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सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत क्षेत्रीय अधिकारिता

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 05-Aug-2024

परिचय:

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 9 में प्रावधान है कि न्यायालयों को सिविल प्रकृति के सभी वादों पर विचारण करने का अधिकार होगा, सिवाय उन वादों के, जिनका संज्ञान स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित है।

  • तीन प्रकार के क्षेत्राधिकार हैं: विषय वस्तु, क्षेत्रीय एवं आर्थिक अधिकारिता।
  • CPC की धाराएँ 16 से 20 क्षेत्रीय अधिकारिता से संबंधित है।

क्षेत्रीय अधिकारिता:

  • क्षेत्रीय अधिकारिता के प्रयोजन के लिये वादों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:
    • अचल संपत्ति के संबंध में वाद (धारा 16 से लेकर धारा 18 तक)
    • चल संपत्ति के संबंध में वाद (धारा 19)
    • दोषपूर्ण कृत्य के कारण क्षतिपूर्ति हेतु वाद (धारा 19)
    • अन्य वाद (धारा 20)

अचल संपत्ति के संबंध में वाद:

CPC की धारा 16:

  • CPC की धारा 16 में प्रावधान है कि वाद वहीं संस्थित किया जाना चाहिये जहाँ विषय-वस्तु स्थित है। यह धारा निम्न प्रकार के वादों पर लागू होती है:
    • किराए या लाभ के साथ या उसके बिना अचल संपत्ति की वसूली के लिये।
    • अचल संपत्ति के विभाजन के लिये।
    • अचल संपत्ति के बंधक या उस पर प्रभार के मामले में फौजदारी, बिक्री या मोचन के लिये।
    • अचल संपत्ति में किसी अन्य अधिकार या हित के निर्धारण के लिये।
    • अचल संपत्ति के साथ दोषपूर्ण व्यवहार के लिये क्षतिपूर्ति के लिये।
    • वास्तव में ज़ब्ती या कुर्की के अंतर्गत चल संपत्ति की वसूली के लिये।
  • धारा 16 का प्रावधान ऐसी स्थिति का प्रावधान करता है जहाँ निम्नलिखित स्थानों पर वाद संस्थित किया जा सकता है:
    • संपत्ति किस स्थानीय क्षेत्राधिकार के अंदर स्थित है,
    • जहाँ प्रतिवादी,
      • वास्तव में, और स्वेच्छा से निवास करता है
      • या व्यवसाय करता है
      • या व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिये कार्य करता है
  • प्रावधान तब लागू होता है जब वाद-
    • अचल संपत्ति के संबंध में राहत या अचल संपत्ति के साथ दोषपूर्ण व्यवहार के कारण हुई क्षति के क्षतिपूर्ति के लिये
    • अचल संपत्ति प्रतिवादी द्वारा या उसकी ओर से रखी जाती है
    • मांगी गई राहत पूरी तरह से उसकी व्यक्तिगत आज्ञाकारिता के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है
  • इसके अतिरिक्त, धारा 16 के स्पष्टीकरण में यह प्रावधान है कि ‘संपत्ति’ का तात्पर्य भारत में स्थित संपत्ति से है।

CPC की धारा 17:

  • धारा 17 में अचल संपत्ति के लिये वाद का प्रावधान है, जब संपत्ति विभिन्न न्यायालयों के अधिकारिता में स्थित हो।
    • इस धारा में प्रावधान है कि जब अचल संपत्ति अलग-अलग न्यायालयों के अधिकारिता में स्थित हो, तो उस न्यायालय में वाद संस्थित किया जा सकता है, जिसकी स्थानीय क्षेत्राधिकार के अंदर संपत्ति का कोई हिस्सा स्थित है।
    • इस धारा के में प्रावधान है कि विषय-वस्तु के मूल्य के संबंध में पूरा दावा न्यायालय द्वारा संज्ञान योग्य होना चाहिये। इससे तात्पर्य है कि न्यायालय के पास मामले पर आर्थिक अधिकार होना चाहिये।

CPC की धारा 18:

  • धारा 18 उन मामलों के लिये प्रावधान करती है जहाँ न्यायालयों के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाएँ अनिश्चित हैं।
    • धारा 18(1) में प्रावधान है कि:
      • जहाँ यह आरोप लगाया जाता है कि कोई अचल संपत्ति दो या अधिक न्यायालयों में से किस न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के अंदर स्थित है, वहाँ उन न्यायालयों में से कोई भी यदि संतुष्ट हो कि कथित अनिश्चितता के लिये आधार है तो उस आशय का कथन दर्ज कर सकता है।
      • और उस संपत्ति से संबंधित किसी भी वाद को स्वीकार करने एवं उसका निपटान करने के लिये आगे बढ़ सकता है।
      • तथा डिक्री का वैसा ही प्रभाव होगा जैसे कि संपत्ति उस न्यायालय के स्थानीय क्षेत्राधिकार में स्थित हो
      • इस उपधारा में यह प्रावधान है कि न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने के लिये वाद की प्रकृति एवं मूल्य के संबंध में सक्षम होना चाहिये।
    • धारा 18(2) में उस स्थिति के परिणाम का प्रावधान है, जब उपधारा (1) के अंतर्गत बयान दर्ज नहीं किया गया है तथा अधिकारिता के संबंध में कोई आपत्ति अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय के समक्ष उठाई जाती है।
    • अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय तब तक आपत्ति स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि उसकी राय में-
      • वाद दायर करने के समय अनिश्चितता के लिये कोई उचित आधार नहीं था।
      • परिणामस्वरूप न्याय प्राप्त नहीं हुआ।

चल संपत्ति के संबंध में वाद या व्यक्तियों के प्रति दोषपूर्ण कृत्य के लिये क्षतिपूर्ति:

  • CPC की धारा 19 में व्यक्ति या चल संपत्ति के साथ हुए अन्याय के कारण क्षतिपूर्ति हेतु वाद के लिये अधिकारिता का प्रावधान है।
  • वाद निम्नलिखित में से किसी भी न्यायालय में संस्थित किया जा सकता है:
    • जहाँ प्रतिवादी-
      • निवास करता है या
      • व्यवसाय करता है या
      • व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिये कार्य करता है

जहाँ किसी व्यक्ति या चल संपत्ति के साथ दोषपूर्ण कृत्य किया गया हो।

अन्य वाद:

  • हर्षद चिमन लाल बनाम DLF यूनिवर्सल लिमिटेड (2005) के मामले में, यह माना गया कि CPC की धारा 20 में कोई संदेह की संभावना नहीं है कि यह एक अवशिष्ट प्रावधान है तथा इसमें वे प्रावधान भी शामिल हैं जो CPC की धारा 15 से धारा 19 के अंतर्गत नहीं आते हैं।
  • धारा 20 में यह प्रावधान है कि पूर्वोक्त सीमाओं के अधीन रहते हुए प्रत्येक वाद उस व्यक्ति के अधिकारिता की स्थानीय क्षेत्राधिकार के अंदर संस्थित किया जाएगा।
    • प्रतिवादी, या प्रतिवादियों में से प्रत्येक, जहाँ एक से अधिक हों, वाद के संस्थित होने के समय,
      • वास्तव में एवं स्वेच्छा से निवास करता है, या
      • व्यवसाय करता है, या
      • व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिये कार्य करता है, या
      • बशर्ते कि ऐसे मामले में या तो
      • न्यायालय की अनुमति दी जाती है, या
      • प्रतिवादी जो निवास नहीं करते हैं, या व्यवसाय नहीं करते हैं, या व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिये कार्य नहीं करते हैं, जैसा कि पूर्वोक्त है, ऐसी संस्था में सहमति देते हैं।
    • कार्यवाही का कारण पूर्णतः या आंशिक रूप से उत्पन्न होता है।
  • इस धारा का स्पष्टीकरण निगम के विषय में नियम निर्धारित करता है। इसमें प्रावधान है कि:
    • किसी निगम को भारत में अपने एकमात्र या प्रधान कार्यालय से व्यवसाय करने वाला माना जाएगा, अथवा
    • किसी ऐसे स्थान पर उत्पन्न होने वाले किसी वाद हेतुक के संबंध में, जहाँ उसका अधीनस्थ कार्यालय भी है, ऐसे स्थान पर व्यवसाय करने वाला माना जाएगा।

क्षेत्रीय अधिकारिता के संबंध में आपत्तियाँ:

  • यह अच्छी तरह से स्थापित है कि मामले के विचारण के लिये न्यायालय के स्थानीय क्षेत्राधिकार के रूप में, वाद के विचारण के लिये न्यायालय की योग्यता के समान स्तर पर नहीं खड़ा होता है।
  • मामले के विचारण के लिये न्यायालय की योग्यता क्षेत्राधिकार की जड़ तक जाती है तथा जहाँ इसकी कमी है, वह क्षेत्राधिकार की अंतर्निहित कमी का मामला है।
  • हालाँकि न्यायालय के स्थानीय क्षेत्राधिकार के विषय में आपत्ति को क्षमा किया जा सकता है।
  • धारा 21 इसकी सांविधिक मान्यता है तथा यह प्रावधान करती है कि वाद संस्थित करने के स्थान के विषय में त्रुटि को क्षमा किया जा सकता है।
  • धारा 21 (1) में प्रावधान है कि अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा वाद संस्थित करने के स्थान के विषय में कोई आपत्ति स्वीकार नहीं की जाएगी जब तक कि निम्नलिखित तीन शर्तें पूरी न हो जाएँ:
    • आपत्ति प्रथम दृष्टया न्यायालय में यथाशीघ्र वापस ली जाएगी तथा उन सभी मामलों में जहाँ मामलों का निपटान ऐसे निपटान के समय या उससे पहले किया जाता है, परिणामस्वरूप न्याय नहीं मिल पाया है।
  • उपरोक्त तीनों शर्तें एक साथ उपस्थित होनी चाहिये।

अनन्य क्षेत्राधिकार धाराएँ:

  • अनन्य क्षेत्राधिकार के मामले में, पक्ष सहमत होते हैं कि उनके मध्य विवाद की स्थिति में मामले को विशेष रूप से एक मंच के समक्ष उठाया जाएगा, हालाँकि कई अन्य मंचों के पास क्षेत्राधिकार हो सकता है।
  • अनन्य क्षेत्राधिकार पूर्ण संयम एवं सुविधा आधारित फोरम शॉपिंग के बीच का स्थान रखता है।
  • हाकम सिंह बनाम गैमन (इंडिया) लिमिटेड (1971) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि पक्षकार करार द्वारा किसी ऐसे स्थान पर क्षेत्राधिकार प्रदान नहीं कर सकते, जो CPC के प्रावधानों के अंतर्गत क्षेत्राधिकार नहीं रखता है।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि जब दो स्थानों पर क्षेत्राधिकार होता है तो पक्षकार करार द्वारा इनमें से किसी एक स्थान पर क्षेत्राधिकार प्रदान कर सकते हैं। हालाँकि पक्षकार करार द्वारा किसी ऐसे स्थान पर क्षेत्राधिकार प्रदान नहीं कर सकते हैं जिसके पास पहले से ही कोई क्षेत्राधिकार नहीं है।
    • अनन्य क्षेत्राधिकार खंड ICA की धारा 28 एवं धारा 23 का उल्लंघन नहीं करता है।

निष्कर्ष:

वाद सस्थित करने से पहले यह जानना बहुत ज़रूरी है कि वाद किस न्यायालय के क्षेत्राधिकार में दायर किया जाना चाहिये। CPC की धारा 16 से लेकर 20 के अंतर्गत प्रादेशिक क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है। ये प्रावधान पक्षकारों को यह समझने में सहायता करते हैं कि वाद कहाँ संस्थित किया जाना चाहिये।