Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है










होम / भारतीय साक्ष्य अधिनियम (2023) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872)

आपराधिक कानून

किशोर समरीत बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2012)

    «    »
 07-Oct-2024

परिचय

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये पालन किये जाने वाले सिद्धांतों को निर्धारित करता है।

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति बी.एस. चौहान एवं न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया।

तथ्य

  • श्री किशोर समरीत (अपीलार्थी) मध्य प्रदेश विधानसभा के पूर्व सदस्य हैं।
  • उन्होंने सुकन्या देवी, बलराम सिंह एवं सुमित्रा देवी के पक्ष में अधिवक्ता के रूप में कार्य करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की।
  • अपीलकर्त्ता ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी संख्या 6 द्वारा तीन व्यक्तियों को अवैध अभिरक्षा में रखा गया था तथा वे रिट याचिका दायर करने में असमर्थ थे।
  • रिट याचिका में समाचार सामग्री थी, जिसमें उल्लेख किया गया था कि 3 दिसंबर 2006 की रात को प्रतिवादी संख्या 6 ने अपने छह दोस्तों के साथ सुकन्या देवी (बलराम सिंह की बेटी) के साथ बलात्संग कारित किया गया।
  • अपीलकर्त्ता का यह स्पष्ट कथन था कि तीनों व्यक्ति लंबे समय से सार्वजनिक रूप से नहीं देखे गए हैं, विशेषकर 4 जनवरी 2007 के बाद से जब उन्हें अंतिम बार अमेठी में देखा गया था।
  • इसलिये अपीलकर्त्ता ने रिट याचिका में तीन नामित याचिकाकर्त्ताओं की ओर से भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उपबंधित जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का आह्वान किया तथा बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट जारी करने की प्रार्थना की।
  • उपरोक्त रिट दायर किये जाने से पहले राम प्रकाश शुक्ला नामक व्यक्ति (लखनऊ में अधिवक्ता) ने उन्हीं तथ्यों पर एक रिट याचिका दायर की थी।
  • इस रिट याचिका को एक विस्तृत निर्णय द्वारा खारिज कर दिया गया था।
  • वर्तमान रिट याचिका को अपीलकर्त्ता को सुनवाई का अवसर दिये बिना खंड पीठ को स्थानांतरित कर दिया गया था।
  • जब यह रिट याचिका इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष आई तो न्यायालय ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के निदेशक को किशोर समृति तथा प्रतिवादी को फंसाने में शामिल अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध मामला दर्ज करने का निर्देश दिया।
  • उपरोक्त आदेश के विरुद्ध ही वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई थी। अपीलकर्त्ता का तर्क था कि आदेश पारित करने से पहले खंडपीठ द्वारा उसे सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया।

शामिल मुद्दे  

  • क्या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ?
  • क्या न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग हुआ?
  • क्या इस मामले में कोई अधिकार क्षेत्र था?

टिप्पणी

  • पहले मुद्दे के संबंध में
    • ऑडी अल्टरम पार्टम (सुने जाने का अधिकार) का सिद्धांत एवं प्राकृतिक न्याय के अन्य संबद्ध सिद्धांत विधि के शासन की मूलभूत आवश्यकता है।
    • विधि के स्थापित सिद्धांत निर्धारित प्रक्रियाओं के उचित सम्मान के साथ विधि के शासन का पालन करने का निर्देश देते हैं।
    • न्यायालय ने इस न्यायालय के विभिन्न निर्णयों का उदहारण दिया, जहाँ यह माना गया था कि रोस्टर एवं पीठों के गठन से संबंधित मामले संबंधित उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश के विशेष अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
    • न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले में रिट याचिका का स्थानांतरण एक ऐसा आदेश था जिसमें प्रशासनिक औचित्य का अभाव था तथा मामले के रिकॉर्ड से यह स्पष्ट था कि रिट याचिकाकर्त्ताओं को पर्याप्त सुनवाई प्रदान नहीं की गई थी।
  • दूसरे मुद्दे के संबंध में:
    • न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीश की पूरी यात्रा पक्षों की दलीलों, दस्तावेजों एवं तर्कों से सत्य को समझने की है, क्योंकि सत्य ही न्याय वितरण प्रणाली का आधार है।
    • न्यायालय ने कहा कि कार्यवाही में सक्रिय भूमिका निभाना तथा सत्य तक पहुँचना न्यायालय का विधिक कर्त्तव्य है, जो न्यायिक प्रशासन का आधार है।
    • वादी को न्यायालय में आते समय सही तथ्य प्रस्तुत करना चाहिये तथा अच्छे आशय से आना चाहिये।
    • वादी तथ्यों का पूर्ण तथा सत्य प्रकटन करने के लिये बाध्य है।
    • न्याय प्रशासन का एक अन्य स्थापित सिद्धांत यह है कि किसी भी वादी को तुच्छ याचिका दायर करके न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
    • न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले में स्पष्ट रूप से झूठ बोला गया था तथा अपीलकर्त्ता का आशय तुच्छ याचिका दायर करके न्यायालयों को दिग्भ्रमित करना था।
  • तीसरे मुद्दे के संबंध में:
    • लोकस स्टैंडी का मुद्दा आम तौर पर एक प्रश्न तथ्य एवं विधि दोनों होता है।
    • इस मामले में रिट याचिका का आधार मिथ्या आरोप हैं।
    • आम तौर पर, किसी भी आदेश से पीड़ित पक्ष को उस आदेश की वैधता, औचित्य या शुद्धता पर प्रश्न करके राहत मांगने का अधिकार है। ऐसे मामले हो सकते हैं जहाँ कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित नहीं होता है, लेकिन याचिका के परिणाम में उसका कुछ व्यक्तिगत हित होता है। ऐसे मामलों में, वह विकलांग पीड़ित पक्ष की ओर से अभिभावक या न्यायालय मित्र के रूप में न्यायालय में जा सकता है।
    • सामान्य तौर पर, एक पूर्ण अजनबी व्यक्ति मित्र की तरह कार्य नहीं करेगा।
    • न्यायालय ने माना कि एक व्यक्ति जो मौलिक अधिकार के आह्वान के लिये भी याचिका लाता है, उसे अपनी ओर से या किसी विकलांग व्यक्ति की ओर से याचिका के परिणाम में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कुछ हित होना चाहिये या स्पष्ट कारणों से न्याय प्रणाली तक पहुँच में असमर्थ होना चाहिये।
    • वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता एवं प्रतिवादी संख्या 8 दोनों ही तीनों याचिकाकर्त्ताओं के लिये पूरी तरह से अजनबी हैं।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ताओं के पास कोई अधिकार नहीं था।
  • न्यायालय ने अंततः माना कि न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग किया गया था।
  • न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि जनहित याचिका के रूप में प्रस्तुत याचिका व्यक्तिगत विवादों को बढ़ावा देने के लिये एक छद्मवेश मात्र है।
  • न्यायालय ने अंततः इस मामले में निम्नलिखित निर्देश दिये:
    • यह रिट दुर्भावना एवं राजनीतिक प्रतिशोध से प्रेरित थी।
    • न्यायिक सहयोगी ने न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग किये बिना अच्छे आशय से न्यायालय में अपील किया।
    • इस तथ्य का समर्थन करने के लिये एक भी साक्ष्य नहीं है कि प्रतिवादी संख्या 6 ने याचिकाकर्त्ता द्वारा आरोपित कोई भी कृत्य कारित किया है।

निष्कर्ष

  • यह निर्णय सत्य का परिक्षण करना न्यायालय का कर्त्तव्य के रूप में निर्धारित करता है।
  • इस मामले में न्यायालय ने अच्छे आशय से न्यायालय में अपील किये जाने के महत्त्व को प्रतिपादित किया तथा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विधिक निवारण का उपयोग करने की प्रथा की निंदा की।