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होम / भारतीय साक्ष्य अधिनियम (2023) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872)

आपराधिक कानून

BSA की धारा 168

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 11-Oct-2024

परिचय

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 168 न्यायाधीश की प्रश्न पूछने या प्रस्तुत होने का आदेश देने की शक्ति के विषय में प्रावधान बताती है।

  • यह धारा BSA के अध्याय X के अंतर्गत आती है जो साक्षियों की परीक्षा पर आधारित है।
  • न्यायिक प्रणाली का मुख्य उद्देश्य किसी भी प्रक्रियागत सीमाओं की चिंता किये बिना न्याय सुनिश्चित करना है।
  • यह धारा सत्य की खोज सुनिश्चित करने के लिये न्यायालय के कर्त्तव्य को प्रावधानित करती है तथा इसके लिये उसके पास कुछ प्रासंगिक या अप्रासंगिक प्रश्नों को आगे बढ़ाने का अधिकार है।
  • यह धारा पहले भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 165 के अंतर्गत आती थी।

साक्षी कौन है?

परिचय:

  • साक्षी वह व्यक्ति होता है जिसने व्यक्तिगत रूप से किसी घटना को घटित होते देखा हो। घटना कोई अपराध या दुर्घटना या कुछ भी हो सकती है। BSA की धारा 124 से 139 इस विषय को प्रावधानित करती है कि कौन साक्षी के रूप में साक्ष्य दे सकता है, कोई कैसे साक्ष्य दे सकता है, उसके कौन से अभिकथानों को साक्ष्य माना जाएगा, इत्यादि।
  • BSA की धारा 124 के अनुसार एक सक्षम साक्षी वह होता है जिसके पास न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्नों को समझने की क्षमता एवं योग्यता होती है। यदि उसके पास प्रश्नों की समझ एवं तर्कसंगत उत्तर देने की क्षमता है, तो वह एक सक्षम साक्षी है।
  • कोई भी व्यक्ति साक्षी हो सकता है। साक्षी कौन हो सकता है, इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
  • कोई भी व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या महिला, बच्चा हो या बूढ़ा, साक्षी हो सकता है। एकमात्र प्रतिबंध यह है कि यदि कोई व्यक्ति प्रश्नों को नहीं समझता है तथा तर्कसंगत रूप से उत्तर देने में सक्षम नहीं है, तो वह सक्षम साक्षी नहीं है।

न्यायाधीशों की प्रश्न पूछने या प्रस्तुत करने का आदेश देने की शक्ति

  • BSA की धारा 168 में यह प्रावधानित किया गया है कि:
    • न्यायाधीश का कर्त्तव्य है कि वह साक्षियों से उचित प्रश्न पूछकर न्याय सुनिश्चित करे।
    • न्यायाधीशों को प्रश्न पूछने के लिये कोई समय सीमा नहीं दी गई है तथा इसी तरह उनके द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों की संख्या पर भी कोई सीमा नहीं है।
    • पक्षों को न्यायाधीश द्वारा पूछे गए किसी भी प्रश्न पर आपत्ति करने का अधिकार नहीं है।
    • न्यायाधीश किसी भी साक्षी से प्रतिपरीक्षा करने की अनुमति दे सकते हैं।
    • पूछे गए प्रश्न के प्रकार, रूप, समय, प्रासंगिक या अप्रासंगिकता के आधार पर न्यायाधीशों पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है।
    • इस धारा के अंतर्गत न्यायाधीश को साक्ष्य प्राप्त करने एवं मामले के लिये प्रासंगिक तथ्य खोजने की शक्ति है, इसलिये इस धारा को सांकेतिक साक्ष्य के रूप में भी जाना जाता है।
    • ऐसे प्रश्नों के पीछे उद्देश्य पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य को अधिक बोधगम्य बनाना है।
    • ये प्रश्न साक्ष्य को अधिक विश्वसनीय एवं भरोसेमंद बनाते हैं।
    • इस धारा के अंतर्गत न्यायालय दोनों पक्षों से, चाहे वे साक्षी के रूप में उपस्थित हों या अनुपस्थित हों, प्रश्न पूछ सकता है।
    • धारा के अंतर्गत यह स्पष्ट रूप से प्रावधानित किया गया है कि निर्णय प्रासंगिक घोषित किये गए तथ्यों पर आधारित होना चाहिये तथा जो विधिवत सिद्ध हों।
    • इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट रूप से प्रावधानित किया गया है कि न्यायाधीश किसी भी साक्षी को किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिये विवश नहीं कर सकता है तथा ऐसे प्रश्न के लिये जिसके लिये साक्षी अस्वीकार करने का अधिकारी है (BSA की धारा 127 से लेकर धारा 136)।
      • न्यायाधीश BSA की धारा 151 या धारा 152 के अंतर्गत कोई अनुचित प्रश्न नहीं पूछेंगे।
      • न्यायाधीश प्रस्तुत किये गए किसी भी दस्तावेज के प्राथमिक साक्ष्य को उन मामलों को छोड़कर नहीं छोड़ेंगे जहाँ इसे स्वीकार किया गया है।
    • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि इस धारा के अंतर्गत दिये गए अभिकथनों को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 181 के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है, जो पुलिस को दिये गए अभिकथनों एवं उपयोग के आधार पर प्रावधान करता है।
  • न्याय सुनिश्चित करने के लिये न्यायालय द्वारा प्राप्त अभिकथन आवश्यक हैं तथा इसलिये उन्हें रोका नहीं जा सकता।

महत्त्वपूर्ण निर्णय

  • नेपाल चंद्र रॉय बनाम नेताई चंद्र दास एवं राजस्थान राज्य (1971):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि IEA की धारा 165 के अधीन न्यायालयों को सबसे उत्तम साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया है; न्यायालयों को प्रश्न पूछने में अति उत्साही नहीं होना चाहिये। न्यायालय को धैर्य रखना चाहिये और पक्षों को साक्षी से अपने प्रश्न पूछने देना चाहिये तथा प्रतिपरीक्षा के बाद अगर कुछ उत्तर देना शेष रह जाता है तो न्यायालय प्रश्न पूछ सकता है।
  • रघुनंदन बनाम यूपी राज्य (1974):
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 162 एक सामान्य प्रावधान है, जबकि दूसरी ओर IEA की धारा 165 एक विशेष प्रावधान है। धारा 162 का प्रतिबंध IEA की धारा 165 पर लागू नहीं होगा। इसलिये न्यायालय जाँच के दौरान पुलिस को दिये गए उनके अभिकथन के आधार पर साक्षियों से प्रश्न पूछने के लिये स्वतंत्र है।
  • मोहनलाल शामजी सोनी बनाम UOI (1991):
    • इस मामले में यह माना गया कि IEA की धारा 165 एवं CrPC की धारा 311 एक दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों मिलकर न्यायाधीश को न्याय में सहायता करने के लिये अधिकारिता प्रदान करती हैं।

निष्कर्ष

न्यायाधीशों को सौंपी गई शक्तियाँ न्याय सुनिश्चित करने के लिये हैं तथा न्यायालयों का यह कर्त्तव्य है कि वे ऐसी शक्तियों का सर्वोत्तम उपयोग करें। इस धारा के अंतर्गत प्रश्न इस तरह से पूछे जाने चाहिये कि वे अनुचित न हों तथा साक्षी के लिये ख़तरा उत्पन्न न करें। प्राप्त साक्ष्य मामले के लिये आवश्यक होने चाहिये और उन पर विश्वास करने के लिये न्यायाधीशों द्वारा विवेक एवं न्यायिक विवेक का प्रयोग आवश्यक है।