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आपराधिक कानून
अति रिक्त दस्तावेज़ी साक्ष्य
19-Mar-2024
बिनोद कुमार मिश्रा बनाम झारखंड राज्य निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये साक्ष्य के निष्कर्ष के बाद दस्तावेज़ी साक्ष्य भी पेश किये जा सकते हैं ताकि मामले का न्यायोचित निर्णय हो सके। न्यायमूर्ति सुभाष चंद |
स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, झारखंड उच्च न्यायालय ने बिनोद कुमार मिश्रा बनाम झारखंड राज्य के मामले में माना है कि निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये साक्ष्य के निष्कर्ष के बाद दस्तावेज़ी साक्ष्य भी पेश किये जा सकते हैं, ताकि मामले में उचित निर्णय दिया जा सके।
बिनोद कुमार मिश्रा बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने अभियुक्त के विरुद्ध दवा का व्यवसाय स्थापित करने के लिये जारी किये गए चेक के अनादरण की शिकायत दर्ज कराई है।
- शिकायत मामले में शिकायतकर्त्ता की गवाही पूरी की गई और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के तहत अभियुक्त का बयान दर्ज किया गया।
- अभियुक्त ने प्रतिरक्षा साक्ष्य में स्वयं का परीक्षण किया जिसमें अभियुक्त द्वारा यह तथ्य दर्शाया गया कि उसकी बहन का विवाह हैदराबाद में रद्द हो गया था।
- इसके संबंध में उसने अक्तूबर, 2015 में याचिकाकर्त्ता को अवगत कराया और उक्त चेक उससे वापस मांगा गया तथा याचिकाकर्त्ता ने कहा कि वही चेक उसके कार्यालय में रखा हुआ था।
- बार-बार मांगने पर भी उक्त चेक वापस नहीं किया गया।
- इस तथ्य का खंडन करने के लिये, जिसे अभियुक्त ने साक्ष्य में दर्शाया था, याचिकाकर्त्ता ने FIR की प्रति संलग्न करने के लिये अवर न्यायालय के समक्ष आवेदन दायर किया।
- उक्त आवेदन के विरुद्ध अभियुक्त की ओर से आपत्ति दाखिल की गई।
- ट्रायल कोर्ट ने दस्तावेज़ पेश करने के लिये CrPC की धारा 311 के तहत दायर आवेदन को खारिज़ कर दिया।
- ट्रायल कोर्ट के आदेश से व्यथित होकर, झारखंड उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक पुनरीक्षण दायर किया गया है, जिसे बाद में उच्च न्यायालय ने अनुमति दे दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति सुभाष चंद ने कहा कि CrPC की धारा 311 का उद्देश्य निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करना है जो भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 में भी निहित है। भले ही CrPC की धारा 311 में दस्तावेज़ी साक्ष्य जोड़ने के संबंध में कोई विशेष प्रावधान नहीं है, लेकिन CrPC की धारा 91 और 311 को पढ़ते हुए, निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये साक्ष्य के निष्कर्ष के बाद भी दस्तावेज़ी साक्ष्य भी पेश किया जा सकते हैं ताकि मुकदमे का न्यायोचित निर्णय हो सके।
- आगे यह माना गया कि संबंधित ट्रायल कोर्ट ने आक्षेपित आदेश पारित करके याचिकाकर्त्ता के आवेदन को एकमात्र आधार पर खारिज़ कर दिया है कि शिकायत को उसके साक्ष्य के समापन के बाद प्रतिरक्षा में दिये गए साक्ष्यों का खंडन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, वहीं उस निष्कर्ष को अनुचित पाया गया है और उसी आदेश में हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
CrPC की धारा 311:
परिचय:
- CrPC की धारा 311 महत्त्वपूर्ण साक्षी को समन करने या उपस्थित व्यक्तियों की जाँच करने की शक्ति से संबंधित है, जबकि समान उपबंधों को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 348 के तहत कवर किया गया है।
- इसमें कहा गया है कि कोई न्यायालय इस संहिता के अधीन किसी जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में किसी व्यक्ति को साक्षी के तौर पर समन कर सकता है या किसी ऐसे व्यक्ति की, जो हाज़िर हो, यद्यपि वह साक्षी के रूप में समन न किया गया हो, परीक्षा कर सकता है, किसी व्यक्ति को, जिसकी पहले परीक्षा की जा चुकी है, पुनः बुला सकता है और उसकी पुनः परीक्षा कर सकता है; और यदि न्यायालय को मामले के न्यायसंगत विनिश्चय के लिये किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसे व्यक्ति को समन करेगा तथा उसकी परीक्षा करेगा या उसे पुनः बुलाएगा और उसकी पुनः परीक्षा करेगा।
- CrPC की धारा 311 के उपबंधों के तहत, न्यायालय के पास कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समन करने की पूर्ण शक्ति है। इस शक्ति में किसी भी व्यक्ति को वापस बुलाना और उसकी दोबारा जाँच करना शामिल है, जिसकी पहले ही जाँच की जा चुकी है।
- पक्षकारों के अधिकारों या शक्तियों के अनुरूप शक्ति केवल न्यायालय के पास होती है और इस शक्ति का प्रयोग तब किया जाना चाहिये, जब न्यायालय को मामले के उचित निर्णय के लिये किसी साक्षी को बुलाना/वापस बुलाना आवश्यक लगे।
उद्देश्य:
- हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य (2008) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने CrPC की धारा 311 के उद्देश्य पर प्रकाश डाला, जो इस प्रकार हैं:
- यह अभियुक्तों एवं अभियोजन पक्ष को अपना मामला प्रस्तुत करने और न्याय प्राप्त करने का अवसर प्रदान करती है।
- इसका उद्देश्य न्याय की विफलता की किसी भी गुंज़ाइश को कम करना है।
निर्णयज विधि:
- नताशा सिंह बनाम CBI (2013) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 313 का उद्देश्य न केवल अभियुक्त और अभियोजन पक्ष के दृष्टिकोण से, बल्कि एक व्यवस्थित समाज के दृष्टिकोण से भी न्याय करना है।
CrPC की धारा 91:
यह धारा दस्तावेज़ों या अन्य चीज़ों को प्रस्तुत करने के लिये समन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
(1) जब कभी कोई न्यायालय या पुलिस थाने का कोई भारसाधक अधिकारी यह समझता है कि किसी ऐसे अन्वेषण, जाँच, विचारण, या अन्य कार्यवाही के प्रयोजनों के लिये, जो इस संहिता के अधीन ऐसे न्यायालय या अधिकारी के द्वारा या समक्ष हो रही हैं, किसी दस्तावेज़ या अन्य चीज़ का पेश किया जाना आवश्यक या वांछनीय है तो जिस व्यक्ति के कब्ज़े या शक्ति में ऐसी दस्तावेज़ या चीज़ के होने का विश्वास है उसके नाम ऐसा न्यायालय एक समन या ऐसा अधिकारी एक लिखित आदेश उससे यह अपेक्षा करते हुए जारी कर सकता है कि उस समन या आदेश में उल्लिखित समय और स्थान पर उसे पेश करे अथवा हाज़िर हो तथा उसे पेश करे।
(2) यदि कोई व्यक्ति, जिससे इस धारा के अधीन दस्तावेज़ या अन्य चीज़ पेश करने की ही अपेक्षा की गई है उसे पेश करने के लिये स्वयं हाज़िर होने के बजाय उस दस्तावेज़ या चीज़ को पेश करवा दे तो यह समझा जाएगा कि उसने उस अपेक्षा का अनुपालन कर दिया है।
(3) इस धारा की कोई बात-
(a) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 123 और 124 या बैंककार बही साक्ष्य अधिनियम, 1891 पर प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी; अथवा
(b) डाक या तार प्राधिकारी की अभिरक्षा में किसी पत्र, पोस्टकार्ड, तार या अन्य दस्तावेज़ या किसी पार्सल या चीज़ को लागू होने वाली नहीं समझी जाएगी।
आपराधिक कानून
मानसिक क्रूरता
19-Mar-2024
"कम दहेज के लिये किसी विवाहित महिला को अपने माता-पिता के घर में रहने के लिये मजबूर करना, मानसिक क्रूरता होगी और यह एक निरंतर अपराध होगा।" न्यायमूर्ति गुरपाल सिंह अहलूवालिया |
स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना है कि कम दहेज के लिये किसी विवाहित महिला को अपने माता-पिता के घर में रहने के लिये मजबूर करना मानसिक क्रूरता होगी, और यह एक निरंतर अपराध होगा।
मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, शिकायतकर्त्ता (पत्नी) ने दिसंबर, 2021 में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498A और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 व 4 के तहत इस आरोप पर FIR दर्ज की कि उसका विवाह आवेदक (पति) के साथ वर्ष 2017 में हुआ था।
- उसके, उसके पति के साथ संबंध लगभग एक महीने तक अच्छे रहे, और उसके बाद उसके पति, सास व नातेदारों ने उसे कम दहेज लाने के लिये शारीरिक एवं मानसिक क्रूरता यातनाएँ दीं।
- कथित तौर पर उसका पति और सास अतिरिक्त 10 लाख रुपए की मांग करके उससे मारपीट करते थे।
- इसके बाद, आवेदक द्वारा FIR को रद्द करने के लिये मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया गया था।
- न्यायालय द्वारा अर्ज़ी खारिज़ कर दी गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति गुरपाल सिंह अहलूवालिया की एकल-न्यायाधीश पीठ ने कहा कि यह सत्य है, कि अलगाव के बाद कोई शारीरिक क्रूरता नहीं हो सकती है, लेकिन IPC की धारा 498A के तहत क्रूरता मानसिक या शारीरिक हो सकती है। यदि किसी महिला को उसके वैवाहिक घर से निकाल दिया गया है, तो निश्चित रूप से इसका उसके मस्तिष्क पर मानसिक क्रूरता जैसा ही प्रभाव पड़ेगा, फिर यह एक निरंतर अपराध बन जाएगा और हर दिन कार्रवाई का एक नया कारण देगा।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
IPC की धारा 498A:
परिचय:
- धारा 498A विवाहित महिलाओं को पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता का शिकार होने से बचाने के लिये वर्ष 1983 में पेश की गई थी।
- इसमें कहा गया है कि जो कोई, स्त्री का पति या पति का रिश्तेदार होते हुए, ऐसी स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
- इस धारा के प्रयोजन के लिये, "क्रूरता" का अर्थ है-
- जानबूझकर किया गया कोई आचरण, जो ऐसी प्रकृति का है जिससे किसी स्त्री को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने की या उस स्त्री के जीवन, अंग या स्वास्थ्य की (जो चाहे मानसिक हो या शारीरिक) गंभीर क्षति या खतरा कारित करने के लिये उसे करने की संभावना है; या
- किसी स्त्री को तंग करना, जहाँ उसे या उससे संबंधित किसी व्यक्ति को किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति के लिये किसी विधिविरुद्ध मांग को पूरी करने के लिये प्रपीड़ित करने की दृष्टि से या उसके अथवा उससे संबंधित किसी व्यक्ति को ऐसे मांग पूरी करने में असफल रहने के कारण इस प्रकार तंग किया जा रहा है।
- इस धारा के तहत अपराध संज्ञेय और गैर ज़मानती अपराध होता है।
- धारा 498-A के तहत शिकायत अपराध से पीड़ित महिला या उसके रक्त, विवाह या दत्तक ग्रहण संबंधित किसी भी व्यक्ति द्वारा दर्ज की जा सकती है। और यदि ऐसा कोई रिश्तेदार नहीं है, तो किसी भी लोक सेवक द्वारा जिसे राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में अधिसूचित किया जा सकता है।
- धारा 498-A के तहत अपराध करने का आरोप लगाने वाली शिकायत कथित घटना के 3 वर्ष के भीतर दर्ज की जा सकती है। हालाँकि, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 473 न्यायालय को सीमा अवधि के बाद किसी अपराध का संज्ञान लेने में सक्षम बनाती है, यदि वह संतुष्ट है कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है।
आवश्यक तत्त्व:
- धारा 498-A के तहत अपराध करने के लिये निम्नलिखित आवश्यक तत्त्वों का कारित होना आवश्यक है:
- महिला विवाहित होनी चाहिये;
- वह क्रूरता या उत्पीड़न से पीड़ित होनी चाहिये;
- या तो ऐसी क्रूरता या उत्पीड़न को महिला के पति या उसके पति के रिश्तेदार द्वारा प्रदर्शित किया गया हो।
निर्णयज विधि:
- अरुण व्यास बनाम अनीता व्यास, (1999) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 498A में अपराध का सार क्रूरता है। यह अपराध निरंतर होता है और प्रत्येक अवसर पर जब महिला क्रूरता का शिकार होती थी, तो उसके पास अपराध की सीमा का एक नया बिंदु होता था।
दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961:
- धारा 3:
- यह धारा दहेज देने या दहेज लेने के लिये शास्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
- यदि कोई व्यक्ति, इस अधिनियम के प्रारंभ के पश्चात् दहेज देगा या लेगा अथवा दहेज देना या लेना दुष्प्रेरित करेगा [ तो वह कारावास से, जिसकी अवधि [पाँच वर्ष से कम की नहीं होगी, और ज़ुर्माने से, जो पंद्रह हज़ार रुपए से या ऐसे दहेज के मूल्य की रकम तक का, इनमें से जो भी अधिक हो, से कम नहीं होगा,] दण्डनीय होगा;
- परंतु न्यायालय, ऐसे पर्याप्त और विशेष कारणों से जो निर्णय में लेखबद्ध किये जाएँगे, '[पाँच वर्ष] से कम की किसी अवधि के कारावास का दण्डादेश अधिरोपित कर सकेगा।]
- उपधारा (1) की कोई बात -
(a) ऐसी भेटों को, जो वधू को विवाह के समय ( उस निमित्त कोई मांग किये बिना) दी जाती है या उनके संबंध में लागू नहीं होगी।
परंतु यह तब तक कि ऐसी भेंटें इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों के अनुसार रखी गई सूची में दर्ज की जाती हैं;
(b) ऐसी भेंटों को जो वर को विवाह के समय (उस निमित्त कोई मांग किये बिना) दी जाती है या उनके संबंध में लागू नहीं होगी।
परंतु, यह तब जब कि ऐसी भेंटें, इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों के अनुसार रखी गई सूची में दर्ज की जाती हैं।
- धारा 4:
- यह धारा दहेज मांगने के लिये शास्ति से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि, यदि कोई व्यक्ति, यथास्थिति, वधू या वर के माता-पिता या अन्य नातेदार या संरक्षक, से किसी दहेज की प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से मांग करेगा, तो वह कारावास से, जिसकी अवधि छह माह से कम की नहीं होगी, जोकि दो वर्ष तक की हो सकेगी और ज़ुर्माने से जो दस हज़ार रुपए तक का हो सकेगा, दण्डनीय होगा।
- परंतु न्यायालय ऐसे पर्याप्त और विशेष कारणों से, जो निर्णय में उल्लिखित किये जाएँगे, छह मास से कम की किसी अवधि के कारावास का दण्डादेश अधिरोपित कर सकेगा।
आपराधिक कानून
किशोर न्याय (बालक की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 का नियम 12
19-Mar-2024
गौरव कुमार @ मोनू बनाम हरियाणा राज्य न्यायालय ने मूल निर्णय के पैराग्राफ 17 का पुनर्विलोकन किया और किशोर न्याय (बालक की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 के तहत प्रासंगिक नियमों पर विचार करने के लिये उच्च न्यायालय की आवश्यकता को सही किया। न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और राजेश बिंदल |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल ने गौरव कुमार @ मोनू बनाम हरियाणा राज्य के किशोर न्याय (बालक की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 से संबंधित मामले में एक समीक्षा याचिका पर सुनवाई की।
गौरव कुमार @ मोनू बनाम हरियाणा राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 15 फरवरी, 2019 के एक निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये पुनर्विलोकन याचिकाएँ दायर की गईं थीं।
- निर्णय में उच्च न्यायालय से लंबित अपील पर आगे बढ़ने से पूर्व किशोरता के प्रश्न पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया गया।
- पुनर्विलोकन का तर्क किशोर न्याय (बालक की देखभाल और संरक्षण) नियम, 2007 के नियम 12 का हवाला देते हुए निर्णय में स्पष्ट त्रुटि पर आधारित था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- याचिकाकर्त्ता और राज्य दोनों के अधिवक्ता को सुनने के बाद, न्यायालय ने पाया कि किशोरता के प्रश्न पर विचार करने के लिये लागू प्रावधान, किशोर न्याय (बालक की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 तथा किशोर न्याय (बालक की देखभाल एवं संरक्षण) नियम, 2007 के तहत थे।
- प्रतिवादी के इस तर्क के बावजूद कि मूल निर्णय सही ढंग से तय किया गया था, न्यायालय ने एक स्पष्ट त्रुटि को स्वीकार किया और इसे ठीक करना आवश्यक समझा।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि याचिकाकर्त्ता को न्यायालय की त्रुटि का खामियाज़ा नहीं भुगतना चाहिये, इसलिये निर्णय में ही त्रुटि में सुधार की ज़रूरत है।
- परिणामस्वरूप, न्यायालय ने मूल निर्णय के पैराग्राफ 17 का पुर्नार्विलोकन की और किशोर न्याय (बालक की देखभाल एवं संरक्षण) नियम, 2007 के तहत प्रासंगिक नियमों पर विचार करने के लिये उच्च न्यायालय की आवश्यकता को सही किया।
- पुर्नार्विलोकन याचिकाओं का तद्नुसार निपटारा किया गया।
JJ नियम, 2007 का नियम 12 क्या है?
यह नियम किशोर की आयु के निर्धारण में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया प्रदान करते हैं।
- आयु निर्धारण के लिये समय सीमा:
- कानून का उल्लंघन करने वाले किसी बालक या किशोर से संबंधित प्रत्येक मामले में, न्यायालय या बोर्ड या जैसा भी मामला हो, इन नियमों के नियम 19 में विनिर्दिष्ट समिति ऐसे उद्देश्य के लिये आवेदन करने की तारीख से तीस दिनों की अवधि के भीतर, ऐसे किशोर या बालक या कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर की आयु निर्धारित करेगी।
- किशोरवयता का प्रारंभिक मूल्यांकन:
- जैसा भी मामला हो, न्यायालय या बोर्ड या समिति किशोर या बालक की किशोरावस्था या अन्यथा विधि के उल्लंघन में किशोर होने का निर्णय प्रथम दृष्टया शारीरिक उपस्थिति या दस्तावेज़ों के आधार पर करेगा, यदि उपलब्ध है, और उसे संप्रेक्षण गृह या जेल भेज देगा।
- आयु निर्धारण जाँच प्रक्रिया:
- कानून का उल्लंघन करने वाले किसी बालक या किशोर से संबंधित प्रत्येक मामले में, आयु निर्धारण जाँच, न्यायालय या बोर्ड या, जैसा भी मामला हो, समिति द्वारा साक्ष्य मांगकर की जाएगी-
- दस्तावेज़ीकरण:
- मैट्रिकुलेशन या समकक्ष प्रमाण पत्र, यदि उपलब्ध हो;
(i) के अभाव में, उस स्कूल से जन्मतिथि प्रमाण-पत्र (प्ले स्कूल के अलावा) जिसमें पहली बार भाग लिया था;
(i) और (ii) के अभाव में किसी निगम, नगरपालिका प्राधिकरण या पंचायत से प्राप्त जन्म प्रमाण पत्र।
- मैट्रिकुलेशन या समकक्ष प्रमाण पत्र, यदि उपलब्ध हो;
- चिकित्सकीय राय:
- उपर्युक्त खंड (a) के (i), (ii), या (iii) के अभाव में, विधिवत गठित मेडिकल बोर्ड से चिकित्सकीय राय लेना।
- यदि आयु का सटीक आकलन नहीं किया जा सकता है, तो न्यायालय या बोर्ड या, समिति, जैसा भी मामला हो, यदि आवश्यक समझे, तो एक वर्ष के अंतराल के भीतर बालक या किशोर की आयु को कम मानकर उसे लाभ प्रदान कर सकती है।
- किशोरत्व का निर्धारण:
- यदि किसी किशोर या बालक या कानून का उल्लंघन करने वाले की उम्र अपराध की तिथि पर 18 वर्ष से कम पाई जाती है, तो उप-नियम (3) में निर्दिष्ट किसी भी निर्णायक सबूत के आधार पर, न्यायालय या बोर्ड, इन नियमों के प्रयोजन के लिये आवश्यक उम्र बताते हुए तथा किशोर की स्थिति या अन्यथा घोषित करते हुए लिखित रूप में एक आदेश पारित करेगी और आदेश की एक प्रति ऐसे संबंधित किशोर या व्यक्ति को दी जाएगी।
- पूछताछ का निष्कर्ष:
- सिवाय इसके कि जहाँ आगे की जाँच या अन्यथा की आवश्यकता हो, इस नियम के उप-नियम (3) में निर्दिष्ट प्रमाण पत्र, या किसी अन्य दस्तावेज़ी सबूत प्राप्त करने के बाद न्यायालय या बोर्ड द्वारा कोई और जाँच नहीं की जाएगी।
- नियम प्रावधानों का अनुप्रयोग:
- कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर के हित में उचित आदेश पारित करने हेतु, इस नियम में निहित प्रावधान उन निस्तारित मामलों पर भी लागू होंगे, जहाँ किशोरता की स्थिति उप-नियम (3) और अधिनियम में निहित प्रावधानों के अनुसार निर्धारित नहीं की गई है, जिसके लिये अधिनियम के तहत सज़ा की व्यवस्था की आवश्यकता होती है।