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परिसीमा अधिनियम के तहत कब्जे द्वारा स्वामित्व का अर्जन

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 13-Sep-2023

परिचय

पूरे विधिक इतिहास में कब्जा सबसे महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं में से एक है क्योंकि यह स्वामित्त्व की प्रथम दृष्टया घटना है। सैल्मंड के अनुसार, कब्जा मनुष्य और वस्तुओं के बीच सबसे मौलिक पारस्परिक क्रिया है। हालाँकि, हेनरी मेन ने इसे "एक वस्तु के साथ पारस्परिक क्रिया के रूप में परिभाषित किया जिसमें अन्य लोगों को इसका लाभ उठाए जाने से बाहर किया जाना शामिल है।” 

परिसीमा अधिनियम के तहत कब्जे द्वारा स्वामित्व का अर्जन

  • परिसीमा अधिनियम, 1963 (इसके बाद अधिनियम कहा जाएगा) की धारा 25, 26 और 27 के तहत कब्जे द्वारा स्वामित्व के अर्जन का उपबंध किया गया है।  
  • अनुचित कब्जे/प्रतिकूल कब्जे की अवधारणा (किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा कब्जा किया जाना जिसके पास लंबे समय से दूसरे की भूमि है और उस पर कानूनी हक का दावा कर सकता है) पर यहाँ चर्चा की जानी महत्त्वपूर्ण है, अनुचित कब्जा इस विचार से उपजा है कि भूमि को प्रास्थगित नहीं छोड़ा जाना चाहिये, इसके बजाय, विवेकपूर्ण उपयोग के लिये रखा जाना चाहिये।  
  • वास्तव में, अनुचित कब्जे से तात्पर्य संपत्ति के शत्रुतापूर्ण कब्जे से है, जो "निरंतर, निर्बाध और शांतिपूर्ण" होना चाहिये।
  • उल्लिखित उपबंधों का संदर्भ:
    • धारा 25 - सुखाचारों का चिरभोग द्वारा अर्जन (Acquisition of easements by prescription).
    • धारा 26 - अनुसेवी संपत्ति के उत्तरभोगी के पक्ष में अपवर्जन (Exclusion in favour of reversioner of serivent tenement)
    • धारा 27 - संपत्ति पर अधिकार का निर्वापित होना (Extinguishment of right to property).

धारा 25

धारा 25 - सुखाचारों का चिरभोग द्वारा अर्जन

(1) जहाँ कि किसी निर्माण के उपभोग के साथ-साथ उसमें या उसके लिये प्रकाश या वायु के प्रवेश और उपयोग का उपभोग सुखाचार के तौर पर और साविधार, किसी विघ्न के बिना और बीस वर्ष तक शांतिपूर्वक किया गया हो, तथा जहाँ कि किसी मार्ग का या जलसरणी का या किसी जल के उपयोग का अथवा किसी सुखाचार का चाहे (वह सकारात्मक हो या नकारात्मक) उपभोग ऐसे किसी व्यक्ति ने (जो सुखाचार के तौर पर और साधिकार उस पर हक रखने का दावा करता हो) विघ्न के बिना और बीस वर्ष शांतिपूर्वक तथा खुले तौर पर किया हो वहाँ प्रकाश या वायु के ऐसे प्रवेश और उपभोग का, या ऐसे मार्ग, जलसरणी, जल के उपयोग अथवा अन्य सुखाचार का अधिकार आत्यन्तिक और अजेय हो जाएगा।

(2) बीस वर्ष की उक्त कालावधियों में से हर एक ऐसी कालावधि मानी जाएगी जिसका अंत उस वाद के संस्थित किये जाने के अव्यवहित पूर्व के दो वर्षों के भीतर हुआ हो, जिसमें वह दावा जिससे ऐसी कालावधि संबंधित है, प्रतिवादित किया जाता है।

(3) जहाँ कि वह सम्पत्ति, जिस पर किसी अधिकार का दावा उपधारा (1) के अधीन किया जाता है, सरकार की हो वहाँ वह उपधारा ऐसी पढ़ी जाएगी मानो 'बीस वर्ष' शब्दों के स्थान पर 'तीस वर्ष' शब्द प्रतिस्थापित कर दिये गए हों।

स्पष्टीकरण — कोई भी बात इस धारा के अर्थ के अन्दर विघ्न नहीं है जबकि दावेदार से भिन्न किसी व्यक्ति के कार्य द्वारा हुई बाधा के कारण उस कब्जे या उपभोग का वास्तविक विच्छेद नहीं हो जाता और जब तक कि, उस बाधा की तथा बाधा डालने वाले या बाधा डाला जाना प्राधिकृत करने वाले व्यक्ति की सूचना दावेदार को हो जाने के पश्चात् एक वर्ष तक वह बाधा सहन न कर ली गई हो या उसके प्रति उपमति न रही हो। 

  • यह सुखाचारों का चिरभोग द्वारा अर्जन का उपबंध करती है।
  • चिरभोग द्वारा सुखाचार एक प्रकार का प्रतिकूल कब्जा है जहाँ कोई सुखाचार प्राप्त किया जाता है (सुखाचार - किसी अन्य व्यक्ति की संपत्ति का किसी तरह से उपयोग करने का अधिकार)।
  • चिरभोग द्वारा सुखाचार तब होता है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य की संपत्ति का उपयोग बिना अनुमति के एक निश्चित कालावधि के लिये करता है, जिसके बारे में मालिक को जानकारी होनी चाहिये।
  • राज्यों ने चिरभोग द्वारा सुखाचार प्राप्त करने के लिये एक कालावधि निर्धारित की है जो कुछ वर्षों से बीस वर्षों से अधिक की हो सकती है।
  • यह धारा प्रकृति में उपचारात्मक है, लेकिन यह अन्य तरीकों से सुखाचार अधिकारों के अर्जन को समाप्त या रोकती नहीं है। इस उपबंध के तहत सुखाचार प्राप्त करने के लिये, 20 वर्षों का निर्बाध और निरंतर उपयोग आवश्यक है।  
  • सुखाचार के अधिकार के अर्जन के लिये निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाना चाहिये:
    • शान्तिपूर्वक कब्जा (Peaceful Possession): शांतिपूर्वक शब्द का अर्थ है कि वादी जो मालिक होने का दावा करता है, उसे बीस वर्ष के भीतर अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिये किसी भी समय स्वयं शारीरिक बल का सहारा लेने के लिये बाध्य नहीं किया गया है और न ही उसे प्रतिवादी द्वारा इस तरह के अधिकार का लाभ उठाने के लिये शारीरिक बल के उपयोग से रोका गया है।
    • खुले तौर पर (Openly): खुले तौर पर शब्द का अर्थ है कि उपभोग प्रारंभ से ही रहा है जो दृश्यमान या प्रकट था और अस्पष्ट या गुप्त नहीं था।
    • अधिकार के रूप में (As of Right): अधिकार के रूप में शब्द एक अधिकार के दावे में एक व्यक्ति द्वारा उपभोग को दर्शाता है। इस श्रेणी में आने के लिये उपभोग एक अधिकार के रूप में होना चाहिये अर्थात्, इसका दावा करने वाले व्यक्ति ने किसी से अनुमति या लाइसेंस के बिना इसका प्रयोग किया होगा।
    • निर्बाध रूप से (Without Interruption): बीस वर्ष के लिये उपभोग निर्बाध रूप से होना चाहिये, अर्थात, बिना किसी बाधा के।

निर्णयज विधि (Case Laws)

  • राछाया पांडे और अन्य बनाम शिवधारी पांडे और अन्य (1963) में यह माना गया है कि भूमि की स्थिति के अनुसार प्राकृतिक तरीके से वर्षा जल की निकासी का अधिकार धारा 25 को लागू नहीं करता है।
  • मणीन्द्र नाथ बोस बनाम बलराम चंद्र पाटनी और अन्य, (1973) में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि सभी ग्रामीणों के लिये मार्ग का रूढ़िगत (customary) अधिकार एक ऐसा अधिकार नहीं है जिसे धारा 25 के तहत चिरभोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

धारा 26

  • धारा 26 – अनुसेवी संपत्ति के उत्तरभोगी के पक्ष में अपवर्जन — जहाँ कि कोई भूमि या जल जिसमें, जिसके ऊपर या जिससे कोई सुखाचार उपभुक्त या व्युत्पन्न किया गया हो किसी आजीवन हित के अधीन या आधार पर या इतनी अवधि पर्यन्त जो उसके अनुदत्त किये जाने से तीन वर्ष से अधिक धारित रहा हो, वहाँ ऐसे सुखाचार का उपभोग जितने समय तक ऐसे हित या अवधि के चालू रहने के दौरान हुआ हो, उतना समय बीस वर्ष की कालावधि की संगणना में उस दशा में, अपवर्जित कर दिया जाएगा जिसमें उस पर दावे का प्रतिरोध ऐसे हित या अवधि के पर्यवसान के अव्यवहित पश्चात् तीन वर्ष के अन्दर ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाए जो ऐसे पर्यवसान पर उक्त भूमि या जल का हकदार हो।
  • जहाँ जीवन हित के आधार पर या 3 वर्ष से अधिक की शर्तों के आधार पर किसी भी छूट का उपभोग किया गया है या प्राप्त किया गया है, ऐसे हित की निरंतरता के दौरान ऐसी सुविधा को लेने का समय, ऐसी कालावधि को धारा 25 के तहत 20 वर्षों की गणना में बाहर रखा जाना है।

धारा 27

धारा 27– संपत्ति पर अधिकार का निर्वापित होना — उस कालावधि के पर्यवसान पर, जो किसी सम्पत्ति के कब्जे का वाद संस्थित किये जाने के निमित्त किसी व्यक्ति के लिये एतद्द्वारा परिसीमित है, ऐसी संपत्ति पर उसका अधिकार निर्वापित हो जाएगा।

  • निम्नलिखित बिंदुओं को यहाँ समझा जाना चाहिये:
    • सामान्य नियम यह है कि परिसीमा का कानून केवल उपचार को रोकता है लेकिन अधिकार को स्वयं प्रतिबंधित नहीं करता है। धारा 27 इस नियम का अपवाद है क्योंकि यह प्रतिकूल कब्जे से संबंधित है।
    • यह इस सिद्धांत पर आधारित है - यदि अधिकार प्राप्त मालिक अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं करता है, तो मालिक के अधिकार समाप्त हो जाएंगे, और संपत्ति के मालिक के पास उस पर एक उपयुक्त हक होगा।
    • यह उपबंध वास्तविक कब्जे तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें विधित: (de jure) कब्जा भी शामिल है।
    • विधित: कब्जे का उदाहरण: जहाँ किसी व्यक्ति ने एक घर में रहना बंद कर दिया है, लेकिन बिना किसी आशय के घर का मालिक बना हुआ है।
    • इस धारा के शब्दों के अनुसार, यह केवल संपत्ति के कब्जे से जुड़े मुकदमों पर लागू होता है और इसी तक सीमित रहता है।

 प्रतिकूल कब्जा (Adverse Possession)

  • परिसीमा अधिनियम की धारा 3 कहती है कि न्यायालय किसी भी मुकदमे का संज्ञान नहीं लेगा, जो स्थापित सीमा द्वारा निषिद्ध है। परिसीमा का कानून उपचार को वर्जित करता है लेकिन अधिकार को नहीं।
  • अधिनियम की धारा 27 परिसीमा के कानून के सामान्य सिद्धांत का अपवाद है।
  • यह बताता है कि यदि कोई व्यक्ति सीमा की अवधि के भीतर कब्जे की पुन:प्राप्ति के लिये मुकदमा दायर करने में विफल रहता है, तो उस संपत्ति के कब्जे को पुन: प्राप्त करने का उसका अधिकार भी समाप्त हो जाता है। यदि ऐसी स्थिति होती है, तो सच्चा मालिक संपत्ति पर अपने स्वामित्व को समाप्त कर देता है।

आलोचना (Criticism)

  • हेमाजी वाघाजी जाट बनाम भीखाभाई खेंगरभाई हरिजन और अन्य (2008) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत की आलोचना करते हुए इसके अतार्किक और तर्कहीन होने का दावा किया क्योंकि यह वास्तविक मालिक को सीमा अवधि के भीतर कोई कार्रवाई नहीं करने के लिये दंडित करता है और इसमें भारत संघ को सिद्धांत पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया।

प्रतिकूल कब्जे का दावा करने के लिये कानूनी संरक्षण

  • अधिनियम की धारा 27 संपत्ति के मालिक की ओर से मुकदमा दायर करने की परिसीमा अवधि की पुष्टि करती है, जो अनुच्छेद 65 के तहत प्रथम श्रेणी की निर्धारित सीमा अवधि 12 वर्ष है।
  • दूसरे पक्ष के पास लगातार 12 वर्षों से अधिक समय तक संपत्ति का कब्जा होने के बाद, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी।

निर्णयज विधि (Case Laws)

  • गुरुद्वारा साहिब बनाम ग्राम पंचायत गांव सिरथला और एक अन्य (2014) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस अधिनियम की अनुसूची के प्रथम खंड के अनुच्छेद 65 के तहत हक के आधार पर बेकब्जा होने की तारीख से 12 वर्ष के भीतर किसी व्यक्ति द्वारा मुकदमा दायर करना होगा। समय सीमा उस तारीख से शुरू होती है जब स्थावर संपत्ति का कब्जा वादी के प्रतिकूल हो जाता है।   

प्रतिकूल कब्जे को साबित करने के लिये आवश्यक बातें

  • कब्जे की तारीख: जिस तारीख को संपत्ति का प्रतिकूल कब्जा शुरू हुआ, उसे स्थापित किया जाना चाहिये। यह तारीख महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रतिकूल कब्जे के लिये आवश्यक 12 वर्ष की वैधानिक अवधि निर्धारित करती है।
  • स्वामी की जानकारी: यह प्रदर्शित करना आवश्यक है कि वास्तविक स्वामी को कब्जे और उस तारीख की जानकारी थी जब उन्हें इसके बारे में पता चला। इसके अतिरिक्त, यह स्थापित करना आवश्यक है कि निकटतम पड़ोसियों को कब्जे और उस तारीख के बारे में जानकारी थी जब उन्हें इसके बारे में पता चला था।
  • शांतिपूर्ण कब्जा: संपत्ति के अतिचारी द्वारा लिया गया कब्जा शांतिपूर्ण होना चाहिये। कोई भी कब्जा जो किसी व्यक्ति द्वारा संपत्ति के वास्तविक स्वामी को धमकी देने के बाद लिया जाता है, प्रतिकूल कब्जे में नहीं आता है।
  • स्वामी द्वारा कानूनी कार्रवाई नहीं किया जाना: यह साबित किया जाना चाहिये कि वास्तविक स्वामी ने इसकी जानकारी होने के बावजूद कब्जे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। यह साबित किया जाना चाहिये कि स्वामी को कब्जे के बारे में पता था।
  • लगातार कब्जा होना: यह स्थापित किया जाना चाहिये कि संपत्ति का कब्जा मालिक या किसी अन्य व्यक्ति की बिना किसी रुकावट के लागातार बना रहा था।

अपवाद

  • प्रतिकूल कब्जे का ऐसा नियम निम्नलिखित व्यक्तियों पर लागू नहीं होता है:
    • यदि स्वामी नाबालिग है।
    • यदि स्वामी मानसिक रूप से अस्वस्थ है।
    • यदि स्वामी सशस्त्र बलों में कार्य करता है।

सरकारी सम्पत्ति का प्रतिकूल कब्जा

  • किसी भी सरकारी संपत्ति के प्रतिकूल कब्जे के लिये अधिनियम की धारा 25 द्वारा सरकार या किसी सार्वजनिक संगठन से स्वामित्व का दावा करने की अवधि 30 वर्ष निर्धारित की गई है।
  • दूसरे शब्दों में, यह व्यक्ति के निर्बाध कब्जे के 30 वर्षों के बाद ही होता है कि यदि संपत्ति सरकार के स्वामित्व में है तो दावों के लिये कोई कार्रवाई दायर नहीं की जा सकती है।

निष्कर्ष

चिरभोग का कानून संपत्ति के कब्जे में सतर्क व्यक्ति को स्वामित्व का दावा करने में सहायता करता है, भले ही यह सिद्धांत निष्क्रिय स्वामी के प्रति कठोर लगता है, कानून में संशोधन होने तक कानून का पालन करने की आवश्यकता है।