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आपराधिक कानून
भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A के तहत दोषसिद्धि
23-Oct-2023
परानागौड़ा बनाम कर्नाटक राज्य आईपीसी की धारा 304-B के तहत बरी होने के बावजूद भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा जा सकता है क्योंकि धारा 498-A का दायरा व्यापक है। न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट्ट और अरविंद कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, परानागौड़ा बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-A के तहत दोषसिद्धि को आईपीसी की धारा 304-B के तहत बरी किये जाने के बावजूद बरकरार रखा जा सकता है क्योंकि 498-A का दायरा व्यापक है।
परानागौड़ा बनाम कर्नाटक राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- शिकायतकर्त्ता की तीसरी बेटी अक्कमहादेवी का विवाह 16 मई 2010 को आरोपी से हुआ था।
- मृतक के पिता द्वारा दर्ज़ कराई गई शिकायत में आरोप लगाया गया कि विवाह के समय दहेज़ के रूप में 31 हज़ार रुपए और साथ में डेढ़ तोला सोना दिया गया था।
- इसके बाद, विवाह के दो महीने बाद 50 हज़ार रुपए का अतिरिक्त दहेज़ और सोने की मांग की गई।
- इसके अलावा यह भी आरोप लगाया गया कि अभियुक्त और उसके माता-पिता ने अक्कमहादेवी को शारीरिक और मानसिक यातना दीं।
- पीड़ा सहन करने में असमर्थ होने पर, उसने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह कर लिया यानि आग लगाकर आत्महत्या कर ली।
- 20 दिसंबर, 2010 को पीड़िता का मृत्युपूर्व बयान दर्ज़ किया गया था और अक्कमहादेवी की 24 दिसंबर, 2010 को जलने के कारण मृत्यु हो गई थी।
- पीड़िता द्वारा मरने से पहले दिये गए बयान पर भरोसा करते हुए ट्रायल जज ने अभियुक्त को आईपीसी की धारा 304-B, आईपीसी की धारा 498-A के साथ पठित आईपीसी की धारा 34, दहेज़ निषेध (DP) अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत दोषी ठहराया।
- इसके बाद, कर्नाटक उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई, जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया, और उच्च न्यायालय ने ट्रायल जज द्वारा अभियुक्त को दोषी ठहराते हुए सज़ा के निर्णय और आदेश की पुष्टि की।
- कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई थी।
- उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 304-B और दहेज़ निषेध (DP) अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत दंडनीय आरोपों से बरी कर दिया, और उसे आईपीसी की धारा 306 और आईपीसी की धारा 34 के साथ पठित धारा 498-A के तहत दंडनीय अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट और अरविंद कुमार के संयोजन से बनी उच्चतम न्यायालय की पीठ ने कहा कि दहेज़ की मांग और मौत के बीच सीधा संबंध न होने के कारण आईपीसी की धारा 304-B के तहत दोषसिद्धि को कायम नहीं रखा जा सकता है। ऐसा प्रतीत नहीं होता कि दहेज़ की मांग ने मृतिका को आत्महत्या के लिये प्रेरित किया या उसे आत्मदाह करने के लिये मजबूर किया। लेकिन साथ ही, धारा 498-A के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा जा सकता है क्योंकि इसका दायरा व्यापक है।
- न्यायालय ने माना कि अभियुक्त व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराध के लिये दोषी ठहराया जा सकता है, हालाँकि आरोप तय नहीं किया गया था।
- न्यायालय ने आगे कहा कि मौजूदा मामले में मृत्युपूर्व दिये गए बयान को निचले न्यायलयों द्वारा स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन इसमें गलती नहीं पाई जा सकती, विशेषकर उस व्यक्ति द्वारा दिये गए सबूतों की पृष्ठभूमि में, जिसने उसे रिकॉर्ड किया था, प्रति-परीक्षा के दौरान इस तरह के बयान देने की उसकी मानसिक क्षमता और होशहवास के बारे में बात की और वह अपनी बात पर कायम था। मृत्युपूर्व बयान दर्ज़ करने का कोई निर्धारित प्रारूप नहीं है। वर्तमान मामले में मृत्युपूर्व दिये गए बयान को पढ़ने से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि यह वास्तविक है और बयानदाता ने सच्ची कहानी बताई है।
इसमें कौन-से कानूनी प्रावधान शामिल हैं?
भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC)
धारा 304-B:
- यह धारा दहेज़ हत्या से संबंधित है। यह कहती है कि -
(1) जहाँ किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा हो जाती है और यह दर्शित किया जाता है कि उसकी मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पति ने या उसके पति के किसी नातेदार ने, दहेज़ की किसी मांग के लिये, या उसके संबंध में, उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था वहाँ ऐसी मृत्यु को दहेज़ मृत्यु कहा जायेगा और ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जायेगा।
स्पष्टीकरण - इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये दहेज़ का वही अर्थ है जो दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम, 1961 (1961 का 28) की धारा 2 में है।
(2) जो कोई दहेज़ मृत्यु कारित करेगा वह कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा।
- बंसीलाल बनाम हरियाणा राज्य (2011) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि, आईपीसी की धारा 304b के प्रावधान को आकर्षित करने के लिये, अपराध की मुख्य सामग्रियों में से एक जिसे स्थापित करना आवश्यक है, वह यह है कि उसके ठीक पहले मृत्यु के बाद दहेज़ की मांग को लेकर उसके साथ क्रूरता और उत्पीड़न किया गया।
धारा 498-A :
- वर्ष 1983 में पेश की गई इस धारा में उन स्थितियों के संबंध में प्रावधान हैं जब किसी महिला का पति या पति का रिश्तेदार उसके साथ क्रूरता करता है। यह कहती है-
पति या पति के रिश्तेदार, उसकी पत्नी के साथ क्रूरता करते हैं तो, उन्हें तीन वर्ष कारावास और जुर्माने से दण्डित किया जायेगा।
स्पष्टीकरण - इस धारा के अनुसार, क्रूरता से निम्नलिखित आशय है :
(क) जानबूझकर ऐसा व्यवहार करना जो शादीशुदा महिला को आत्महत्या करने के लिये या उसके शरीर के किसी अंग या उसके जीवन को नुकसान पहुँचाने के लिये (जो चाहे मानसिक हो या शारीरिक) उकसाये या;
(ख) शादीशुदा महिला के माता-पिता, भाई-बहन या अन्य रिश्तेदार से किसी संपत्ति या कीमती वस्तु (जैसे सोने के जेवर, मोटर-गाड़ी आदि ) की गैर-कानूनी माँग पूरी करवाने के लिये या ऐसी मांग पूरी ना करने के कारण उसे तंग किया जाना।
- दिनेश सेठ बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य (2008) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-a का दायरा व्यापक है और इसमें वे सभी मामले शामिल हैं जिनमें पत्नी पर उसके पति या रिश्तेदार द्वारा क्रूरता की जाती है। पति की आत्महत्या के कारण मृत्यु हो सकती है या जीवन, अंग या स्वास्थ्य (चाहे मानसिक या शारीरिक) को गंभीर चोट या खतरा हो सकता है या यहाँ तक कि महिला या उससे संबंधित किसी भी व्यक्ति को संपत्ति की अवैध मांग पूरी करने के लिये मज़बूर करने के उद्देश्य से उत्पीड़न किया जा सकता है।
धारा 306:
- यह धारा आत्महत्या के लिये उकसाने से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, जो कोई भी ऐसी आत्महत्या करने का दुष्प्रेरण करता है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
- धारा 306 के तहत अपराध की मूल विषयवस्तु आत्मघाती मौत और उसका उकसाना है।
- उकसावे की विषयवस्तु को आकर्षित करने के लिये, मृतक को आत्महत्या करने के लिये सहायता करने या उकसाने या उकसाने का आरोपी का इरादा आवश्यक होगा।
धारा 34:
- यह धारा सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने के लिये कई व्यक्तियों द्वारा किये गए कार्यों से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जब कोई आपराधिक कार्य सभी के सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने के लिये कई व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तो ऐसा प्रत्येक व्यक्ति उस कार्य के लिये उसी तरह से उत्तरदायी होता है जैसे कि यह अकेले उसके द्वारा किया गया हो।
दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961
धारा 3:
- यह धारा दहेज़ लेने या देने पर दंड से संबंधित है। यह कहती है कि-
- दहेज़ देने या दहेज़ लेने के लिये शास्ति - (1) यदि कोई व्यक्ति, इस अधिनियम के प्रारंभ के पश्चात्, दहेज़ देगा या लेगा अथवा दहेज़ देना या लेना दुष्प्रेरित करेगा तो वह कारावास से, जिसकी अवधि 4 पांच वर्ष से कम की नहीं होगी, और जुर्माने से, जो पन्द्रह हजार रुपए से या ऐसे दहेज़ के मूल्य की रकम तक का, इनमें से जो भी अधिक हो, कम नहीं होगा, दण्डनीय होगा:
- परन्तु न्यायालय, ऐसे पर्याप्त और विशेष कारणों से जो निर्णय में लेखबद्ध किये जाएंगे, पांच वर्ष से कम की किसी अवधि के कारावास का दण्डादेश अधिरोपित कर सकेगा।
(2) उपधारा (1) की कोई बात, -
(क) ऐसी भेंटों को, जो वधू को विवाह के समय (उस निमित्त कोई मांग किये बिना) दी जाती है या उनके संबंध में लागू नहीं होंगी:
परन्तु यह तब जब कि ऐसी भेंटें इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों के अनुसार रखी गई सूची में दर्ज़ की जाती हैं;
(ख) ऐसी भेंटों को जो वर को विवाह के समय (उस निमित्त कोई मांग किये बिना) दी जाती हैं या उनके संबंध में लागू नहीं होगी:
परन्तु यह तब जब कि ऐसी भेंटें, इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों के अनुसार रखी गई सूची में दर्ज़ की जाती है।
धारा 4:
- यह धारा दहेज़ मांगने पर दंड से संबंधित है।
- यदि कोई व्यक्ति, यथास्थिति, वधू या वर के माता-पिता या अन्य नातेदार या संरक्षक से किसी दहेज़ की प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से मांग करेगा तो वह कारावास से, जिसकी अवधि छह मास से कम की नहीं होगी, किन्तु दो वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से जो दस हजार रुपए तक का हो सकेगा, दण्डनीय होगा:
- परन्तु न्यायालय ऐसे पर्याप्त और विशेष कारणों से, जो निर्णय में उल्लिखित किये जाएँगे, छह मास से कम की किसी अवधि के कारावास का दण्डादेश अधिरोपित कर सकेगा।
पारिवारिक कानून
दाम्पत्य अधिकारों की बहाली का आदेश
23-Oct-2023
XYZ और ABC वैवाहिक अधिकारों की बहाली के आदेश का पालन करने में पत्नी की विफलता तलाक का आधार है। न्यायमूर्ति एस. आर. कृष्ण कुमार और जी. बसवराज |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने XYZ और ABC के मामले में कहा कि पत्नी द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली के आदेश का पालन करने में विफलता तलाक का आधार है।
XYZ और ABC मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता की शादी 12 जून, 2009 को प्रतिवादी से हुई और 10 अगस्त, 2011 को एक बेटे आदित्य का जन्म हुआ जो वर्तमान में प्रतिवादी/मां की अभिरक्षा में है यानी मां के पास रहता है।
- प्रतिवादी ने अपीलकर्त्ता को छोड़ दिया था और वर्ष 2013 से अलग रह रहा है।
- अपीलकर्त्ता/पति ने 3 अगस्त, 2016 को कानूनी नोटिस जारी कर प्रतिवादी/पत्नी को अपने साथ रहने के लिये कहा और चूँकि उसने ऐसा नहीं किया, इसलिये अपीलकर्त्ता ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली की मांग करते हुए ट्रायल कोर्ट के समक्ष एक याचिका दायर की।
- ट्रायल कोर्ट द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली का एक आदेश दिया गया था जिसमें प्रतिवादी को अपीलकर्त्ता के साथ रहने का निर्देश दिया गया था।
- उपरोक्त निर्णय और अपीलकर्त्ता के पक्ष में पारित वैवाहिक अधिकारों की बहाली के आदेश के बावजूद, प्रतिवादी उसके साथ नहीं रही।
- इससे व्यथित होकर, अपीलकर्त्ता ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की, जिसमें परित्याग के आधार पर तलाक की मांग की गई।
- ट्रायल कोर्ट के आक्षेपित निर्णय और आदेश को कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था और अपीलकर्त्ता और प्रतिवादी के बीच विवाह को तलाक की डिक्री द्वारा भंग कर दिया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति एस. आर. कृष्ण कुमार और न्यायमूर्ति जी. बसवराज की पीठ ने पाया कि प्रतिवादी अपीलकर्त्ता के साथ नहीं रही है और डिक्री पारित होने के एक वर्ष से अधिक समय तक पार्टियों के बीच वैवाहिक अधिकारों की कोई बहाली नहीं हुई है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि इन परिस्थितियों में, हमारी राय है कि ट्रायल कोर्ट ने उपरोक्त पहलुओं के साथ-साथ अपीलकर्त्ता की निर्विवाद, गैर-विवादित और निर्विवाद दलीलों और सबूतों की जानकारी लिये बिना याचिका को खारिज़ करने में गलती की है, जो तलाक की डिक्री देने के लिये पर्याप्त आधार बनता है।
इसमें कौन-से कानूनी प्रावधान शामिल हैं?
दाम्पत्य अधिकारों की बहाली
- दाम्पत्य अधिकारों की बहाली की अभिव्यक्ति का अर्थ उन दाम्पत्य अधिकारों की बहाली है, जो पहले पार्टियों द्वारा प्राप्त किये गए थे।
- इसका उद्देश्य विवाह संस्था की पवित्रता और वैधता की रक्षा करना है।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है। यह कहती है कि-
- जब कि पति या पत्नी ने अपने को दूसरे के साहचर्य से किसी युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना प्रत्याहृत कर लिया हो तब व्यथित पक्षकार दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये जिला न्यायालय में अर्जी द्वारा आवेदन कर सकेगा और न्यायालय ऐसी अर्जी में किये गए कथनों के सत्य तथा इस बात के बारे में कि इसके लिये कोई वैध आधार नहीं है कि आवेदन मंजूर क्यों न कर लिया जाए अपना समाधान हो जाने पर दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन डिक्री कर सकेगा।
स्पष्टीकरण - जहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या साहचर्य के प्रत्याहरण के लिये युक्तियुक्त प्रतिहेतु है, वहाँ युक्तियुक्त प्रतिहेतु साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसने साहचर्य से प्रत्याहरण किया है।
- सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (1984) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) की धारा 9 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा क्योंकि यह धारा किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।
तलाक
- तलाक का अर्थ सक्षम न्यायालय द्वारा विवाह-विच्छेद से है।
- हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) अधिनियम की धारा 13 तलाक के प्रावधानों से संबंधित है।
- हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) अधिनियम की धारा 13 (1) के अनुसार, कोई भी विवाह, वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात्, पति अथवा पत्नी द्वारा उपस्थापित अर्जी पर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर विघटित किया जा सकेगा कि-
- व्यभिचार
- क्रूरता
- परित्याग
- धर्मांतरण
- मानसिक विकार
- संचारी एवं असाध्य कुष्ठ रोग
- संसार का त्याग
- मृत्यु का पूर्वानुमान
- धारा 13b आपसी सहमति से तलाक का प्रावधान करती है।