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आपराधिक कानून
CrPC की धारा 311 & 233
25-Jan-2024
अनुपम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, थ्रू प्रधान गृह सचिव एवं अन्य "CrPC की धारा 311 के अनुसार, समन करने की शक्ति केवल न्यायालयों के पास होती है, और CrPC की धारा 233 के तहत, प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त के पास होता है, एवं न्यायालय का हस्तक्षेप सीमित होता है।" न्यायमूर्ति ज्योत्सना शर्मा |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अनुपम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, थ्रू प्रधान गृह सचिव एवं अन्य के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 311 और 233 के दायरे के बीच अंतर का विशदीकरण किया है।
अनुपम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, थ्रू प्रधान गृह सचिव एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, अभियुक्त पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत मुकदमा चल रहा है।
- ट्रायल कोर्ट के समक्ष, CrPC की धारा 311 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था और उसके बाद, उन्हीं साक्षियों को पेश करने के लिये CrPC की धारा 233 के तहत एक दूसरा आवेदन भी दायर किया गया था।
- ये दोनों आवेदन खारिज़ कर दिये गए।
- इसके बाद, अभियुक्त द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक पुनर्विलोकन दायर किया गया है।
- उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति ज्योत्सना शर्मा ने कहा कि CrPC की धारा 311 के तहत समन जारी करने की शक्ति केवल न्यायालयों के पास होती है और CrPC की धारा 233 के तहत प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त के पास होता है तथा न्यायालय का हस्तक्षेप सीमित होता है।
- संबंधित ट्रायल कोर्ट की यह टिप्पणी कि साक्षियों को बुलाना पुनर्विलोकन के समान होगा, गलत धारणा है। ट्रायल कोर्ट कानून को सही परिप्रेक्ष्य में लागू करने में विफल रहा और CrPC की धारा 311 व CrPC की धारा 233 के उपबंधों को लागू करने के दायरे और निहितार्थों में अंतर को नज़रअंदाज कर दिया। इसलिये ट्रायल कोर्ट का आदेश कानूनी खामियों से ग्रस्त है और सही नहीं है।
इसमें प्रासंगिक कानूनी प्रावधान क्या हैं?
CrPC की धारा 311:
परिचय:
- CrPC की धारा 311 महत्त्वपूर्ण साक्षी को समन करने या उपस्थित व्यक्तियों की जाँच करने की शक्ति से संबंधित है, जबकि समान उपबंधों को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 348 के तहत कवर किया गया है।
- इसमें कहा गया है कि कोई न्यायालय इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में किसी व्यक्ति को साक्षी के तौर पर समन कर सकता है या किसी ऐसे व्यक्ति की, जो हाज़िर हो, यद्यपि वह साक्षी के रूप में समन न किया गया हो, परीक्षा कर सकता है, किसी व्यक्ति को, जिसकी पहले परीक्षा की जा चुकी है, पुनः बुला सकता है और उसकी पुनः परीक्षा कर सकता है; और यदि न्यायालय को मामले के न्यायसंगत विनिश्चय के लिये किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसे व्यक्ति को समन करेगा तथा उसकी परीक्षा करेगा या उसे पुनः बुलाएगा और उसकी पुनः परीक्षा करेगा।
- CrPC की धारा 311 के उपबंधों के तहत, न्यायालय के पास कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समन करने की पूर्ण शक्ति है। इस शक्ति में किसी भी व्यक्ति को वापस बुलाना और उसकी दोबारा जाँच करना शामिल है जिसकी पहले ही जाँच की जा चुकी है।
- पक्षों के अधिकारों या शक्तियों के अनुरूप शक्ति केवल न्यायालय के पास होती है और इस शक्ति का प्रयोग तब किया जाना चाहिये, जब न्यायालय को मामले के उचित निर्णय के लिये किसी साक्षी को बुलाना/वापस बुलाना आवश्यक लगे।
निर्णयज विधि:
- नताशा सिंह बनाम CBI (2013) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 313 का उद्देश्य न केवल अभियुक्त और अभियोजन पक्ष के दृष्टिकोण से, बल्कि एक व्यवस्थित समाज के दृष्टिकोण से भी न्याय करना है।
CrPC की धारा 233:
परिचय:
- CrPC की धारा 233 को अध्याय XVIII के तहत जगह मिलती है जिसका शीर्षक 'सत्र न्यायालय के समक्ष मुकदमा' है। यह धारा प्रतिरक्षा में प्रवेश करने से संबंधित है।
- इसी उपबंध को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 256 के तहत शामिल किया गया है।
- इसमें कहा गया है कि-
(1) जहाँ अभियुक्त धारा 232 के अधीन दोषमुक्त नहीं किया जाता है वहाँ उससे अपेक्षा की जाएगी कि अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करे और कोई भी साक्ष्य जो उसके समर्थन में उसके पास हो पेश करे।
(2) यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देता है तो न्यायाधीश उसे अभिलेख में फाइल करेगा।
(3) यदि अभियुक्त किसी साक्षी को हाज़िर होने या कोई दस्तावेज़ या चीज़ पेश करने को विवश करने के लिये कोई आदेशिका जारी करने के लिये आवेदन करता है तो न्यायाधीश ऐसी आदेशिका जारी करेगा जब तक उसका ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किये जाएँगे, यह विचार न हो कि आवेदन इस आधार पर नामंज़ूर कर दिया जाना चाहिये कि वह तंग करने या विलंब करने या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से किया गया है। - यह उपबंध सेशन ट्रायल का एक अनिवार्य हिस्सा है और यह तब लागू होता है जब अभियोजन पक्ष के साक्ष्य पूरे हो जाते हैं, और अभियुक्त को अपनी प्रतिरक्षा में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता है।
पारिवारिक कानून
HMA की धारा 5(v)
25-Jan-2024
नीतू ग्रोवर बनाम भारत संघ एवं अन्य "सपिंड के रूप में एक-दूसरे से संबंधित पक्षों के बीच कोई भी विवाह तब तक संपन्न नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह उन्हें नियंत्रित करने वाली प्रथा या रीति-रिवाज़ द्वारा स्वीकृत न हो।" कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्यायमूर्ति मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने नीतू ग्रोवर बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 5 (v) की मान्यता को बरकरार रखा है।
नीतू ग्रोवर बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, याचिकाकर्त्ता और उसके दूर के चचेरे भाई श्री गगन ग्रोवर के बीच विवाह, परिवारों की आपसी सहमति से तथा नागरिक समाज के सदस्यों की उपस्थिति में धार्मिक समारोह आयोजित करके, संपन्न हुआ था।
- श्री गगन ग्रोवर HMA की धारा 5(v) के तहत एक सक्षम न्यायालय से घोषणा की मांग करके विवाह को अकृत और शून्य घोषित कराने में सफल रहे हैं।
- उन्होंने कहा कि याचिकाकर्त्ता श्री गगन ग्रोवर और उसके परिवार के सदस्यों द्वारा की गई धोखाधड़ी का शिकार हो गई है, जिन्होंने उसे उसकी विवाह की मान्यता पर विश्वास करने के लिये प्रेरित किया।
- सक्षम न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय की पीठ के समक्ष अपील दायर की जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया।
- इसके बाद, याचिकाकर्त्ता ने HMA की धारा 5 (v) को रद्द करने के लिये एक रिट याचिका दायर की।
- उच्च न्यायालय ने रिट याचिका का निपटारा कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्यायमूर्ति मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की खंडपीठ ने HMA की धारा 5 (v) की मान्यता को बरकरार रखा, जिसमें कहा गया है कि सपिंड के रूप में एक-दूसरे से संबंधित पक्षों के बीच कोई भी विवाह तब तक संपन्न नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह उन पर शासन करने वाली प्रथा या रीति-रिवाज़ द्वारा स्वीकृत न हो।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि वर्तमान रिट याचिका में HMA की धारा 5(v) को चुनौती देने का कोई आधार नहीं है।
इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?
HMA की धारा 5:
- यह धारा हिंदू विवाह की शर्तों से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि किन्हीं दो हिंदुओं के बीच विवाह संपन्न हो सकता है, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं, अर्थात्: -
(i) विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से, न तो वर की कोई जीवित पत्नी हो और न वधू का कोई जीवित पति हो।
(ii) विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से कोई पक्षकार-
(a) चित्त-विकृति के परिणामस्वरूप विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ न हो; या
(b) विधिमान्य सम्मति देने में समर्थ होने पर भी इस प्रकार के या इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित न रहा हो कि वह विवाह और संतानोत्पत्ति के लिये, अयोग्य हो; या
(c) उसे उन्मत्तता या मिर्गी का बार-बार दौरा न पड़ता हो।
(iii) विवाह के समय वर ने इक्कीस वर्ष की आयु और वधू ने अठारह वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
(iv) जब तक कि दोनों पक्षकारों में से हर एक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो, वे प्रतिषिद्ध नातेदारी डिग्रियों के भीतर न हों।
(v) जब तक कि दोनों पक्षकारों में से हर एक को शासित करने वाली रूढ़ियाँ प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो, तथा वे एक दूसरे के सपिंड न हों।
सपिंड संबंध:
- सपिंड शब्द, पिंड शब्द से आया है जिसका अर्थ मृत पूर्वजों को श्राद्ध समारोह में चढ़ाया जाने वाला चावल का गोला है।
- हिंदू विधि के अनुसार, जब दो व्यक्ति एक ही पूर्वज को पिंड अर्पित करते हैं तो इसे सपिंड संबंध कहा जाता है। ये संबंध एक-दूसरे से एक ही रक्त से जुड़े हुए होते हैं।
- HMA की धारा 3(f) सपिंड संबंध को इस प्रकार परिभाषित करती है:
(i) किसी भी व्यक्ति के संदर्भ में "सपिंड नातेदारी" माता के माध्यम से आरोहण रेखा में तीसरी पीढ़ी (समावेशी) तथा पिता के माध्यम से आरोहण रेखा में पाँचवीं पीढ़ी (समावेशी) तक फैला हुआ है, प्रत्येक मामले में संबंधित व्यक्ति से ऊपर की ओर रेखा का पता लगाया जाता है, जिसे पहली पीढ़ी के रूप में गिना जाना है।
(ii) दो व्यक्तियों को एक-दूसरे का "सपिंड" कहा जाता है यदि उनमें से एक सपिंड नातेदारी की सीमा के भीतर दूसरे का वंशज लग्न है, या यदि उनके पास एक सामान्य वंशानुगत लग्न है जो उनमें से प्रत्येक के संदर्भ में सपिंड नातेदारी की सीमाओं के भीतर है। - HMA की धारा 5(v) और 11 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति सपिंड संबंध के भीतर विवाह करता है तो ऐसा विवाह शून्य माना जाता है।