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सांविधानिक विधि
पूर्व CJI डीवाई चंद्रचूड़ के संवैधानिक विधि पर महत्त्वपूर्ण फैसले (2024)
«19-Nov-2024
परिचय:
- 26 नवंबर, 1949 को अंगीकृत और 26 जनवरी, 1950 को प्रवृत्त भारत का संविधान (COI) भारत गणराज्य का सर्वोच्च कानून है।
- किसी भी संप्रभु राष्ट्र का सबसे लंबा लिखित संविधान होने के साथ भारत का संविधान शासन की आधारभूत संरचना की स्थापना करता है।
- संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अंगीकृत किया गया है।
- भारत का संविधान मूलभूत दस्तावेज़ है जो भारत में सभी कानूनों, संस्थानों और शासन तंत्रों को नियंत्रित करता है।
- डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ भारत के 50वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) थे।
- उनके पिता, वाई. वी. चंद्रचूड़, 16वें और सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले CJI थे।
- उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय और हार्वर्ड विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और सुलिवन एंड क्रॉमवेल तथा बॉम्बे उच्च न्यायालय में वकालत की।
- न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने कई ऐतिहासिक निर्णयों में सहमति और असहमति प्रदान करते हुए कई लंबे समय से चली आ रही परंपराओं में परिवर्तन किया।
पूर्व CJI डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा पारित कुछ महत्त्वपूर्ण संवैधानिक पीठ के फैसले (2024)
- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2024)
- इस मामले में चुनावी बॉण्ड योजना को चुनौती दी गई थी।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वित्त अधिनियम, 2017 के तहत शुरू की गई चुनावी बॉण्ड योजना (EBC) को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 19 (1) (a) (सूचना का अधिकार) के उल्लंघन का हवाला देते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है।
- हाई कोर्ट बार एसोसिएशन इलाहाबाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2024)
- एशियन रिसर्फेसिंग ऑफ रोड एजेंसी प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2018) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसला सुनाया गया था कि लंबित सिविल और आपराधिक मामलों में दिया गया स्थगन आदेश छह महीने के बाद स्वतः ही रद्द हो जाएगा (अस्तित्व में नहीं रहेगा)।
- 1 दिसंबर, 2023 को, सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने विचार व्यक्त किया कि इस मामले में इस न्यायालय के निर्णय पर एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार की आवश्यकता है।
- इसके बाद मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से माना कि लंबित मामलों में दिये गए स्थगन आदेश स्वतः समाप्त नहीं होते हैं। पीठ ने यह भी माना कि न्यायालय के पास अनुच्छेद 142 के तहत स्थगन आदेशों को स्वतः रद्द करने की विवेकाधीन शक्ति नहीं है।
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए महत्त्वपूर्ण मापदंडों को संक्षेप में निम्नानुसार प्रस्तुत किया जा सकता है:
- न्यायालय के समक्ष पक्षकारों के बीच पूर्ण न्याय करने के लिये अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग बड़ी संख्या में वादियों द्वारा उनके पक्ष में पारित वैध न्यायिक आदेशों के आधार पर प्राप्त लाभों को निष्प्रभावी करने के लिये नहीं किया जा सकता है, जो इस न्यायालय के समक्ष कार्यवाही में पक्षकार नहीं हैं।
- Article 142 does not empower this Court to ignore the substantive rights of the litigants.
- अनुच्छेद 142 इस न्यायालय को वादियों के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार प्रदान नहीं करता है।
- भरता के संविधान का अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए यह न्यायालय हमेशा प्रक्रियात्मक पहलुओं को सुव्यवस्थित करने और मामलों के शीघ्र और समय पर निपटान को सुनिश्चित करने के लिये प्रक्रियात्मक कानूनों में खामियों को दूर करने हेतु न्यायालयों को प्रक्रियात्मक निर्देश जारी कर सकता है। हालाँकि, इस न्यायालय की कार्रवाइयों से उन वादियों के मूल अधिकार प्रभावित नहीं हो सकते जो मामले में पक्षकार नहीं हैं। प्रतिकूल आदेश जारी करने से पहले सुनवाई का अधिकार प्रक्रियात्मक अधिकार के बजाय एक मूल अधिकार है।
- अनुच्छेद 142 के तहत इस न्यायालय की शक्ति का प्रयोग प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं किया जा सकता, जो हमारे न्यायशास्त्र का अभिन्न अंग हैं।
- सामान्य तौर पर संवैधानिक न्यायालयों को किसी अन्य न्यायालय के समक्ष लंबित मामलों के निपटान हेतु समय-सीमा निर्धारित करने से बचना चाहिये।
- संवैधानिक न्यायालय केवल असाधारण परिस्थितियों में ही मामलों के समयबद्ध निपटान के लिये निर्देश जारी कर सकते हैं।
- यह सलाह दी जाती है कि जहाँ मामले लंबित हैं, संबंधित न्यायालयों के निर्णय पर छोड़ दिया जाना चाहिये कि मामलों के निपटान को प्राथमिकता किस प्रकार दी जाए।
- सीता सोरेन बनाम भारत संघ (2024)
- इस मामले में दो प्रमुख मुद्दे शामिल हैं:
- COI के अनुच्छेद 105 (2) और अनुच्छेद 194 (2) के तहत विधायक को कितनी छूट प्राप्त है?
- क्या किसी विधायक को विधानसभा या संसद में मतदान करने के लिये रिश्वत लेने पर छूट प्राप्त है?
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक लंबे समय से चले आ रहे विवादास्पद फैसले को पलट दिया है। यह फैसला हमारे देश में लोकतंत्र के प्रतिरक्षण में मददगार साबित होगा। भ्रष्टाचार एक ऐसी कुप्रथा है जो किसी भी लोकतंत्र को प्रभावी रूप से संचालित होने में बाधा उत्पन्न करती है।
- पीवी नरसिंह राव बनाम UOI (1998) के फैसले ने भ्रष्टाचार को वैध बना दिया। इस फैसले को पलटने से आखिरकार एक ऐसी व्याख्या सामने आई है जो संवैधानिक और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप है।
- 'के संबंध में', 'से उत्पन्न' या 'से स्पष्ट संबंध रखने वाले' शब्दों की व्याख्या किसी ऐसे अर्थ में नहीं की जा सकती जिसका दिये गए भाषण या मतदान से दूर-दूर तक कोई संबंध हो।
- इस मामले में दो प्रमुख मुद्दे शामिल हैं:
- मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम मेसर्स स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया एवं अन्य (2024)
- इस मामले में कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं, जिनमें कराधान शक्तियों से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या, जैसे राज्य सूची की प्रविष्टियाँ 49 और 50, और संघ सूची की प्रविष्टि 54 के तहत संसद के अधिकार का दायरा शामिल है।
- इस मामले को इसके प्रारंभिक आवेदन के 9,044 दिनों के बाद नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया है, जो न्यायालय के इतिहास में सबसे लंबे समय तक लंबित मामलों में से एक है। सर्वोच्च न्यायालय ने 8:1 बहुमत से फैसला सुनाया कि राज्यों के पास खनिज अधिकारों पर कर लगाने की शक्ति है और केंद्रीय कानून - खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम 1957 - राज्यों की ऐसी शक्ति को सीमित नहीं करता है।
- पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य (2024)
- यह मामला अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उप-वर्गीकरण की वैधता से संबंधित है। सात न्यायाधीशों की पीठ ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बीच उप-वर्गीकरण को बरकरार रखा ताकि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों को मिल सके। पीठ में पूर्व CJI डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस बी.आर. गवई, विक्रम नाथ, बेला एम. त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे।
- नागरिकता अधिनियम 1955 (2024) की धारा 6A
- यह मामला नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6A से संबंधित है, जिसे वर्ष 1985 में असम समझौते के बाद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के माध्यम से जोड़ा गया था। यह भारत सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच एक समझौता था।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जो असम समझौते को 4:1 बहुमत से मान्यता प्रदान करता है।
- पूर्व CJI डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में बहुमत से स्थानीय आबादी की सुरक्षा के साथ मानवीय चिंताओं को संतुलित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, जबकि असहमति जताते हुए न्यायमूर्ति पारदीवाला ने तर्क दिया कि यह प्रावधान अपनी मनमानी प्रकृति और अप्रभावी प्रवर्तन तंत्र के कारण समय के साथ असंवैधानिक हो गया है।
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मेसर्स लालता प्रसाद वैश्य (2024)
- यह मामला राज्यों और संघ के बीच संवैधानिक विवाद से संबंधित है कि 'विकृत स्प्रिट या औद्योगिक अल्कोहल' को विनियमित करने का अधिकार किसके पास है।
- सर्वोच्च न्यायालय की 9 न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने 8:1 से फैसला सुनाया कि राज्यों के पास 'विकृत स्प्रिट या औद्योगिक अल्कोहल' को विनियमित करने का अधिकार है, तथा राज्य सूची की प्रविष्टि 8 के अनुसार इसे "मादक शराब" के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है।
- बहुमत की राय में कहा गया कि इस शब्द को संकीर्ण रूप से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिये, जिसमें ऐसे पदार्थ भी शामिल हैं जिनका मानव उपभोग के लिये दुरुपयोग किया जा सकता है। असहमति में, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने तर्क दिया कि ‘औद्योगिक अल्कोहल' विशेष रूप से मानव उपभोग के लिये नहीं है, उन्होंने "नशीली मादक" शब्द की अलग-अलग व्याख्याएँ बताईं।
- ओनर्स एसोसिएशन एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2024)
- इस मामले में अपीलकर्त्ताओं ने COI के अध्याय VIII की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निजी संपत्ति अधिकारों के बारे में एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया। 7:2 के निर्णय में, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सरकार सभी निजी संपत्तियों को "सामुदायिक संसाधन(community resources)" कहकर उन पर कब्जा नहीं कर सकती। यह एक बड़ा मामला था जिसके लिये 9 न्यायाधीशों की आवश्यकता थी, जो मामले के महत्त्व को दर्शाता है।
- तेज प्रकाश पाठक एवं अन्य बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय और अन्य (2024)
- यह मामला भर्ती नियमों से संबंधित है, जो समानता (अनुच्छेद 14) और सार्वजनिक रोज़गार में गैर-भेदभाव (अनुच्छेद 16) के संवैधानिक मानकों को पूरा करते हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सरकारी नौकरियों के लिये भर्ती नियमों को प्रक्रिया के बीच में तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक कि स्पष्ट रूप से अनुमति न दी जाए। इसने के. मंजूश्री बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले (2008) में निर्धारित सिद्धांतों का समर्थन किया, जिसमें कहा गया था कि चयन प्रक्रिया के दौरान भर्ती मानदंडों को बदलना अस्वीकार्य है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हरियाणा राज्य बनाम सुभाष चंद्र मारवाहा केस (1973) के फैसले पर विचार न करने के लिये के. मंजूश्री मामले (2008) को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
- मारवाह मामले में न्यायालय ने फैसला दिया कि न्यूनतम अर्हता प्राप्त करना उम्मीदवारों को चयन का पूर्ण अधिकार नहीं है, क्योंकि सरकार सार्वजनिक हित के लिये उच्च मानक निर्धारित कर सकती है।
- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अपने रजिस्ट्रार फैजान मुस्तफा बनाम नरेश अग्रवाल (2024)
- यह मामला दो मुख्य कानूनी मुद्दों से संबंधित था:
- क्या AMU संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के रूप में योग्य है?
- मुख्य विवाद अनुच्छेद 30(1) में "स्थापना और प्रशासन (Establish and Administer)" वाक्यांश की व्याख्या पर केंद्रित है, जो अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार प्रदान करता है।
- इस मामले में, AMU को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा "राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान" माना गया है, जो इसे अल्पसंख्यक दर्जे से वंचित नहीं करता है। न्यायालय के अनुसार, केंद्र का तर्क है कि इस तरह के पदनाम के लिए आरक्षण के प्रति अधिक समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता होनी चाहिये, जिससे अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा तथा राष्ट्रीय लक्ष्यों के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला जा सके।
- निर्णय AMU की विशिष्ट पहचान की संवैधानिक मान्यता पर ज़ोर देता है जबकि यह सुनिश्चित करता है कि यह व्यापक सामाजिक न्याय सिद्धांतों के साथ संरेखित रहे।
- यह मामला दो मुख्य कानूनी मुद्दों से संबंधित था:
- सेंट्रल ऑर्गनाइज़ेशन फॉर रेलवेज़ इलेक्ट्रिफिकेशन बनाम मेसर्स ECI स्पिक स्मो MCML (JV) (एक संयुक्त उद्यम कंपनी) (2024)
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता खंड की वैधता की जाँच की, जिसमें यह निर्धारित किया गया है कि मध्यस्थ को किसी एक पक्ष द्वारा गठित मध्यस्थों के पैनल से चुना जाएगा, जो आमतौर पर एक सार्वजनिक क्षेत्र का संगठन (PSU) होता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने उन प्रावधानों को खारिज कर दिया, जो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी ठेकेदारों के साथ मतभेदों को सुलझाने के लिये अपने दम पर मध्यस्थों का चयन करने का अधिकार देते थे। संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि सार्वजनिक उपक्रमों को संभावित मध्यस्थों की सूची रखने की अनुमति है, लेकिन उन्हें दूसरे पक्ष को सूची में से मध्यस्थ चुनने के लिये मज़बूर करने की अनुमति नहीं है।
निष्कर्ष:
भारत के संवैधानिक लोकतंत्र का एक प्रमुख घटक प्रेसिडन्ट/पूर्ववर्ती प्रणाली है, जो यह गारंटी देती है कि संवैधानिक विधि स्थिर और लचीली दोनों है। न्यायालय के मामलों की एक पदानुक्रमित प्रणाली जो कानूनी स्थिरता और पूर्वानुमान की गारंटी प्रदान करती है, संवैधानिक पीठों द्वारा स्थापित महत्त्वपूर्ण फैसले द्वारा सुनिश्चित की जाती है।