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सांविधानिक विधि
सात वीं अनुसूची
« »09-Aug-2024
परिचय:
भारतीय संविधान 1950 (COI) की सातवीं अनुसूची, 1950 (COI) में तीन सूचियों का प्रावधान है।
- ये सूचियाँ हैं;
- संघ सूची (प्रथम सूची)।
- राज्य सूची (द्वितीय सूची)।
- समवर्ती सूची (तृतीय सूची)।
COI का अनुच्छेद 246:
- संविधान में COI का अनुच्छेद 246 में विधायी शक्तियों का वितरण उपबंधित किया गया है।
- यह उन विषयों को स्पष्ट करता है जिन पर विधानसभाओं एवं संसद को विधि निर्माण की शक्ति है।
- अनुच्छेद 246 (1) में उपबंध है कि खंड (2) एवं (3) में किसी भी प्रावधान के बावजूद, संसद को सातवीं अनुसूची की प्रथम सूची (इस संविधान में जिसे “संघ सूची” कहा गया है) में सूचीबद्ध किसी भी मामले के संबंध में विधि निर्माण का विशेष अधिकार है। इसमें रक्षा, विदेशी मामले, रेलवे, बैंकिंग आदि जैसी प्रविष्टियाँ शामिल होंगी।
- अनुच्छेद 246 (2) में यह प्रावधान है कि खंड (3) में किसी प्रावधान के होते हुए भी, संसद को तथा खंड (1) के अधीन रहते हुए किसी राज्य के विधानमंडल को भी सातवीं अनुसूची की तृतीय सूची (जिसे इस संविधान में “समवर्ती सूची” कहा गया है) में सूचीबद्ध किसी भी विषय के संबंध में विधि निर्माण की शक्ति है।
- समवर्ती सूची दोहरे वितरण की अत्यधिक कठोरता को कम करने के लिये एक उपकरण के रूप में कार्य करती है।
- सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के अनुसार समवर्ती सूची के विषय न तो पूरी तरह से राष्ट्रीय चिंता के हैं तथा न ही स्थानीय चिंता के, इसलिये वे संवैधानिक रूप से अस्पष्ट क्षेत्र में आते हैं।
- अनुच्छेद 246 (3) में यह प्रावधान है कि खंड (1) और (2) के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के विधानमंडल को सातवीं अनुसूची की द्वितीय सूची (जिसे इस संविधान में “राज्य सूची” कहा गया है) में सूचीबद्ध किसी भी विषय के संबंध में ऐसे राज्य या उसके किसी भाग के लिये विधि निर्माण की विशेष शक्ति है।
- इस प्रकार, सातवीं अनुसूची में तीन सूचियों का प्रावधान है, जिनमें उन विषयों को सूचीबद्ध किया गया है जिन पर संसद या राज्य विधानमंडल को विधि निर्माण की शक्ति है।
विधायी शक्तियों में अंतर करने के लिये सूचियाँ:
- तीन सूचियाँ हैं जो COI की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत विधायी शक्तियों के वितरण का प्रावधान करती हैं:
- संघ सूची (प्रथम सूची):
- इसमें 98 विषय (मूल रूप से 97) शामिल हैं तथा इसमें वे विषय शामिल हैं जो राष्ट्रीय महत्त्व के हैं और पूरे देश के लिये एक समान विधान लागू होते हैं।
- इन मामलों के संबंध में केवल संसद ही विधि निर्माण कर सकती है, जैसे- रक्षा, विदेशी मामले, बैंकिंग, मुद्रा, संघीय कर आदि।
- राज्य सूची (द्वितीय II):
- इसमें 59 विषय (मूल रूप से 66) शामिल हैं तथा इसमें स्थानीय या राज्य हित के विषय शामिल हैं।
- यह राज्य विधानमंडलों की विधायी क्षमता के अंतर्गत आता है, जैसे सार्वजनिक व्यवस्था एवं पुलिस, स्वास्थ्य, कृषि, आदि।
- समवर्ती सूची (तृतीय III):
- इसमें 52 विषय (मूल रूप से 47) शामिल हैं, जिनके संबंध में संघीय संसद एवं राज्य विधानमंडल दोनों को विधि निर्माण करने की समवर्ती शक्ति प्राप्त है। समवर्ती सूची (जो किसी भी संघीय संविधान में नहीं पाई जाती) का उद्देश्य दोहरे वितरण के लिये अत्यधिक कठोरता से बचने के लिये एक उपकरण के रूप में कार्य करना था।
- यह एक 'संधि क्षेत्र' है, क्योंकि जो मामले महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, उनमें राज्य पहल कर सकते हैं, जबकि महत्त्वपूर्ण मामलों में संसद ऐसा कर सकती है।
सातवीं अनुसूची का महत्त्व:
- स्पष्ट उत्तरदायित्त्व: विषयों को राज्य सूची, केंद्रीय सूची एवं समवर्ती सूची में विभाजित करने से संघ की घटक इकाइयों को अपनी-अपनी भूमिकाओं के प्रति सचेतनता मिलती है।
- सद्भाव: 7वीं अनुसूची में केंद्र एवं राज्यों के मध्य शक्तियों का स्पष्ट पृथक्करण संघ को संविधान के मूल सिद्धांतों को बदलने से रोकता है, इस प्रकार, यह केंद्र एवं राज्यों के मध्य शांति एवं सद्भाव बनाए रखने में सहायता करता है।
- शक्तियों का पृथक्करण: 7वीं अनुसूची केंद्र एवं राज्यों के मध्य शक्तियों का स्पष्ट पृथक्करण का उपबंध करती है जो केंद्र और राज्यों के मध्य संघर्ष को रोकती है।
- भारत की एकता एवं अखंडता: विभाजन के बाद, राष्ट्रीय एकीकरण अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, तथा केवल एक सशक्त केंद्र सरकार ही राष्ट्र को वाह्य खतरों से बचा सकती थी।
- राज्यों को स्वायत्तता: राज्यों को विधायी शक्तियों का हस्तांतरण राज्य को उनके संबंधित क्षेत्र में संघ से स्वतंत्र बनाता है।
सातवीं अनुसूची का विकास:
- विधायी शक्तियों को तीन सूचियों में बाँटने की योजना पहली बार भारत सरकार अधिनियम, 1935 में निर्धारित की गई थी।
- स्वतंत्रता के बाद, संविधान सभा ने एक केंद्रीकृत संवैधानिक संरचना को अपनाया, न कि पूरी तरह से संघीय संरचना को।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अधिनियमन से पहले 1934 की संयुक्त समिति की रिपोर्ट विधायी शक्तियों के पृथक्करण के पीछे तर्क देती है:
- यह प्रांतीय स्वायत्तता की एक अनिवार्य विशेषता है तथा अपने आप में इसकी परिधि को परिभाषित करने का साधन है।
- इसका उद्देश्य केंद्र-राज्य क्षेत्राधिकार की परिधि पर विवादों को कम करना भी था।
सातवीं अनुसूची पर पुनर्विचार की आवश्यकता:
- निम्नलिखित आधारों पर सातवीं अनुसूची को संशोधित करने की आवश्यकता है:
- शासन की आवश्यकता स्थिर नहीं है तथा इसमें परिवर्तन होना तय है। वर्ष 1950 में विधायी आवंटन के लिये जो विषय महत्त्वपूर्ण था, वह वर्तमान में प्रासंगिक नहीं रह गया है।
- 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष ने राजकोषीय संघवाद को सशक्त करने के लिये 7वीं अनुसूची पर पुनर्विचार करने का भी आह्वान किया।
- पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों द्वारा मांग की गई है, जिसमें आमतौर पर उन्हें अधिक शक्तियाँ प्रदान करने या सातवीं अनुसूची के पूर्ण पुनर्गठन की मांग की गई है।
- पश्चिम बंगाल राज्य ने एक ज्ञापन पारित किया, जिसके अंतर्गत राज्यों को उद्योगों पर अधिक नियंत्रण दिया गया।
- उड़ीसा राज्य वित्त के मामले में अधिक स्वायत्तता एवं विकेंद्रीकरण चाहता था।
- तमिलनाडु में वर्ष 1969 में राजमन्नार समिति तथा पंजाब में वर्ष 1973 में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव में कई प्रविष्टियों को राज्य सूची में स्थानांतरित करने की अनुशंसा की गई थी।
न्यायपालिका द्वारा सातवीं अनुसूची में प्रयुक्त सिद्धांत:
- निहित शक्तियों का सिद्धांत:
- सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्य के बीच कटुता का एक प्रमुख कारण निहित शक्तियों के सिद्धांत की छाया है।
- इस सिद्धांत को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश मार्शल ने व्यक्त किया था।
- सक्षमता को अच्छी तरह से परिभाषित न करना तथा आत्मनिर्भर श्रेणियों की कमी ने विधायी उत्तरदायित्त्व के आवंटन के विषय में भ्रम उत्पन्न किया है।
- सार एवं तत्त्व का सिद्धांत:
- सार शब्द का अर्थ है ‘वास्तविक प्रकृति’ तथा तत्त्व का अर्थ है ‘किसी वस्तु का सबसे महत्त्वपूर्ण या आवश्यक हिस्सा’।
- प्रेमचंद जैन बनाम आरके छाबड़ा (1984) के मामले में, न्यायालय ने माना कि कोई भी अधिनियम जो संविधान द्वारा उसे अधिनियमित करने वाले विधानमंडल को स्पष्ट रूप से प्रदत्त शक्तियों के अंतर्गत आता है, उसे केवल इसलिये अवैध नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि यह संयोगवश किसी अन्य विधानमंडल को सौंपे गए मामलों का अतिक्रमण करता है।
- हाल ही में इस सिद्धांत को एनिमल वेलफेयर एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2023) के मामले में लागू किया गया था, न्यायालय ने सार एवं तत्त्व के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहा कि "यदि विधि का सार एवं तत्त्व विधानमंडल के अनुमत क्षेत्राधिकार के अंदर किसी प्रविष्टि द्वारा शामिल किया जाता है तो प्रतिद्वंद्वी क्षेत्र में किसी भी आकस्मिक अतिक्रमण की उपेक्षा की जानी चाहिये”।
- आभासी विधान का सिद्धांत:
- यह सिद्धांत इस विधिक सूत्र पर आधारित है कि जो कार्य प्रत्यक्षतः नहीं किया जा सकता, उसे अप्रत्यक्षतः भी नहीं किया जा सकता।
- इस सिद्धांत के अनुसार न्यायालय को विधि के स्वरूप या लेबल को नहीं देखना चाहिये, बल्कि विधि के सार को देखना चाहिये।
- इस प्रकार, न्यायालय को विधि के उद्देश्य के साथ-साथ उसके प्रभाव को भी देखना चाहिये।
निष्कर्ष:
संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ शामिल हैं- संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची। इन सूचियों में उन विषयों को सूचीबद्ध किया गया है जिन पर विभिन्न विधायी निकायों को विधि निर्माण का अधिकार होगा।