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हिंदू अप्राप्तवयता (अवयस्कता) और संरक्षकता
« »03-Nov-2023
परिचय
- "संरक्षकता" शब्द का तात्पर्य "अधिकारों और शक्तियों का एक समूह है जो एक व्यक्ति को अवयस्क अवयस्क के संरक्षक और संपत्ति के संबंध में मिलता है"।
- हिंदू धर्म में, कोई संरक्षकता कानून नहीं था क्योंकि परिवार के सभी सदस्य हमेशा एक साथ रहते थे। यदि माता-पिता नहीं होते तो परिवार के अन्य सदस्य अवयस्क की देखभाल करते।
- इसलिये, देश में एक उचित संरक्षकता कानून बनाने के लिये, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 (इसके बाद, अधिनियम) अधिनियमित किया गया था।
अवयस्क एवं संरक्षक की परिभाषा:
- अधिनियम की धारा 4(a) के अनुसार अप्राप्तवय का से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की हो।
- संरक्षक से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जिसकी देखरेख में किसी अप्राप्तवय का शरीर या उसकी संपत्ति या उसकी शरीर और सम्पति दोनों हो इसके अंतर्गत आते हैं-
- अधिनियम की धारा 4(b) के अनुसार, संरक्षक का अर्थ है एक ऐसा व्यक्ति जो किसी अवयस्क की या उसकी संपत्ति दोनों की देखभाल करता है, और इसमें शामिल हैं-
- नैसर्गिक संरक्षक,
- अप्राप्तवय के पिता या माता की विल द्वारा नियुक्त संरक्षक
- न्यायालय द्वारा नियुक्त या घोषित संरक्षक, तथा
- किसी प्रतिपाल्य अधिकरण से संबंध रखने वाली किसी अधिनियमिति के द्वारा या अधीन संरक्षक की हैसियत में कार्य करने के अवयस्क सशक्त व्यक्ति
संरक्षकोंं के प्रकार
संरक्षकोंं के प्रकार इस प्रकार वर्णित हैं:
- नैसर्गिक संरक्षक
- वसीयती संरक्षक
- वास्तविक संरक्षक
- न्यायालय द्वारा नियुक्त या घोषित संरक्षक
नैसर्गिक संरक्षक - धारा 6
- अधिनियम की धारा 6 में प्राकृतिक संरक्षकोंं का उल्लेख है:
- हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक अप्राप्तव्य के शरीर के बारे में और (अविभक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में उसके अविभक्त हित को छोड़कर) उसकी सम्पति के बारे में भी निम्नलिखित हैं—
- (a) किसी लड़के या अविवाहिता लड़की की दशा में पिता और उसके पश्चात् माता; परन्तु जिस अप्राप्तवय ने पाँच वर्ष की आयु पूरी न कर ली हो उसकी अभिरक्षा मामूली तौर पर माता के हाथ में होगी
- (b) अधर्मज लड़के तथा अधर्मज अविवाहिता लड़की की दशा में माता और उसके पश्चात् पिता
- (c) विवाहिता लड़की की दशा में पति
- बशर्ते कि कोई भी व्यक्ति इस धारा के प्रावधानों के तहत किसी अप्राप्तवय के प्राकृतिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का हकदार नहीं होगा परन्तु जो भी व्यक्ति यदि:
- (a) वह हिन्दू नहीं रह गया है; या
- (b) वह वानप्रस्थ या यति या सन्यासी होकर संसार को पूर्णतः और अन्तिम रूप से त्याग चुका है, तो इस धारा
- स्पष्टीकरण- इस धारा में 'पिता' और 'माता' पदों के अन्तर्गत सौतेला पिता और सौतेली माता नहीं आते।
- हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक अप्राप्तव्य के शरीर के बारे में और (अविभक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में उसके अविभक्त हित को छोड़कर) उसकी सम्पति के बारे में भी निम्नलिखित हैं—
नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियाँ - धारा 8
- किसी भी हिन्दू अप्राप्तव्य का नैसर्गिक संरक्षक उन सब कार्यों को करने की शक्ति रखता है जो उस अप्राप्तवय के फायदे के अवयस्क हो।
- अप्राप्तवय की स्थावर सम्पति के किसी भी भाग को बन्धक या भारित अथवा विक्रय विनिमय द्वारा या अन्यथा अन्तरित नहीं कर सकते। ऐसा वह न्यायालय की अनुमति से ही ऐसा कर सकता है।
- यदि आवश्यक हो, तो संरक्षक संपत्ति के किसी भी हिस्से को पाँच वर्ष की अवधि के अवयस्क पट्टे पर दे सकता है, लेकिन उससे अधिक नहीं। यदि पट्टा पाँच वर्ष से अधिक का करना हो तो न्यायालय की अनुमति आवश्यक होती है।
- यदि संरक्षक नियम का पालन नहीं करता है और स्थावर सम्पति का निपटान करता है, तो यह अवयस्क या अवयस्क की ओर से दावा करने वाले किसी अन्य व्यक्ति के विकल्प पर शून्य हो जाएगा।
- कोई भी न्यायालय प्राकृतिक संरक्षक को ऐसा कोई कार्य करने की अनुमति नहीं देगा जो अवयस्क के हित में न हो।
- न्यायालय संरक्षक को संपत्ति हस्तांतरित करने या पट्टे पर देने की अनुमति केवल तभी देगी जब वह अवयस्क के हित या लाभ के अवयस्क ऐसा करना आवश्यक समझे।
वसीयती संरक्षक और उनकी शक्तियाँ - धारा 9
- जिस संरक्षक को किसी व्यक्ति की वसीयत या वसीयत द्वारा नियुक्त किया जाता है, उसे वसीयती संरक्षक के रूप में जाना जाता है।
- वसीयती संरक्षक के संबंध में प्रावधान इस प्रकार हैं:
- (1) ऐसा हिन्दू पिता जो अपने अप्राप्तक्य धर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने का हकदार हो, उनमें से किसी के लिये भी अप्राप्तव्य के शरीर के या उस अप्राप्तव्य की (धारा 12 में निर्दिष्ट अविभक्त हित से भिन्न) सम्पत्ति के या दोनों के बारे में बिल द्वारा संरक्षक नियुक्त कर सकेगा।
- (2) उपधारा (1) के अधीन की गई नियुक्ति प्रभावी नहीं होगी यदि पिता माता से पूर्व मर जाए किन्तु यदि माता बिल द्वारा किसी व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त किये बिना मर जाए तो वह नियुक्ति पुनरुजीवित हो जाएगी।
- (3) ऐसी हिन्दू विधवा, जो अपने अप्राप्तवय धर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने की हकदार हो और ऐसी हिन्दू माता, जो अपने अप्राप्तवय धर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने की इस "कारण हकदार हो कि पिता नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने के लिये निर्हकित हो गया है, उनमें से किसी के लिये भी उस अप्रामवय के शरीर के या उस अप्राभवय के शरीर या (धारा 12 में निर्दिष्ट अविभक्त हित से भिन्न) सम्पत्ति के या दोनों के बारे में बिल द्वारा संरक्षक नियुक्त कर सकेगी।
- (4) ऐसी हिन्दू माता, जो अपने अप्राप्तव्य अधर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने की हकदार हो, उनमें से किसी के लिये भी उस अप्राप्तव्य के शरीर के या उस अप्राप्तवय की सम्पति के या दोनों के बारे में बिल द्वारा संरक्षक नियुक्त कर सकेगी।
- (5) बिल द्वारा ऐसे नियुक्त किये गए संरक्षक को अधिकार है कि वह अप्राप्तवय के यथास्थिति, पिता या माता की मृत्यु के पश्चात् अप्राप्तवय के संरक्षक के तौर पर कार्य करे और इस अधिनियम के अधीन नैसर्गिक संरक्षक के सब 'अधिकारों का, उस विस्तार तक और उन निबन्धनों के अध्यधीन, यदि कोई हो, जो इस अधिनियम और उस बिल में विनिर्दिष्ट हों, प्रयोग करेगा।
- (6) दिल द्वारा ऐसे नियुक्त किये गए संरक्षक के अधिकार जहाँ कि अप्राप्तव्य लड़की है, उसके विवाह हो जाने पर समाप्त हो जाएँगे।
वास्तविक संरक्षकता
- वास्तविक संरक्षक का अर्थ है स्व-नियुक्त संरक्षक
- वह एक ऐसा व्यक्ति है, जो वास्तव में, एक अवयस्क का संरक्षक बन जाता है। प्राकृतिक संरक्षकों की मृत्यु के बाद, कोई भी व्यक्ति जो अवयस्क की भलाई और आवश्यकताओं का ख्याल रखता है, वह वास्तविक संरक्षक बन जाता है।
- वह ऐसा व्यक्ति है जो बिना किसी कानून के अधिकार के किसी अवयस्क के व्यक्ति के कल्याण या अवयस्क की संपत्ति के प्रबंधन या प्रशासन में निरंतर रुचि लेता है।
- न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना वास्तविक संरक्षक द्वारा की गई संपत्ति का हस्तांतरण शून्य है।
- वास्तविक संरक्षक को अवयस्क की संपत्ति का निपटान या सौदा करने की अनुमति नहीं है, और यह दिया गया है कि संरक्षक को अधिनियम की धारा 11 के अनुसार कोई ऋण लेने का अधिकार नहीं है।
- अमानत हुसैन और अन्य बनाम साहिदा बेगम और अन्य (2015) के मामले में, गौहाटी उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि वास्तविक संरक्षकों द्वारा की गई संपत्ति हस्तांतरण हिंदू कानून के अनुसार वास्तविक संरक्षकोंं द्वारा किये गए हस्तांतरण के बराबर है। यदि ऐसे स्थानांतरणों में उचित औचित्य का अभाव है, तो उनका विरोध किया जा सकता है और वे रद्द करने योग्य हैं।
न्यायालय द्वारा नियुक्त अथवा घोषित संरक्षक
- संरक्षक और वार्ड अधिनियम, 1890 के तहत न्यायालयों को संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार है।
- हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम संरक्षक और वार्ड अधिनियम का पूरक है।
- जिला न्यायालय किसी भी व्यक्ति को संरक्षक के रूप में नियुक्त कर सकता है जब भी उसे लगे कि यह अवयस्क के लाभ के लिये आवश्यक है।
- जिला न्यायालय के पास व्यक्ति के साथ-साथ अवयस्क की अलग-अलग संपत्ति या दोनों के लिये संरक्षक नियुक्त करने या घोषित करने की शक्ति है।
- संरक्षक की नियुक्ति करते समय, न्यायालय विभिन्न कारकों जैसे अवयस्क की उम्र, लिंग, अवयस्क का व्यक्तिगत कानून आदि को ध्यान में रखेगा, लेकिन मुख्य उद्देश्य बच्चों का कल्याण है।
- अधिनियम की धारा 13 के तहत, किसी भी व्यक्ति को संरक्षक के रूप में नियुक्त करने के तहत अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि है।
- मोहिनी बनाम वीरेंद्र (2017) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना है कि किसी व्यक्ति को अवयस्क के संरक्षक के रूप में नियुक्त या घोषित करते समय, अवयस्क का कल्याण सर्वोपरि विचार होगा।
न्यायालय के द्वारा संरक्षक को हटाना - धारा 13
- हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 13 अवयस्क के कल्याण के बारे में बताती है न्यायालय द्वारा किसी भी व्यक्ति के किसी हिन्दू अप्राप्तव्य का संरक्षक नियुक्त या घोषित किये जाने में अप्राप्तचय के कल्याण पर सर्वोपरि ध्यान रखा जाएगा।
- यदि किसी भी व्यक्ति के विषय में न्यायालय की यह राय हो कि उसके संरक्षक होने में अप्राप्तवय का कल्याण न होगा तो वह व्यक्ति इस अधिनियम के उपबन्धों के आधार पर या ऐसी किसी भी विधि के आधार पर हिन्दुओं में विवाहार्थं संरक्षकता के बारे में हो, संरक्षकता का हकदार न होगा।
संरक्षक को हटाने के आधार
- कुछ ऐसे आधार हैं जिन पर संरक्षक को हटाने से पहले विचार करना आवश्यक है जो नीचे बताए गए हैं:
- जब वह किसी अवयस्क की संपत्ति का उपयोग अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिये करता है।
- जब वह संसार को त्याग कर सन्यासी बन जाता है।
- जब वह हिंदू नहीं रह जाता है।
- यदि न्यायालय को लगे कि यह अवयस्क के सर्वोत्तम हित में नहीं है तो वह उसे हटा सकती है।