करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
आपराधिक कानून
IEA की धारा 27
05-Jan-2024
पेरुमल राजा @ पेरुमल बनाम राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक "IEA की धारा 27 के प्रावधानों को लागू करने के उद्देश्य से शर्तों को बहाल कर दिया गया है।" न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और एस.वी.एन. भट्टी |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पेरुमल राजा @ पेरुमल बनाम राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27 के प्रावधानों को लागू करने के उद्देश्य से शर्तों को बहाल किया।
पेरुमल राजा @ पेरुमल बनाम राज्य प्रतिनिधि पुलिस निरीक्षक मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- इस मामले में, अपीलकर्त्ता पेरुमल राजा @ पेरुमल ने अन्य सह-अभियुक्तों के साथ मिलकर रजनी उर्फ रजनीकांत की हत्या की थी। उसके शव को उसके घर के नाबदान टैंक में फेंक दिया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 और धारा 201 के तहत दोषी ठहराया, जबकि अन्य सह-अभियुक्तों को बरी कर दिया गया।
- इसके बाद, ट्रायल कोर्ट के फैसले को मद्रास उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा।
- इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की है।
- अपील को खारिज़ करते हुए उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की सज़ा को बरकरार रखा।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने स्पष्ट किया कि तथ्य की खोज में अभियुक्त की जानकारी भी शामिल है। इस प्रकार, इस तथ्य की खोज को केवल प्राप्त वस्तु के बराबर नहीं माना जा सकता है।
- न्यायालय ने मोहम्मद इनायतुल्ला बनाम महाराष्ट्र राज्य (1976) के मामले में IEA की धारा 27 को स्पष्ट करते हुए उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए फैसले पर भरोसा किया।
- यह माना गया है कि धारा को प्रभाव में लाने के लिये लागू की गई और आवश्यक पहली शर्त एक तथ्य की खोज है जो किसी अपराध के अभियुक्त से प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप एक सुसंगत तथ्य होना चाहिये।
- दूसरा यह है कि ऐसे तथ्य की खोज को उजागर किया जाना चाहिये। पुलिस को पहले से ज्ञात तथ्य गलत साबित होगा और यह शर्त को पूरी नहीं हो सकेगी।
- तीसरा यह कि जानकारी मिलने के समय अभियुक्त पुलिस अभिरक्षा में होना चाहिये।
- यह केवल इतनी ही जानकारी है जो स्पष्ट रूप से उस तथ्य से संबंधित है जिसके परिणामस्वरूप स्वीकार्य भौतिक वस्तु प्राप्त हुई है।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
IEA की धारा 27:
परिचय:
- यह धारा इस तथ्य से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त कितनी जानकारी को साबित किया जा सकता है।
- इसमें कहा गया है, जब किसी तथ्य के बारे में यह अभिसाक्ष्य दिया जाता है कि किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से, जो पुलिस ऑफिसर की अभिरक्षा में हो, प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप उसका पता चला है, तब ऐसी जानकारी में से उतनी, चाहे वह संस्वीकृति की कोटि में आती हो या नहीं, जितनी एतद्वारा पता चले हुए तथ्य से स्पष्टतया संबंधित है, साबित की जा सकेगी।
- यह धारा बाद की घटनाओं के अनुसार पुष्टि के सिद्धांत पर आधारित है - वास्तव में दी गई जानकारी के परिणामस्वरूप एक तथ्य की खोज की जाती है, जिसके परिणामस्वरूप एक भौतिक वस्तु की पुनर्प्राप्ति होती है।
निर्णयज विधि:
- दिल्ली NCT राज्य बनाम नवजोत संधू उर्फ अफसान गुरु (2005) मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि IEA की धारा 27 के अर्थ में खोजा गया तथ्य, ठोस तथ्य होना चाहिये जिससे जानकारी सीधे संबंधित हो।
- राजेश और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि IEA की धारा 27 के तहत औपचारिक आरोप एवं औपचारिक पुलिस हिरासत महत्त्वपूर्ण पूर्व-आवश्यकताएँ हैं।
IPC की धारा 201:
- यह धारा अपराध के साक्ष्य का विलोपन, या अपराधी को प्रतिच्छादित करने के लिये झूठी जानकारी देने से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जो भी कोई यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रखते हुए कि कोई अपराध किया गया है, उस अपराध के किये जाने के किसी साक्ष्य का विलोप, इस आशय से कारित करेगा कि अपराधी को वैध दंड से प्रतिच्छादित करे या उस अपराध से संबंधित कोई ऐसी जानकारी देगा, जिसके गलत होने का उसे ज्ञान या विश्वास है;
- यदि वह अपराध जिसके किये जाने का उसे ज्ञान या विश्वास है, मृत्यु से दंडनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दंडित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
- यदि वह अपराध आजीवन कारावास, या दस वर्ष तक के कारावास, से दंडनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दंडित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
- यदि वह अपराध दस वर्ष से कम के कारावास से दंडनीय हो, तो उसे उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की दीर्घतम अवधि की एक-चौथाई अवधि के लिये जो उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की हो, से दंडित किया जाएगा या आर्थिक दंड से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
सांविधानिक विधि
COI का अनुच्छेद 20(3)
05-Jan-2024
संकेत भद्रेश मोदी बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो एवं अन्य “COI के अनुच्छेद 20(3) के प्रावधानों के अनुसार किसी अभियुक्त को जाँच के दौरान डिजिटल उपकरणों के पासवर्ड या किसी अन्य समान विवरण को प्रकट करने या बताने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।” न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, संकेत भद्रेश मोदी बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो एवं अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20(3) के प्रावधानों के तहत, किसी अभियुक्त को जाँच के दौरान डिजिटल उपकरणों के पासवर्ड या किसी अन्य समान विवरण को प्रकट करने या बताने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
संकेत भद्रेश मोदी बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- आवेदक ने भारतीय दंड संहिता, 1860 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT अधिनियम) के प्रावधानों के तहत दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में नियमित ज़मानत की मांग करते हुए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 439 के तहत दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान आवेदन दायर किया है।
- वर्तमान FIR में यह आरोप लगाया गया था कि ई-संपर्क सॉफ्टेक प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक कंपनी ने अपने निदेशकों के साथ मिलकर भारत में स्थित धोखाधड़ी कॉल सेंटरों से संयुक्त राज्य अमेरिका में लाखों फर्ज़ी फोन कॉल किये थे और इस तरह, उसने अमेरिकी नागरिकों के साथ लगभग 20 मिलियन अमरीकी डालर की धोखाधड़ी की थी।
- आवेदक और कम-से-कम 12 अन्य व्यक्तियों को इस मामले में अभियुक्त ठहराया गया था तथा वे 19 जुलाई, 2023 से हिरासत में थे।
- उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी ने कहा कि संबंधित जाँच एजेंसी किसी ऐसे व्यक्ति से, जो यहाँ आवेदक की तरह अभियुक्त है, ऐसी बात कहने की अपेक्षा नहीं रख सकती, जो उनके अनुकूल हो, खासकर तब जब ऐसा अभियुक्त, जैसे कि यहाँ आवेदक COI के अनुच्छेद 20(3) के तहत अच्छी तरह से और सही मायने में संरक्षित है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि जब मुकदमा चल रहा हो तो अभियुक्त को जाँच के दौरान ज़ब्त किये गए डिजिटल उपकरणों या गैजेट्स के पासवर्ड या किसी अन्य समान विवरण को प्रकट करने या बताने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
COI की धारा 20(3) क्या है?
परिचय:
- अनुच्छेद 20(3) पुष्टि करता है कि किसी अपराध के लिये अभियुक्त किसी व्यक्ति को उसके स्वयं के विरुद्ध साक्षी बनने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
- इस अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त अधिकार एक ऐसा अधिकार है जो किसी अभियुक्त को मुकदमे या जाँच के दौरान चुप रहने का विशेषाधिकार देता है जबकि राज्य का उसके द्वारा किये गए कबूलनामे पर कोई दावा नहीं है।
निर्णयज विधि:
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्याय की प्रक्रिया निष्पक्ष और न्यायसंगत आधार पर होनी चाहिये।
- सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि COI के अनुच्छेद 20(3) को सर्वोच्च दर्जा प्राप्त है। यह प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया में एक आवश्यक सुरक्षा है तथा जाँच अधिकारियों द्वारा उपयोग की जाने वाली यातना और अन्य ज़बरदस्ती के तरीकों के विरुद्ध भी एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा है।
अंतर्राष्ट्रीय कानून
कतर का मुकदमा
05-Jan-2024
डहरा ग्लोबल केस "कतर में अपीलीय न्यायालय द्वारा डहरा ग्लोबल केस में सज़ाएँ कम कर दी गई हैं।" विदेश मंत्रालय (MEA) |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, कतर के एक न्यायालय ने डहरा ग्लोबल केस में 8 भारतीय नौसेना के दिग्गजों की मृत्यु की सज़ा को अलग-अलग जेल की सज़ा में परिवर्तित कर दिया है। विदेश मंत्रालय (MEA) ने मृत्यु की सज़ा को कम करने की पुष्टि की।
डहरा ग्लोबल केस मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- 30 अगस्त, 2022:
- दोहा में कतरी इंटेलिजेंस सर्विसेज़ ने भारतीय नौसेना के 8 जवानों को गिरफ्तार किया था।
- 1 मार्च, 2023:
- कतर न्यायालय ने उनकी ज़मानत अर्ज़ी को खारिज़ कर दिया।
- 28 अक्तूबर, 2023:
- कतर की प्रथम दृष्टया न्यायालय ने उन सभी को मृत्यु की सज़ा सुनाई।
- 28 दिसंबर, 2023:
- कतर में अपीलीय न्यायालय ने मृत्यु की सज़ा को जेल की सज़ा में परिवर्तित कर दिया।
अगला कदम क्या हो सकता है?
- अपील:
- भारतीय कानूनी टीम को 8 नौसैनिकों की जेल की सज़ा के खिलाफ अपील करने के लिये कुल 60 दिनों का समय दिया गया।
- संधि का अनुप्रयोग:
- भारत और कतर के बीच सजायाफ्ता व्यक्तियों के स्थानांतरण पर एक संधि है जिसे जेल की सज़ा के खिलाफ उपर्युक्त अपील विफल होने पर लागू किया जा सकता है।
भारत और कतर के बीच क्या संधि है?
- संधि पर हस्ताक्षर:
- प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2 दिसंबर, 2014 को भारत और कतर के बीच सजायाफ्ता व्यक्तियों के हस्तांतरण से संबंधित संधि पर हस्ताक्षर करने को मंज़ूरी दी।
- संधि का उद्देश्य:
- इस संधि के कार्यान्वयन ने कतर में कैद भारतीय कैदियों को, या इसके विपरीत, अपनी सज़ा के शेष हिस्से को काटने के दौरान अपने परिवारों के करीब रहने में सक्षम बनाया।
- इस पर सामाजिक पुनर्एकीकरण के उद्देश्य से हस्ताक्षर किये गये थे।
- कैदियों का प्रत्यावर्तन अधिनियम, 2003:
- वर्ष 2004 से पहले, विदेशी कैदियों को उनकी शेष सज़ा के लिये उनके गृह देश में स्थानांतरित करने की अनुमति देने वाला ऐसा कोई घरेलू कानून नहीं था।
- इसके अलावा, विदेशी न्यायालयों द्वारा दोषी ठहराए गए भारतीय मूल के व्यक्तियों को भारत में अपनी सज़ा पूरी करने के लिये स्थानांतरित करने का कोई प्रावधान नहीं था।
- इस अंतर को दूर करने के लिये, कैदियों का प्रत्यावर्तन अधिनियम, 2003 अधिनियमित किया गया था।
- अधिनियम के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये, भारत के साथ पारस्परिक हित साझा करने वाले देशों के साथ एक संधि/समझौते पर हस्ताक्षर करना आवश्यक था।
- अन्य राष्ट्रों के साथ समान संधि:
- भारत सरकार पहले ही यूनाइटेड किंगडम, मॉरीशस, बुल्गारिया, ब्राज़ील, कंबोडिया, मिस्र, फ्राँस, बांग्लादेश, दक्षिण कोरिया, सऊदी अरब, ईरान, कुवैत, श्रीलंका, संयुक्त अरब अमीरात, मालदीव, थाईलैंड, तुर्की, इटली, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना, इज़राइल, रूस, वियतनाम और ऑस्ट्रेलियाकी सरकारों के साथ समझौते कर चुकी है।