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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

शपथ-पत्र का अभाव

 09-Apr-2024

कार्निवल फिल्म्स प्रा. लिमिटेड बनाम केरल राज्य

"CrPC  की धारा 202 के अधीन जांच की कमी से प्रक्रिया दूषित नहीं होगी, लेकिन रिकॉर्ड पर शपथ-पत्र की कमी प्रक्रिया को दूषित अवश्य कर देगी”।

न्यायमूर्ति बेचू कुरियन थॉमस

स्रोत : केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने कार्निवाल फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम केरल राज्य मामले में माना है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 202 के अधीन जाँच करने की कमी प्रक्रिया को दूषित नहीं करेगी, लेकिन रिकॉर्ड पर एक शपथ-पत्र की कमी प्रक्रिया को दूषित अवश्य कर देगी।

कार्निवल फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, सभी याचिकाकर्त्ता कथित तौर पर केरल के बाहर रह रहे हैं और परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881(NIA) की धारा 138 के अधीन चेक के अनादरण के अपराध के लिये न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की अदालत-बारहवीं, तिरुवनंतपुरम की फाइलों में 1 से 4 तक आरोपी हैं।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने CrPC की धारा 202 के अधीन जाँच किये बिना उनके विरुद्ध जारी किये गए समन एवं वारंट को चुनौती देते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की है।
  • न्यायालय ने याचिका स्वीकार कर ली तथा याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध जारी समन एवं वारंट रद्द कर दिये।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बेचू कुरियन थॉमस ने कहा कि NIA अधिनियम के अधीन उत्पन्न होने वाले मामलों में, भले ही CrPC की धारा 202 के अधीन जाँच नहीं की गई हो, फिर भी यह प्रक्रिया जारी करने को प्रभावित नहीं कर सकता है। अपेक्षित संतुष्टि केवल रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्रियों से ही उपलब्ध होनी चाहिये। यदि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्रियाँ ऐसी संतुष्टि पर पहुँचने के लिये पर्याप्त नहीं हैं, तो आरोपी को यह कहना उचित होगा कि किसी भी शपथ-पत्र के संदर्भ की अनुपस्थिति कार्यवाही को दूषित कर देगी।

CrPC की धारा 202 क्या है?

परिचय:

  • यह धारा शिकायतकर्त्ता की जाँच से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-
  • शिकायत पर किसी अपराध का संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट शपथ पर शिकायतकर्त्ता और मौजूद साक्षियों, यदि कोई हो, की जाँच करेगा तथा ऐसी परीक्षा का सार लिखित रूप में लिखा जाएगा एवं शिकायतकर्त्ता व गवाहों और मजिस्ट्रेट द्वारा भी हस्ताक्षर किये जाएंगे।
  • बशर्ते कि, जब शिकायत लिखित रूप में की जाती है, तो मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्त्ता एवं साक्षियों की जाँच करने की आवश्यकता नहीं है-
    (a) यदि किसी लोक सेवक ने अपने आधिकारिक कर्त्तव्यों या न्यायालय के निर्वहन में कार्य करने या कार्य करने का आशय रखते हुए शिकायत की है, या
    (b) यदि मजिस्ट्रेट धारा 192 के अधीन मामले को किसी अन्य मजिस्ट्रेट के पास जाँच या सुनवाई के लिये भेजता है।
  • बशर्ते कि यदि मजिस्ट्रेट शिकायतकर्त्ता एवं साक्षियों की जाँच करने के बाद मामले को धारा 192 के अधीन किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप देता है, तो बाद वाले मजिस्ट्रेट को उनकी पुनः जाँच करने की आवश्यकता नहीं है।

उद्देश्य:

  • मजिस्ट्रेट को शिकायत में लगाए गए आरोपों की सावधानीपूर्वक जाँच करने में सक्षम बनाना ताकि उसमें आरोपी के रूप में नामित व्यक्ति को अनावश्यक, तुच्छ या योग्यताविहीन शिकायत का सामना करने से रोका जा सके।
  • यह पता लगाने के लिए कि क्या शिकायत में आरोपों का समर्थन करने के लिये कोई सामग्री उपस्थित है।

आवश्यक तत्त्व:

  • मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने के बाद CrPC की धारा 202 लागू होती है।
  • मजिस्ट्रेट के पास CrPC की धारा 192 या धारा 202 के अधीन प्राप्त शिकायत के के संदर्भ में विचार के लिये रखे गए मामले की जाँच करने या पुलिस अधिकारी को जाँच करने का निर्देश देने की शक्ति है।
  • शिकायत प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट आरोपी को समन या गिरफ्तारी वारंट जारी करने को स्थगित कर सकता है तथा इस दौरान, वे या तो स्वयं जाँच कर सकते हैं या पुलिस को जाँच करने का निर्देश दे सकते हैं।

निर्णयज विधि:

  • मोहिंदर सिंह बनाम गुलवंत सिंह (1992) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 202 के अधीन जाँच का दायरा केवल शिकायत में लगाए गए आरोपों की सत्यता या असत्यता का पता लगाने तक ही सीमित है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि प्रक्रिया जारी होनी चाहिये या नहीं। संहिता की धारा 204 के अधीन नहीं या क्या शिकायत को संहिता की धारा 203 का सहारा लेकर इस आधार पर खारिज कर दिया जाना चाहिये कि शिकायतकर्त्ता और उसके साक्षियों के बयानों, यदि कोई हो, के आधार पर आगे बढ़ने के लिये कोई पर्याप्त आधार नहीं है।

आपराधिक कानून

POCSO पीड़िता की पहचान

 09-Apr-2024

उत्पल मंडल @ उत्पल मंडल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य।

"POCSO अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि बच्चे की पहचान को सार्वजनिक तब तक नहीं किया जाए जब तक कि विशेष न्यायालय इसकी अनुमति न दे।"

न्यायमूर्ति संदीप मेहता और पीबी वरले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय  ने कहा कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि बच्चे की पहचान को सार्वजनिक तब तक नहीं किया जाए जब तक कि विशेष न्यायालय लिखित कारणों से इसकी अनुमति न दे।

  • उपरोक्त टिप्पणी उत्पल मंडल @ उत्पल मंडल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य के मामले में की गई थी।

उत्पल मंडल @ उत्पल मंडल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष, याचिकाकर्त्ता द्वारा कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा पारित अंतिम निर्णय एवं आदेश के विरुद्ध एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की गई थी।
  • इस SLP के माध्यम से याचिकाकर्त्ता अग्रिम ज़मानत की मांग कर रहा था।
  • याचिकाकर्त्ता के विद्वान अधिवक्ता द्वारा दी गई दलीलों पर विचार करने और रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री को देखने के बाद, न्यायालय का मानना है कि याचिकाकर्त्ता अग्रिम ज़मानत का पात्र नहीं है
  • हालाँकि, मामले को बंद करने से पहले, न्यायालय ने पाया कि इस मामले में POCSO अधिनियम की धारा 33(7) एवं भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 228A की अनिवार्य आवश्यकताओं का पालन नहीं किया गया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति संदीप मेहता एवं पीबी वरले की खंडपीठ ने कहा कि बच्चे की पहचान का प्रकटन तब तक नहीं किया जाना चाहिये जब तक कि विशेष न्यायालय, लिखित कारणों से इस तरह के प्रकटन की अनुमति न दे।
  • न्यायालय ने निर्देश दिया कि पश्चिम बंगाल राज्य में न्यायिक अधिकारियों के साथ-साथ पुलिस अधिकारियों को भी संवेदनशील बनाने की पहल शुरू होनी चाहिये ताकि इस संवेदनशील आवश्यकता का कठोरता से अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके।
  • उच्चतम न्यायालय ने निपुण सक्सेना बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2019) के मामले में दिये गए निर्णय पर भरोसा किया।
  • इस मामले में यह माना गया कि विशेष न्यायालय द्वारा पहचान के प्रकटन की अनुमति केवल तभी दी जा सकती है जब यह बच्चे के हित में हो न कि किसी अन्य परिस्थिति में। इस प्रकार, बच्चे को विरोध का प्रतीक बनाने के लिये उसके नाम का प्रकटन करना सामान्यतः बच्चे के हित में नहीं माना जा सकता है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

POCSO अधिनियम:

  • यह अधिनियम 2012 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत पारित किया गया था
  • यह बच्चों को यौन शोषण, यौन उत्पीड़न एवं अश्लील साहित्य सहित अपराधों से बचाने के लिये बने गई एक व्यापक विधि है।
  • यह लिंग तटस्थ अधिनियम है तथा बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि महत्त्व का विषय मानता है।
  • यह ऐसे अपराधों एवं संबंधित मामलों और घटनाओं की सुनवाई के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान करता है।
  • POCSO संशोधन विधेयक, 2019 द्वारा इस अधिनियम के अधीन प्रवेशन द्वारा यौन उत्पीड़न तथा गंभीर प्रवेशन द्वारा यौन उत्पीड़न के अपराधों के लिये सज़ा के रूप में मृत्युदंड की शुरुआत की गई थी।
  • POCSO अधिनियम की धारा 2(1)(D) के अधीन, 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बच्चा माना जाता है।

POCSO अधिनियम की धारा 33(7)

  • इस अधिनियम की धारा 33 विशेष न्यायालय की प्रक्रिया एवं शक्तियों से संबंधित है।
  • धारा 33 की उपधारा 7 में कहा गया है कि विशेष न्यायालय यह सुनिश्चित करेगी कि जाँच या मुकदमे के दौरान किसी भी समय बच्चे की पहचान का प्रकटन नहीं किया जाए
  • बशर्ते कि लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों से, विशेष न्यायालय ऐसे प्रकटीकरण की अनुमति दे सकता है, यदि उसकी राय में ऐसा प्रकटीकरण बच्चे के हित में है।
  • इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये, बच्चे की पहचान में बच्चे के परिवार, स्कूल, रिश्तेदारों, पड़ोस या किसी अन्य जानकारी की पहचान सम्मिलित होगी जिससे बच्चे की पहचान सार्वजनिक हो सकती है।

IPC की धारा 228A

यह धारा कुछ अपराधों के पीड़ित की पहचान का प्रकटन करने आदि से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

(1) जो कोई भी नाम या किसी भी मामले को मुद्रित या प्रकाशित करता है जिससे किसी भी व्यक्ति की पहचान ज्ञात हो सकती है जिसके विरुद्ध धारा 376, धारा 376 a, धारा 376 ab, धारा 376 b, धारा 376 c, धारा 376 d, धारा 376 da, धारा 376 db या धारा 376 e के अधीन अपराध होता है, आरोप लगाया गया या किया गया पाया गया (इसके बाद इस धारा में पीड़ित के रूप में संदर्भित) को किसी भी अवधि के लिये कारावास की सज़ा दी जाएगी जिसे दो वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।

(2) उप-धारा (1) में कुछ भी नाम या किसी भी मामले की छपाई या प्रकाशन पर लागू नहीं होता है, जिससे पीड़ित की पहचान का पता चल सकता है, अगर ऐसी छपाई या प्रकाशन-

(a) पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी या ऐसे अपराध की जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी के लिखित आदेश के अधीन या ऐसी जाँच के प्रयोजनों के लिये सद्भावना में कार्य करना, या

(b) पीड़ित द्वारा या उसकी लिखित अनुमति से, या

(c) जहाँ पीड़ित मर चुकी है या नाबालिग है या मानसिक रूप से विक्षिप्त है, वहाँ पीड़ित के निकटतम रिश्तेदार द्वारा या उसकी लिखित अनुमति से।

बशर्ते कि ऐसा कोई प्राधिकार किसी भी मान्यता प्राप्त कल्याण संस्थान या संगठन के अध्यक्ष या सचिव, चाहे वह किसी भी नाम से जाना जाता हो, के अतिरिक्त किसी अन्य को नहीं दिया जाएगा।

व्याख्या– इस उप-धारा के प्रयोजनों के लिये, "मान्यता प्राप्त कल्याण संस्थान या संगठन" का अर्थ केंद्र या राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में मान्यता प्राप्त एक सामाजिक कल्याण संस्थान या संगठन है।

(3) जो कोई उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी अपराध के संबंध में न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही के संबंध में किसी भी मामले को ऐसी न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना मुद्रित या प्रकाशित करेगा, उसे दो साल अवधि के लिये कारावास से दंडित किया जाएगा जो कि तक बढ़ सकता है और ज़ुर्माना भी देना होगा।

व्याख्या– किसी भी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के निर्णय का मुद्रण या प्रकाशन इस धारा के अर्थ में अपराध की श्रेणी में नहीं आता है


सांविधानिक विधि

जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार

 09-Apr-2024

एम.के. रणजीतसिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य

“अनुच्छेद 14 के अधीन समानता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार की इस न्यायालय के निर्णयों, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राज्य के कार्यों एवं प्रतिबद्धताओं व जलवायु परिवर्तन तथा इसके प्रतिकूल प्रभाव के बारे में वैज्ञानिक सहमति के संदर्भ में सराहना की जानी चाहिये”।

CJI डीवाई चंद्रचूड़, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता का अधिकार एवं अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार की इस न्यायालय के निर्णयों, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राज्य के कार्यों एवं प्रतिबद्धताओं के संदर्भ में सराहना की जानी चाहिये तथा जलवायु परिवर्तन एवं इसके प्रतिकूल प्रभावों पर वैज्ञानिक सहमति के माध्यम से यह निष्कर्ष निकलता है कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार है।”

  • उपरोक्त टिप्पणी एम.के. रंजीतसिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले में की गई थी।

एम.के. रणजीतसिंह एवं अन्य  बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) के प्रति गंभीर खतरे से संबंधित है, जो भारत की मूल प्रजाति है तथा मुख्य रूप से राजस्थान में पाई जाती है।
  • निवास स्थान के ह्रास, शिकार एवं अन्य खतरों के कारण इसकी आबादी में तेज़ी से गिरावट आई है।
  • विभिन्न संरक्षण प्रयास शुरू किये गए हैं, जिनमें बर्ड डायवर्टर की स्थापना एवं प्रजनन कार्यक्रम सम्मिलित हैं।
  • हालाँकि चुनौतियाँ बनी हुई हैं, विशेषकर ओवरहेड ट्रांसमिशन लाइनों के संबंध में जो प्रजातियों के लिये खतरा पैदा करती हैं।
  • तत्काल संरक्षण उपायों की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी, जिसके कारण मौजूदा ओवरहेड बिजली केबल लाइनों को भूमिगत केबल लाइन में बदलने के लिये न्यायालय के द्वारा निर्देश दिये गए थे।
  • सरकार ने नवीकरणीय ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन शमन के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं का हवाला देते हुए ऐसे निर्देशों की व्यवहार्यता एवं निहितार्थ पर चिंता व्यक्त की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “भारत को निकट भविष्य में कई गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जो सीधे तौर पर स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को प्रभावित करती हैं, विशेषकर वनवासियों सहित कमज़ोर एवं स्वदेशी समुदायों के लिये। कई नागरिकों के लिये विश्वसनीय बिजली आपूर्ति की कमी न केवल आर्थिक विकास में बाधा डालती है, बल्कि महिलाओं एवं कम आय वाले परिवारों सहित समुदायों को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, जिससे असमानताएँ और बढ़ती हैं।
  • इसलिये, स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार इस सिद्धांत को समाहित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे वातावरण में रहने का अधिकार है जो स्वच्छ, सुरक्षित एवं उनकी भलाई के लिये अनुकूल हो।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार को मान्यता देकर, राज्यों को पर्यावरण संरक्षण एवं सतत् विकास को प्राथमिकता देने के लिये विवश किया जाता है, जिससे जलवायु परिवर्तन के मूल कारणों को संबोधित किया जा सके तथा वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों का होना अच्छी तरह से सुरक्षित रखा जा सके।

अनुच्छेद 14 और 21 क्या हैं?

  • अनुच्छेद 14:
    • भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों को "विधि के समक्ष समानता" तथा "विधियों के समान संरक्षण" के मौलिक अधिकार की पुष्टि करता है।
    • पहली अभिव्यक्ति "विधि के समक्ष समानता" इंग्लैंड मूल की है तथा दूसरी अभिव्यक्ति "विधियों का समान संरक्षण" अमेरिकी संविधान से ली गई है।
    • अनुच्छेद 14: विधि के समक्ष समानता- "राज्य भारत के क्षेत्र के भीतर किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या विधियों के समान संरक्षण से अस्वीकार नहीं करेगा”।
  • अनुच्छेद 21:
    • इस अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
    • यह मौलिक अधिकार प्रत्येक व्यक्ति, नागरिकों एवं विदेशियों के लिये समान रूप से उपलब्ध है।
    • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिकार को मौलिक अधिकारों का हृदय बताया है।
    • यह अधिकार राज्य के विरुद्ध ही प्रदान किया गया है।
    • अनुच्छेद 21 दो अधिकार सुरक्षित करता है:
    • भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस अधिकार को मौलिक अधिकारों का हृदय बताया है।
    • यह अधिकार राज्य के विरुद्ध ही प्रदान किया गया है।
    • अनुच्छेद 21 दो अधिकार सुरक्षित करता है:
      • जीवन का अधिकार
      • व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार