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सांविधानिक विधि
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार
28-Dec-2023
राजिंदर कौर जसपाल सिंह लायल और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य “किसी व्यक्ति को इस आधार पर विदेश यात्रा करने के उसके मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है कि उस संपत्ति के संबंध में कोई विवाद है जिसका उल्लेख पासपोर्ट में शामिल करने के उद्देश्य से आवेदक द्वारा दिये गए पते में किया गया है।" न्यायमूर्ति ए.एस. चंदूरकर और फिरदोश पी. पूनीवाला |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति ए.एस. चंदूरकर और फिरदोश पी. पूनीवाला ने कहा है कि किसी व्यक्ति को इस आधार पर विदेश यात्रा करने के उसके मूल अधिकार (Fundamental Right) से वंचित नहीं किया जा सकता है कि उस संपत्ति के संबंध में कोई विवाद है जिसका उल्लेख पासपोर्ट में शामिल करने के उद्देश्य से आवेदक द्वारा दिये गए पते में किया गया है।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यह फैसला राजिंदर कौर जसपाल सिंह लायल और अन्य बनाम भारत संघ व अन्य के मामले में दिया।
राजिंदर कौर जसपाल सिंह लायल और अन्य बनाम भारत संघ व अन्य की पृष्ठभूमि क्या है?
- पासपोर्ट प्राधिकारी ने राजिंदर कौर और उनके दो बेटों के पासपोर्ट को इस आधार पर नवीनीकृत करने से इनकार कर दिया था कि महिला के बहनोई गुरविंदर चानन सिंह लायल ने उनके पासपोर्ट आवेदन में उनके द्वारा उल्लिखित पते पर आपत्ति जताई थी।
- लायल ने दलील दी थी कि पता उसके नाम पर एक कमरे का है और जिसपर संपत्ति विवाद चल रहा है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संपत्ति के अधिकार को यह स्पष्ट करके संरक्षित किया जा सकता है कि पासपोर्ट में पते का उल्लेख अपीलकर्त्ताओं को कोई स्वामित्व का अधिकार प्रदान नहीं करेगा।
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ताओं को प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा जताई गई आपत्ति के गुण-दोष पर गौर किये बिना प्रतिवादी संख्या-2 को पासपोर्ट अधिनियम व पासपोर्ट नियमों के प्रावधानों के अनुसार पासपोर्ट जारी करने का निर्देश दिया और यह माना गया कि इनकार के लिये 'पासपोर्ट प्राधिकारी' द्वारा उद्धृत आधार 'मनमाना तथा अधिकारिता के बिना' है।
- न्यायालय ने यह भी देखा कि 'पासपोर्ट अधिनियम' में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो उल्लिखित आधार पर पासपोर्ट जारी करने से इनकार करने में सक्षम बनाता हो।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थी?
- चूँकि याचिकाकर्त्ताओं ने विदेश यात्रा करने के मूल अधिकार को लागू करने के लिये वर्तमान याचिका दायर की है, जो उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत है और उन्होंने अधिकारिता के बिना पासपोर्ट के नवीनीकरण से इनकार करने वाले उक्त आदेशों को चुनौती दी है, वर्तमान याचिका यह स्पष्ट रूप से वैकल्पिक उपचार के नियम के अपवाद के अंतर्गत आती है।
- यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि पासपोर्ट में याचिकाकर्त्ताओं के पते का विवरण, अपने आप में, उसमें उल्लिखित संपत्ति के संबंध में उन्हें कोई अधिकार प्रदान नहीं करेगा तथा ऐसा समावेशन अन्य लंबित कार्यवाही में प्रतिवादी संख्या-3 के अधिकारों एवं तर्कों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगा।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 क्या है?
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा:
- किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
- यह मूल अधिकार प्रत्येक व्यक्ति, नागरिकों और विदेशियों के लिये समान रूप से उपलब्ध है।
- अनुच्छेद 21 दो अधिकार प्रदान करता है:
- जीवन का अधिकार
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस अधिकार को 'मूल अधिकारों का हृदय' बताया है। इसका तात्पर्य यह है कि यह अधिकार केवल राज्य के विरुद्ध ही प्रदान किया गया है।
- यहाँ राज्य में केवल सरकार ही नहीं, बल्कि सरकारी विभाग, स्थानीय निकाय, विधानमंडल आदि भी शामिल हैं।
- जीवन का अधिकार केवल जीवित रहने के अधिकार के बारे में नहीं है। इसमें गरिमा के साथ और अर्थपूर्ण जीवन जीने में सक्षम होना भी शामिल है।
- निर्णयज विधि:
- ए.के. गोपालन केस (1950): 1950 के दशक तक, अनुच्छेद 21 का दायरा संकीर्ण था। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि संविधान की अभिव्यक्ति 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' ने अमेरिकी 'उचित प्रक्रिया' के बजाय व्यक्तिगत स्वतंत्रता की ब्रिटिश अवधारणा को मूर्त रूप दिया है।
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): इस मामले ने गोपालन मामले के फैसले को उलट दिया। अनुच्छेद 21 में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार में कई अधिकारों सहित व्यापक दायरा है, जिनमें से कुछ अनुच्छेद 19 के तहत सन्निहित हैं, इस प्रकार उन्हें 'अतिरिक्त सुरक्षा' मिलती है। न्यायालय ने यह भी माना कि जो कानून अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आता है उसे अनुच्छेद 19 के तहत आवश्यकताओं को भी पूरा करना चाहिये।
- इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये कानून के तहत कोई भी प्रक्रिया अनुचित या मनमानी नहीं होनी चाहिये।
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अधिकारों की सूची:
- निजता का अधिकार
- विदेश जाने का अधिकार
- आश्रय का अधिकार
- एकांत परिरोध के विरुद्ध अधिकार
- सामाजिक न्याय एवं आर्थिक सशक्तीकरण का अधिकार
- हथकड़ी लगाए जाने के विरुद्ध अधिकार
- हिरासत में होने वाली मृत्यु (Custodial Death) के विरुद्ध अधिकार
- विलंबित कार्यांवयन के विरुद्ध अधिकार
- डॉक्टरों की सहायता का अधिकार
- सार्वजनिक रूप से फाँसी के विरुद्ध अधिकार
- सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण
- प्रदूषण मुक्त जल एवं वायु का अधिकार
- प्रत्येक बच्चे के पूर्ण विकास का अधिकार
- स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सहायता का अधिकार
- शिक्षा का अधिकार
- विचाराधीन कैदियों की सुरक्षा
पारिवारिक कानून
विवाह में मानसिक क्रूरता
28-Dec-2023
आलोक भारती बनाम ज्योति राज "एक पति या पत्नी द्वारा दूसरे पर विवाहेत्तर अन्य व्यक्तियों के साथ कथित अवैध संबंध रखने का झूठा आरोप लगाना मानसिक क्रूरता है।" न्यायमूर्ति पी. बी. बजथ्री और रमेश चंद मालवीय |
स्रोत: पटना उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पटना उच्च न्यायालय ने आलोक भारती बनाम ज्योति राज के मामले में माना है कि पति या पत्नी द्वारा दूसरे पर विवाहेत्तर विभिन्न व्यक्तियों के साथ कथित अवैध संबंध रखने का झूठा आरोप लगाना मानसिक क्रूरता है।
आलोक भारती बनाम ज्योति राज मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता (पति) और प्रतिवादी (पत्नी) ने वर्ष 2012 में हिंदू रीति-रिवाज़ों के अनुसार विवाह किया था।
- उनमें कुछ घरेलू मुद्दे थे क्योंकि प्रतिवादी पति के वैवाहिक घर में रहने की इच्छुक नहीं थी।
- वर्ष 2016 में महिला ने अपने पति, ससुराल वालों तथा छह अन्य लोगों पर वैवाहिक यातना और क्रूरता का आरोप लगाते हुए पुलिस मामला दर्ज करके कानूनी कार्यवाही शुरू की।
- इस पृष्ठभूमि में, अपीलकर्त्ता-पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13 (1) (i-a) और 13 (1) (i-b) के तहत पारिवारिक न्यायालय के समक्ष मामला दायर किया।
- पारिवारिक न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की याचिका खारिज़ कर दी।
- इसके बाद, पटना उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दे दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति पी.बी. बजथ्री और न्यायमूर्ति रमेश चंद मालवीय की पीठ ने कहा कि पति या पत्नी द्वारा दूसरे पर विवाहेत्तर विभिन्न व्यक्तियों के साथ कथित अवैध संबंध रखने का झूठा आरोप लगाना मानसिक क्रूरता है।
- न्यायालय ने यह भी माना कि पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा दूसरे को सामाजिक यातना देना, मानसिक यातना और क्रूरता के समान पाया गया। प्रतिवादी घरेलू हिंसा के झूठे मामले दायर करके अपीलकर्त्ता को परेशान कर रही है और उसने यह स्वीकार किया है कि कुछ आरोप झूठे हैं तथा ऐसा व्यवहार क्रूरता के बराबर है। यह भी पर्याप्त है कि यदि क्रूरता इस प्रकार की हो तो पति-पत्नी का साथ रहना असंभव हो जाता है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा को महत्त्व दिया जाना चाहिये। निजता के मूल में व्यक्तिगत अंतरंगता का संरक्षण, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, विवाह, प्रजनन, घर और यौन उन्मुखीकरण शामिल हैं। निजता का तात्पर्य अकेले छोड़ दिये जाने के अधिकार से भी है।
प्रासंगिक कानूनी प्रावधान क्या हैं?
HMA की धारा 13(1)(i-a):
- यह धारा विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में क्रूरता से संबंधित है।
- HMA में 1976 के संशोधन से पहले, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता विवाह-विच्छेद का दावा करने का आधार नहीं थी।
- यह अधिनियम की धारा 10 के तहत न्यायिक अलगाव का दावा करने का केवल एक आधार था।
- 1976 के संशोधन द्वारा क्रूरता को विवाह-विच्छेद का आधार बना दिया गया।
- इस अधिनियम में क्रूरता शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
- आमतौर पर, क्रूरता कोई भी ऐसा व्यवहार है जो शारीरिक या मानसिक, जानबूझकर या अनजाने में दर्द और कष्ट का कारण बनता है।
- उच्चतम न्यायालय द्वारा कई निर्णयों में दिये गए कानून के अनुसार क्रूरता दो प्रकार की होती है-
- शारीरिक क्रूरता: जीवनसाथी को पीड़ा पहुँचाने वाला हिंसक आचरण।
- मानसिक क्रूरता: जीवनसाथी को किसी प्रकार का मानसिक तनाव होता है या उसे लगातार मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है।
- शोभा रानी बनाम मधुकर रेड्डी (1988) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि क्रूरता शब्द की कोई निश्चित परिभाषा नहीं हो सकती।
- मायादेवी बनाम जगदीश प्रसाद (2007) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा सहन की गई किसी भी प्रकार की मानसिक क्रूरता होने पर, न केवल महिला, बल्कि पुरुष भी विवाह-विच्छेद के लिये आवेदन कर सकते हैं।
HMA की धारा 13(1)(i-b):
- यह धारा विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में परित्याग से संबंधित है।
- 1976 के संशोधन द्वारा, HMA की धारा 13 (1) (i-b) के तहत परित्याग को विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में शामिल किया गया था। 1976 से पूर्व, परित्याग न्यायिक पृथक्करण का आधार था लेकिन अब यह विवाह-विच्छेद और न्यायिक पृथक्करण दोनों का आधार है।
- HMA की धारा 13 (1) (i-b) परित्याग को विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में पेश करती है और कहती है कि पति या पत्नी में से किसी एक द्वारा प्रस्तुत याचिका पर विवाह को विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर भंग कर दिया जाएगा कि दूसरे पक्ष ने याचिका की प्रस्तुति से ठीक पहले कम-से-कम दो वर्ष की निरंतर अवधि के लिये याचिकाकर्त्ता को छोड़ दिया है।
- परित्याग शब्द का अर्थ विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा याचिकाकर्त्ता का बिना किसी उचित कारण के और ऐसे पक्ष की सहमति के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध परित्याग करना है और इसमें विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा याचिकाकर्त्ता की जानबूझकर उपेक्षा करना शामिल है और इसकी व्याकरणिक विविधताओं तथा आत्मीय अभिव्यक्तियों को तद्नुसार माना जाएगा।
- परित्याग को विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में स्थापित करने के लिये, निम्नलिखित आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिये:
- परित्याग स्वैच्छिक होना चाहिये।
- परित्याग उचित कारण के बिना होना चाहिये।
- परित्याग निरंतर और अनुचित होना चाहिये।
- परित्याग जानबूझकर किया जाना चाहिये।
- परित्याग को दो तरीकों - आपसी सहमति से या सहवास के पुनरारंभ से समाप्त किया जा सकता है।
पारिवारिक कानून
कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19
28-Dec-2023
हेमसिंह उर्फ टिंचू बनाम श्रीमती भावना "एक बार जब क्रूरता पाई जाती है तो वह विवाह-विच्छेद की कार्रवाई का कारण बनता है। उसके बाद पक्षकार किस प्रकार व्यवहार करेंगे, यह प्रासंगिक कारक बना रह सकता है। फिर भी कानून का कोई नियम लागू नहीं हो सकता, जो न्यायालय को अन्य उपस्थित परिस्थितियों को देखे बिना पक्षकारों के बीच वैवाहिक संबंध बहाल करने के लिये आदेश पारित करने का निर्देश दे सकता है।" न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और शिव शंकर प्रसाद |
स्रोतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और शिव शंकर प्रसाद ने कहा है कि एक बार जब क्रूरता पाई जाती है तो यह विवाह-विच्छेद की कार्रवाई का कारण बनती है। उसके बाद पक्षकार किस प्रकार व्यवहार करेंगे, यह प्रासंगिक कारक बन सकता है। फिर भी कानून का कोई नियम लागू नहीं हो सकता, जो न्यायालय को अन्य उपस्थित परिस्थितियों को देखे बिना पक्षकारों के बीच वैवाहिक संबंध बहाल करने के लिये आदेश पारित करने का निर्देश दे सकता है।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह फैसला हेमसिंह उर्फ टिंचू बनाम श्रीमती भावना के मामले में दिया।
हेमसिंह उर्फ टिंचू बनाम श्रीमती भावना की पृष्ठभूमि क्या है?
- अपीलकर्त्ता-पति ने प्रतिवादी-पत्नी के कहने पर अपनी विवाह को भंग करने के लिये कुटुंब न्यायालय, इटावा के मुख्य न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की।
- न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी-पत्नी ने क्रूरता के आधार पर विवाह विच्छेद की मांग की थी।
- अपीलकर्त्ता-पति के करीबी रिश्तेदारों ने प्रतिवादी-पत्नी द्वारा लगाए गए आरोपों की पुष्टि की थी। इस आशय के बयान दिये गए कि अपीलकर्त्ता के पिता ने उसके बुरे आचरण के कारण उसे अपनी वसीयत से बेदखल कर दिया था।
- न्यायालय ने दहेज आदि की मांग न करने पर विवाह बहाल कर दिये जाने की अपीलकर्त्ता-पति की इस दलील को खारिज़ करके कोई गलती नहीं की है।
- न्यायालय ने माना कि क्रूरता हुई है और अपीलकर्त्ता-पति द्वारा दायर अपील को खारिज़ कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थी?
- एक बार जब क्रूरता पाई जाती है तो वह विवाह-विच्छेद की कार्रवाई का कारण बनती है। उसके बाद पक्षकार किस प्रकार व्यवहार करेंगे, यह प्रासंगिक कारक बना रह सकता है।
- फिर भी कानून का कोई नियम लागू नहीं हो सकता, जो न्यायालय को अन्य उपस्थित परिस्थितियों को देखे बिना पक्षकारों के बीच वैवाहिक संबंध बहाल करने के लिये आदेश पारित करने का निर्देश दे सकता है।
कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 क्या है?
कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 'अपील' से संबंधित है।
(1) उप-धारा (2) में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय और सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 में या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में या किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, किसी कुटुंब न्यायालय के प्रत्येक निर्णय या आदेश की, जो अंतर्वर्ती आदेश नहीं है, अपील उच्च न्यायालय में तथ्यों और विधि, दोनों के संबंध में होंगी।
(2) कुटुंब न्यायालय द्वारा पक्षकारों की सहमति से पारित [किसी डिक्री या आदेश की या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अध्याय 9 के अधीन पारित किसी आदेश की कोई अपील नहीं होगी: परंतु इस उपधारा की कोई बात कुटुंब न्यायालय (संशोधन) अधिनियम, 1991 के प्रारंभ के पूर्व किसी उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित किसी अपील या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अध्याय 9 के अधीन पारित किसी आदेश को लागू नहीं होगी]।
(3) इस धारा के अधीन प्रत्येक अपील, किसी कुटुंब न्यायालय के निर्णय या आदेश की तिथि से तीस दिन की अवधि के भीतर की जाएगी।
(4) उच्च न्यायालय, स्वप्रेरणा से या अन्यथा, ऐसी किसी कार्यवाही का, जिसमें उसकी अधिकारिता के भीतर स्थित कुटुंब न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अध्याय 9 के अधीन कोई आदेश पारित किया है, अभिलेख, उस आदेश को, जो अंतवर्ती आदेश न हो, तथ्यता, वैधता या औचित्य के बारे में और ऐसी कार्यवाही की नियमितता के बारे में अपना समाधान करने के प्रयोजन के लिये मंगा सकता है और उसकी परीक्षा कर सकता है।]
(5) जैसा ऊपर कहा गया है उसके सिवाय, किसी कुटुंब न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश या डिक्री की किसी न्यायालय में कोई अपील या पुनरीक्षण नहीं होगा।
(6) उप-धारा (1) केअधीन की गई किसी अपील की सुनवाई दो या अधिक न्यायाधीशों से मिलकर बनी किसी न्यायपीठ द्वारा की जाएगी।