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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत IRP लोक सेवक नहीं है

 20-Dec-2023

डॉ. अरुण मोहन बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो

"एक दिवाला समाधान पेशेवर (IRP) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 (c) के तहत 'लोक सेवक' के अर्थ में नहीं आता है।"

जस्टिस तुषार राव गेडेला

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला ने कहा है कि एक दिवाला समाधान पेशेवर (IRP) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 (c) के तहत 'लोक सेवक' के अर्थ में नहीं आता है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह फैसला डॉ. अरुण मोहन बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के मामले में दिया।

डॉ. अरुण मोहन बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 और 7A, भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code- IPC) की धारा 120B के तहत दर्ज की गई थी।
  • एक दिवाला पेशेवर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 की उप-धारा (c) के किसी भी खंड में उल्लिखित 'लोक सेवक' के अर्थ में नहीं आता है।
  • इसलिये प्रतिवादी संख्या 1/CBI द्वारा दर्ज की गई FIR को रद्द कर दिया गया है।
  • न्यायालय ने कहा कि भले ही IRP को सौंपी गई भूमिकाएँ और कर्तव्य 'लोक कर्तव्यों' की सीमा पर हों या उसके अंतर्गत आते हों, फिर भी यह 'लोक स्वरूप' (Public Character) को ग्रहण नहीं करेंगे।
  • दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 (Insolvency and Bankruptcy Code- IBC) की धारा 232 में IP को शामिल करने की चूक अनजाने में नहीं हुई है, बल्कि विधायिका द्वारा सोच-समझकर और जानबूझकर की गई है तथा विधि न्यायालय को इसकी व्याख्या करने का अधिकार होने के कारण, कानून नहीं बनाना चाहिये या कैसस ओमिसस की आपूर्ति नहीं करनी चाहिये, जो किसी भी मामले में निषिद्ध है।
  • IBC या PC अधिनियम 1988 या IPC, 1860 की धारा 21 के अनुसार IP 'लोक सेवक' है या नहीं, यह पूरी तरह से विधायिका का क्षेत्र है और यदि आवश्यक हो तो विधायिका विधानों में आवश्यक संशोधन कर सकती है।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • यह आवश्यक नहीं है कि सभी कर्तव्य, जिन्हें प्राय: 'लोक कर्तव्य' के रूप में परिभाषित किया गया है, अपने आप में 'लोक स्वरूप' को शामिल करेंगे।
  • केवल इसलिये कि IP को कुछ भूमिकाएँ, ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य सौंपे गए हैं जो 'लोक कर्तव्यों' की प्रकृति में शामिल हो सकते हैं, यह एक आवश्यक निष्कर्ष या निश्चित निष्कर्ष नहीं है कि इन्हें 'लोक स्वरूप' की प्रकृति में निर्वहन किया जा रहा है।

इसमें क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988:

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भारत की संसद का एक अधिनियम है जो भारत में सरकारी एजेंसियों और सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायों में भ्रष्टाचार से निपटने के लिये बनाया गया है।

धारा 2(c): “लोक सेवक” से अभिप्रेत है, -

(i) कोई व्यक्ति जो सरकार की सेवा या उसके वेतन पर है या किसी लोक कर्तव्य के पालन के लिये सरकार से फीस या कमीशन के रूप में पारिश्रमिक पाता है;

(ii) कोई व्यक्ति जो किसी लोक प्राधिकरण की सेवा या उसके वेतन पर है;

(iii) कोई व्यक्ति जो किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या सरकार से सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित किसी सरकारी कंपनी की सेवा या उसके वेतन पर है;

(iv) कोई न्यायाधीश, जिसके अंतर्गत ऐसा कोई व्यक्ति है जो किन्हीं न्यायनिर्णयन कृत्यों का, चाहे स्वयं या किसी व्यक्ति के निकाय के सदस्य के रूप में, निर्वहन करने के लिये विधि द्वारा सशक्त किया गया है;

(v) कोई व्यक्ति जो न्याय प्रशासन के संबंध में किसी कर्तव्य का पालन करने के लिये न्यायालय द्वारा प्राधिकृत किया गया है, जिसके अंतर्गत किसी ऐसे न्यायालय द्वारा नियुक्त किया गया परिसमापक, रिसीवर या आयुक्त भी है;

(vi) कोई मध्यस्थ या अन्य व्यक्ति जिसको किसी न्यायालय द्वारा या किसी सक्षम लोक प्राधिकरण द्वारा कोई मामला या विषय विनिश्चय या रिपोर्ट के लिये निर्देशित किया गया है;

(vii) कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता है जिसके आधार पर वह निर्वाचक सूची तैयार करने, प्रकाशित करने, बनाए रखने या पुनरीक्षित करने अथवा निर्वाचन या निर्वाचन के भाग का संचालन करने के लिये सशक्त है;

(viii) कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता है जिसके आधार पर वह किसी लोक कर्तव्य का पालन करने के लिये प्राधिकृत या अपेक्षित है;

(ix) कोई व्यक्ति जो कृषि, उद्योग, व्यापार या बैंककारी में लगी हुई किसी ऐसी रजिस्ट्रीकृत सोसाइटी का अध्यक्ष, सचिव या अन्य पदधारी है जो केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी निगम से या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या सरकार से सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय से या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित किसी सरकारी कंपनी से कोई वित्तीय सहायता प्राप्त कर रही है या कर चुकी है;

(x) कोई व्यक्ति जो किसी सेवा आयोग या बोर्ड का, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, अध्यक्ष, सदस्य या कर्मचारी या ऐसे आयोग या बोर्ड की ओर से किसी परीक्षा का संचालन करने के लिये या उसके द्वारा चयन करने के लिये नियुक्त की गई किसी चयन समिति का सदस्य है;

(xi) कोई व्यक्ति जो किसी विश्वविद्यालय का कुलपति, उसके किसी शासी निकाय का सदस्य, आचार्य, उपाचार्य, प्राध्यापक या कोई अन्य शिक्षक या कर्मचारी है, चाहे वह किसी भी पदाभिधान से ज्ञात हो और कोई व्यक्ति जिसकी सेवाओं का लाभ विश्वविद्यालय द्वारा या किसी अन्य लोक निकाय द्वारा परीक्षाओं के आयोजन या संचालन के संबंध में लिया गया है;

(xii) कोई व्यक्ति जो किसी भी रीति में स्थापित किसी शैक्षिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या अन्य संस्था का, जो केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकरण से वित्तीय सहायता प्राप्त कर रही है या कर चुकी है, पदधारी या कर्मचारी है।

धारा 7: लोक सेवक द्वारा पदीय कार्य के लिये वैध पारिश्रमिक से भिन्न परितोषण लिया जाना:

जो कोई लोक सेवक,

(a) किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ प्राप्त करता है या स्वीकार करता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है, इस आशय से कि वह लोक कर्तव्य को अनुचित तरीके से या बेईमानी से निभाए या प्रदर्शन कराए या स्वयं या किसी अन्य लोक सेवक द्वारा ऐसे कर्तव्य का पालन करने से मना करे ; या

(b) किसी लोक कर्तव्य के अनुचित या बेईमान प्रदर्शन के लिये या स्वयं या किसी अन्य लोक सेवक द्वारा ऐसे कर्तव्य को करने से मना करने के लिये भुगतान के रूप में किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ प्राप्त करता है या स्वीकार करता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है; या

(c) किसी अन्य लोक सेवक को अनुचित या बेईमानी से लोक कर्तव्य करने के लिये निष्पादित करना या प्रेरित करना या किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ स्वीकार करने की प्रत्याशा में या उसके परिणामस्वरूप ऐसे कर्तव्य का पालन करना दंडनीय होगा, जो कम से कम तीन वर्ष की अवधि के लिये कारावास से दंडनीय होगा लेकिन जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और ज़ुर्माना भी लगाया जाएगा।

स्पष्टीकरण 1: इस धारा के प्रयोजन के लिये, अनुचित लाभ प्राप्त करना, स्वीकार करना या प्राप्त करने का प्रयास स्वयं एक अपराध होगा, भले ही लोक सेवक द्वारा लोक कर्तव्य का प्रदर्शन अनुचित न हो या न हुआ हो।

दृष्टांत: एक लोक सेवक, 'S' एक व्यक्ति, 'P' से उसके नियमित राशन कार्ड आवेदन को समय पर संसाधित करने के लिये पाँच हज़ार रुपए की राशि देने के लिये कहता है। इस धारा के अंतर्गत 'S' अपराध का दोषी है।

स्पष्टीकरण 2: इस धारा के प्रयोजन के लिये वह—

(i) अभिव्यक्ति "प्राप्त करता है" या "स्वीकार करता है" या "प्राप्त करने का प्रयास करता है", उन मामलों को कवर करेगा जहाँ एक व्यक्ति एक लोक सेवक होने के नाते, अपने लिये या किसी अन्य व्यक्ति के लिये कोई अनुचित लाभ प्राप्त करता है या "स्वीकार करता है" या प्राप्त करने का प्रयास करता है। एक लोक सेवक के रूप में अपने पद का दुरुपयोग करना या किसी अन्य लोक सेवक पर अपने व्यक्तिगत प्रभाव का उपयोग करना; या किसी अन्य भ्रष्ट या अवैध तरीके से;

(ii) यह महत्त्वहीन होगा कि क्या ऐसा व्यक्ति लोक सेवक होने के नाते सीधे या किसी तीसरे पक्ष के माध्यम से अनुचित लाभ प्राप्त करता है या स्वीकार करता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है।

  • धारा 7A 'भ्रष्ट या अवैध तरीकों से या व्यक्तिगत प्रभाव के प्रयोग से लोक सेवक को प्रभावित करने के लिये अनुचित लाभ लेने' से संबंधित है।
  • धारा 232 IBC 'बोर्ड के सदस्यों, अधिकारियों और कर्मचारियों से लेकर लोक सेवक' तक से संबंधित है।
    • बोर्ड के अध्यक्ष, सदस्य, अधिकारी और अन्य कर्मचारी, जब इस संहिता के किसी भी प्रावधान के अनुसरण में कार्य कर रहे हों या कार्य करने का इरादा रखते हों, IPC की धारा 21 के अर्थ के तहत लोक सेवक माने जाएंगे।
  • IPC की धारा 120B 'आपराधिक षड़यंत्र के लिये सज़ा' से संबंधित है।
  • IPC की धारा 21 'लोक सेवक' का अर्थ प्रदान करती है।

आपराधिक कानून

मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा शिकायत की जाँच का निर्देश दे सकता है

 20-Dec-2023

वुंडी शंकर विजया भास्करम बनाम आंध्र प्रदेश राज्य

"मजिस्ट्रेट के पास पुलिस को शिकायत अग्रेषित करने का विवेकाधिकार है क्योंकि इससे विभिन्न संज्ञेय अपराधों का खुलासा होता है"

न्यायमूर्ति डॉ. वी.आर.के. कृपा सागर

स्रोत: आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, वुंडी शंकर विजया भास्करम बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना है कि मजिस्ट्रेट के पास पुलिस को शिकायत अग्रेषित करने का विवेकाधिकार है क्योंकि इससे विभिन्न संज्ञेय अपराधों का खुलासा होता है, और पुलिस मामले की गहनता से जाँच कर सकती है।

वुंडी शंकर विजया भास्करम बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्ता को पोलसनपल्ली गाँव में श्री रामलिंगेश्वर स्वामी मंदिर के एकल न्यासी के रूप में नियुक्त किया गया था।
  • कुप्रबंधन, बेईमानी, समर्पण का अभाव, धन के दुरुपयोग के आरोप सामने आने पर, बंदोबस्ती उपायुक्त, काकीनाडा ने आपराधिक याचिकाकर्ता को उसके कर्तव्यों से मुक्त कर दिया।
  • यह प्रतिवादी द्वारा संबंधित न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट, भीमाडोले के समक्ष दायर एक लिखित शिकायत का परिणाम था।
  • संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत की गई शिकायत को उसके द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के तहत जाँच के लिये भेजा गया था।
  • याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट के आदेश में पुलिस को शिकायत अग्रेषित करने के संक्षिप्त कारण शामिल होने चाहिये। लेकिन यहाँ दिया गया आदेश बिना किसी कारण के था।
  • इसके बाद, याचिकाकर्ता द्वारा अपने विरुद्ध कार्यवाही को रद्द करने के लिये आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक याचिका दायर की गई थी।
  • अपील को खारिज़ करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही को रद्द नहीं किया जा सकता।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति डॉ. वी.आर.के. कृपा सागर ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस को शिकायत अग्रेषित करके सही किया क्योंकि इससे विभिन्न संज्ञेय अपराधों का खुलासा हुआ और पुलिस मामले की गहन जाँच कर सकती है।
  • शिकायत में विभिन्न संज्ञेय अपराधों का आरोप लगाया गया था, मजिस्ट्रेट ने CrPC की धारा 156(3) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए पुलिस को मंदिर के न्यासी द्वारा रखे गए विशाल दस्तावेज़ों और रिकॉर्ड की जाँच करने के लिये कहा। शिकायत की गहनता से जाँच की गई और चार्जशीट भी दाखिल की गई।
  • न्यायालय ने मेसर्स सुप्रीम भिवंडी वाडा मैनर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र राज्य (2021) के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर भी भरोसा किया।
    • इस मामले में, यह माना गया कि धारा 156(3) के तहत पुलिस को शिकायत अग्रेषित करने में मजिस्ट्रेट के आदेश को वास्तव में एक निर्देश के अलावा किसी अन्य विस्तार की आवश्यकता नहीं है।

CrPC की धारा 156 क्या है?

  • परिचय:
    • यह धारा संज्ञेय मामलों की जाँच करने के लिये पुलिस अधिकारी की शक्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
      (1) किसी पुलिस स्टेशन का कोई भी प्रभारी अधिकारी, मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना, किसी भी संज्ञेय मामले की जाँच कर सकता है, ऐसे स्टेशन की सीमा के भीतर स्थानीय क्षेत्र पर अधिकार क्षेत्र रखने वाले न्यायालय को अध्याय XIII के प्रावधानों के तहत जाँच करने या मुकदमा चलाने की शक्ति होगी।
      (2) ऐसे किसी भी मामले में किसी भी पुलिस अधिकारी की कार्यवाही पर किसी भी स्तर पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जाएगा कि मामला ऐसा था जिसकी जाँच करने के लिये ऐसे अधिकारी को इस धारा के तहत अधिकार प्राप्त नहीं था।
      (3) धारा 190 के तहत अधिकार प्राप्त कोई भी मजिस्ट्रेट उपरोक्तानुसार ऐसी जाँच का आदेश दे सकता है।
  • निर्णयज विधि:
    • मोहम्मद यूसुफ बनाम श्रीमती अफाक जहाँ और अन्य (2006) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध का नोटिस लेने से पहले संहिता की धारा 156(3) के तहत जाँच का आदेश दे सकता है।

आपराधिक कानून

लोक अभियोजक

 20-Dec-2023

न्यायालय के स्वयं के समावेदन बनाम राज्य और अन्य संबंधित मामले

"दिल्ली उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के लिये लोक अभियोजकों की भर्ती की समय-समय पर समीक्षा करने के लिये एक निगरानी समिति का गठन किया।"

कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति मनमोहन और न्यायमूर्ति मिनी पुष्करणा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति मनमोहन और न्यायमूर्ति मिनी पुष्करणा ने ट्रायल कोर्ट के लिये लोक अभियोजकों की भर्ती की समय-समय पर समीक्षा करने के लिये एक निगरानी समिति का गठन किया है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्णय न्यायालय के स्वयं के समावेदन बनाम राज्य और अन्य संबंधित मामले के मामले में दिया।

न्यायालय के स्वयं के समावेदन बनाम राज्य और अन्य संबंधित मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • पीठ ने अधिक लोक अभियोजकों की भर्ती की आवश्यकता पर ज़ोर दिया और राष्ट्रीय राजधानी में ट्रायल कोर्ट में लंबित मामलों पर भी चिंता व्यक्त की।
  • अब इस मामले की सुनवाई फरवरी में होगी।
  • पीठ कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें वर्ष 2009 में दर्ज एक स्वत: संज्ञान मामला भी शामिल था, जब एक पत्र याचिका दायर की गई थी, जिसमें विचाराधीन कैदियों के 5 से 12 वर्ष तक बिना मुकदमे के जेल में बंद रहने के मुद्दे को उजागर किया गया था।
  • सितंबर में पीठ ने दिल्ली सरकार को दिल्ली न्यायिक अकादमी के समन्वय में नव नियुक्त लोक अभियोजकों का प्रशिक्षण आयोजित करने का निर्देश दिया था।
  • इसने दिल्ली सरकार को प्रशिक्षण कार्यक्रमों के संचालन और लोक अभियोजकों के संबंध में रिक्तियों की नवीनतम स्थिति के संबंध में एक स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया था।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

DHC ने आदेश दिया कि निगरानी समिति में दिल्ली सरकार के वित्त व कानून एवं न्याय विभाग सहित विभिन्न सरकारी विभागों के अधिकारी शामिल होंगे और निर्देश दिया कि निगरानी समिति लोक अभियोजकों की रिक्तियों के संबंध में दिल्ली सरकार को सिफारिशें भी करेगी।

'लोक अभियोजक' क्या होता है?

  • अर्थ:
    • लोक अभियोजक वह होता है जो राज्य के हित का प्रतिनिधित्व करता है। आपराधिक न्याय प्रणाली में आम लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये एक 'लोक अभियोजक' को राज्य का एजेंट माना जाता है।
  • लोक अभियोजक की भूमिका:
    • यह लोक अभियोजक ही होता है जो राज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करता है। उसकी भूमिका पुलिस द्वारा जाँच करने और न्यायालय में चार्जशीट दाखिल करने के बाद शुरू होती है।
    • जाँच में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है। अभियोजक को राज्य की ओर से अभियोजन चलाना चाहिये।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 24: लोक अभियोजक-

 (1) प्रत्येक उच्च न्यायालय के लिये, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार उस उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात यथास्थिति केंद्रीय या राज्य सरकार की ओर से उस उच्च न्यायालय में किसी अभियोजन, अपील या अन्य कार्यवाही के संचालन के लिये एक लोक अभियोजक नियुक्त करेगी और एक या अधिक अपर लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।

(2) केंद्रीय सरकार किसी ज़िले या स्थानीय क्षेत्र में किसी मामले या किसी वर्ग के संचालन के प्रयोजनों के लिये एक या अधिक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।

(3) प्रत्येक ज़िले के लिये, राज्य सरकार एक लोक अभियोजक नियुक्त करेगी और ज़िले के लिये एक या अधिक अपर लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किया जा सकता है।

परंतु एक ज़िले के लिये नियुक्त लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक किसी अन्य ज़िले के लिये भी, यथास्थिति लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किया जा सकता है।

(4) ज़िला मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायाधीश के परामर्श से, ऐसे व्यक्तियों के नामें का एक पेनल तैयार करेगा जो, उसकी राय में, उस ज़िले के लिये लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किये जाने के योग्य है।

(5) कोई व्यक्ति राज्य सरकार द्वारा उस ज़िले के लिये लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त नहीं किया जाएगा जब तक कि उसका नाम उपधारा (4) के अधीन ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा तैयार किये गए नामों के पैनल में न हो।

(6) उपधारा (5) में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी राज्य में अभियोजन अधिकारियों का नियमित काडर है वहाँ राज्य सरकार ऐसा काडर, गठित करने वाले व्यक्तियों में से ही लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त करेगी।

परंतु जहाँ राज्य सरकार की राय में ऐसे काडर में से कोई उपयुक्त व्यक्ति नियुक्ति के लिये उपलबध नहीं है वहां राज्य सरकार उपधारा (4) के अधीन ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा तैयार किये गए नामों के पैनल में से, यथास्थिति लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक रूप में किसी व्यक्ति को नियुकत कर सकती है।

स्पष्टीकरण- इस उपधारा के प्रयोजन के लिये-

(a) ‘अभियोजन अधिकारियों का नियमित संवर्ग/काडर’ का अर्थ है अभियोजन अधिकारियों का एक ऐसा काडर जिसमें लोक अभियोजक की पदोन्नति का प्रावधान हो, चाहे इस पद का कोई भी नाम हो,

(b) ‘अभियोजन अधिकारी’ का अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जिसे चाहे किसी भी नाम से पुकारें, जो इस संहिता के अंतर्गत लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के कार्यों के निष्पादन के लिये नियुक्त किया गया हो।

(7) कोई व्यक्ति उपधारा (1) या उपधारा (2) या उपधारा (3) या उपधारा (6) के अधीन लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किये जाने का पात्र तभी होगा जब तक वह कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय करता रहा हो।

(8) केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों के प्रयोजनों के लिये किसी अधिवक्ता को, जो कम से कम दस वर्ष तक विधि व्यवसाय करता रहा हो, विशेष लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।

(परंतु न्यायालय आहत को इस उपधारा के अधीन अभियोजन को सहायता करने अपनी पसंद का अधिवक्ता नियुक्त की अनुमति दे सकता है।)  

(9) उपधारा (7) और उपधारा (8) के प्रयोजनों के लिये उस अवधि के बारे में, जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने प्लीडर के रूप में विधि व्यवसाय किया है या लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक या अन्य अभियोजन अधिकारी के रूप में चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, सेवाएँ की हैं यह समझा जाएगा कि वह ऐसी अवधि है जिसके दौरान ऐसे व्यक्ति ने अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय किया है।