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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के अधीन अभिरक्षा
« »08-Aug-2024
परिचय:
'अभिरक्षा' शब्द से तात्पर्य है किसी को सुरक्षात्मक प्रक्रिया के अंतर्गत पकड़ना।
- "अभिरक्षा" एवं "गिरफ्तारी" शब्द समानार्थी नहीं हैं। यह सत्य है कि प्रत्येक गिरफ्तारी में अभिरक्षा होती है लेकिन इसके विपरीत अभिरक्षा के अंतर्गत गिरफ्तारी नहीं आती है।
अभिरक्षा के प्रकार:
अभिरक्षा दो प्रकार की होती है:
- पुलिस अभिरक्षा:
- जब पुलिस अधिकारी आरोपी को पुलिस स्टेशन लाता है तो उसे पुलिस अभिरक्षा कहा जाता है।
- पुलिस अभिरक्षा के मामले में, पुलिस के पास आरोपी की शारीरिक अभिरक्षा होती है।
- यहाँ आरोपी को पुलिस स्टेशन के लॉकअप में रखा जाता है।
- पुलिस अभिरक्षा का उद्देश्य पुलिस को अभिरक्षा में पूछताछ के माध्यम से साक्ष्य एकत्र करने का साधन प्रदान करना है।
- न्यायिक अभिरक्षा:
- इससे तात्पर्य है कि आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की अभिरक्षा में है।
- यहाँ आरोपी जेल में बंद है।
- न्यायिक अभिरक्षा की अनुमति देने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आरोपी साक्ष्यों से छेड़छाड़ न करे, साक्षियों को धमका न सके या भाग न सके।
BNSS की धारा 58:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 58 में प्रावधान है कि:
- कोई भी पुलिस अधिकारी किसी गिरफ्तार व्यक्ति को उचित अवधि से अधिक समय तक अभिरक्षा में नहीं रखेगा।
- धारा 187 के अधीन मजिस्ट्रेट के विशेष आदेश के अभाव में गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट की न्यायालय तक की यात्रा के लिये आवश्यक समय को छोड़कर 24 घंटे से अधिक नहीं रखेगा।
BNSS की धारा 187:
परिचय:
- BNSS की धारा 187 में ऐसी स्थिति में प्रक्रिया का प्रावधान है जब जाँच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं हो पाती।
- धारा 187 (1) में प्रावधान है कि:
- जब भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तथा अभिरक्षा में रखा जाता है,
- ऐसा प्रतीत होता है कि विवेचना धारा 58 द्वारा निर्धारित 24 घंटे के अंदर पूरी नहीं हो सकती है, तथा
- यह मानने के आधार हैं कि सूचना या आरोप पुष्ट हैं,
- पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी (जो उपनिरीक्षक के पद से नीचे का न हो) डायरी की प्रविष्टियों की एक प्रति तत्काल निकटतम मजिस्ट्रेट को भेजेगा तथा साथ ही अभियुक्त को भी ऐसे मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।
- धारा 187 (2) प्रावधानित करता है:
- वह मजिस्ट्रेट जिसके पास अभियुक्त को इस धारा के अंतर्गत भेजा जाता है
- चाहे उसके पास क्षेत्राधिकार हो या न हो
- यह विचार करने के बाद कि क्या ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा नहीं किया गया है या उसकी ज़मानत रद्द कर दी गई है
- समय-समय पर ऐसी अभिरक्षा में रखने को अधिकृत करना जिसे मजिस्ट्रेट उचित समझे
- पूरी तरह से या भागों में पंद्रह दिन से अधिक अवधि के लिये
- उपधारा (3) में दिये गए अनुसार 60 दिन या 90 दिन की अभिरक्षा अवधि में से आरंभिक 40 दिन या 60 दिन के दौरान किसी भी समय
- और यदि उसे मामले का विचारण करने या उसे विचारण के लिये सौंपने की अधिकारिता नहीं है, तथा वह आगे निरुद्ध रखना अनावश्यक समझता है, तो वह अभियुक्त को ऐसे अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट के पास भेजने का आदेश दे सकता है।
- धारा 187 (3) प्रावधानित करता है:
- मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति को पंद्रह दिन की अवधि से अधिक के लिये अभिरक्षा में रखने को अधिकृत कर सकता है,
- यदि वह संतुष्ट है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार मौजूद हैं,
- लेकिन कोई भी मजिस्ट्रेट इस उप-धारा के अधीन अभियुक्त व्यक्ति को अभिरक्षा में रखने के लिये कुल अवधि से अधिक अधिकृत नहीं करेगा:
- नब्बे दिन, जहाँ जाँच मृत्युदंड, आजीवन कारावास या दस वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध से संबंधित हो;
- ज़मानत साठ दिन, जहाँ जाँच किसी अन्य अपराध से संबंधित हो
- और यथास्थिति, 90 दिन या 60 दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर, अभियुक्त व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा यदि वह ज़मानत देने के लिये तैयार है और देता है, तथा इस उपधारा के अधीन ज़मानत पर रिहा किया गया प्रत्येक व्यक्ति उस अध्याय के प्रयोजनों के लिये अध्याय 35 के उपबंधों के अधीन रिहा किया गया समझा जाएगा।
- धारा 187 (1) में प्रावधान है कि:
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 167 एवं BNSS की धारा 187 के बीच तुलना:
CrPC की धारा 167 |
BNSS की धारा 187 |
(1) जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है और अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जाता है, और यह प्रतीत होता है कि अन्वेषण धारा 57 द्वारा निर्दिष्ट चौबीस घंटे की अवधि के अंदर पूरा नहीं किया जा सकता है, तथा यह मानने के आधार हैं कि अभियोग या सूचना पुष्ट है, तो पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि वह उपनिरीक्षक की पंक्ति से नीचे का नहीं है, मामले से संबंधित डायरी में इसमें इसके पश्चात् विहित प्रविष्टियों की एक प्रति निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा, और साथ ही अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा। |
(1) जब कभी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है और अभिरक्षा में रखा जाता है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि जाँच धारा 58 के अनुसार निर्धारित चौबीस घंटे की अवधि के अंदर पूरी नहीं की जा सकती है, तथा यह मानने के आधार हैं कि आरोप या सूचना अच्छी तरह से परिभाषित है, तो पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या विवेचना करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि वह उप-निरीक्षक के पद से नीचे का नहीं है, मामले से संबंधित डायरी में इसमें इसके बाद निर्दिष्ट प्रविष्टियों की एक प्रति तुरंत निकटतम मजिस्ट्रेट को भेजेगा, और साथ ही अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा। |
(2) वह मजिस्ट्रेट जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उसे मामले का विचारण करने की अधिकारिता हो या न हो, समय-समय पर अभियुक्त को ऐसी अभिरक्षा में, जिसे वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे, कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक की अवधि के लिये निरुद्ध करना प्राधिकृत कर सकता है; तथा यदि उसे मामले का विचारण करने या उसे विचारण के लिये सौंपने की अधिकारिता नहीं है, और वह आगे निरुद्ध करना अनावश्यक समझता है, तो वह अभियुक्त को ऐसे अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट के पास भेजने का आदेश दे सकता है: (क) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति को पुलिस की अभिरक्षा के अतिरिक्त पंद्रह दिन की अवधि से अधिक समय तक निरुद्ध रखने को प्राधिकृत कर सकता है, यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार विद्यमान हैं, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति को इस पैरा के अधीन अभिरक्षा में निम्नलिखित कुल अवधि से अधिक समय तक निरुद्ध रखने को प्राधिकृत नहीं करेगा- (i) नब्बे दिन, जहाँ जाँच मृत्युदंड, आजीवन कारावास या कम-से-कम दस वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध से संबंधित हो; (ii) साठ दिन, जहाँ जाँच किसी अन्य अपराध से संबंधित हो, और, यथास्थिति, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर अभियुक्त व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा यदि वह ज़मानत देने के लिये तैयार है और देता है तथा इस उपधारा के अधीन ज़मानत पर रिहा किया गया प्रत्येक व्यक्ति उस अध्याय के प्रयोजनों के लिये अध्याय 33 के उपबंधों के अधीन इस प्रकार रिहा किया गया समझा जाएगा; |
(2) वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास कोई अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उसे मामले का विचारण करने की अधिकारिता है या नहीं, यह विचार करने के पश्चात कि क्या ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा नहीं किया गया है या उसकी ज़मानत रद्द कर दी गई है, समय-समय पर अभियुक्त को ऐसी अभिरक्षा में, जिसे वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे, उपधारा (3) में उपबंधित, यथास्थिति, साठ दिन या नब्बे दिन की आरंभिक चालीस दिन या साठ दिन की निरोध अवधि में से किसी भी समय, संपूर्ण रूप से या भागों में पंद्रह दिन से अधिक अवधि के लिये निरुद्ध करने को प्राधिकृत कर सकेगा तथा यदि उसे मामले का विचारण करने या उसे विचारण के लिये सौंपने की अधिकारिता नहीं है और वह आगे निरुद्ध करने को अनावश्यक समझता है, तो वह अभियुक्त को ऐसी अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के पास भेजने का आदेश दे सकेगा। (3) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति को पंद्रह दिन की अवधि से अधिक के लिये अभिरक्षा में रखने को प्राधिकृत कर सकता है, यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार विद्यमान हैं, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति को इस उपधारा के अधीन निम्नलिखित कुल अवधि से अधिक के लिये अभिरक्षा में रखने को प्राधिकृत नहीं करेगा- (i) नब्बे दिन, जहाँ जाँच मृत्युदंड, आजीवन कारावास या दस वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध से संबंधित हो; (ii) साठ दिन, जहाँ जाँच किसी अन्य अपराध से संबंधित हो, और, यथास्थिति, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर अभियुक्त व्यक्ति ज़मानत पर छोड़ दिया जाएगा यदि वह ज़मानत देने के लिये तैयार है और देता है तथा इस उपधारा के अधीन ज़मानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति उस अध्याय के प्रयोजनों के लिये अध्याय 35 के उपबंधों के अधीन इस प्रकार छोड़ा गया समझा जाएगा। |
BNSS की धारा 187 से संबंधित समस्याएँ:
- यह ध्यान देने योग्य है कि CrPC की धारा 167 में प्रावधान है कि पुलिस अभिरक्षा केवल 15 दिनों की अवधि के लिये दी जा सकती है (क्योंकि प्रयुक्त अभिव्यक्ति का तात्पर्य पुलिस अभिरक्षा के अतिरिक्त, पंद्रह दिनों की अवधि से अधिक है) तथा शेष अवधि के लिये केवल न्यायिक अभिरक्षा दी जा सकती है।
- सीबीआई बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी (1992) के मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि पुलिस अभिरक्षा की अधिकतम अवधि पंद्रह दिन है जो पहले पंद्रह दिनों तक सीमित है।
- इसके बाद बुध सिंह बनाम पंजाब राज्य (2000) मामले में 3 न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया। बाद में, सीबीआई बनाम विकास मिश्रा (2023) में दो न्यायाधीशों की पीठ ने विपरीत राय रखी तथा कहा कि अनुपम जे. कुलकर्णी मामले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
- अगस्त 2023 में वी. सेंथिल बालाजी बनाम राज्य मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने मतभेदों पर ध्यान दिया तथा मामले को वृहद् पीठ को भेज दिया।
- इस विवाद की पृष्ठभूमि में BNSS की धारा 187 सामने आई है।
- BNSS की धारा 187 में "ऐसी अभिरक्षा में जिसे मजिस्ट्रेट उचित समझे, पूरी तरह या भागों में 15 दिनों से अधिक अवधि के लिये "शब्दों का अर्थ है कि मजिस्ट्रेट के लिये "पुलिस अभिरक्षा" या "न्यायिक अभिरक्षा" को अधिकृत करने की स्वतंत्रता है।
- यह अभिरक्षा पहले 40 दिन या 60 दिन की अवधि में बढ़ सकती है, जैसा भी मामला हो।
- धारा में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि पुलिस अभिरक्षा की अधिकतम अवधि केवल 15 दिन हो सकती है।
- प्रावधान की भाषा के अनुसार परिणाम यह है कि अब मजिस्ट्रेट किसी आरोपी व्यक्ति को 15 दिनों के लिये पुलिस अभिरक्षा में रखने को अधिकृत कर सकता है तथा फिर एक दिन की न्यायिक अभिरक्षा को अधिकृत कर सकता है और फिर से अगले 15 दिनों के लिये पुलिस अभिरक्षा को अधिकृत कर सकता है तथा इसी प्रकार पहले 40 दिनों या 60 दिनों के अंदर, जैसा भी मामला हो, ऐसा किया जा सकता है।
- माननीय गृह मंत्री ने लोकसभा में भाषण दिया कि पुलिस अभिरक्षा की कुल अवधि 40 या 60 दिनों में से केवल 15 दिन ही हो सकती है। हालाँकि यह धारा में परिलक्षित नहीं होता है।
निष्कर्ष:
BNSS की धारा 187 का उद्देश्य अभियुक्तों के अधिकारों एवं अभियोजन पक्ष के अधिकारों के मध्य संतुलन बनाना है। हालाँकि विधायी प्रारूपण के परिणामस्वरूप प्रावधान में कुछ कमियाँ हैं जो अभियुक्तों के लिये स्थिति को और दूषित कर सकती हैं। प्रावधान में संशोधन लाने की आवश्यकता है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि पुलिस अभिरक्षा केवल 15 दिनों तक सीमित रहेगी, जिसे मामले के अनुसार 40 दिनों या 60 दिनों की अवधि में बढ़ाया जा सकता है।