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सांविधानिक विधि
समान नागरिक संहिता
« »11-Oct-2023
परिचय
- भारत के संविधान, 1950 के अध्याय IV में निहित अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि "राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता (UCC) सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा"।
- हमारी संविधान सभा ने वर्ष 1937 के आयरिश संविधान से राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों (DPSP) को उधार लिया था।
- भारत के संविधान के अध्याय IV में DPSP (अनुच्छेद 36-51) के बारे में वर्णन किया गया है। ये ऐसी नीतियाँ हैं जिन्हें राज्य को समाज की समग्र कल्याण के लिये लागू करने की आवश्यकता है।
- UCC का उद्देश्य भारत में प्रत्येक धर्म पर एक समान व्यक्तिगत कानून लागू करना है।
- UCC के अंतर्गत आने वाले मामले विवाह, विरासत, भरण-पोषण, संरक्षकता, उत्तराधिकार, दत्तक ग्रहण आदि हैं।
UCC की पृष्ठभूमि
स्वतंत्रता पूर्व काल
- 1840 की लेक्स-लोकी रिपोर्ट ने पूर्व-औपनिवेशिक युग के दौरान समान कानूनों की आवश्यकता को संबोधित किया। आपराधिक कानूनों, वाणिज्यिक कानून एवं साक्ष्य के कानून के संहिताकरण को शामिल किया गया था, हालाँकि व्यक्तिगत कानूनों को एक ही कोड में शामिल करने के खिलाफ सलाह भी दी गई थी।
- 1859 में रानी की उद्घोषणा में व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप न करने का वादा किया गया था।
स्वतंत्रता के बाद की अवधि
- यह अवधि 1947-1985 मानी जाती है
- प्रारूप समिति के सदस्य जैसे पं. जवाहरलाल नेहरू और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर समान नागरिक संहिता की स्थापना के पक्ष में थे।
- फिर भी, इस सिफारिश का धार्मिक नेताओं ने विरोध किया, साथ ही इसके परिणामस्वरूप इस सिद्धांत को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया गया।
समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क
- भारत में कई अधिनियम पहले से ही समान रूप से कार्य कर रहे हैं जैसे कि भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 तथा विशेष विवाह अधिनियम, 1954, जो व्यक्तिगत कानूनों के समान रुख पर नागरिक मामलों को कवर करते हैं।
- यदि समान नागरिक संहिता अधिनियमित एवं लागू की जाती है, तो इससे राष्ट्रीय एकता को गति देने में सहायता प्राप्त होगी।
- कानूनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिये कानून के प्रावधानों के अतिव्यापन से बचा जाएगा।
- एकता और राष्ट्रीय भावना की भावना जागृत होगी।
- देश किसी भी विपरीत परिस्थिति का सामना करने के लिये नई ऊर्जा और शक्ति के साथ उभरेगा एवं अंततः सांप्रदायिक और विभाजनवादी शक्तियों को पराजित करेगा।
- यह कई व्यक्तिगत कानूनों में महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करके महिलाओं के लिये लैंगिक न्याय और समानता स्थापित करने में सहायता प्रदान करेगा।
ऐतिहासिक केस कानूनों की शृंखला
1. मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985)
- सर्वोच्च न्यायालय ने CrPC की धारा 125 को सभी धर्मों पर एक समान लागू करने को सही ठहराया।
- धारा 125 के तहत पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के लिये भरण-पोषण करना प्रत्येक धर्म पर लागू हो गया।
- न्यायालय द्वारा एक समान नागरिक संहिता लाने की सिफारिश की।
- इसके अतिरिक्त, इस मामले के निर्णय के बाद शुरू हुई धार्मिक बहस के कारण वर्ष 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर सुरक्षा का अधिकार) अधिनियम (MWA) लागू हुआ, जिसने मुस्लिम महिलाओं पर धारा 125 के आवेदन को निरस्त कर दिया।
2. सुश्री जोर्डन डींगदेह बनाम एस.एस. चोपड़ा (1985)
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अब विवाह की अवधारणा के लिये समान नागरिक संहिता लाने का समय आ गया है।
3. सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995)
- न्यायालय ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पहली शादी को पूर्णतया समाप्त किये बिना इस्लाम में परिवर्तित होकर दोबारा शादी करता है, तो वह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 के तहत द्विविवाह के लिये दंडनीय होगा। कोई भी व्यक्ति जो हिंदू है, हिंदू कानून के अनुसार दोबारा शादी करने से पहले अपनी शादी को समाप्त करने के लिये बाध्य है।
4. जॉन वल्लामटोम बनाम भारत संघ (2003)
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 को ईसाइयों के प्रति असंवैधानिक तथा भेदभावपूर्ण होने के कारण रद्द कर दिया गया था।
- इस निर्णय के पीछे का कारण वसीयत के माध्यम से धार्मिक एवं धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये संपत्ति के दान पर प्रावधान के माध्यम से लगाया गया प्रतिबंध था।
5. डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2011)
- मुस्लिम महिला (तलाक पर सुरक्षा का अधिकार) अधिनियम (MWA) को अनुच्छेद 14 और 21 के विरोधाभासी होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी।
- फिर भी, न्यायालय द्वारा अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा साथ ही इसे धारा 125 के साथ सुसंगत बनाया।
6. लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013)
- उत्तराधिकार की धारणा के लिये UCC को आवश्यक माना गया तथा सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक व्यक्तिगत कानून के लिये एक ही कोड लाने पर बहुत अधिक बल दिया।
वर्तमान परिदृश्य
गोवा नागरिक संहिता
- 1867 ई० का पुर्तगाली नागरिक संहिता को वर्तमान में गोवा नागरिक संहिता के नाम से जाना जाता है।
- इसका निपटारा अनुच्छेद 44 के तहत नहीं किया गया है, लेकिन इसकी कार्यप्रणाली समान है और यह सद्भाव की मिसाल के रूप में कार्य भी कर रहा है।
- गोवा में विवाह, उत्तराधिकार एवं तलाक के मामलों को एक समान संहिता के तहत निपटाया जाता है।
- सभी धर्म एक ही नागरिक संहिता से बँधे हुए हैं।
- विवाह-विच्छेद के बाद संपत्ति के पहले से ही सहमत वितरण को सुनिश्चित करने के लिये गोवा में विवाह-पूर्व समझौते मान्य हैं।
- यहाँ विवाह को एक अनुबंध माना जाता है जिसमें दोनों पक्षों की सहमति आवश्यक होती है।
उत्तराखंड में UCC का कार्यान्वयन
- उत्तराखंड में UCC के कार्यान्वयन के लिये सिफारिशें देने के लिये सेवानिवृत्त सर्वोच्च न्यायाधीश रंजना देसाई की अध्यक्षता में पाँच सदस्यीय विशेषज्ञ समिति बनाई गई है। समिति के अन्य सदस्य सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश प्रमोद कोहली, सेवानिवृत्त आईएएस शत्रुघ्न सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता मनु गौड़ तथा दून विश्वविद्यालय की वी.सी सुरेखा डंगवाल आदि थे।
- इसके कार्यान्वयन के लिये उत्तराखंड के निवासी भी सुझाव देने के लिये तैयार हैं।
- यदि उत्तराखंड अनुच्छेद 44 के क्रियान्वयन पर अमल करेगा तो वह ऐसी कार्यवाही करने वाला भारत का पहला राज्य बन जायेगा।
समान नागरिक संहिता के दोष
- भारत की विविध जनसंख्या के लिये एक समान नियम बनाना कठिन है।
- लोगों को डर है कि UCC उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर रहा है।
- यदि संहिताकरण के दौरान निष्पक्षता असंतुलित हो गई तो इससे धार्मिक दंगे एवं हिंसा भी हो सकती है।
- यह व्यक्तिगत मामलों में सरकार के हस्तक्षेप की मांग करता है।
- भारत में कई समुदाय इस बदलाव से गुजरने के लिये तैयार नहीं हैं।
आगे की राह
- समान नागरिक संहिता अभी भी सरकार के लिये एक निर्देश है कि वह इसे संविधान में शामिल करने के उद्देश्य को पूरा करने के लिये अपने प्रयासों को संरेखित करे।
- उम्मीद थी कि सरकार इसके क्रियान्वयन की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करेगी।
- फिर भी, न्यायपालिका ने सामान्य संहिता लाने के लिये विभिन्न उदाहरणों में अपने विचार व्यक्त किये हैं। लेकिन धार्मिक कट्टरपंथी और राजनीतिक उद्देशों की पूर्ति इसके क्रियान्वयन में बाधा बन जाती हैं।
- इसके अतिरिक्त, भारत की जनसंख्या में भारी विविधता भी UCC के आवेदन के लिये उचित प्रक्रिया खोजने में विलम्ब का एक कारण है।
- इसलिये, अनुच्छेद 44 बिना किसी स्पष्ट व्यावहारिक अनुप्रयोग के एक साहित्यिक विचार बना हुआ है।