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आपराधिक कानून
आरोप-पत्र
« »27-Aug-2024
परिचय
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS ) की धारा 193 के अधीन आरोप-पत्र परिभाषित किया गया है।
- यह किसी मामले की विवेचना पूरी करने के बाद पुलिस अधिकारी या जाँच एजेंसी द्वारा तैयार की गई अंतिम रिपोर्ट है।
- आरोप-पत्र का साक्ष्य मूल्य महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यह पुलिस अधिकारी द्वारा बनाया जाता है तथा आरोप तय किये जाते हैं जो उसकी राय पर आधारित होते हैं जिन्हें अभी सिद्ध किया जाना है।
आरोप-पत्र क्या है?
परिचय:
- यह विवेचना अधिकारी द्वारा तैयार किया गया एक दस्तावेज़ है जिसमें वे घटनाक्रम शामिल होते हैं जो अन्यथा न्यायालय में उपलब्ध नहीं होते।
- आरोप-पत्र में पुलिस अधिकारी द्वारा विवेचना एवं साक्ष्यों के संग्रह के आधार पर आरोपी के विरुद्ध लगाए गए आरोप शामिल होते हैं।
- 60-90 दिनों की निर्धारित अवधि के अंदर आरोपी के विरुद्ध आरोप-पत्र दायर किया जाना चाहिये, अन्यथा गिरफ्तारी अवैध है तथा आरोपी ज़मानत का अधिकारी है।
- आरोप-पत्र तैयार करने के बाद, पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी इसे मजिस्ट्रेट को भेजता है, जिसे इसमें उल्लिखित अपराधों का संज्ञान लेने का अधिकार है ताकि आरोप तय किये जा सकें।
आरोप-पत्र की विषय-वस्तु:
- पक्षों के नाम
- सूचना की प्रकृति
- मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम
- क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है तथा यदि ऐसा है, तो किसके द्वारा
- क्या अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया है
- क्या उसे बॉण्ड पर रिहा किया गया है तथा यदि ऐसा है, तो ज़मानत के साथ या उसके बिनाचार्जशीट, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR ) से किस प्रकार भिन्न है?
चार्जशीट, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR ) से किस प्रकार भिन्न है?
आधार |
आरोप-पत्र |
प्रथम सूचना रिपोर्ट |
प्रावधान |
'चार्जशीट' शब्द को BNSS की धारा 193 के अधीन परिभाषित किया गया है। |
● FIR को भारतीय न्याय संहिता (BNS) या BNSS में परिभाषित नहीं किया गया है। ● इसे BNSS की धारा 173 के अधीन पुलिस विनियमों/नियमों के अंतर्गत स्थान मिलता है, जो 'संज्ञेय मामलों में सूचना' से संबंधित है।
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दाखिल करने का समय |
आरोप-पत्र किसी विवेचना के अंत में दायर की गई अंतिम रिपोर्ट होती है |
FIR तब दर्ज की जाती है जब पुलिस को किसी संज्ञेय अपराध के विषय में पहली बार सूचना मिलती है। |
अपराध का निर्धारण |
आरोप-पत्र साक्ष्यों से पूर्ण होता है तथा प्रायः इसका प्रयोग अभियोजन के दौरान अभियुक्त पर लगाए गए अपराधों को सिद्ध करने के लिये किया जाता है। |
FIR से किसी व्यक्ति का अपराध तय नहीं होता। |
नियम एवं शर्तें |
पुलिस या कानून प्रवर्तन/जाँच एजेंसी द्वारा आरोप-पत्र तभी दायर किया जाता है जब वे FIR में उल्लिखित अपराधों के संबंध में आरोपी के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य एकत्रित कर लेते हैं, अन्यथा, साक्ष्यों के अभाव में निपटान रिपोर्ट’ या ‘अज्ञात रिपोर्ट’ दायर की जा सकती है। |
● FIR दर्ज करने के बाद जाँच की जाती है। BNSS की धारा 189 के अधीन पुलिस तभी मामले को मजिस्ट्रेट के पास भेज सकती है, जब उसके पास पर्याप्त साक्ष्य हों, अन्यथा आरोपी को अभिरक्षा से रिहा कर दिया जाता है। ● BNSS की धारा 173 के अधीन, यदि कोई व्यक्ति अधिकारियों द्वारा FIR दर्ज करने से मना करने से व्यथित है, तो वह पुलिस अधीक्षक को शिकायत भेज सकता है, जो या तो स्वयं जाँच करेंगे या अपने अधीनस्थ को निर्देश देंगे। |
BNSS की धारा 193
विवेचना पूरी होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट:
- खंड (1) में कहा गया है कि इस अध्याय के अधीन प्रत्येक विवेचना बिना अनावश्यक विलंब के पूरी की जाएगी।
- खंड (2) में कहा गया है कि भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70, 71 या लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 4, 6, 8 या धारा 10 के अधीन अपराध के संबंध में विवेचना पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा सूचना दर्ज किये जाने की तिथि से दो महीने के अंदर पूरी की जाएगी।
- खंड (3) में कहा गया है कि
- जैसे ही विवेचना पूरी हो जाती है, पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी, पुलिस रिपोर्ट पर अपराध का संज्ञान लेने के लिये सशक्त मजिस्ट्रेट को इलेक्ट्रॉनिक संचार के माध्यम से भी एक रिपोर्ट भेजेगा, जैसा कि राज्य सरकार नियमों द्वारा प्रदान कर सकती है, जिसमें कहा गया हो -
- पक्षों के नाम
- सूचना की प्रकृति
- मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम;
- क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है तथा यदि ऐसा है, तो किसके द्वारा
- क्या अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया है
- क्या अभियुक्त को उसके बॉण्ड या ज़मानत पर रिहा किया गया है;
- क्या अभियुक्त को धारा 190 के अधीन अभिरक्षा में भेजा गया है; क्या महिला की चिकित्सा जाँच की रिपोर्ट संलग्न की गई है, जहाँ जाँच भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70 या धारा 71 के अधीन अपराध से संबंधित है
- इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के मामले में अभिरक्षा का क्रम।
- पुलिस अधिकारी नब्बे दिन की अवधि के अंदर विवेचना की प्रगति की सूचना देने वाले या पीड़ित को इलेक्ट्रॉनिक संचार सहित किसी भी माध्यम से देगा।
- अधिकारी राज्य सरकार द्वारा नियमों के अधीन निर्धारित तरीके से उस व्यक्ति को, यदि कोई हो, जिसने अपराध के किये जाने से संबंधित सूचना सबसे पहले दी थी, अपने द्वारा की गई कार्यवाही की सूचना भी देगा।
- खंड (4) में कहा गया है कि जहाँ धारा 177 के अधीन पुलिस का एक वरिष्ठ अधिकारी नियुक्त किया गया है, रिपोर्ट, किसी भी मामले में जिसमें राज्य सरकार सामान्य या विशेष आदेश द्वारा ऐसा निर्देश देती है, उस अधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत की जाएगी तथा वह मजिस्ट्रेट के आदेशों के लंबित रहने तक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को आगे की जाँच करने का निर्देश दे सकता है।
- खंड (5) में कहा गया है कि जब भी इस धारा के अधीन भेजी गई रिपोर्ट से यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त को उसके बॉण्ड या ज़मानत बॉण्ड पर रिहा कर दिया गया है, तो मजिस्ट्रेट ऐसे बॉण्ड या ज़मानत बॉण्ड के अनुपालन के लिये ऐसा आदेश देगा या अन्यथा जैसा वह ठीक समझे।
- खंड (6) में कहा गया है कि जब ऐसी रिपोर्ट ऐसे मामले के संबंध में है जिस पर धारा 190 लागू होती है, तो पुलिस अधिकारी रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को भेजेगा-
- सभी दस्तावेज़ या उनके प्रासंगिक अंश जिन पर अभियोजन पक्ष विश्वास करने का प्रस्ताव करता है, उन दस्तावेज़ों के अतिरिक्त जो विवेचना के दौरान मजिस्ट्रेट को पहले ही भेजे जा चुके हैं।
- धारा 180 के अधीन दर्ज किये गए बयान, उन सभी व्यक्तियों के जिन्हें अभियोजन पक्ष अपने साक्षियों के रूप में परीक्षण करने का प्रस्ताव करता है।
- खंड (7) में कहा गया है कि यदि पुलिस अधिकारी की राय है कि ऐसे किसी कथन का कोई भाग कार्यवाही की विषय-वस्तु से सुसंगत नहीं है या अभियुक्त के समक्ष उसका प्रकटीकरण न्याय के हित में आवश्यक नहीं है तथा लोकहित में अनुचित है, तो वह कथन के उस भाग को इंगित करेगा और मजिस्ट्रेट से अनुरोध करते हुए एक नोट संलग्न करेगा कि वह अभियुक्त को दी जाने वाली प्रतियों से उस भाग को निकाल दे तथा ऐसा अनुरोध करने के अपने कारणों का भी उल्लेख करेगा।
- खंड (8) में कहा गया है कि उप-धारा (7) में निहित प्रावधानों के अधीन, मामले की जाँच करने वाला पुलिस अधिकारी भी धारा 230 के अधीन अपेक्षित अभियुक्त को आपूर्ति के लिये मजिस्ट्रेट को विधिवत सूचीबद्ध अन्य दस्तावेज़ों के साथ पुलिस रिपोर्ट की प्रतियाँ प्रस्तुत करेगा: बशर्ते कि इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा रिपोर्ट एवं अन्य दस्तावेज़ों की आपूर्ति को विधिवत तामील माना जाएगा।
- खंड (9) में कहा गया है कि इस धारा का कोई प्रावधान किसी अपराध के संबंध में उपधारा (3) के अधीन रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजे जाने के पश्चात आगे की जाँच में बाधा डालने वाला नहीं समझा जाएगा तथा जहाँ ऐसी जाँच के बाद पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी मौखिक या दस्तावेज़ी अतिरिक्त साक्ष्य प्राप्त करता है, वहाँ वह ऐसे साक्ष्य के संबंध में मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त रिपोर्ट या रिपोर्टें उस रूप में भेजेगा जैसा राज्य सरकार नियमों द्वारा प्रदान करे और उपधारा (3) से (8) के उपबंध, जहाँ तक हो सके, ऐसी रिपोर्ट या रिपोर्टों के संबंध में उसी प्रकार लागू होंगे जैसे वे उपधारा (3) के अधीन भेजी गई रिपोर्ट के संबंध में लागू होते हैं।
- हालाँकि विचारण के दौरान आगे की जाँच मामले की सुनवाई करने वाले न्यायालय की अनुमति से की जा सकेगी तथा यह नब्बे दिन की अवधि के अंदर पूरी की जाएगी जिसे न्यायालय की अनुमति से बढ़ाया जा सकेगा।
आरोप-पत्र से संबंधित मामले
- एच.एन. ऋषभुद एवं इंदर सिंह बनाम दिल्ली राज्य (1954):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विवेचना की प्रक्रिया में सामान्यतः निम्नलिखित शामिल होते हैं:
- संबंधित स्थान पर जाना।
- तथ्यों एवं परिस्थितियों का पता लगाना।
- सबूतों की खोज एवं गिरफ्तारी।
- साक्ष्य एकत्र करना जिसमें विभिन्न व्यक्तियों की जाँच, स्थानों की तलाशी एवं चीज़ोन को ज़ब्त करना शामिल है और
- इस बारे में राय बनाना कि क्या कोई अपराध बनता है तथा तद्नुसार आरोप-पत्र दाखिल किया जाना।
- अभिनंदन झा एवं अन्य बनाम दिनेश मिश्रा (1968):
- इस मामले में कहा गया कि अंतिम रिपोर्ट/आरोप-पत्र प्रस्तुत करना विवेचना के बाद बनी राय की प्रकृति पर निर्भर करता है।
- भगवंत सिंह बनाम पुलिस आयुक्त (1985):
- न्यायालय ने धारा 173(2) के अधीन पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट के लिये उपलब्ध तीन विकल्पों पर चर्चा की:
- धारा 156(3) के अधीन आगे की विवेचना का निर्देश देना
- रिपोर्ट से असहमत होने पर आरोपी को दोषमुक्त कर रिहा करने का प्रावधान
- के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991):
- न्यायालय ने कहा कि आरोप-पत्र में साक्ष्यों का विस्तृत मूल्यांकन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह परीक्षण-चरण के लिये है।
- हालाँकि इसमें धारा 173(2) CrPC एवं राज्य नियमों की आवश्यकताओं के अनुसार तथ्यों का प्रकटन/संदर्भ होना चाहिये।
- ज़किया अहसन जाफ़री बनाम गुजरात राज्य (2022):
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 173(2)(i)(d) CrPC के अधीन राय बनाने के लिये, विवेचना अधिकारी को विवेचना के दौरान प्राप्त किसी भी सूचना का समर्थन करने के लिये पुष्टि करने वाले साक्ष्य एकत्र करने होंगे।
- केवल संदेह ही पर्याप्त नहीं है, आरोपी द्वारा कथित अपराध किये जाने का अनुमान लगाने के लिये पर्याप्त सामग्रियों के आधार पर गंभीर संदेह होना चाहिये।
- डबलू कुजूर बनाम झारखंड राज्य (2024):
- उच्चतम न्यायालय ने धारा 173(2) CrPC के अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट/आरोप-पत्र में शामिल किये जाने वाले विवरणों के संबंध में निम्नलिखित दिशा-निर्देश दिये:
- पक्षों के नाम
- सूचना की प्रकृति
- परिस्थितियों से परिचित व्यक्तियों के नाम
- क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है तथा किसके द्वारा कारित किया गया
- क्या अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया
- क्या अभियुक्त को ज़मानत के साथ या उसके बिना बॉण्ड पर रिहा किया गया
- क्या अभियुक्त को CrPC की धारा 170 के अधीन अभिरक्षा में भेजा गया।
- क्या कुछ अपराधों में मेडिकल रिपोर्ट संलग्न की जाती है
निष्कर्ष
यह सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो न्यायालय को किसी आरोपी को दोषमुक्त या दोषसिद्धि का निर्णय करने में सहायता करता है। चार्जशीट जाँच का अंतिम परिणाम है जिसके आधार पर न्यायालय यह तय करती है कि आगे की विवेचना की आवश्यकता है या नहीं। चार्जशीट न्यायालय में अभियोजन प्रारंभ करने का आधार बनता है। हालाँकि चार्जशीट FIR से भिन्न होती है लेकिन यह उसी पर आधारित होती है तथा पुलिस अधिकारियों द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत की जाती है।