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पारिवारिक कानून
विवाह की विधिमान्यता
« »11-Oct-2023
परिचय:
- इस कानून के तहत कोई व्यक्ति अपने विवाह की विधिमान्यता की अवधारण के लिये मुकदमा दायर कर सकता है।
- विधिमान्य विवाह की शर्तें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 5 के तहत प्रदान की गई हैं।
- यह धारा विवाह को अकृत करने अथवा अभिपुष्ट करने की कार्रवाइयों को नियंत्रित करती है। ये कार्रवाइयाँ तब की जाती हैं जब एक पक्षकार विधिमान्य विवाह के बारे में अनिश्चित होता है अथवा जब एक पक्षकार विवाह की विधिमान्यता पर प्रश्न उठाता है।
- विवाह की विधिमान्यता के संदर्भ में, विवाह विधिमान्य, शून्य अथवा शून्यकरणीय हो सकता है।
HMA से संबंधित उपबंध:
- HMA का उद्देश्य हिंदुओं के बीच विवाह संबंधी कानून में संशोधन और संहिताबद्ध करना है तथा इसके अतिरिक्त इसमें प्रादेशिक संक्रियाएँ भी शामिल हैं।
- यह अधिनियम न केवल भारत में रहने वाले हिंदुओं पर अपितु भारत के बाहर रहने वाले उन हिंदुओं पर भी प्रवर्तित होता है जो HMA द्वारा अंतर्विष्ट उपबंधों के अनुसार विवाहित हैं।
- वरिन्द्र सिंह बनाम राजस्थान राज्य (2005) में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि याचिकाकर्ता कनाडा में रहने वाले हिंदू हैं, उन्होंने अधिनियम के उपबंधों के अनुसार विवाह किया है इसलिये रजिस्ट्रार हिंदू विवाह अधिनियम के तहत रजिस्ट्रीकरण से इंकार नहीं कर सकता है।
- यह अधिनियम न केवल भारत में रहने वाले हिंदुओं पर अपितु भारत के बाहर रहने वाले उन हिंदुओं पर भी प्रवर्तित होता है जो HMA द्वारा अंतर्विष्ट उपबंधों के अनुसार विवाहित हैं।
HMA की धारा 5 - हिंदू विवाह के लिये शर्तें
- निम्नलिखित शर्तों को पूरा करने पर किन्हीं दो हिंदुओं के बीच विवाह संपन्न हो सकता है:
- विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से न तो वर कि कोई पत्नी जीवित होगी और न ही वधू का कोई पति जीवित होगा।
- विवाह के पक्षकारों की मानसिक स्थिति संतुलित होना चाहिये।
- विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से कोई पक्षकार चित्त विकृति के कारण विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ न हो। इस प्रकार के अथवा इस सीमा तक मानसिक विकार से ग्रस्त न हो कि वह विवाह तथा संतान उत्पत्ति के अयोग्य हो।
- किसी ऐसे मानसिक विकार से ग्रस्त न हो जो उसे विवाह तथा संतान उत्पत्ति के लिये अयोग्य बनाता हो।
- उन्हें बार-बार उन्मत्तता का दौरा न पड़ता हो।
- विवाह तभी अनुष्ठापित किया जा सकता है जब वर 21 वर्ष की आयु और वधु ने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है।
- पक्ष तब तक प्रतिषिद्ध संबंध की डिग्री के भीतर नहीं हैं जब तक कि उनमें से प्रत्येक को नियंत्रित करने वाले रीति-रिवाज़ या उपयोग दोनों के बीच विवाह की अनुमति नहीं देते।
- विवाह के संपन्न होने के लिये विवाह के पक्षकारों का आपस में सपिंड संबंध का नहीं होना चाहिये। जब तक पक्षकरों की प्रथा और रूढ़ियों में इसे मान्यता न दी गई हो।
- सपिंड संबंध - धारा 3 (f) (i) के अनुसार, सपिंड संबंध किसी भी व्यक्ति के संबंध में माँ के माध्यम से वंश की पंक्ति में तीसरी पीढ़ी (तीसरी पीढ़ी सहित) और पिता के माध्यम से वंश की पंक्ति में पाँचवी पीढ़ी (पाँचवी पीढ़ी सहित) तक फैला हुआ है। सपिंड से जुड़े रिश्तों का आकलन करते समय पंक्ति को हमेशा संबंधित व्यक्ति से ऊपर की ओर देखा जाना चाहिये, और इस व्यक्ति को पहली पीढ़ी के रूप में गिना जाना चाहिये।
(ii) दो लोगों को एक-दूसरे का ‘सपिंड’ कहा जाता है, यदि उनमें से एक सपिंड नातेदारी से जुड़ी सीमाओं के भीतर दूसरे का वंशानुगत लग्न (लिनल एसेंडेंट्स) है, अथवा यदि उनके पास एक सामान्य वंशानुगत लग्न है जो उनमें से प्रत्येक के संबंध में सपिंड संबंधों की सीमा के भीतर है। एक विवाह विधिमान्य है यदि वह धारा 5 द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा करता है, यदि उपर्युक्त शर्तों में से किसी को भी पूरा नहीं किया जाता है तो विवाह या तो शून्य होगा,अथवा अप्रभावी होगा। - प्रतिषिद्ध संबंध - धारा 3(g) के अनुसार प्रतिषिद्ध संबंधों में शामिल व्यक्ति हैं:
(i) यदि एक दूसरे का वंशानुगत लग्न है; अथवा
(ii) यदि कोई किसी दूसरे के वंशानुगत लग्न अथवा वंश लग्न की वधू अथवा वर था; अथवा
(iii) यदि कोई दूसरे के भाई, पिता अथवा माता के भाई, दादा अथवा दादी के भाई की वधू थी,
(iv) यदि दोनों भाई-बहन हों, चाचा-भतीजी हों, चाची-भतीजे हों, अथवा भाई-बहन की संतान हों, अथवा दो भाई अथवा बहन हों।
शून्य विवाह:
- HMA की धारा 11 में शून्य विवाह के प्रावधान की व्याख्या इस प्रकार की गई है:
- इस अधिनियम के प्रारंभ के पश्चात् अनुष्ठापित कोई भी विवाह यदि वह धारा 5 के खंड (i), (iv) और (v) में विनिर्दिष्ट शर्तों में से किसी एक का भी उल्लंघन करता हो तो, अकृत और शून्य होगा तथा विवाह के किसी पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार के विरुद्ध उपस्थापित अर्जी के आधार पर अकृतता की डिक्री द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा।
- खंड (i) विवाह के समय किसी भी पक्षकार का जीवनसाथी जीवित नहीं हो।
- खंड (iv) पक्षकारों के बीच प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियाँ नहीं हो। जब तक पक्षकरों की प्रथा और रूढ़ियों में इसे मान्यता न दी गई हो।
- खण्ड (v) पक्षकारों का आपस में सपिंड संबंध नहीं होना चाहिये। जब तक पक्षकरों की प्रथा और रूढ़ियों में इसे मान्यता न दी गई हो।
निर्णय विधि:
- भाऊराव बनाम महाराष्ट्र राज्य (1965), उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसे विवाह जो पक्षकारों द्वारा कुछ आवश्यक प्रथाओं का पालन किये बिना संपन्न हुए हैं, ऐसे विवाह को कानून की नजर में विधिमान्य विवाह नहीं माना जा सकता है। ऐसी परिस्थिति में द्विविवाह करना अपराध है।
- शून्य विवाह का आशय विवाह का न होना है । यदि कोई न्यायालय यह घोषित करती है कि दो पक्षकारों के बीच विवाह विधिमान्य नहीं है, तो इसे अकृत माना जाता है।
- चूँकि यह पहले से ही विधिमान्य विवाह नहीं है, इसलिये न्यायालय द्वारा अकृतता की डिक्री जारी करना आवश्यक नहीं है।
- ऐसे विवाह से जन्में बच्चों को HMA की धारा 16 के आधार पर धर्मज माना जाता है।
शून्यकरणीय विवाह:
- HMA की धारा 12 में शून्यकरणीय विवाह के उपबंध की परिकल्पना की गई है:
- शून्यकरणीय विवाह तब तक विधिमान्य विवाह है जब तक इसे परिवर्जित नहीं किया जाता है तथा यह केवल तभी किया जा सकता है जब विवाह के पक्षकारों में से कोई एक इसके लिये याचिका दायर करता है।
- हालाँकि, यदि कोई भी पक्षकार विवाह के बातिलिकरण के लिये याचिका दायर नहीं करता है, तो यह विधिमान्य रहेगा।
- पक्षकारों को पति एवं पत्नी का दर्जा प्राप्त है तथा उनके बच्चों को धर्मज माना जाता है। दंपत्ति के अन्य सभी अधिकार एवं दायित्व अविकल रहेंगे।
- HMA की धारा 5 का खंड (ii) यदि अनुपालन नहीं किया जाता है तो विवाह को शून्यकरणीय घोषित कर दिया जाता है।
- धारा 5 - (ii) विवाह के समय, कोई भी पक्ष -
(a) मानसिक अस्वस्थता के परिणामस्वरूप इसके लिये वैध सम्मति देने में असमर्थ हो;
(b) वैध सम्मति देने में सक्षम है किंतु किसी ऐसे मानसिक विकार से ग्रस्त न हो जो उसे विवाह तथा संतान उत्पत्ति के लिये अयोग्य बनाता हो; अथवा
(c) उन्हें बार-बार उन्मत्तता का दौरा न पड़ता हो।
- धारा 5 - (ii) विवाह के समय, कोई भी पक्ष -
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 में निम्नलिखित आधारों का उल्लेख है जिनके अंतर्गत विवाह को शून्यकरणीय घोषित किया जा सकता है:
- यदि विवाह में दोनों पक्षकारों में से कोई भी सम्मति देने में असमर्थ है अथवा उन्हें बार-बार उन्मत्तता का दौरा पड़ता हो।
- यदि याचिकाकर्ता की सम्मति अथवा याचिकाकर्ता के अभिभावक की सम्मति बलपूर्वक अथवा धोखाधड़ी से प्राप्त की गई हो।
- यदि प्रत्यर्थी विवाह के समय अर्जीदार से भिन्न किसी व्यक्ति द्वारा गर्भवती थी।
- HMA की धारा 16 के तहत शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न हुए बच्चों को धर्मज का दर्ज़ा दिया जाता है।
निर्णय विधि:
सोम दत्त बनाम राज कुमार (1986) मामले में पत्नी, पति से 7 वर्ष बड़ी थी, पंजाब तथा हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि ऐसी जानकारी छिपाना धोखाधड़ी है।