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आपराधिक कानून
द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकार्यता
30-Nov-2023
विजय बनाम भारत संघ "यदि किसी दस्तावेज़ पर विधिवत स्टाम्प नहीं लगाई गई है, तो द्वितीयक साक्ष्य के रूप में ऐसे दस्तावेज़ की एक प्रति पेश नहीं की जा सकती है।" न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और संजय करोल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विजय बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act- IEA) के तहत द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकार्यता की जाँच के लिये प्रासंगिक सिद्धांतों का वर्णन किया।
विजय बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वादी और प्रतिवादी ने 4 फरवरी, 1998 को बिक्री का समझौता (Agreement of Sale) किया।
- जब प्रतिवादी ने ऐसे किसी समझौते के तथ्य से इनकार किया, तो वादी ने अनुबंध के विशिष्ट निष्पादन के लिये मुकदमा दायर किया।
- वादी ने अन्य दस्तावेज़ों के साथ-साथ द्वितीयक साक्ष्य के रूप में बिक्री के समझौते की एक प्रति दाखिल करने के लिये एक आवेदन दायर किया।
- डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने माना कि बिक्री के समझौते के द्वितीयक साक्ष्य की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि इसे विधिवत मुहर द्वारा निष्पादित नहीं किया गया था, इस प्रकार यह भारतीय स्टांप अधिनियम (Indian Stamp Act), 1899 की धारा 35 के तहत वर्जित है।
- इससे व्यथित होकर वादी ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की तथा न्यायालय ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा।
- इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दे दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने IEA के तहत द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकार्यता की जाँच के लिये प्रासंगिक सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए कहा कि यदि किसी दस्तावेज़ पर विधिवत मुहर नहीं लगी है, तो कानून की स्थिति अच्छी तरह से तय है कि द्वितीयक साक्ष्य के रूप में ऐसे दस्तावेज़ की प्रतिलिपि प्रस्तुत नहीं की जा सकती।
- न्यायालय ने द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकार्यता की जाँच के लिये प्रासंगिक निम्नलिखित सिद्धांत निकाले:
- कानून के लिये आवश्यक है कि सर्वप्रथम सबसे अच्छा साक्ष्य दिया जाए, यानी प्राथमिक साक्ष्य।
- IEA की धारा 63 उन प्रकार के दस्तावेज़ों की एक सूची प्रदान करती है जिन्हें द्वितीयक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जो केवल प्राथमिक साक्ष्य के अभाव में ही स्वीकार्य है।
- यदि मूल दस्तावेज़ उपलब्ध है, तो उसे प्राथमिक साक्ष्य के लिये निर्धारित तरीके से प्रस्तुत और सिद्ध करना होगा। जब तक सबसे अच्छा साक्ष्य अधिकार में है या पेश किया जा सकता है या उस तक पहुँचा जा सकता है, तब तक कोई हीन साक्ष्य नहीं दिया जा सकता।
- एक पक्ष को अंतर्वस्तु के प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिये और केवल असाधारण मामलों में ही द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य होंगे।
- जब किसी दस्तावेज़ की अनुपलब्धता को पर्याप्त व स्पष्ट रूप से समझाया जाता है, तो द्वितीयक साक्ष्य की अनुमति दी जा सकती है।
- द्वितीयक साक्ष्य तब दिया जा सकता है जब पक्ष अपनी चूक या उपेक्षा से उत्पन्न न होने वाले किसी भी कारण से मूल दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं कर सकता है।
- जब मूल दस्तावेज़ की अनुपस्थिति में प्रतियाँ तैयार की जाती हैं, तो वे अच्छे द्वितीयक साक्ष्य बन जाते हैं। फिर भी इस बात का मूल साक्ष्य होना चाहिये कि कथित प्रति मूल की सच्ची प्रति है।
- किसी दस्तावेज़ की सामग्री का द्वितीयक साक्ष्य प्रस्तुत करने से पहले, मूल के गैर-प्रस्तुती को इस तरह से ध्यान में रखा जाना चाहिये जो इसे अनुभाग में प्रदान किये गए एक या अन्य मामलों के भीतर ला सके।
- न्यायालय द्वारा किसी दस्तावेज़ को प्रदर्शन के रूप में प्रस्तुत करना और अंकित करना मात्र उसकी सामग्री का उचित प्रमाण नहीं माना जा सकता है। इसे कानून के अनुसार साबित करना होगा।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
IEA की धारा 63:
परिचय:
द्वितीयक साक्ष्य - द्वितीयक साक्ष्य का अर्थ है और उसके अंतर्गत आते हैं-
(1) इसके पश्चात् अंतर्विष्ट उपबंधों के तहत दी हुई प्रमाणित प्रतियाँ;
(2) मूल से ऐसी यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा, जो प्रक्रियाएँ स्वयं ही प्रति की शुद्धता सुनिश्चित करती हैं, तथा ऐसी प्रतियों से तुलना की हुई प्रतिलिपियाँ;
(3) मूल से बनाई गई या तुलना की गई प्रतियाँ;
(4) उन पक्षकारों के विरुद्ध, जिन्होंने उन्हें निष्पादित नहीं किया है, दस्तावेज़ों के प्रतिलेख;
(5) किसी दस्तावेज़ की अंतर्वस्तु का उस व्यक्ति द्वारा, जिसने स्वयं उसे देखा है, दिया हुआ मौखिक वृत्तांत।
निर्णयज विधि:
सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम पुर्या (2004) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य शब्द उन साक्ष्यों पर लागू होते हैं जो किसी दस्तावेज़ की अंतर्वस्तु के लिये दिये जा सकते हैं, चाहे जिस उद्देश्य के लिये ऐसी अंतर्वस्तु, जब साबित हो, प्राप्त की जा सकती है।
भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 की धारा 35:
- यह अनुभाग उन उपकरणों से संबंधित है जिस पर सम्यक् रूप से स्टाम्पित न की गई लिखतें साक्ष्य, आदि में अग्राह्य हैं।
- शुल्क से प्रभार्य कोई भी लिखत जब तक कि ऐसी लिखत पर विधिवत मुहरें नहीं लगी हैं किसी व्यक्ति द्वारा, जो विधि द्वारा या पक्षकारों की सम्मति से साक्ष्य लेने के लिये प्राधिकार रखता है, किसी भी प्रयोजन के लिये साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगी अथवा ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा या किसी लोक अधिकारी द्वारा उस पर कार्यवाही नहीं की जाएगी या वह रजिस्ट्रीकृत या अधिप्रमाणीकृत नहीं की जाएगीः
परंतु -
(a) इसमें कहा गया है कि कोई ऐसी लिखत, [ऐसे मुल्क के] जिससे वह प्रभार्य है, अथवा उस लिखत की दशा में, जो अपर्याप्त रूप से स्टाम्पित है, ऐसे शुल्क को पूरा करने के लिये अपेक्षित रकम और साथ-साथ पाँच रुपए की शास्ति अथवा जब उसके उचित शुल्क या कमी वाले भाग के दस गुनी रकम, पाँच रुपए से अधिक हो तब ऐसे शुल्क या भाग के दस गुने के बराबर राशि, दे दिये जाने पर साक्ष्य में ग्राह्य होगी;
(b) जहाँ कि किसी व्यक्ति ने, जिससे स्टाम्पित रसीद मांगी जा सकती थी, अस्टाम्पित रसीद दी है तथा यदि ऐसी रसीद स्टाम्पित होती तो उसके विरुद्ध साक्ष्य में ग्राह्य होती, वहाँ ऐसी रसीद उसे निविदत्त करने वाले व्यक्ति द्वारा एक रुपए की शास्ति दे दिये जाने पर उसके विरुद्ध, साक्ष्य में ग्राह्य होगी;
(c) जहाँ कि किसी प्रकार की कोई संविदा या करार दो या अधिक पत्रों से मिलकर बने पत्र-व्यवहार द्वारा प्रभावी होता है और पत्रों में से किसी एक पर उचित स्टाम्प लगा है वहाँ उस संविदा या करार की बाबत् यह समझा जाएगा कि वह सम्यक् रूप से स्टाम्पित है;
(d) इसमें शामिल कुछ भी आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अध्याय IX या अध्याय X के भाग D के तहत कार्यवाही के अलावा, आपराधिक न्यायालय में किसी भी कार्यवाही में साक्ष्य में किसी भी उपकरण के प्रवेश को नहीं रोकेगा।
(e) इसमें अंतर्विष्ट कोई भी बात दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) के अध्याय 12 या अध्याय 36 के अधीन की कार्यवाही से भिन्न दांडिक न्यायालय की किसी कार्यवाही में, किसी लिखत को साक्ष्य में ग्रहण किये जाने से निवारित नहीं करेगी;
(f) इसमें अंतर्विष्ट कोई भी बात, किसी न्यायालय में किसी लिखत को ग्रहण किये जाने से तब निवारित नहीं करेगी, जब कि ऐसी लिखत सरकार द्वारा या उसकी ओर से निष्पादित की गई है या उस पर इस अधिनियम की धारा 32 या इसके किसी अन्य उपबंध द्वारा यथा उपबंधित कलक्टर का प्रमाणपत्र लगा हुआ है।
(g) कोई ऐसी लिखत जो विनिमय-पत्र या वचन-पत्र नहीं है, सभी न्याय संगत अपवादों के अधाीन रहते हुए, उस शुल्क को, जिससे वह प्रभार्य है, अथवा उस लिखत की दशा मे जो, अपर्याप्त रूप से स्टाम्पित है, ऐसे शुल्क को पूरा करने के लिये अपेक्षित रकम दे दिये जाने पर रजिस्ट्रीकृत या अधिप्रमाणित की जायेगी।
आपराधिक कानून
कार्यवाही साथ-साथ जारी रह सकती हैं
30-Nov-2023
न्यूटन इंजीनियरिंग एंड केमिकल्स लिमिटेड और अन्य बनाम यूईएम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड। NI अधिनियम की धारा 138 के तहत मध्यस्थता कार्यवाही और कार्यवाही कार्रवाई के अलग-अलग कारणों से उत्पन्न होती है और एक के लंबित रहने से दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।" न्यायमूर्ति अमित बंसल |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यूटन इंजीनियरिंग एंड केमिकल्स लिमिटेड और अन्य बनाम यूईएम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि मध्यस्थता की कार्यवाही और परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के तहत कार्यवाही कार्रवाई के अलग-अलग कारणों से उत्पन्न होती है और एक के लंबित रहने से दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
न्यूटन इंजीनियरिंग एंड केमिकल्स लिमिटेड और अन्य बनाम यूईएम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्ताओं और प्रतिवादी कंपनी के बीच 19 जून, 2014 को समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किये गए।
- प्रतिवादी कंपनी को तकनीकी सहयोगी के रूप में भाग लेना था और याचिकाकर्ता को अपनी विशेषज्ञता प्रदान करनी थी।
- याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रतिवादी कंपनी को एक पोस्ट-डेटेड चेक की तिथि दी गई थी।
- याचिकाकर्ताओं ने ई-मेल के जरिये प्रतिवादी कंपनी से उपर्युक्त चेक जमा नहीं करने को कहा। हालाँकि प्रतिवादी कंपनी ने उक्त चेक जमा कर दिया।
- चूँकि उपर्युक्त चेक बाउंस हो गया था, प्रतिवादी कंपनी द्वारा NI अधिनियम की धारा 138 के तहत एक शिकायत दायर की गई थी जिसमें संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा याचिकाकर्ताओं को समन जारी किये गए थे।
- इसके बाद दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष NI अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत को रद्द करने की मांग करते हुए याचिका दायर की गई, जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति अमित बंसल ने कहा कि NI अधिनियम की धारा 138 के तहत मध्यस्थता कार्यवाही और कार्यवाही कार्रवाई के अलग-अलग कारणों से उत्पन्न होती है और एक के लंबित रहने से दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि याचिकाकर्ताओं के इस तर्क में कोई दम नहीं है कि पार्टियों के बीच चल रही मध्यस्थता कार्यवाही को ध्यान में रखते हुए NI अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत सुनवाई योग्य नहीं है।
NI अधिनियम की धारा 138 क्या है?
- यह धारा खाते में धनराशि की कमी आदि के लिये चेक की अस्वीकृति से संबंधित है। यह प्रकट करती है कि-
- जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी बैंकर के पास रखे गए खाते पर किसी ऋण या अन्य देनदारी के पूर्ण या आंशिक भुगतान के लिये उस खाते से किसी अन्य व्यक्ति को किसी भी राशि का भुगतान करने के लिये निकाला गया चेक वापस कर दिया जाता है। बैंक द्वारा अवैतनिक, या तो उस खाते में जमा धनराशि चेक का भुगतान करने के लिये अपर्याप्त है या यह उस बैंक के साथ किये गए समझौते द्वारा उस खाते से भुगतान की जाने वाली राशि से अधिक है, ऐसे व्यक्ति को अपराध किया गया माना जाएगा व इस अधिनियम के किसी भी अन्य प्रावधान पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे दो वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या ज़ुर्माना जो चेक की राशि से दोगुना तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों:
- बशर्ते कि इस धारा में निहित कोई भी बात तब तक लागू नहीं होगी जब तक-
(a) चेक को निकाले जाने की तिथि से छह महीने की अवधि के भीतर या उसकी वैधता की अवधि के भीतर, जो भी पहले हो, बैंक में प्रस्तुत किया गया हो;
(b) चेक प्राप्तकर्त्ता या धारक, जैसा भी मामला हो, चेक के अवैतनिक रूप में वापस आने के संबंध में बैंक से उसे सूचना प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर, चेक जारीकर्त्ता को लिखित रूप में एक नोटिस देकर उक्त धनराशि के भुगतान की मांग करता है; और
(c) ऐसे चेक को जारी करने वाला, उक्त नोटिस की प्राप्ति के पंद्रह दिनों के भीतर, चेक के उचित क्रम में प्राप्तकर्त्ता को या, जैसा भी मामला हो, धारक को उक्त राशि का भुगतान करने में विफल रहता है। - स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये ऋण या अन्य दायित्व का अर्थ विधिक रूप से लागू करने योग्य ऋण या अन्य दायित्व है।
सांविधानिक विधि
दोहरे खतरे के सिद्धांत का उपयोजन
30-Nov-2023
जितेंद्र सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य न्यायमूर्ति अनूप चितकारा |
स्रोत: पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अनूप चितकारा ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 और भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 तथा 406 के बीच टकराव के कारण 'दोहरे खतरे' के उपयोजन पर गौर किया।
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह निर्णय जितेंद्र सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य के मामले में दिया।
जितेंद्र सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य की पृष्ठभूमि क्या है?
- आपराधिक अभियोजन चलाने की माँग करने वाले याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध NI अधिनियम की धारा 138 के तहत दो शिकायतें और IPC की धारा 406/420 के तहत एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी।
- शिकायतकर्ता ने तर्क दिया कि मामला न केवल चेक की अस्वीकृति का है, बल्कि आपराधिक मनःस्थिति (mens rea) के साथ विश्वास के उल्लंघन का भी है।
- IPC की धारा 406 और 420 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) वर्जित नहीं थी। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चेक की अस्वीकृति को जारीकर्ता की ओर से धोखाधड़ी या दोषपूर्ण कृत्य का इरादा नहीं माना जा सकता है। इसलिये, FIR रद्द किये जाने योग्य थी।
न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?
- “यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(2) का उल्लंघन होगा कि IPC के तहत यह आरोप लगाकर FIR दर्ज की जाए कि वस्तु दोषपूर्ण इरादे से प्राप्त की गई थी और चेक भी ऐसे इरादे से जारी किये गए थे, और साथ ही NIA की धारा 138 या समान आरोपों के तहत अभियोजन की माँग करना और समान राशि के लिये समान लेनदेन भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(2) का उल्लंघन होगा।”
'दोहरा खतरा' क्या है?
- दोहरा खतरा एक कानूनी अवधारणा है जो किसी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये दो बार मुकदमा चलाने या दंडित होने से रोकती है। यह आपराधिक कानून का एक मौलिक सिद्धांत है, जो व्यक्तियों को राज्य शक्ति के मनमाने उपयोग से बचाने और यह सुनिश्चित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है कि वे एक ही अपराध के लिये कई निष्पादन और सुधार के अधीन न हों।
- भारत में दोहरे खतरे के सिद्धांत को संविधान के अनुच्छेद 20(2) में दिया गया है, जो यह प्रावधान करता है कि किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिये एक से अधिक मुकदमा नहीं चलाया जाएगा और न ही उसे दंडित किया जाएगा।
- CrPC की धारा 300 के तहत दोहरे खतरे के सिद्धांत को भी उठाया गया है।
- दोहरे खतरे की उत्पत्ति का पता प्राचीन काल में लगाया जा सकता है, जब कई कानूनी प्रणालियों में एक ही अपराध के लिये किसी व्यक्ति पर दोबारा मुकदमा चलाने के विरुद्ध नियम थे।
- अंग्रेज़ी आम कानून प्रणाली में दोहरे खतरे का सिद्धांत पहली बार 12वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था।
- 'दोहरे खतरे के नियम' का अपवाद:
- यदि व्यक्ति को किसी अपराध से बरी कर दिया गया है, तो नए और निश्चायक प्रमाण स्थापित होने पर उस पर दोबारा मुकदमा चलाया जा सकता है।
- यदि किसी व्यक्ति को निचले अपराध के लिये दोषी ठहराया गया है और बाद में उसके बड़े अपराध का पता चलता है, तो उस पर बड़े अपराध के लिये दोबारा मुकदमा चलाया जा सकता है।
- यदि किसी व्यक्ति को सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया है, तो उस पर अपील की जा सकती है और उच्च न्यायालय में उसी अपराध के लिये दोबारा मुकदमा चलाया जा सकता है।
मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या है?
- अजय कुमार राधेश्याम गोयनका बनाम टूरिज़्म फाइनेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, (2023):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1882 की धारा 138 के साथ पठित 141 के साथ पठित दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 के तहत प्राकृतिक व्यक्तियों के विरुद्ध शुरू किया गया आपराधिक मुकदमा समाप्त नहीं होगा, और इसपर उच्चतम न्यायालय के दोनों माननीय न्यायाधीशों ने अलग-अलग लेकिन सहमति वाले निर्णय दिये हैं।