विधि के शासन की प्रधानता
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सांविधानिक विधि

विधि के शासन की प्रधानता

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 11-Oct-2023

परिचय

  • 'विधि का शासन' शब्द फ्राँसीसी शब्द 'ले प्रिंसिपे डी लीगेलाइट' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'वैधता का सिद्धांत'।
  • विधि का शासन, जिसे विधि की सर्वोच्चता के रूप में भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है कि कोई भी (सरकार सहित) विधि से ऊपर नहीं है।
  • विधि का शासन एक विधिक सिद्धांत है, जिसमें सरकारी अधिकारियों के मनमाने निर्णयों के विरुद्ध विधि को एक राष्ट्र पर शासन करना चाहिये।
    • प्रत्येक व्यक्ति विधि के तहत सामान्य न्यायालयों का क्षेत्राधिकार के अधीन है, चाहे उसकी रैंक और पद कोई भी हो।

डाइसी की विधि के शासन की अवधारणा

  • प्रोफेसर ए.वी. डाइसी को विधि के शासन की अवधारणा का मुख्य प्रतिपादक माना जाता है।
  • वर्ष 1885 में, उन्होंने अपनी उत्कृष्ट पुस्तक 'लॉ एंड द कॉन्स्टिट्यूशन' में विधि के शासन के तीन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया
  • प्रोफेसर ए.वी.डाइसी के अनुसार, विधि की सर्वोच्चता हासिल करने के लिये निम्नलिखित तीन सिद्धांतों का पालन करना चाहिये:
    • विधि की सर्वोच्चता
    • विधि के समक्ष समता
    • विधिक भावना की प्रधानता: न्यायालय को निष्पक्षता एवं बाह्य प्रभाव से मुक्त होना चाहिये।

विधि की सर्वोच्चता

  • यह डाइसी की विधि के शासन की अवधारणा का पहला स्तंभ है।
  • विधि का शासन सरकार या सार्वजनिक अधिकारियों की सभी प्रकार की मनमानी और विवेकाधीन शक्तियों को अस्वीकार करता है
  • इसका तात्पर्य यह है, कि किसी व्यक्ति को कानून के उल्लंघन के लिये दंडित किया जा सकता है, लेकिन उसे किसी और चीज़ के लिये दंडित नहीं किया जा सकता है।

विधि के समक्ष समता

  • डाइसी की विधि के शासन की अवधारणा का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्तंभ विधि के समक्ष समता है।
  • डाइसी विधि की निष्पक्षता पर ज़ोर देते हैं।
    • इसका अर्थ यह है कि अमीर और गरीब, अधिकारी और गैर-अधिकारी, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच कोई अंतर नहीं होगा, न किसी को नीचा दिखाया जा सकता है और न ही किसी को उन्नत किया जा सकता है।
    • विधि सभी को समान न्याय प्रदान करती है।
  • उनका मानना है, कि सभी लोगों के लिये समान कानून होना चाहिये और उनका निर्णय समान रूप से न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिये।

विधिक भावना की प्रधानता

  • डाइसी की विधि के शासन की अवधारणा का तीसरा स्तंभ विधिक भावना की प्रधानता है।
  • डाइसी के अनुसार, विधि के शासन की व्यापकता के लिये एक प्रवर्तन प्राधिकारी होना चाहिये और वह प्राधिकार उन्हें न्यायालयों में मिलता है।
    • उनका मानना था कि न्यायालय विधि के शासन को लागू करता है और इसलिये इसे निष्पक्षता और बाहरी प्रभाव से मुक्त होना चाहिये
  • इसलिये न्यायपालिका की स्वतंत्रता विधि के शासन के अस्तित्व के लिये एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ है।

डाइसी की अवधारणा की आलोचना

  • डाइसी ने विधियों के संहिताकरण के महत्त्व की अवज्ञा की है।
  • किसी व्यक्ति के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये विधियों का संहिताकरण महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चितता प्रदान करता है, जो कुछ भी संहिताबद्ध किया गया है वह निश्चित है और इसका अधिक प्रभावी ढंग से पालन किया जा सकता है।
  • उन्होंने ड्रोइट एडमिनिस्ट्रेटिफ़ (ड्रोइट प्रशासन - नियमों का समूह जो राज्य और उसके नागरिकों के प्रति प्रशासन या प्रशासनिक प्राधिकरण के संबंधों को विनियमित करता है) की अवधारणा को गलत माना है।
  • उनके अनुसार, यह प्रणाली अधिकारियों की सुरक्षा के लिये बनाई गयी थी, लेकिन कुछ मामलों में, यह सामान्य विधि प्रणाली की तुलना में प्रशासन को नियंत्रित करने में विशेष रूप से प्रभावी थी।

भारत में विधि का शासन

  • भारत का संविधान,1950 देश की सर्वोच्च विधि है और यह न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका पर अभिभावी है।
    • राज्य के इन तीनों अंगों को संविधान में अंकित सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना होता है।
  • संविधान के तहत, विधि का शासन इसके कई प्रावधानों में शामिल है।
  • अनुच्छेद 13, भारत में विधि के शासन के सिद्धांत को बढ़ावा देता है।
    • अनुच्छेद 13 के तहत नियमों, विनियमों, उपनियमों और अध्यादेशों के रूप में परिभाषित "विधियों" को रद्द किया जा सकता है, यदि वे भारत के संविधान के विपरीत हैं।
  • अनुच्छेद 14, विधि के समक्ष समता और विधि के समान संरक्षण के अधिकारों को सुनिश्चित करता है।
    • इसमें कहा गया है, कि किसी को भी विधि के समक्ष समता और राज्य द्वारा विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (वर्ष 1973) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने विधि के शासन को संविधान के मूल ढाँचा के रूप में शामिल किया है।
  • मेनका गांधी बनाम भारत संघ (वर्ष 1978) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अनुच्छेद 14 राज्य के मनमाने कार्यों को विखंडित करता है, जो व्यवहार में निष्पक्षता और समानता सुनिश्चित करता है।
  • विधि का एक और महत्त्वपूर्ण व्युत्पन्न नियम न्यायिक समीक्षा है।
    • केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के विधायी अधिनियमों और कार्यकारी आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करना न्यायपालिका की शक्ति है।
  • यह न केवल संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा करता है बल्कि प्रशासनिक कार्यों और उसकी वैधता की भी जाँच करता है।
    • शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (वर्ष 1951) मामले में, न्यायिक समीक्षा की शक्ति उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित की गयी थी।
  • न्यायिक समीक्षा की शक्तियाँ अनुच्छेद 226 तथा अनुच्छेद 227 के तहत उच्च न्यायालयों को और अनुच्छेद 32 एवं अनुच्छेद 136 के तहत उच्चतम न्यायालयों को सौंपी गयी हैं।

विधि के शासन की आधुनिक अवधारणा

  • वर्तमान परिदृश्य में, डाइसी की विधि के शासन की अवधारणा को समग्र रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है।
  • विधि के शासन की आधुनिक अवधारणा काफी व्यापक है और इसलिये यह किसी भी सरकार के लिये एक आदर्श स्थापित करती है।
  • विधि के शासन की आधुनिक अवधारणा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा निर्मित की गई थी, जिसे दिल्ली घोषणा, 1959 भी कहा जाता था, बाद में वर्ष 1961 में लागोस में इसकी पुष्टि की गई थी।
  • आधुनिक अवधारणा के अनुसार, 'विधि के शासन' से तात्पर्य है:
    • एक स्वतंत्र समाज में सरकार के कार्यों का प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिये कि एक व्यक्ति के रूप में व्यक्ति की गरिमा बरकरार रहे।
    • प्रभावी सरकार कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने में सक्षम हो सके।
    • कानून, विधिक् सहायता, सार्वजनिक परीक्षण, निष्पक्ष सुनवाई और निर्दोषिता की धारणा के अधिकार के बिना कोई गिरफ्तारी न हो
    • स्वतंत्र न्यायपालिका
  • इस प्रकार, आधुनिक अर्थ में विधि का शासन यह सुनिश्चित करता है, कि राजनीतिक हित को प्रोत्साहन मिले और जहाँ सरकार की आलोचना को न केवल अनुमति दी जाए बल्कि उसे सकारात्मक गुण भी माना जाए ।

'विधि के शासन' के अपवाद

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361, 361 (2), 361 (3) और 361 (4) के माध्यम से राष्ट्रपति और राज्यपालों को उन्मुक्ति प्रदान की जाती है। अनुच्छेद 361 में कहा गया है कि -
    (1) राष्ट्रपति, या किसी राज्य के राज्यपाल या राजप्रमुख, अपने कार्यालय की शक्तियों और कर्त्तव्यों के प्रयोग और प्रदर्शन के लिये या उन शक्तियों और कर्त्तव्यों के प्रयोग और प्रदर्शन में उनके द्वारा किये जाने वाले किसी कार्य के लिये किसी भी न्यायालय के प्रति जवाबदेह नहीं होंगे
    (2) राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय में कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी या जारी नहीं रखी जाएगी
    (3) राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल की गिरफ्तारी या कारावास की कोई प्रक्रिया उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय से जारी नहीं की जाएगी।
    (4) कोई भी सिविल कार्यवाही जिसमें राष्ट्रपति, या किसी राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध अनुतोष का दावा किया गया है, उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय में उनके द्वारा व्यक्तिगत क्षमता में किये गए या किये जाने वाले किसी कार्य के संबंध में शुरू की जाएगी। चाहे वह राष्ट्रपति के रूप में या ऐसे राज्य के राज्यपाल के रूप में अपना पद ग्रहण करने से पहले या बाद में, जब तक कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को, जैसा भी मामला हो, लिखित में नोटिस दिया गया हो, या उनके ऊपर छोड़ दिया गया हो, उसके अगले दो माह की समाप्ति तक कार्यालय कार्यवाही की प्रकृति, उसके लिये कार्रवाई का कारण, उस पक्ष का नाम, विवरण और निवास स्थान जिसके द्वारा ऐसी कार्यवाही शुरू की जानी है और वह जिस राहत का दावा करता है।
  • विदेशी राजनयिकों को उन्मुक्ति
    • वर्ष 1961 के वियना कन्वेंशन में राजनयिक संबंधों के विशेषाधिकारों और विभिन्न उन्मुक्तियों पर प्रावधान हैं जो राजनयिक दूतों या अभिकर्त्ताओं को प्रदान किये जाते हैं।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 121 सहित उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की उन्मुक्ति, जो संसद में न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा को प्रतिबंधित करती है।

निर्णयज विधि

  • एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (वर्ष 1976)
    • इस मामले को “बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले” के नाम से भी जाना जाता है। जब विधि के शासन की बात आती है तो यह सबसे महत्त्वपूर्ण मामलों में से एक बनकर उभरता है।
    • माननीय न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न उठाया गया कि क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अलावा भारत में कोई विधि का शासन है।
  • डी.सी. वाधवा बनाम बिहार राज्य (वर्ष 1986)
    • उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार की निंदा करने के लिये विधि के शासन का प्रयोग किया, जो विधायिका द्वारा विधि के विकल्प के रूप में अपने अध्यादेश निर्माण की शक्ति का प्रायः उपयोग कर रही थी।
    • न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अध्यादेशों को पुनः जारी करना असंवैधानिक है क्योंकि बिना कानून बनाए एक से चौदह वर्ष तक की अवधि के लिये अध्यादेशों को पुनः जारी करना कार्यपालिका द्वारा शक्ति का एक आभासी प्रयोग (colourable exercise of power) है।
  • यूसुफ खान बनाम मनोहर जोशी (वर्ष 2000)
    • उच्चतम न्यायालय ने प्रस्थापित किया कि विधियों का संरक्षण और सुरक्षा करना राज्य का कर्त्तव्य है और वह ऐसे किसी भी हिंसक कृत्य की अनुमति नहीं दे सकता है, जो विधि के शासन को नकारता है