होम / भारतीय साक्ष्य अधिनियम (2023) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872)
आपराधिक कानून
परिस्थितिजन्य साक्ष्य
«30-Oct-2024
परिचय
- विधिक प्रणाली तथ्यों का पता लगाने, दावों का समर्थन करने तथा न्यायिक कार्यवाही में निष्पक्ष एवं न्यायसंगत परिणाम सुनिश्चित करने के लिये मूल रूप से साक्ष्य पर निर्भर करती है। इस ढाँचे के अंदर, प्राथमिक एवं द्वितीयक साक्ष्य के बीच का अंतर अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- हालाँकि, परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वितीयक साक्ष्य नहीं है, यह एक प्रकार का प्रत्यक्ष साक्ष्य है जिसे अप्रत्यक्ष रूप से लागू किया जाता है तथा यह मामले के तथ्यों को सिद्ध करने के लिये प्रासंगिक है।
- "प्रासंगिक" शब्द को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 2 (k) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है।
- कोई तथ्य किसी अन्य तथ्य से तब सुसंगत कहा जाता है जब वह तथ्यों की सुसंगति से संबंधित इस अधिनियम के उपबंधों में निर्दिष्ट किसी भी प्रकार से दूसरे तथ्य से संबद्ध हो।
परिस्थितिजन्य साक्ष्य क्या है?
- IEA की धारा 3 के अंतर्गत साक्ष्य हैं:
- सभी कथन जिनकी न्यायालय जाँच के अधीन तथ्यों के संबंध में साक्षियों द्वारा अपने समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति देता है या अपेक्षा करता है, ऐसे कथनों को मौखिक साक्ष्य कहा जाता है;
- न्यायालय के निरीक्षण के लिये प्रस्तुत किये गए इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों सहित सभी दस्तावेज, ऐसे दस्तावेजों को दस्तावेजी साक्ष्य कहा जाता है।
- भारत में साक्ष्य को दो व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है, प्रत्यक्ष साक्ष्य एवं अप्रत्यक्ष साक्ष्य अर्थात परिस्थितिजन्य साक्ष्य।
- प्रत्यक्ष साक्ष्य वे होते हैं जो तथ्य को निर्णायक रूप से सिद्ध करते हैं जबकि परिस्थितिजन्य साक्ष्य परिस्थितियों की श्रृंखला होती है जिसका उपयोग किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिये किया जाता है।
- इसकी उत्पत्ति रोमन विधि प्रणाली से हुई है, जहाँ इसका उपयोग किसी मामले की जाँच के लिये एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में किया जाता था।
- यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि "मनुष्य असत्य बोल सकता है, लेकिन परिस्थितियाँ नहीं बोलतीं"।
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि के संबंध में पाँच स्वर्णिम सिद्धांत शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) के मामले में बहुत अच्छी तरह से निर्वचित किये गए हैं।
पाँच स्वर्णिम सिद्धांत
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर किसी मामले के साक्ष्य के लिये पंचशील के पाँच स्वर्णिम सिद्धांत गठित होते हैं:
- जिन परिस्थितियों से दोष का निष्कर्ष निकाला जाना है, वे पूरी तरह से स्थापित होनी चाहिये,
- इस प्रकार स्थापित तथ्य केवल अभियुक्त के दोष की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिये, अर्थात, उन्हें अभियुक्त के दोषी होने के अतिरिक्त किसी अन्य परिकल्पना पर निर्वचित नहीं किया जाना चाहिये,
- परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति एवं प्रवृत्ति की होनी चाहिये,
- उन्हें सिद्ध की जाने वाली परिकल्पना को छोड़कर हर संभव परिकल्पना को बाहर करना चाहिये।
- साक्ष्यों की श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिये कि अभियुक्त की निर्दोषता के अनुरूप निष्कर्ष निकालने के लिये कोई उचित आधार न बचे तथा यह दर्शाया जाना चाहिये कि सभी मानवीय संभावनाओं के अनुसार यह कृत्य अभियुक्त द्वारा ही किया गया होगा।
प्रत्यक्ष एवं परिस्थितिजन्य साक्ष्य के बीच क्या अंतर है?
प्रत्यक्ष साक्ष्य |
परिस्थितिजन्य साक्ष्य |
प्रत्यक्ष साक्ष्य किसी तथ्य को प्रत्यक्षतः सिद्ध करता है। |
परिस्थितिजन्य साक्ष्य को निष्कर्ष से जोड़ने के लिये अनुमान की आवश्यकता होती है। |
प्रत्यक्षदर्शी की गवाही को आमतौर पर प्रत्यक्ष साक्ष्य माना जाता है। |
अपराध स्थल पर पाए जाने वाले भौतिक सुराग अक्सर परिस्थितिजन्य होते हैं। |
न्यायालय आमतौर पर प्रत्यक्ष साक्ष्य को अधिक महत्त्व देते हैं। |
परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी समान रूप से वैध हो सकते हैं यदि वे साक्ष्यों की एक पूरी श्रृंखला बनाते हैं। |
प्रत्यक्ष साक्ष्य को आमतौर पर कम पुष्टि की आवश्यकता होती है |
परिस्थितिजन्य साक्ष्य को अक्सर अपने सत्यापनात्मक मूल्य को सशक्त करने के लिये सहायक तथ्यों की आवश्यकता होती है। |
महत्त्वपूर्ण निर्णय
- अनवर अली बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2020):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धि के लिये एक परिस्थिति के रूप में आशय के संबंध में विभिन्न निर्णयों में निर्धारित सिद्धांतों का अवलोकन किया।
- न्यायालय ने कहा कि सुरेश चंद्र बाहरी बनाम बिहार राज्य (1995) के मामले में यह माना गया था कि यदि आशय सिद्ध हो जाता है तो यह साक्ष्य की परिस्थितियों की श्रृंखला में एक कड़ी प्रदान करेगा, लेकिन आशय की अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज करने का आधार नहीं हो सकती है।
- वहीं बाबू बनाम केरल राज्य (2010) में न्यायालय ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भर किसी मामले में आशय एक ऐसा कारक है जो अभियुक्त के पक्ष में भारी पड़ता है।
- नागेंद्र शाह बनाम बिहार राज्य (2021):
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित मामलों में, IEA की धारा 106 के अनुसार उचित स्पष्टीकरण देने में अभियुक्त की विफलता, परिस्थितियों की श्रृंखला में एक अतिरिक्त कड़ी के रूप में कार्य कर सकती है।
- दिलीप सारीवान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2023):
- छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने विवाहेत्तर संबंध से जुड़े परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर हत्या के मामले को यथावत रखा, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 का महत्त्व है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में अभियोजन पक्ष को परिस्थितियों की श्रृंखला में प्रत्येक कड़ी को उचित संदेह से परे सिद्ध करना चाहिये, ताकि निर्दोषता के लिये कोई संभावना न रहे।
- बलवीर सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य (2023):
- इस मामले में यह माना गया कि पति एवं उसके रिश्तेदारों को दोषी ठहराने के लिये पूर्ण सुनवाई होनी चाहिये, तथा न्यायालय इसके लिये IEA की धारा 106 के प्रावधानों की सहायता नहीं ले सकती।
निष्कर्ष
परिस्थितिजन्य साक्ष्य, जिसे अक्सर प्रत्यक्ष साक्ष्य की तुलना में कम निर्णायक माना जाता है, विधिक प्रणाली में एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है। जब सावधानी से एक साथ जोड़ा जाता है, तो यह एक आकर्षक कथा बना सकता है जो वैकल्पिक स्पष्टीकरण के लिये बहुत कम जगह छोड़ता है। हालाँकि, बिंदुओं को जोड़ने के लिये सावधानीपूर्वक निर्वचन एवं तार्किक तर्क की आवश्यकता होती है। न्यायालयों को परिस्थितिजन्य साक्ष्य की पूरी तरह से जाँच करनी चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह घटनाओं की एक पूरी एवं विश्वसनीय श्रृंखला बनाता है। हालाँकि इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य जितना तत्काल प्रभाव नहीं हो सकता है, परिस्थितिजन्य साक्ष्य अक्सर सत्यता को प्रकटन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, विशेषकर ऐसे मामलों में जहाँ प्रत्यक्ष साक्ष्य दुर्लभ या अनुपलब्ध हैं।