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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

IPC की धारा 304A

 18-Jan-2024

रंजीत राज बनाम राज्य

"मोटर वाहनों के उपयोग से होने वाली मृत्यु के मामलों में, न्यायालयों को यह तय करना चाहिये कि क्या IPC की धारा 304 के तहत आरोप के अलावा IPC की धारा 304 A के तहत अपराध के लिये वैकल्पिक आरोप भी जोड़ा जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति पी.जी. अजित कुमार

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने रंजीत राज बनाम राज्य के मामले में माना है कि मोटर वाहनों के उपयोग से होने वाली मृत्यु के मामलों में, न्यायालयों को यह तय करना चाहिये कि क्या IPC की धारा 304 के तहत आरोप के अलावा IPC की धारा 304 A के तहत अपराध के लिये वैकल्पिक आरोप भी जोड़ा जाना चाहिये।

रंजीत राज बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, अपीलकर्त्ता पर अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, एर्नाकुलम द्वारा IPC की धारा 304 के तहत अपराध के लिये मुकदमा चलाया गया था।
  • उसे IPC की धारा 304A के तहत अपराध का दोषी ठहराया गया था।
  • इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने IPC की धारा 304A के तहत अपराध के लिये अपनी दोषसिद्धि और सज़ा को चुनौती देते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने अपराध की गंभीरता को देखते हुए अपील खारिज़ कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति पी.जी. अजितकुमार ने कहा कि हर अदालत मोटर वाहनों के इस्तेमाल से हुई मौत के मामलों में आरोप तय करते समय IPC की धारा 304 के तहत अपराध का आरोप लगाते हुए अंतिम रिपोर्ट दायर करती है, ट्रायल कोर्ट विचार करने और यह तय करने के लिये बाध्य है कि क्या IPC की धारा 304A के तहत दंडनीय अपराध के लिये वैकल्पिक आरोप लगाया जा सकता है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि IPC की धारा 304A जैसे शब्दों और अभियुक्त के खिलाफ लगाए गए आरोपों में जल्दबाज़ी या लापरवाही से इस्तेमाल किये गए शब्दों का उल्लेख करने से IPC की धारा 304A के तहत दोषसिद्धि को असंधार्य या अवैध नहीं बनाया जाएगा।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

IPC की धारा 304:

  • IPC की धारा 304 आपराधिक मानव वध के लिये सज़ा से संबंधित है जो हत्या की श्रेणी में नहीं आता, जबकि यही प्रावधान भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 103 के तहत शामिल किया गया है।
  • इसमें कहा गया है कि जो कोई ऐसा आपराधिक मानव वध करेगा, जो हत्या की कोटि में नहीं आता है, यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु कारित की गई है, मृत्यु या ऐसी शारीरक क्षति, जिससे मृत्यु होना संभाव्य है, कारित करने के आशय से किया जाए, तो वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा अथवा यदि वह कार्य इस ज्ञान के साथ कि उससे मृत्यु कारित करना संभाव्य है, किंतु मृत्यु या ऐसी शारीरक क्षति, जिससे मृत्यु कारित करना संभाव्य है, कारित करने के किसी आशय के बिना किया जाए, तो वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, या ज़ुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।

IPC की धारा 304A:

  • परिचय:
    • IPC की धारा 304A उपेक्षा द्वारा मृत्यु से संबंधित है जबकि यही प्रावधान भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 104 के तहत शामिल किया गया है।
    • इसमें कहा गया है कि जो कोई उतावलेपन से या उपेक्षापूर्ण किसी ऐसे कार्य से किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित करेगा, जो आपराधिक मानव वध की कोटि में नहीं आता, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या ज़ुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
  • धारा 304A के आवश्यक तत्त्व:
    • IPC की धारा 304A के तहत मानव वध का मामला लाने के लिये निम्नलिखित शर्तें मौजूद होनी चाहिये:
      • संबंधित व्यक्ति की मृत्यु अवश्य होनी चाहिये।
      • अभियुक्त द्वारा ऐसी मृत्यु होनी चाहिये।
      • अभियुक्त का ऐसा कृत्य जल्दबाज़ी और उपेक्षापूर्ण से किया गया था तथा यह आपराधिक मानव वध की श्रेणी में नहीं आता।
  • निर्णयज विधि:
    • बेनी बनाम केरल राज्य (1991) के मामले में, केरल उच्च न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 304 के तहत IPC की धारा 304A के प्रावधानों में यह कोई छोटा अपराध नहीं है।

सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत वाद की अनुरक्षणशीलता

 18-Jan-2024

अस्मा लतीफ एवं अन्य बनाम शब्बीर अहमद एवं अन्य

"सिविल वाद में अंतरिम राहत देने से पहले, अनुरक्षणशीलता और वैधता की प्रथम दृष्टया संतुष्टि सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है।"

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, दीपांकर दत्ता और अरविंद कुमार

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने अस्मा लतीफ एवं अन्य बनाम शब्बीर अहमद एवं अन्य के मामले में सिविल कानून के विभिन्न पहलुओं की जाँच की। इसमें यह परिप्रेक्ष्य भी शामिल था कि, किसी सिविल वाद में अंतरिम राहत देने से पहले, अनुरक्षणशीलता और वैधता की प्रथम दृष्टया संतुष्टि सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है।

अस्मा लतीफ एवं अन्य बनाम शब्बीर अहमद एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह वाद अपीलकर्त्ताओं को उनकी परदादी द्वारा उपहार में दी गई संपत्ति से संबंधित था।
  • अपने वाद के जवाब में, तीन प्रतिवादियों में से दो ने लिखित बयान दाखिल नहीं किया जिसके परिणामस्वरूप ट्रायल कोर्ट ने उनके खिलाफ निर्णय दिया।
  • उच्चतम न्यायालय उस परिदृश्य से निपट रहा था जहाँ प्रतिवादी एक लिखित बयान प्रस्तुत करने में विफल रहता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

उच्चतम न्यायालय ने वाद की अनुरक्षणशीलता पर सवाल तय किये बिना अंतरिम राहत नहीं देने के संबंध में निम्नलिखित निर्देश दिये:

  • प्रथम दृष्टया संतुष्टि की रिकॉर्डिंग:
    • जहाँ किसी सिविल न्यायालय के समक्ष किसी वाद में अंतरिम राहत का दावा किया जाता है और ऐसी राहत दिये जाने से प्रभावित होने वाला पक्ष, या वाद का कोई अन्य पक्ष, उसकी अनुरक्षणशीलता का मुद्दा उठाता है या कि यह कानून द्वारा वर्जित है और इस आधार पर भी तर्क दिया गया है कि अंतरिम राहत नहीं दी जानी चाहिये, किसी भी रूप में राहत देने से पहले, कम-से-कम एक प्रथम दृष्टया संतुष्टि के गठन और रिकॉर्डिंग से पूर्व पता होना चाहिये कि वाद अनुरक्षणीय है या कानून द्वारा वर्जित नहीं है।
  • धारणा पर अंतरिम राहत का अनुदान:
    • किसी न्यायालय के लिये अनुरक्षणशीलता के प्रश्न पर अपनी प्रथम दृष्टया संतुष्टि दर्ज न करना अनुचित होगा, फिर भी न्यायालय, इस धारणा पर संरक्षण प्रोटेम(कुछ समय के लिये) देने के लिये तैयार हो कि आदेश XIV, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के नियम 2 के तहत अनुरक्षणशीलता के प्रश्न को प्रारंभिक मुद्दे के रूप में तय किया जाना है।
      • यह शक्ति का अनुचित प्रयोग हो सकता है।
  • असाधारण स्थितियों में उचित आदेश:
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि कोई असाधारण स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ वाद की अनुरक्षणशीलता के बिंदु पर निर्णय लेने में समय लग सकता है और ऐसे निर्णय के लंबित रहने तक सुरक्षा प्रोटेम न देने से अपरिवर्तनीय परिणाम हो सकते हैं, तो न्यायालय अपने द्वारा अपनाई गई कार्रवाई को उचित ठहराते हुए ऊपर बताए गए तरीके से उचित आदेश देने के लिये तैयात्र हो सकता है।
    • दूसरे शब्दों में, यदि आवश्यक हो, तो राहत का दावा करने वाले पक्ष को अपूर्णीय क्षति या चोट या अनुचित कठिनाई से बचने के लिये और/या यह सुनिश्चित करने के लिये कि न्यायालय के हस्तक्षेप न करने के कारण कार्यवाही निष्फल न हो जाए।

वाद की अनुरक्षणशीलता को प्रभावित करने वाले कारक क्या हैं?

  • अधिकार क्षेत्र:
    • न्यायालय के पास विवाद की विषय वस्तु और इसमें शामिल पक्षों पर अधिकार क्षेत्र होना चाहिये।
    • यदि न्यायालय के पास क्षेत्राधिकार का अभाव है, तो वाद अनुरक्षणीय नहीं हो सकता है।
  • सीमा अवधि:
    • CPC अक्सर एक सीमा अवधि निर्दिष्ट करती है जिसके भीतर वाद दायर किया जाना चाहिये।
    • यदि कोई वाद सीमा अवधि की समाप्ति के बाद दायर किया जाता है, तो यह अनुरक्षणीय नहीं हो सकता है।
  • कार्रवाई का कारण:
    • वादी के पास कानून द्वारा मान्यता प्राप्त कार्रवाई का वैध कारण होना चाहिये।
    • वादपत्र में आरोपित तथ्यों से कानूनी अधिकार और उस अधिकार के उल्लंघन का खुलासा होना चाहिये।
  • आवश्यक पक्ष:
    • वाद में शामिल पक्षों के पास वाद दायर करने की विधिक क्षमता होनी चाहिये।
    • गलत तरीके से नामित या अनुचित तरीके से शामिल होने वाले पक्ष वाद को प्रभावित कर सकते हैं।
    • CPC के आदेश I, नियम 9 में कहा गया है कि "किसी भी वाद को पक्षों के कुसंयोजन या असंयोजन के कारण अप्रभावी नहीं माना जाएगा, और न्यायालय के समक्ष लाए गए हर वाद में न्यायालय पक्षों के अधिकारों एवं हितों के संदर्भ में विवाद सुलझा सकता है।
      • बशर्ते कि इस नियम की कोई भी बात किसी आवश्यक पक्ष के असंयोजन पर लागू नहीं होगी।
  • प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का अनुपालन:
    • CPC में आमतौर पर वाद दायर करने का तरीका, सम्मन प्रक्रिया और अन्य औपचारिकताओं का निर्धारण किया गया है।
    • इन प्रक्रियात्मक नियमों का पालन करने में विफलता से मुकदमे की स्थिरता प्रभावित हो सकती है।
  • पूर्व न्याय:
    • यदि विवादित मामले का फैसला पहले ही समान पक्षों के बीच हो चुका है, तो CPC की धारा 11 के तहत उन्हीं मुद्दों पर नया मुकदमा दायर करने को रोकने हेतु पुनर्न्याय का सिद्धांत लागू होगा।

पारिवारिक कानून

वित्तीय सहायता देने से इनकार करना क्रूरता है

 18-Jan-2024

X बनाम Y

"एक पति जो पत्नी और बच्चों के साथ रहने में रुचि नहीं रखता है, उन्हें कोई वित्तीय सहायता नहीं देता और रेलवे सेवा रजिस्टर में उनका नाम शामिल नहीं करता है, तो यह क्रूरता होगी।"

न्यायमूर्ति आर.एम. टी. टीका रमन और पी.बी. बालाजी

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, मद्रास उच्च न्यायालय ने माना है कि जो पति पत्नी और बच्चों के साथ रहने में रुचि नहीं रखता है, उन्हें कोई वित्तीय सहायता नहीं देता और रेलवे सेवा रजिस्टर में उनका नाम शामिल नहीं करता है, तो यह क्रूरता होगी।

इस मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, अपीलकर्त्ता पत्नी है, और प्रतिवादी पति है जो लगभग 12 वर्षों से अलग रह रहे हैं।
  • पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13(1) (i-a) के तहत और क्रूरता के आधार पर विवाह-विघटन के लिये याचिका दायर की।
  • पारिवारिक न्यायालय इस नतीजे पर पहुँचा है कि दोनों पक्ष 12 साल से अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं और अपीलकर्त्ता ने झूठा आरोप लगाया है कि पति का अपने एक सह-कर्मचारी के साथ अवैध संबंध है।
  • पारिवारिक न्यायालय ने पाया कि पति या पत्नी के खिलाफ अवैध संबंध के आरोप लगाना, जैसा भी मामला हो, मानसिक क्रूरता के समान है और विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन के आधार पर पत्नी को राहत दी गई।
  • अपीलकर्त्ता ने कहा कि उसका पति उनके साथ रहने के लिये घर नहीं आ रहा है, और उसने कभी भी उसकी और यहाँ तक कि बच्चों की शिक्षा के लिये भी आर्थिक सहायता नहीं की, जिसके परिणामस्वरूप उसे भरण-पोषण का मुकदमा दायर करना पड़ा।
  • हालाँकि पत्नी को भरण-पोषण प्रपात हुआ, लेकिन उसका भुगतान पति द्वारा नहीं किया गया।
  • इसके बाद एक पत्नी ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए मद्रास उच्च न्यायालय में अपील दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति आर.एम.टी. टीका रमन और न्यायमूर्ति पी.बी. बालाजी की पीठ ने कहा कि किसी भी आरोप को पति द्वारा क्रूरता के रूप में नहीं माना गया और न ही कानून द्वारा ज्ञात तरीके से साबित किया गया है।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी ने कोई वित्तीय सहायता न देकर पति के हाथों क्रूरता का प्रदर्शन किया है कि वह पत्नी और बच्चों के साथ रहने में रुचि नहीं रखता है तथा उसने परिवार के सदस्य के रूप में सुविधाओं का आनंद लेने के लिये पत्नी और बच्चों को रेलवे सेवा रजिस्टर में शामिल नहीं किया है। इन स्वीकृत तथ्यों से पता चलता है कि यह पति ही है जिसने क्रूरता की है और इसलिये, पत्नी को अपने पिता के घर में रहने के लिये मजबूर होना पड़ा है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

  • HMA की धारा 13(1)(i-a):
    • यह धारा विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में क्रूरता से संबंधित है।
    • HMA में वर्ष 1976 के संशोधन से पहले, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता विवाह-विच्छेद का दावा करने का आधार नहीं थी।
    • यह अधिनियम की धारा 10 के तहत न्यायिक अलगाव का दावा करने का केवल एक आधार थी।
    • वर्ष 1976 के संशोधन द्वारा क्रूरता को विवाह-विच्छेद का आधार बना दिया गया।
    • इस अधिनियम में क्रूरता शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
    • आमतौर पर, क्रूरता कोई भी ऐसा व्यवहार है जो शारीरिक या मानसिक रूप से किसी को प्रताड़ित कर सकता है, तथा जानबूझकर या अनजाने में होता है।
    • उच्चतम न्यायालय द्वारा कई निर्णयों में निर्धारित कानून के अनुसार क्रूरता दो प्रकार की होती है:
      • शारीरिक क्रूरता - पति/पत्नी को कष्ट पहुँचाने वाला हिंसक आचरण।
      • मानसिक क्रूरता - पति/पत्नी को किसी प्रकार का मानसिक तनाव होता है या उसे लगातार मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है।
    • शोभा रानी बनाम मधुकर रेड्डी (1988) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि क्रूरता शब्द की कोई निश्चित परिभाषा नहीं हो सकती।
    • मायादेवी बनाम जगदीश प्रसाद (2007) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा किसी भी प्रकार की मानसिक क्रूरता का सामना करने पर, न केवल महिला, बल्कि पुरुष भी क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिये आवेदन कर सकते हैं।
  • विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन का सिद्धांत:
    • यह अवधारणा वर्ष 1921 में लॉडर बनाम लॉड ( Lodder v. Lodde) के ऐतिहासिक निर्णय के माध्यम से न्यूज़ीलैंड में उत्पन्न हुई।
    • विवाह का अपरिवर्तनीय विघटन एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति व पत्नी काफी समय से अलग-अलग रह रहे हैं और उनके दोबारा साथ में रहने की कोई संभावना नहीं है।
    • इस सिद्धांत को अनौपचारिक वैधता प्राप्त हो गई है क्योंकि इसे विवाह-विच्छेद देने वाले कई न्यायिक निर्णयों में लागू किया गया है।
    • भारत में, HMA में विवाह-विच्छेद के लिये इस तरह के आधार को अभी तक शामिल नहीं किया है, लेकिन विभिन्न विधि आयोग की रिपोर्टों में इसकी अत्यधिक अनुशंसा की गई है और इस संबंध में संसद में विवाह विच्छेद कानून (संशोधन) विधेयक, 2010 नाम से एक विधेयक पेश किया गया।