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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

रजिस्ट्री के लिये दिशा-निर्देश

 12-Feb-2024

सखावत बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 

"यह उचित होगा यदि न्यायालय की रजिस्ट्री ट्रायल कोर्ट को 'निम्न न्यायालय' के रूप में संदर्भित करना बंद कर दे।"

अभय एस. ओका और उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में अभय एस. ओका और उज्ज्वल भुइयाँ की खंडपीठ, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) पर सुनवाई कर रही थी।

सखावत बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई की।

सखावत बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि:

  • अपीलकर्त्ता को हत्या और हत्या के प्रयास का दोषी ठहराया गया, हालाँकि बाद में उसे ज़मानत पर रिहा कर दिया गया।
  • उसकी अपील पर सुनवाई करते हुए, उच्च न्यायालय ने अभियोजन पक्ष के मामले में अपील को खारिज़ करने के लिये पर्याप्त पाया और अपीलकर्त्ता की ज़मानत रद्द कर दी।
  • इसलिये अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की।
  • उच्चतम न्यायालय ने रजिस्ट्री के माध्यम से ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड की सॉफ्ट कॉपी की मांग की।
  • उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि इसकी सॉफ्ट कॉपी पक्षकारों की ओर से पेश होने वाले वकील को मुहैया कराई जाए।

न्यायालय के निर्देश:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ताओं की ओर से पेश हुए अधिवक्ता अभियोजन पक्षकार  के गवाहों के सभी बयानों और अन्य प्रासंगिक दस्तावेज़ों के मुद्रित संस्करण को रिकॉर्ड पर रखेंगे।
  • न्यायालय ने कहा कि यह उचित होगा, यदि न्यायालय की रजिस्ट्री ट्रायल कोर्ट को 'निम्न न्यायालय' के रूप में संदर्भित करना बंद कर दे।
    • यहाँ तक कि ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को भी लोअर कोर्ट रिकॉर्ड (LCR) नहीं कहा जाना चाहिये। इसके बजाय, इसे ट्रायल कोर्ट रिकॉर्ड (TCR) के रूप में संदर्भित किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने रजिस्ट्रार (न्यायिक) को इस आदेश पर ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश दिया कि इसकी एक प्रति उन्हें मुहैया कराई जाए।

भारत में आपराधिक न्यायालयों का पदानुक्रम

  • भारत का उच्चतम न्यायालय:
    • उच्चतम न्यायालय वस्तुतः दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के तहत उल्लिखित आपराधिक न्यायालयों के पदानुक्रम के अंतर्गत नहीं आता है, हालाँकि, धारा 2 (e) (iii) के तहत अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख किया गया है कि उच्चतम न्यायालय आपराधिक अपील का सर्वोच्च न्यायालय है।
    • CrPC की धारा 374 व 379 के तहत उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है।
    • इसका उच्च न्यायालयों पर अपीलीय क्षेत्राधिकार है और यह आपराधिक मामलों में उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील की सुनवाई कर सकता है।
  • उच्च न्यायालय:
    • उच्च न्यायालय को CrPC की धारा 2 (e) के तहत परिभाषित किया गया है।
    • CrPC की धारा 6 के तहत आपराधिक न्यायालयों की श्रेणियों में उच्च न्यायालय का भी उल्लेख है।
    • उच्च न्यायालयों के पास अपने संबंधित राज्यों के भीतर अधीनस्थ न्यायालयों पर मूल और अपीलीय क्षेत्राधिकार हैं।
    • वे अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील की सुनवाई कर सकते हैं।
    • उच्च न्यायालयों के पास अपने क्षेत्रीय अधिकार के भीतर कार्यरत सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर अधीक्षण का अधिकार भी है।
  • सत्र न्यायालय:
    • CrPC की धारा 9 के तहत प्रत्येक ज़िले या ज़िलों के समूह में सत्र न्यायालय स्थापित किये जाते हैं।
    • CrPC की धारा 28(2) के तहत, एक सत्र न्यायाधीश विधि द्वारा अधिकृत कोई भी सज़ा सुना सकता है; लेकिन ऐसे किसी भी न्यायाधीश द्वारा दी गई मृत्यु की कोई भी सज़ा उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि के अधीन होगी।
  • अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/सहायक सत्र न्यायाधीश:
    • अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश और सहायक सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति CrPC की धारा 9(3) के तहत उच्च न्यायालय द्वारा की जाती है।
    • वे सत्र न्यायाधीश को उसके कर्त्तव्यों के निर्वहन में सहायता करते हैं।
    • अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के पास सत्र न्यायाधीश के समान ही शक्तियाँ होती हैं।
    • CrPC की धारा 28 (3) के तहत, एक सहायक सत्र न्यायाधीश मृत्यु की सज़ा या आजीवन कारावास या दस वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास को छोड़कर विधि द्वारा अधिकृत कोई भी सज़ा सुना सकता है।
  • मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM)/मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (CMM):
    • ये मजिस्ट्रेट प्रत्येक ज़िले या महानगरीय क्षेत्रों में नियुक्त किये जाते हैं।
    • CrPC की धारा 29 (1) के तहत, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय मृत्यु की सज़ा या आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास को छोड़कर विधि द्वारा अधिकृत कोई भी सज़ा सुना सकता है।
    • CrPC की धारा 29 (4) में कहा गया है कि, मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के न्यायालय के पास मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समान शक्तियाँ होंगी।
  • प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट/मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट:
    • ये मजिस्ट्रेट प्रत्येक ज़िले या महानगरीय क्षेत्र के लिये भी नियुक्त किये जाते हैं।
    • CrPC की धारा 29 (1) के तहत वे तीन वर्ष तक की कैद की सज़ा पाने वाले अपराधों के साथ-साथ कम गंभीर प्रकृति के अन्य मामलों से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हैं।
    • CrPC की धारा 29 (4) में कहा गया है कि मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के न्यायालय के पास JMFC के न्यायालय के समान शक्तियाँ होंगी।
  • द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट:
    • ये मजिस्ट्रेट किसी ज़िले के विशिष्ट क्षेत्रों के लिये नियुक्त किये जाते हैं।
    • CrPC की धारा 29 (3) के तहत द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट के न्यायालय एक वर्ष से अधिक का कारावास या पाँच हज़ार रुपए से अधिक का ज़ुर्माना या दोनों की सज़ा सुना सकता है।

आपराधिक कानून

CrPC की धारा 202

 12-Feb-2024

बंसीलाल एस. काबरा बनाम ग्लोबल ट्रेड फाइनेंस लिमिटेड और अन्य 

“दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के प्रावधानों के अनुसार, अधिकार क्षेत्र से बाहर के किसी आरोपी को बुलाने से पहले मजिस्ट्रेट को केवल निजी शिकायत में लगाए गए आरोपों पर भरोसा नहीं करना चाहिये।” 

मुख्य न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति भारती डांगरे तथा आरिफ डॉक्टर

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में बंसीलाल एस. काबरा बनाम ग्लोबल ट्रेड फाइनेंस लिमिटेड और अन्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना है कि जब कोई मजिस्ट्रेट दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 202 के प्रावधानों के तहत एक अनिवार्य जाँच कर रहा है, तो अधिकार क्षेत्र से बाहर के किसी आरोपी को बुलाने से पूर्व मजिस्ट्रेट को केवल निजी शिकायत से संबंधित आरोपों पर विश्वास नहीं करना चाहिये।  

बंसीलाल एस. काबरा बनाम ग्लोबल ट्रेड फाइनेंस लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • इस मामले में मुख्य न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति भारती डांगरे तथा आरिफ डॉक्टर सुनवाई कर रहे थे कि क्या न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर के किसी आरोपी को बुलाने से पूर्व CrPC की धारा 202 (1) के तहत जाँच अनिवार्य है, खासकर जब आरोपी दूसरे शहर या राज्य में निवास कर रहा हो।
  • न्यायालय ने एक पुराने संदर्भ का हवाला देते हुए यह आदेश पारित किया क्योंकि 2009 और 2010 में बॉम्बे उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीशों द्वारा अलग-अलग विचार रखे गए थे। 

न्यायालय की टिप्पणी:  

  • मुख्य न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार उपाध्याय न्यायमूर्ति भारती डांगरे और न्यायमूर्ति आरिफ डॉक्टर की पीठ ने कहा कि जब कोई मजिस्ट्रेट न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर के किसी आरोपी को बुलाने से पहले CrPC की धारा 202(1) के तहत अनिवार्य जाँच कर रहा है, तो मजिस्ट्रेट को ' केवल निजी शिकायत के आरोपों पर विश्वास नहीं करना चाहिये क्योंकि इसका उपयोग प्रतिशोध के साधन के रूप में किया जा सकता है।
  • यह माना गया कि मजिस्ट्रेट को शपथ पर शिकायतकर्ता या गवाह के बयान और दस्तावेज़ी सबूत दर्ज करने के बाद गहन जाँच करनी चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आरोपी के खिलाफ प्रक्रिया जारी करने के लिये पर्याप्त आधार हैं या नहीं।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि न्याय की पुष्टि के साथ समाज में कानून तथा व्यवस्था बनाए रखना, आपराधिक विधि का प्राथमिक उद्देश्य होने के नाते, इसके दायरे में व्यक्तिगत प्रतिशोध को शामिल नहीं होने देना चाहिये। 

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 200:  

परिचय:

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) की धारा 200 याचिकाकर्त्ता की जाँच से संबंधित है। यह कहती है कि -
  • किसी की शिकायत पर किसी अपराध का संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट शपथ पर शिकायतकर्त्ता और उपस्थित गवाहों, यदि कोई हो, की जाँच करेगा तथा ऐसी परीक्षा का सार लिखित रूप में लिखा जाएगा और शिकायतकर्त्ता व गवाहों तथा मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा।
  • बशर्ते कि, जब शिकायत लिखित रूप में की जाती है, तो मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्त्ता और गवाहों की जाँच करने की आवश्यकता नहीं है-  
    (a)  यदि किसी लोक सेवक ने अपने आधिकारिक कर्त्तव्यों या न्यायालय के निर्वहन में कार्य करने के दौरान या कार्य करने का इरादा रखते हुए शिकायत की है; या  
    (b) यदि मजिस्ट्रेट धारा 192 के तहत मामले को जाँच या सुनवाई के लिये किसी अन्य मज़िस्ट्रेट को सौंप देता है। 
  • परंतु यह और कि यदि मजिस्ट्रेट परिवादी या साक्षियों की परीक्षा करने के पश्चात मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट के हवाले करता है तो बाद वाले मजिस्ट्रेट के लिये उनकी फिर से परीक्षा करना आवश्यक न होगा।

उद्देश्य:  

  • मजिस्ट्रेट को शिकायत में लगाए गए आरोपों की सावधानीपूर्वक जाँच करने में सक्षम बनाना ताकि उसमें आरोपी के रूप में नामित व्यक्ति को अनावश्यक शिकायत का सामना करने से रोका जा सके।
  • यह पता लगाने के लिये कि क्या शिकायत में आरोपों का समर्थन करने के लिये कोई तथ्य मौजूद है।

निर्णयज विधि:  

  • मोहिंदर सिंह बनाम गुलवंत सिंह (1992) मामले  में उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 202 के तहत जाँच का दायरा केवल शिकायत में लगाए गए आरोपों की सच्चाई या अन्यथा का पता लगाने तक ही सीमित है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि इस संहिता की धारा 204 के तहत यह प्रक्रिया जारी रखनी चाहिये अथवा नहीं या धारा 203 का सहारा लेकर इस आधार पर इसे खारिज़ कर दिया जाना चाहिये कि शिकायतकर्ता एवं उसके गवाहों के बयानों, यदि कोई हो, के आधार पर इसे आगे बढ़ने के लिये कोई पर्याप्त आधार नहीं है।

सांविधानिक विधि

भारत के संविधान का अनुच्छेद 25

 12-Feb-2024

एस गुरुमूर्ति बनाम राज्य

"अंतिम संस्कार में शामिल होने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत में आता है।-"जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय

चर्चा  में क्यों?

हाल ही में, एस. गुरुमूर्ति बनाम राज्य के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने माना है कि अंतिम संस्कार में शामिल होने का अधिकार भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 25 के दायरे के तहत आता है।

एस. गुरुमूर्ति बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता को स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 के प्रावधानों के तहत अपराध के लिये 13 जून, 2023 को गिरफ्तार किया गया तथा न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।
  • याचिकाकर्त्ता के पिता का 10 फरवरी, 2024 को निधन हो गया
  • अंतिम संस्कार में भाग लेने के इच्छुक याचिकाकर्त्ता ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष अंतरिम ज़मानत के लिये आवेदन किया
  • उच्च न्यायालय अंतरिम ज़मानत के पक्ष में नहीं था, हालाँकि, न्यायालय याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकारों के प्रति भी जागरूक थी।
  • उच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि एक मृत व्यक्ति को भी सम्मानजनक अंत्येष्टि का अधिकार है, जिसमें परिवार के करीबी सदस्यों की भागीदारी होनी चाहिये।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने केंद्रीय कारागार, मदुरै के अधीक्षक को याचिकाकर्त्ता को उसके पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति देने के लिये उचित व्यवस्था सुनिश्चित करने का निर्देश दिया

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति जी.आर. स्वामीनाथन ने कहा कि विचाराधीन कैदियों सहित कैदी भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत इस अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं। माता-पिता/पति/पत्नी/बच्चे के अंतिम संस्कार  में भाग लेने का अधिकार अनुच्छेद 25 के तहत अधिकार के दायरे में आएगा। हालाँकि, यह पूर्ण अधिकार नहीं हो सकता है। न्यायालय मौजूदा स्थिति के अधीन इस अधिकार को बरकरार रखेगा।
  • अतः यह माना गया कि अनुच्छेद 25 को किसी भी व्यक्ति द्वारा लागू किया जा सकता है और यह स्वतंत्र व्यक्तियों तथा कैदियों के बीच कोई अंतर नहीं करता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि हिंदू होने के कारण कैदी को कुछ धार्मिक दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता है। इस मामले में ऐसी कोई विशेष परिस्थिति नहीं है, कि इनके अधिकारों से इनकार किया जाए।

COI का अनुच्छेद 25 क्या है? 

परिचय:  

यह अंतःकरण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण एवं प्रचार करने की स्वतंत्रता से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि- 

(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्नय तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने का समान अधिकार होगा। 

(2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो– 

(a) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है; 

(b) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये या हिंदुओं की सार्वजनिक धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिये खोलने का उपबंध करती है। 

स्पष्टीकरण 1–कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा। 

स्पष्टीकरण 2–खंड (2) के उपखंड (ख) में हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तद्नुसार लगाया जाएगा।

इसमें न केवल धार्मिक मान्यताएँ बल्कि धार्मिक प्रथाएँ भी शामिल हैं।

ये अधिकार सभी व्यक्तियों के लिये उपलब्ध हैं - नागरिकों के साथ-साथ गैर-नागरिकों के लिये भी। 

निर्णयज विधि :

  • श्री शिरूर मठ के कॉमरेड एच.आर.ई. बनाम श्री एल.टी. स्वामीर (1954) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि COI का अनुच्छेद 25 प्रत्येक व्यक्ति को न केवल ऐसे धार्मिक विश्वास का पालन करने की स्वतंत्रता देता है, जिसे उसके निर्णय एवं विवेक द्वारा अनुमोदित किया जा सकता है, बल्कि ऐसे बाहरी कार्यों में अपना विश्वास प्रदर्शित करने के लिये भी, जिन्हें वह उचित समझता है तथा दूसरों की उन्नति के लिये अपने विचारों का प्रचार या प्रसार करता है और स्वतंत्रता प्रदान करता है।