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आपराधिक कानून
भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत विशेषज्ञ
23-Feb-2024
राम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य "यदि प्रत्यक्षदर्शियों सहित प्रस्तुत किये गए साक्ष्य आत्मविश्वास को प्रेरित नहीं करते हैं तो बैलिस्टिक राय लेने और बैलिस्टिक विशेषज्ञ की जाँच में चूक अभियोजन मामले के लिये घातक हो सकती है।" न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि "यदि प्रत्यक्षदर्शियों सहित प्रस्तुत किये गए साक्ष्य आत्मविश्वास को प्रेरित नहीं करते हैं तो बैलिस्टिक राय लेने और बैलिस्टिक विशेषज्ञ की जाँच में चूक अभियोजन मामले के लिये घातक हो सकती है"।
- उपर्युक्त टिप्पणी राम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में की गई थी।
राम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 19 अगस्त, 1982 को आधी रात को, श्री राधे लाल ने उत्तर प्रदेश के कानपुर के भोगनीपुर पुलिस स्टेशन में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई।
- उसने बताया कि वह और उसका भाई देशराज अपनी माँ दुल्ली और पड़ोसियों लाला राम, अभियोजन गवाह (PW-3) और मान सिंह (PW-2) के साथ बाहर लालटेन के नीचे बातें कर रहे थे।
- राम सिंह और लाला राम आए; राम सिंह ने उपद्रव का आरोप लगाते हुए लाला राम की शह पर पिस्तौल तान दी।
- राम सिंह ने गोली चला दी, जिससे दुल्ली के बाएँ सीने में गंभीर चोट लग गई।
- प्रत्यक्षदर्शियों में देश राज, लाला राम और मान सिंह शामिल थे।
- यह घटना राधे लाल के बेटे और एक ही राजनीतिक दल से जुड़े राम सिंह के बीच पूर्व विवाद के बाद हुई।
- राम सिंह पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के तहत हत्या का आरोप लगाया गया था, जबकि लाला राम पर IPC के तहत हत्या के प्रयास का आरोप लगाया गया था।
- राम सिंह को आरोपी के रूप में दोषी ठहराया गया, जबकि लाला राम को अपर्याप्त साक्ष्यों के कारण बरी कर दिया गया।
- उच्च न्यायालय ने राम सिंह की दोषसिद्धि और सज़ा को बरकरार रखा।
- इसलिये, उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
- अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही में महत्त्वपूर्ण विरोधाभास थे, जिससे पता चलता है कि वे राजनीति से प्रेरित थे और सच्चे प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे।
- इसके अलावा, महत्त्वपूर्ण गवाहों से पूछताछ नहीं की गई और कथित देशी पिस्तौल कभी बरामद नहीं की गई।
- घटनास्थल पर और पीड़ित के शरीर में पाए गए छर्रों की बैलिस्टिक जाँच नहीं की गई, जिससे दोषसिद्धि कम हो गई।
- अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने उसी साक्ष्य के आधार पर सह-अभियुक्त को बरी करते हुए अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराने में गलती की थी।
- उसने तर्क दिया कि इस असंगतता के कारण अपीलकर्त्ता को बरी कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कुल मिलाकर, अभियोजन पक्ष की ओर से दिये गए साक्ष्य को पूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता है, इसलिये अपराध के हथियार की बरामदगी न होना, बैलिस्टिक राय प्राप्त न करना और बैलिस्टिक विशेषज्ञ की जाँच न होना महत्त्वहीन होगा।
- इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने अपील की अनुमति दी।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत विशेषज्ञ कौन है?
- धारा 45: किसी विशेषज्ञ की राय:
- धारा 45 किसी विशेषज्ञ की राय को साक्ष्य के रूप में मानने की अनुमति देती है।
- जब कि न्यायालय की विदेशी विधि की या विज्ञान की या कला की किसी बात पर या हस्तलेख या अँगुली चिह्नों की अनन्यता के बारे में राय बनानी हो तब उस बात पर ऐसी विदेशी विधि, विज्ञान या कला में गया हस्तलेख या अँगुली चिह्नों की अनन्यता विषयक प्रश्नों में, विशेष कुशल व्यक्तियों की रायें सुसंगत तथ्य हैं।
- धारा 46: विशेषज्ञों की राय से संबंधित तथ्य:
- धारा 46 में कहा गया है कि वे तथ्य, जो अन्यथा सुसंगत नहीं हैं, सुंसगत होते हैं यदि वे विशेषज्ञों की रायों का समर्थन करते हों या उनसे असंगत हों जब कि ऐसी रायें सुसंगत हों।
- धारा 47: हस्तलेख के बारे में राय कब सुसंगत है:
- धारा 47 किसी व्यक्ति के हस्तलेख के संबंध में विशेषज्ञों की राय से संबंधित है।
- जबकि न्यायालय को राय बनानी हो कि कोई दस्तावेज़ किस व्यक्ति ने लिखी या हस्ताक्षरित की थी, तब उस व्यक्ति के हस्तलेख से, जिसके द्वारा वह लिखी या हस्ताक्षरित की गई अनुमानित की जाती है, परिचित किसी व्यक्ति की यह राय कि वह उस व्यक्ति द्वारा लिखी या हस्ताक्षरित की गई थी अथवा लिखी या हस्ताक्षरित नहीं की गई थी, सुसंगत तथ्य है।
- धारा 47A: इलैक्ट्रानिक चिह्नक के संबंध में राय:
- धारा 47A इलैक्ट्रानिक चिह्नक के संबंध में एक विशेषज्ञ की राय प्रदान करती है।
- जब कि न्यायालय को किसी व्यक्ति के इलैक्ट्रानिक चिह्नक के बारे में राय बनानी हो तब उस प्रमाणकर्त्ता प्राधिकारी की राय, जिसने इलैक्ट्रानिक चिह्नक प्रमाणपत्र जारी किया है, सुसंगत तथ्य है।
- धारा 48: अधिकार या रूढ़ि के अस्तित्व के बारे में रायें कब सुसंगत हैं:
- धारा 48 में कहा गया है कि जबकि न्यायालय को किसी साधारण रूढ़ि या अधिकार के अस्तित्व के बारे में राय बनानी हो, तब ऐसी रूढ़ि या अधिकार के अस्तित्व के बारे में उन व्यक्तियों की रायें सुसंगत हैं, जो यदि उसका अस्तित्व होता तो संभाव्यतः उसे जानते होते।
- धारा 49: प्रथाओं, सिद्धांतों आदि के बारे में रायें कब सुसंगत हैं:
- धारा 49 प्रासंगिक होने पर प्रथाओं, सिद्धांतों आदि के बारे में राय से संबंधित है।
- जबकि न्यायालय को मनुष्यों के किसी निकाय या कुटुंब की प्रथाओं या सिद्धांतों के, किसी धार्मिक या खैराती प्रतिष्ठान के संविधान और शासन के, अथवा विशिष्ट ज़िले में या विशिष्ट वर्गों के लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले शब्दों या पदों के अर्थों के बारे में सुनिश्चित करनी हो, तब उनके संबंध में ज्ञान के विशेष साधन रखने वाले व्यक्तियों की रायें सुसंगत तथ्य हैं।
- धारा 50: नातेदारी के बारे में राय कब सुसंगत है:
- जबकि, न्यायालय को एक व्यक्ति की किसी अन्य के साथ नातेदारी के बारे में राय बनानी हो, तब ऐसी नातेदारी के अस्तित्व के बारे में ऐसे किसी व्यक्ति के आचरण द्वारा अभिव्यक्त राय, जिसके पास कुटुंब के सदस्य के रूप में या अन्यथा उस विषय के संबंध में ज्ञान के विशेष साधन हैं, सुसंगत तथ्य है:
- परंतु भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 के अधीन कार्यवाहियों में या भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494, 495, 497 या 498 के अधीन अभियोजनों में ऐसी राय विवाह साबित करने के लिये पर्याप्त नहीं होगी।
- धारा 51: राय के आधार कब सुसंगत हैं:
- धारा 51 उन आधारों को निर्दिष्ट करती है जिन पर किसी विशेषज्ञ की राय सुसंगत मानी जाती है।
- जब कभी किसी जीवित व्यक्ति की राय सुसंगत है, तब वे आधार भी, जिन पर वह आधारित है, सुसंगत हैं।
पारिवारिक कानून
हिंदू विवाह अधिनियम के तहत पति पर क्रूरता
23-Feb-2024
X बनाम Y "इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक युगल के बीच नियमित झगड़े हो सकते हैं जो विवाहित जीवन की सामान्य उतार-चढ़ाव हैं, लेकिन निश्चित रूप से इसमें एक सिमित दायरा होता है जिसका ध्यान रखा जाना चाहिये।" न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा की पीठ ने कहा कि "इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक युगल के बीच नियमित झगड़े हो सकते हैं जो एक विवाहित जीवन की सामान्य तार-चढ़ाव हैं, लेकिन निश्चित रूप से इसमें एक सिमित दायरा होता है जिसका ध्यान रखा जाना चाहिये।”
- उपर्युक्त टिप्पणी X बनाम Y के मामले में की गई थी।
X बनाम Y मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- पत्नी ने आरोप लगाया कि उसके पति के साथ उसका विवाह आर्य समाज के तहत तब हुआ था, जब वे अवयस्क थे।
- पत्नी ने आगे आरोप लगाया कि विवाह में उसके पति के परिवार का बहुत हस्तक्षेप था।
- उस विवाह से उनका एक बेटा भी था।
- वहीं, दोनों पति-पत्नी वर्ष 2004 से अलग-अलग रह रहे हैं।
- पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के तहत पत्नी द्वारा उसपर की गई क्रूरता के आधार पर शिकायत दर्ज की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि "भले ही अपीलकर्त्ता द्वारा बताई गई घटनाएँ अलग से देखने पर प्रतिवादी को फँसाती नहीं हैं, लेकिन पूरी तरह से उसके गैर-समायोजन रवैये को प्रदर्शित करती हैं, जिसके कारण अपीलकर्त्ता को सार्वजनिक अपमान झेलना पड़ा और इस तरह मानसिक क्रूरता का सामना करना पड़ा।"
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत पति पर क्रूरता क्या है?
परिचय:
- HMA की धारा 13(1)(i-a) क्रूरता को विवाह-विच्छेद मांगने का आधार मानती है।
- क्रूरता में, जैसा कि अधिनियम में परिभाषित है, में शारीरिक और मानसिक क्रूरता दोनों शामिल हैं।
- कोई भी पक्ष, चाहे पति हो या पत्नी, HMA की धारा 13(1)(i-a) के तहत विवाह-विच्छेद की मांग कर सकता है।
ऐतिहासिक मामले:
- दास्ताने बनाम दास्ताने (1975):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पत्नी का कृत्य पति के साथ मानसिक क्रूरता है, हालाँकि, युगल के बीच जारी यौन संबंधों के कारण विवाह-विच्छेद नहीं दिया गया।
- मायादेवी बनाम जगदीश प्रसाद (2007):
- इस मामले में वर्ष 1993 में विवाहित एक पत्नी शामिल थी, जिस पर अपने पति से लगातार पैसे की मांग करने तथा बच्चों को धमकी देने और क्रूरता करने का आरोप लगाया गया था।
- उसने कथित तौर पर दुर्व्यवहार किया, धमकाया और अंततः तीन बच्चों की मृत्यु का कारण बनी।
- आपराधिक अपील लंबित होने के बावजूद, न्यायालय ने उसे मानसिक और शारीरिक क्रूरता के लिये दोषी पाया, और पति को विवाह-विच्छेद की डिक्री प्रदान की।
- विश्वनाथ बनाम सौ. सरला विश्वनाथ अग्रवाल (2012)
- अपीलकर्त्ता और प्रतिवादी (पत्नी) ने अप्रैल, 1979 में विवाह किया।
- अपीलकर्त्ता ने असहनीय मतभेदों और मानसिक क्रूरता का हवाला देते हुए विवाह-विच्छेद के लिये दायर किया, जिसमें प्रतिवादी पर परिवार के प्रति अपमानजनक व्यवहार और अपीलकर्त्ता की माँ के स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता का आरोप लगाया गया।
- पत्नी ने समाचार-पत्रों में सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया कि उसका पति व्यभिचारी और शराबी दोनों लतों से ग्रस्त था।
- साथ ही, उसने उसके विरुद्ध झूठे आरोप भी गढ़े।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता (पति) के पक्ष में विवाह-विच्छेद की मंजूरी दी।