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सांविधानिक विधि

न्यायिक सक्रियता

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 17-Sep-2024

परिचय:

न्यायिक सक्रियता नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को प्रदर्शित करती है। भारत में, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को किसी भी विधान की संवैधानिकता की जाँच करने की शक्ति प्राप्त है और यदि ऐसा विधान संविधान के प्रावधानों के साथ असंगत पाया जाता है, तो न्यायालय उस विधान को असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

  • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि अधीनस्थ न्यायालयों को विधानों की संवैधानिकता की समीक्षा करने का अधिकार नहीं है।

न्यायिक सक्रियता की उत्पत्ति:

  • न्यायिक सक्रियता की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका में उत्पन्न और विकसित हुई।
  • यह शब्द पहली बार वर्ष 1947 में अमेरिकी इतिहासकार और शिक्षक आर्थर स्लेसिंगर जूनियर द्वारा प्रयोग किया गया था।
  • भारत में न्यायिक सक्रियता की नींव न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर, न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती, न्यायमूर्ति ओ. चिन्नाप्पा रेड्डी और न्यायमूर्ति डी.ए. देसाई ने रखी थी।

न्यायिक सक्रियता का अर्थ:

  • न्यायिक सक्रियता, नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा और समाज में न्याय को बढ़ावा देने में न्यायपालिका द्वारा निभाई गई सक्रिय भूमिका को दर्शाती है।
  • दूसरे शब्दों में, इसका तात्पर्य सरकार के अन्य दो अंगों (विधायिका और कार्यपालिका) को उनके संवैधानिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करने के लिये बाध्य करने में न्यायपालिका द्वारा निभाई गई सक्रिय भूमिका से है।

न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता:

न्यायपालिका की बढ़ती भूमिका को समझने के लिये उन कारणों को जानना महत्त्वपूर्ण है जिनके कारण न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी पड़ी।

  • सरकार के अन्य अंगों में भी भ्रष्टाचार व्याप्त है।
  • कार्यपालिका अपने काम में लापरवाह हो गई और अपेक्षित परिणाम देने में विफल रही।
  • संसद अपने विधायी कर्त्तव्यों के प्रति अनभिज्ञ हो गई।
  • लोकतंत्र के सिद्धांतों का लगातार ह्रास हो रहा था।
  • जनहित याचिकाओं ने सार्वजनिक मुद्दों की तात्कालिकता को प्रकट कर दिया।

ऐसे में न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभाने के लिये बाध्य होना पड़ा। यह न्यायपालिका जैसी संस्था के माध्यम से ही संभव था, जिसके पास समाज में होने वाली विभिन्न बुराइयों को दूर करने की शक्तियाँ निहित हैं। लोकतंत्र की क्षति होने से रोकने के लिये उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने इन समस्याओं के समाधान का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया।

न्यायिक सक्रियता का उदय:

  • न्यायिक सक्रियता मुख्यतः निम्नलिखित के कारण उत्पन्न हुई है::
    • कार्यपालिका और विधायिकाओं की कार्य करने में विफलता।
    • चूँकि इस बात पर संदेह है कि विधायिका और कार्यपालिका वांछित परिणाम देने में विफल रही हैं।
    • ऐसा इसलिये होता है क्योंकि पूरी व्यवस्था अक्षमता एवं निष्क्रियता से ग्रस्त हो गई है।
    • मूलभूत मानवाधिकारों के उल्लंघन ने भी न्यायिक सक्रियता को जन्म दिया है।
    • संविधान के कुछ प्रावधानों के दुरुपयोग के कारण न्यायिक सक्रियता को महत्त्व मिला है।

न्यायिक सक्रियता की आलोचना:

  • न्यायिक सक्रियता के कारण संसद और उच्चतम न्यायालय के बीच सर्वोच्चता के संबंध में विवाद उत्पन्न हो गया है।
  • यह शक्तियों के पृथक्करण तथा नियंत्रण एवं संतुलन के संवेदनशील सिद्धांत को बिगाड़ सकता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • केशवानंद भारती श्रीपदागलवारू एवं अन्य बनाम केरल राज्य (1973): भारत के उच्चतम न्यायालय ने घोषणा की कि कार्यपालिका को हस्तक्षेप करने और संविधान के मूल ढाँचे के साथ छेड़छाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है।
  • शीला बारसे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1983): जेल में महिला कैदियों के साथ अभिरक्षा में हिंसा के विषय में उच्चतम न्यायालय को संबोधित एक पत्रकार द्वारा लिखा गया पत्र। न्यायालय ने उस पत्र को रिट याचिका के रूप में माना और उस मामले का संज्ञान लिया।
  • आई.सी. गोलकनाथ एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (1967): उच्चतम न्यायालय ने घोषित किया कि भाग 3 में निहित मौलिक अधिकार प्रतिरक्षित हैं तथा विधानसभा द्वारा उनमें संशोधन नहीं किया जा सकता।
  • हुसैनारा खातून (I) बनाम बिहार राज्य (1979): विचाराधीन कैदियों की अमानवीय और बर्बर स्थिति अखबारों में प्रकाशित लेखों के माध्यम से परिलक्षित होती है। भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत, उच्चतम न्यायालय ने इसे स्वीकार किया और माना कि त्वरित सुनवाई का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।
  • ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950): उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि किसी व्यक्ति को उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये न केवल विधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये, बल्कि यह भी कि ऐसी प्रक्रिया निष्पक्ष, उचित और न्यायसंगत होनी चाहिये।