्छेद 17 का विषय शाब्दिक या व्याकरणिक अर्थ में अस्पृश्यता नहीं है, बल्कि 'देश में ऐतिहासिक रूप से विकसित हुई प्रथा' है। यह कुछ जातियों में जन्म के कारण कुछ वर्गों के व्यक्तियों पर लगाई गई सामाजिक निर्योग्यताओं को संदर्भित करता है।
अस्पृश्यता:
- अस्पृश्यता शब्द को COI या किसी अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है।
- वस्तुतः, इस शब्द में संक्रामक रोगों से पीड़ित होने या जन्म या मृत्यु से जुड़े सामाजिक अनुष्ठानों या जाति या अन्य विवादों के परिणामस्वरूप सामाजिक बहिष्कार जैसे विभिन्न कारणों से व्यक्तियों को अस्थायी रूप से या अन्यथा अस्पृश्य मानना शामिल है।
निर्णयज विधि:
- देवराजैया बनाम पद्मन्ना (1961) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 17 का उद्देश्य कुछ जातियों में जन्म होने के कारण कुछ साथियों को अस्पृश्य समझने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करना था।
- कर्नाटक राज्य बनाम अप्पा बालू इंगले (1993) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि अस्पृश्यता गुलामी का एक अप्रत्यक्ष रूप था और जाति व्यवस्था का विस्तार था। न्यायालय ने कहा कि जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता एक साथ विकसित हुई हैं तथा एक साथ खत्म हो जाएँगी। कानून के शासन और लोकतंत्र के सुचारू संचालन के लिये जाति व्यवस्था को यथाशीघ्र समाप्त करना नितांत आवश्यक व अनिवार्य है।