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आपराधिक कानून

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR)

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 23-Apr-2024

परिचय:

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 154 के अधीन दी गई जानकारी को सामान्य तौर पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के रूप में जाना जाता है, हालाँकि इस शब्द का उपयोग संहिता में नहीं किया गया है। जैसा कि इसके उपनाम से पता चलता है, यह किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा दर्ज की गई संज्ञेय अपराध की सबसे प्रारंभिक एवं प्रथम सूचना है।

FIR दर्ज होने की प्रक्रिया:

  • सामान्य नियम यह है कि सामान्य तौर पर किए गए अपराध की जानकारी, उस क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार वाले पुलिस स्टेशन को दी जाती है, जहाँ अपराध कारित हुआ है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसे कहीं और दर्ज नहीं कराया जा सकता है।
  • FIR केवल पीड़ित या प्रत्यक्षदर्शी द्वारा दर्ज कराने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक नागरिक को आपराधिक विधि की कार्यप्रणाली को गति देने का अधिकार है।
  • यह आवश्यक नहीं है कि सूचना में घटना की व्यक्तिगत जानकारी हो। यहाँ तक कि संज्ञेय अपराध की रिपोर्ट करने के लिये भेजा गया गुमनाम पत्र भी FIR माना जा सकता है

FIR  के उद्देश्य:

  • FIR का मुख्य उद्देश्य आपराधिक विधि को गति देना तथा कथित आपराधिक गतिविधि के बारे में जानकारी प्राप्त करना एवं अपराध से जुड़ी घटनाओं के सही या लगभग सही संस्करण प्राप्त करना है।
  • यह अभियोजन पक्ष की ओर से स्वयं कमियों को भरने की अवांछनीय प्रवृत्ति पर रोक लगाता है।
  • आरोपी को बाद के बदलावों या परिवर्धन से बचाने के लिये

FIR की अनिवार्यताएँ:

निम्न्नलिखित बिंदु एक संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित सूचना है।

  • यह सूचना देने वाले द्वारा मौखिक या लिखित रूप से दिया जाता है।
  • यदि मौखिक दिया जाता है, तो इसे पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा या उसके निर्देशन में लिखित रूप में दिया जाना चाहिये तथा यदि लिखित रूप में दिया जाता है तो इसे देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिये।
  • लिखित रूप में दी गई जानकारी, सूचना देने वाले को पढ़कर सुनाई जानी चाहिये तथा उसकी एक प्रति, सूचना देने वाले को तुरंत निःशुल्क दी जानी चाहिये।
  • रिपोर्ट का सार एक पुस्तक में ऐसे प्रारूप में दर्ज किया जाएगा जैसा राज्य सरकार इस संबंध में निर्धारित कर सकती है। इस दस्तावेज़ों के संग्रह को जनरल डायरी कहा जाता है।

FIR की सामग्री:

  • इसमें घटित प्रत्येक क्षण की घटना का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है।
  • इसमें केवल प्राप्त जानकारी के सार का उल्लेख करना आवश्यक है तथा इसे प्रत्येक तथ्य का भंडार नहीं कहा जा सकता है।

FIR का साक्ष्य मूल्य:

  • विधि का स्थापित सिद्धांत है कि FIR को एक ठोस साक्ष्य के रूप में नहीं माना जा सकता है तथा इसे केवल एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में ही माना जा सकता है।
  • इसका उपयोग न तो मुकदमे में निर्माता के विरुद्ध किया जा सकता है, यदि वह स्वयं आरोपी बन जाता है तथा न ही अन्य साक्षियों की पुष्टि या खंडन करने के लिये किया जा सकता है।
  • इसका उपयोग केवल कुछ सीमित उद्देश्यों के लिये ही किया जा सकता है, जैसे:
    • निर्माता के बयान की पुष्टि के उद्देश्य से अभियोजन पक्ष द्वारा FIR को सिद्ध किया गया है। इसका उपयोग पहले सूचना प्रदाता के कथनों का खंडन करने के लिये भी किया जा सकता है।
    • इसका उपयोग यह दिखाने के लिये भी किया जा सकता है कि मामले में आरोपी के निहितार्थ पर बाद में विचार नहीं किया गया था।
    • जहाँ FIR को सूचना प्रदाता के आचरण के एक भाग के रूप में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, वहीं इसका उपयोग ठोस साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है।
    • यदि सूचना प्रदाता की मृत्यु हो जाती है तथा FIR में उसकी मृत्यु के कारण या उसकी मृत्यु से संबंधित परिस्थितियों के विषय में एक बयान होता है, तो इसका उपयोग ठोस साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है।

FIR दर्ज करने के नियम के अपवाद:

  • कुछ मामलों में, FIR दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जाँच आवश्यक हो सकती है। ये मामले निम्नलिखित हैं:
    • वैवाहिक/पारिवारिक विवाद
    • वाणिज्यिक अपराध
    • चिकित्सकीय लापरवाही के मामले
    • भ्रष्टाचार के मामले
    • ऐसे मामले जहाँ आपराधिक मुकदमा शुरू करने में असामान्य विलंब/चूक होती है, उदाहरण के लिये, विलंब के कारणों को संतोषजनक ढंग से बताए बिना मामले की रिपोर्ट करने में 3 महीने से अधिक की देरी।
    • प्रारंभिक जाँच 7 दिनों के अंदर पूरी की जानी चाहिये।

FIR   दर्ज करने से इंकार की स्थिति:

  • CrPC की धारा 154(3) के अधीन, यदि कोई व्यक्ति किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा FIR दर्ज करने से इनकार करने से व्यथित है, तो वह संबंधित पुलिस अधीक्षक/डीसीपी को शिकायत भेज सकता है।
  • यदि वह इस बात से संतुष्ट है कि ऐसी जानकारी, किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने की तरफ इशारा करती है, तब ऐसी परिस्थिति में या तो मामले की जाँच करेगा, या किसी अधीनस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा जाँच का निर्देश देगा।
  • यदि कोई FIR दर्ज नहीं की गई है, तो पीड़ित व्यक्ति संबंधित न्यायालय के समक्ष CrPC की धारा 156 (3) के अधीन शिकायत दर्ज कर सकते हैं, जो विवेचना के पश्चात् संतुष्ट होने पर कि शिकायत से संज्ञेय अपराध बनता है, पुलिस को FIR दर्ज करने एवं कार्यवाही करने का निर्देश दिया जाएगा।

ज़ीरो FIR:

  • जब एक पुलिस स्टेशन को किसी अन्य पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में किये गए कथित अपराध के बारे में शिकायत मिलती है, तो वह FIR दर्ज करता है तथा पुनः इसे आगे की जाँच के लिये संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर देता है। इसे ज़ीरो FIR कहा जाता है।
  • कोई नियमित FIR नंबर नहीं दिया गया है, ज़ीरो FIR मिलने के बाद संबंधित पुलिस स्टेशन नई FIR दर्ज करता है तथा जाँच शुरू करता है।

निर्णयज विधि:  

  • ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य (2014) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि संज्ञेय अपराध की जानकारी दी गई है तो FIR दर्ज करना आवश्यक है तथा FIR दर्ज करने से पहले कोई प्रारंभिक जाँच नहीं की जानी है।
  • यूथ बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एवं अन्य में (2014), उच्चतम न्यायालय ने FIR से संबंधित निम्नलिखित दिशानिर्देश निर्धारित किये:
    • पुलिस द्वारा आरोप-पत्र दाखिल करने से पहले आरोपी को FIR की एक प्रति दी जानी चाहिये।
    • आरोपी को उसके अनुरोध पर FIR की प्रामाणित प्रति दी जानी चाहिये।
    • FIR को पुलिस की वेबसाइट या राज्य की वेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिये।