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सिविल कानून

पुनरीक्षण

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 18-Jan-2024

परिचय:

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 115 उच्च न्यायालय को कुछ परिस्थितियों में किसी भी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा तय किये गए किसी भी मामले में पुनरीक्षण पर विचार करने का अधिकार देती है। पुनरीक्षण का अर्थ- पुनरीक्षण करने की क्रिया, विशेष रूप से संशोधन या सुधार की दृष्टि से आलोचनात्मक या सावधानीपूर्वक परीक्षण या अवलोकन है।

CPC की धारा 115:

यह धारा में कहा गया है कि-

(1) उच्च न्यायालय किसी भी ऐसे मामले के अभिलेख को मँगवा सकेगा जिसका ऐसे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय से विनिश्चय किया है और जिसकी कोई भी अपील नहीं होती है और यदि यह प्रतीत होता है कि-

(a) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसी अधिकृत्य का प्रयोग किया है जो उसमें विधि द्वारा निहित नहीं है; अथवा

(b) ऐसा अधीनस्थ न्यायालय ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा है जो इस प्रकार निहित है; अथवा

(c) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से कार्य किया है, तो उच्च न्यायालय उस मामले में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे।

परंतु उच्च न्यायालय, किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में इस धारा के अधीन किये गए किसी आदेश में या कोई विवाद्दक विनिश्चय करने वाले किसी आदेश में तभी फेरफार करेगा या उसे उलटेगा जब ऐसा आदेश यदि वह पुनरीक्षण के लिये आवेदन करने वाले पक्षकार के पक्ष में किया गया होता तो वाद या अन्य कार्यवाही का अंतिम रूप से निपटारा कर देता।

(2) उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन किसी ऐसी डिक्री या आदेश में, जिसके विरुद्ध या तो उच्च न्यायालय में या उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में अपील होती है, फेरफार नहीं करेगा अथवा उसे नहीं उलटेगा।

(3) न्यायालय के समक्ष वाद या अन्य कार्यवाही में कोई पुनरीक्षण रोक के रूप में प्रभावी नहीं होगी सिवाय वहाँ के जहाँ ऐसे वाद या अन्य कार्यवाही को उच्च न्यायालय द्वारा रोका गया है।

स्पष्टीकरण: इस धारा में “ऐसे मामले के अभिलेख को मँगवा सकेगा जिसका ऐसे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय ने विनिश्चय किया है” अभिव्यक्ति के अंतर्गत किसी वाद या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में किया गया कोई आदेश या कोई विवाद्यक विनिश्चित करने वाला कोई आदेश भी है।

पुनरीक्षण शक्ति का उद्देश्य:

  • यह पीड़ित पक्ष को गैर-अपीलीय आदेश में सुधार प्राप्त करने का साधन प्रदान करता है।
  • यह अपनी अधीक्षण और आगंतुक शक्ति के प्रभावी प्रयोग का प्रावधान करता है।
  • यह अधीनस्थ न्यायालयों को अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग में मनमाने ढंग से, अवैध या अनियमित रूप से कार्य करने से रोकता है

पुनरीक्षण शक्ति का दायरा:

  • इस धारा द्वारा दी गई शक्ति स्पष्ट रूप से अधीनस्थ न्यायालयों को उनके अधिकार क्षेत्र की सीमा के भीतर रखने तक ही सीमित है।
  • इस शक्ति के प्रयोग में, साक्ष्य के गुण-दोष पर विचार करना उच्च न्यायालय का कर्त्तव्य नहीं है।
  • यह कानून या तथ्य के निष्कर्ष के विरुद्ध निर्देशित नहीं है जिसमें अधिकार क्षेत्र का प्रश्न शामिल नहीं है।
  • एक पुनरीक्षण वहाँ भी होता है जहाँ एक अधीनस्थ न्यायालय कानून द्वारा उसे प्रदत्त क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में विफल रहता है।
  • इस धारा के अंतर्गत क्षेत्राधिकार विवेकाधीन है। इसका दायरा सीमित है और इसमें केवल न्यायिक त्रुटियों को शामिल किया गया है।
  • उच्च न्यायालय स्वत: संज्ञान लेते हुए (अपने प्रस्ताव पर) मामले का रिकॉर्ड मँगवा सकता है और उसे पुनरीक्षित कर सकता है।
  • उच्च न्यायालय न्याय की सहायता के अलावा इस धारा के अंतर्गत हस्तक्षेप करने के लिये बाध्य नहीं है।
  • यह उन मामलों पर लागू होता है जिनमें कोई अपील नहीं होती।

निर्णयज विधि:

  • पांडुरंग रामचन्द्र मांडलिक बनाम मारुति रामचन्द्र घाटगे (1996) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा कानून के किसी प्रश्न पर दिया गया गलत निर्णय, जिसका उस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के प्रश्न से कोई संबंध नहीं है, को उसे CPC की धारा 115 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा ठीक नहीं किया जा सकता है।
  • वेलकम होटल बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1983) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि जहाँ अधिकार क्षेत्र वाला न्यायालय पक्षों की गलती के कारण अनियमित तरीके से इसका प्रयोग करता है, वहाँ पुनरीक्षण में हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं है।