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सिविल कानून

अर्द्ध-संविदा

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 18-Jul-2024

परिचय:

अर्द्ध-संविदा, जिसे रचनात्मक संविदा के रूप में भी जाना जाता है, एक विधिक संरचना है जो न्यायालय को दो पक्षों के बीच औपचारिक करार के बिना संविदा-जैसे दायित्व को लागू करने की अनुमति देती है।

  • भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत, धारा 68 से 72 के अंतर्गत अर्द्ध-संविदाओं को मान्यता दी जाती है और लागू किया जाता है, ताकि ऐसी स्थिति में न्याय तथा निष्पक्षता सुनिश्चित की जा सके, जहाँ एक पक्ष को दूसरे पक्ष का अहित कर अनुचित रूप से लाभ पहुँचाया जाता है।
  • अर्द्ध-संविदा की अवधारणा को सर्वप्रथम अंग्रेज़ी विधि द्वारा मान्यता दी गई।
  • लॉर्ड मैन्सफील्ड को अर्द्ध-संविदात्मक दायित्व का संस्थापक माना जाता है।

अर्द्ध-संविदा के तत्त्व:

  • औपचारिक संविदा का अभाव:
    • इसमें शामिल पक्षों के बीच कोई औपचारिक संविदा या करार, चाहे लिखित हो या मौखिक, नहीं होना चाहिये।
    • अर्द्ध-संविदा विधि द्वारा अध्यारोपित किये जाते हैं, पक्षों की आपसी सहमति से नहीं।
  • अन्यायपूर्ण संवर्द्धन:
    • अन्यायपूर्ण संवर्द्धन का सिद्धांत अर्द्ध संविदाओं का केंद्र बिंदु है।
    • ऐसा तब होता है जब एक पक्ष बिना किसी विधिक औचित्य के दूसरे पक्ष के अहित पर लाभ प्राप्त होता है।
  • विधिक दायित्व:
    • अन्यायपूर्ण संवर्द्धन को रोकने के लिये भुगतान या क्षतिपूर्ति का दायित्व, विधि द्वारा अध्यारोपित किया जाता है।
    • यह दायित्व, पक्षों की परिस्थितियों और आचरण से उत्पन्न होता है।
  • अनानुग्रहिक कार्य:
    • लाभ प्रदान करने का कार्य, उपहार या निशुल्क कार्य के रूप में नहीं होना चाहिये।
    • लाभ प्रदान करने वाले पक्ष को अपनी सेवा या वस्तु के लिये क्षतिपूर्ति की अपेक्षा करनी चाहिये।

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत संविदात्मक दायित्व के प्रकार:

  • संविदा करने में असमर्थ व्यक्ति को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति: धारा 68
    • यदि किसी ऐसे व्यक्ति को, जो संविदा करने में असमर्थ है, जैसे कि अवयस्क या अस्वस्थ्य व्यक्ति, उसकी जीवन-स्थिति के अनुकूल आवश्यक वस्तुएँ प्रदान की जाती हैं, तो आपूर्तिकर्त्ता को उस असमर्थ व्यक्ति की संपत्ति से प्रतिपूर्ति पाने का अधिकार है।
  • इच्छुक व्यक्ति द्वारा भुगतान: धारा 69
    • जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ओर से धन का भुगतान करता है, जो भुगतान करने के लिये विधिक रूप से बाध्य है, तो भुगतान करने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति से प्रतिपूर्ति पाने का अधिकारी होता है, जिसकी ओर से भुगतान किया गया था।
  • अनानुग्रहिक कार्य के लिये भुगतान करने का दायित्व: धारा 70
    • यदि कोई व्यक्ति विधिपूर्वक किसी अन्य के लिये कुछ करता है या किसी अन्य को कुछ वस्तु प्रदान करता है और ऐसा कार्य या वस्तु प्रदान करना निशुल्क नहीं है, तो दूसरा व्यक्ति प्राप्त लाभ के लिये प्रतिपूर्ति हेतु बाध्य है।
  • माल खोजने वाला: धारा 71
    • जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का माल पाता है और उसे अपने कब्ज़े में ले लेता है, वह भी उपनिहिती के समान ही उत्तरदायित्व के अधीन होता है।
    • खोजकर्त्ता को सामान को सुरक्षित रखने तथा उसे स्वामी को वापस करने के लिये सभी आवश्यक उपाय करने होंगे।
  • भूल से या प्रपीडन से प्रतिदान की गई वस्तुएँ : धारा 72
    • यदि धन या वस्तु भूल से या प्रपीडन से प्रतिदान किये जाते हैं, तो उन्हें प्राप्त करने वाला व्यक्ति उन्हें चुकाने या वापस करने के लिये बाध्य है।

निर्णयज विधियाँ:

  • पश्चिम बंगाल राज्य बनाम मेसर्स बी. के. मंडल (1961)
    • इस मामले में, सरकार को बिना किसी औपचारिक संविदा के ठेकेदार द्वारा किये गए निर्माण कार्य से लाभ हुआ।
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि सरकार अधिनियम की धारा 70 के अंतर्गत प्रदान की गई सेवाओं के लिये ठेकेदार को भुगतान करने के लिये उत्तरदायी है।
  • मध्य प्रदेश राज्य बनाम भाईलाल भाई एवं अन्य (1964)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि गलती से बिक्री कर का भुगतान भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 74 के अंतर्गत आता है।
    • जिस सरकार को गलती से भुगतान किया गया है, उसे वह राशि वापस करनी होगी।
  • महाबीर किशोर एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1989)
    • उच्चतम न्यायालय ने अन्यायपूर्ण संवर्द्धन के सिद्धांत के गठन के लिये आवश्यक तत्त्व निर्धारित किये हैं और वे निम्न प्रकार हैं:
      • पहला, प्रतिवादी को "लाभ" प्राप्त होने से "समृद्ध" किया गया है।
      • दूसरा, यह संवर्द्धन "वादी के अहित पर" है।
      • तीसरा, संवर्द्धन को बनाए रखना अन्यायपूर्ण है।

निष्कर्ष:

भारतीय विधिक प्रणाली में अर्द्ध-संविदा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि वे ऐसी स्थितियों को संबोधित करते हैं जहाँ औपचारिक संविदा मौजूद नहीं होते हैं, फिर भी एक पक्ष दूसरे पक्ष के अहित पर लाभ प्राप्त करता है। अर्द्ध-संविदाात्मक दायित्वों को मान्यता देकर और उन्हें लागू करके, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 न्याय तथा निष्पक्षता सुनिश्चित करता है, अन्यायपूर्ण संवर्द्धन को रोकता है एवं विभिन्न लेन-देन व बातचीत में न्यायसंगत व्यवहार को बढ़ावा देता है।