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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

पैरोल का अनुदान

 10-May-2024

सोनू सोनकर बनाम उपराज्यपाल, दिल्ली एवं अन्य

"एक दोषी अपने लिव-इन पार्टनर के साथ वैवाहिक संबंध बनाए रखने के आधार पर पैरोल पाने का अधिकारी नहीं है, जब उसके पास पहले से ही विधिक रूप से विवाहित पत्नी और उस विवाह से पैदा हुए बच्चे हों”।

न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

 चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि दोषी, अपने लिव-इन पार्टनर के साथ संतान पैदा करने या वैवाहिक संबंध बनाए रखने के आधार पर पैरोल पाने का अधिकारी नहीं है, जब उसके पास पहले से ही विधिक रूप से विवाहित पत्नी एवं उस विवाह से पैदा हुए बच्चे हैं।

  • उपरोक्त टिप्पणी सोनू सोनकर बनाम उपराज्यपाल, दिल्ली एवं अन्य के मामले में की गई थी।

सोनू सोनकर बनाम उपराज्यपाल, दिल्ली एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता, जो वर्तमान में दिल्ली की तिहाड़ कारावास में बंद है, को विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा पारित 15 नवंबर 2011 के निर्णय के अंतर्गत भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302/34 के अधीन दोषी ठहराया गया था तथा कठोर आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई और 5,000 रुपए का ज़ुर्माना अदा करने के को भी कहा गया।
  • याचिकाकर्त्ता लगभग 02 वर्ष और 09 महीने की छूट को छोड़कर, लगभग 16 वर्ष 10 महीने तक न्यायिक अभिरक्षा में रहा है।
  • उसका विवाह 10 जनवरी 2021 को सुश्री T से हुआ था तथा उनके  विवाह को तीन वर्ष पूरे हो गए हैं।
  • याचिकाकर्त्ता अपनी पत्नी सुश्री T के साथ विवाह संपन्न नहीं कर पाया है, क्योंकि याचिकाकर्त्ता न्यायिक अभिरक्षा में था।
  • सुश्री T ने 02 जनवरी 2024 को कारावास अधिकारियों के समक्ष इसी आधार पर वर्तमान याचिकाकर्त्ता की पैरोल पर रिहाई के लिये आवेदन किया था।
  • प्रतिवादी द्वारा दिनांक 05 मार्च 2024 को पारित आदेश, जिसके आधार पर याचिकाकर्त्ता की ओर से पैरोल की मांग करने वाला आवेदन खारिज कर दिया गया
  • इसके बाद, याचिकाकर्त्ता द्वारा 05 मार्च 2024 के आदेश को रद्द करने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की गई थी।
  • प्रतिवादी की ओर से तर्क दिया गया कि वर्तमान याचिका असत्य एवं तुच्छ आधार पर दायर की गई है, क्योंकि सुश्री T याचिकाकर्त्ता की पत्नी नहीं हैं। आगे कहा गया है कि स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, याचिकाकर्त्ता पहले से ही एक सुश्री A से विवाहित है तथा उसके तीन बच्चे हैं।
  • याचिका को खारिज करते हुए उच्च न्यायालय ने इसे वर्तमान याचिकाकर्त्ता को पैरोल देने के लिये उपयुक्त मामला नहीं पाया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा ने कहा कि दोषी अपने लिव-इन पार्टनर के साथ संतान पैदा करने या वैवाहिक संबंध बनाए रखने के आधार पर पैरोल पाने का अधिकारी नहीं है, जब उसके पास पहले से ही विधिक रूप से विवाहित पत्नी और उस विवाह से पैदा हुए बच्चे हैं।
  • यह भी देखा गया कि बच्चा पैदा करने या लिव-इन पार्टनर के साथ वैवाहिक संबंध बनाए रखने के आधार पर पैरोल देना, जहाँ दोषी की पहले से ही विधिक रूप से विवाहित पत्नी है और उस विवाह से पैदा हुए बच्चे हैं, एक हानिकारक मिसाल कायम करेगा।
  • आगे कहा गया कि भारत में विधि और दिल्ली कारागार नियम, 2018 वैवाहिक संबंधों को बनाए रखने के आधार पर पैरोल देने की अनुमति नहीं देते हैं, वह भी लिव-इन पार्टनर के साथ।

पैरोल के संबंध में विधिक प्रावधान क्या हैं?

भारत में पैरोल प्रणाली:

परिचय

  • पैरोल शब्द फ्राँसीसी वाक्यांश "जे डोने मा पैरोल" से लिया गया है, जिसका अर्थ है- मैं अपना वचन देता हूँ।
  • पैरोल को एक कैदी की सशर्त रिहाई के रूप में परिभाषित किया गया है, आम तौर पर एक पैरोल अधिकारी की देखरेख में, जिसने उस अवधि का कुछ हिस्सा काट लिया है, जिसके लिये उसे कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।

उद्देश्य

  • पैरोल कारावास के कैदियों को अपने तरीके बदलने के लिये एक प्रेरक के रूप में कार्य करता है।
  • यह सुनिश्चित करता है कि कैदियों के पारिवारिक रिश्ते यथासंभव यथावत रहें।
  • यह अपराधियों को धीरे-धीरे समाज में घुलने-मिलने एवं उसके अनुरूप ढलने में सहायता करता है।

प्रकार

अभिरक्षा में पैरोल:

  • यह आपातकालीन स्थितियों में प्रदान किया जाता है।
  • विदेशियों एवं मृत्यु की सज़ा काट रहे लोगों को छोड़कर, सभी दोषी व्यक्ति परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु या विवाह जैसे कारणों से 14 दिनों के लिये इस पैरोल के पात्र हो सकते हैं।

नियमित पैरोल:

  • जिन अपराधियों ने कारावास में कम-से-कम एक वर्ष की सज़ा पूरी कर ली है, वे अधिकतम एक महीने के लिये नियमित पैरोल के पात्र हैं।
  • यह कुछ निश्चित आधारों पर आवंटित किया जाता है जैसे विवाह, दुर्घटना, मृत्यु, परिवार में बीमारी या बच्चे की डिलीवरी आदि।

पैरोल विधि

  • भारत में पैरोल का अनुदान कारावास अधिनियम, 1894 और कैदी अधिनियम, 1900 के अंतर्गत बनाए गए नियमों द्वारा प्रशासित किया जाता है।
  • भारत में प्रत्येक राज्य के लिये अपने पैरोल नियम हैं, जो एक दूसरे से थोड़े अलग हैं।

पैरोल के लिये आवश्यक अर्हताएँ

  • एक दोषी को कम से कम 1 वर्ष कारावास में बिताना होगा, छूट में बिताए गए समय को छोड़कर।
  • उसका व्यवहार समान रूप से अच्छा होना चाहिये।
  • अपराधी को कोई अपराध नहीं करना चाहिये/किसी भी नियम और प्रतिबंध को नहीं तोड़ना चाहिये।
  • पिछली पैरोल समाप्त हुए कम-से-कम 6 महीने बीत जाने चाहिये।

प्रक्रिया

  • एक दोषी पैरोल चाहता है तथा याचिका दायर करता है।
  • कारावास प्राधिकरण केस हिस्ट्री, कारावास में व्यवहार, मेडिकल रिपोर्ट आदि सहित रिपोर्ट एकत्र करता है।
  • रिपोर्ट राज्य सरकार के उप सचिव, गृह (सामान्य) को भेजी जाती है जो आवेदन पर निर्णय लेते हैं।
  • कुछ राज्यों में इसे कारावास महानिरीक्षक को भेजा जाता है।
  • रिपोर्ट आगे ज़िलाधिकारी को भेज दी गई है।
  • ज़िला मजिस्ट्रेट राज्य सरकार के परामर्श से आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेता है।
  • ज़िला मजिस्ट्रेट राज्य सरकार के परामर्श से आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेता है।

 

 

एक अधिकार के रूप में पैरोल

 

  • भारत में पैरोल को अधिकार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है।
  • किसी कैदी का पैरोल का दावा पूर्ण नहीं है तथा कारावास अधिकारियों के पास उस कैदी को पैरोल देने के विषय में काफी विवेकाधिकार है।

पैरोल में कटौती

  • सुनील फूलचंद शाह बनाम भारत संघ (2000) के मामले में उच्चतम न्यायालय  ने कहा कि अभिरक्षा में लिये गए व्यक्ति की अस्थायी रिहाई से उसकी स्थिति में बदलाव नहीं होता है, क्योंकि उसकी स्वतंत्रता पूरी तरह से बहाल नहीं हुई है।
  • परिणामस्वरूप, पैरोल पर अस्थायी रिहाई को अधिकतम कारावास अवधि से नहीं काटा जा सकता है।

 

 

 पैरोल और CrPC

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) में पैरोल से संबंधित कोई धारा नहीं है।
  • भारत में इससे निपटने के लिये कोई एकीकृत विधि नहीं है, अलग-अलग राज्यों के पास इसे नियंत्रित करने के लिये अपने-अपने विधि हैं।

 निर्णयज विधियाँ:

  • हरियाणा राज्य एवं अन्य बनाम मोहिंदर सिंह (2000) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पैरोल और प्रावकाश के मध्य अंतर स्पष्ट किया, जो इस प्रकार हैं:
    • पैरोल और प्रावकाश दोनों सशर्त रिहाई के रूप हैं।
    • अल्पावधि अभिरक्षा में पैरोल दी जा सकती है, जबकि लंबी अवधि की अभिरक्षा में प्रावकाश  की अनुमति है।
    • पैरोल एक महीने तक चलती है, जबकि प्रावकाश अधिकतम 14 दिनों तक चलती है।
    • पैरोल कई बार दी जा सकती है, जबकि प्रावकाश की एक सीमा होती है।
  • भारत के चुनाव आयोग बनाम मुख्तार अंसारी (2017) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने घोषणा की कि अभिरक्षा पैरोल का उपयोग ज़मानत के विकल्प के रूप में नहीं किया जा सकता है तथा इसे लंबे समय तक या दैनिक यात्राओं के लिये नहीं बढ़ाया जा सकता है।

आपराधिक कानून

CrPC की धारा 299

 10-May-2024

सुखपाल सिंह बनाम NCT दिल्ली

“आरोपी की अनुपस्थिति में दर्ज किया गया साक्षी का बयान साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है, अगर वह CrPC की धारा 299 के अनुसार हो”।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई एवं संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने सुखपाल सिंह बनाम NCT दिल्ली के मामले में निर्णय दिया कि यदि अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद अभियोजन पक्ष के साक्षियों का पता नहीं लगाया जा सकता है तथा उन्हें अभियोजन के दौरान गवाही देने के लिये कठघरे में नहीं लाया जा सकता है, तो अभियुक्त की अनुपस्थिति में उनके बयान दर्ज किये जा सकते हैं। यदि यह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 299 के अनुसार है, इसे ठोस साक्ष्य माना जाता है।

सुखपाल सिंह बनाम NCT दिल्ली मामले की पृष्ठभूमि:

  • अपीलकर्त्ता ने तीन बच्चों की माँ उषा से विवाह किया था, वैवाहिक समस्याओं के कारण वह अपने गाँव में इनसे अलग रहता है।
  • उषा को आई स्पष्ट चोटों के साथ मृत पाया गया, कथित तौर पर सुखपाल द्वारा लिखा गया एक नोट अपराध स्थल पर पाया गया।
  • एक प्रमुख साक्षी, अशोक कुमार पाठक, (उनके पड़ोसी) को अभियोजन के लिये नहीं खोजा जा सका, लेकिन उनके पहले के बयान को साक्ष्य के रूप में माना गया।
  • संस्वीकृति का नोट एवं लिखत विश्लेषण ने अभियोजन पक्षकार के मामले की बुनियाद रखी, जिससे सुखपाल को दोषी ठहराया गया।
  • न्यायालय ने अपराध स्थल पर सुखपाल की उपस्थिति एवं उसके बाद उसके फरार होने के आधार पर सुखपाल को दोषी पाया, जो दोषी होने का संकेत देता है।
  • अपीलकर्त्ता की अपील पर, उच्च न्यायालय ने सुखपाल की संलिप्तता के साक्ष्य के रूप में संस्वीकृत नोट के महत्त्व की पुष्टि करते हुए, दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
  • अभियोजन पक्ष ने अपराध स्थल पर सुखपाल की उपस्थिति तथा उसके बाद न्याय से बचने के प्रयास को सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया, जिससे उसे दोषी ठहराया गया।
  • मामला प्रत्यक्ष गवाहों की अनुपस्थिति में अपराध स्थापित करने में परिस्थितिजन्य साक्ष्य और विशेषज्ञ विश्लेषण पर निर्भरता पर प्रकाश डालता है।
  • अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई, न्यायालय ने उच्च न्यायालय और विचारण न्यायालय  के निर्णय की पुष्टि की तथा तद्नुसार अपील खारिज कर दी गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता ने उच्च न्यायालय और विचारण न्यायालय के फैसलों को बरकरार रखते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि CrPC की धारा 299 के तहत यदि कोई आरोपी व्यक्ति फरार हो गया है तथा उसे गिरफ्तार करने की तत्काल कोई संभावना नहीं है, तो अभियोजन पक्षकार के गवाहों के बयान उनकी अनुपस्थिति में दर्ज किये जाएँगे। अभियोजन पक्ष का साक्षी उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में, अभियुक्तों की अगली गिरफ्तारी पर उनका उपयोग किया जा सकता है।
  • इसके अलावा न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 33 के साथ पठित धारा 299 CrPC के प्रावधानों के आलोक में, विचारण न्यायालय का यह मानना ​​उचित था कि इनमें अशोक कुमार पाठक (अभियोजन गवाह) का बयान दर्ज किया गया था। कार्यवाही को ठोस साक्ष्य के रूप में पढ़ा जाना उपयुक्त था।
  • उच्चतम न्यायालय, विचारण न्यायालय द्वारा दर्ज किये गए निष्कर्षों से सहमत है तथा मामले के इस महत्त्वपूर्ण पहलू पर उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

CrPC की धारा 299

परिचय:

  • CrPC की धारा 299 अभियुक्त की अनुपस्थिति में साक्ष्य के अभिलेख से संबंधित है।
  • CrPC की धारा 299 अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 335 में उल्लिखित है।

विधिक प्रावधान:

  • यदि यह साबित कर दिया जाता है कि अभियुक्त व्यक्ति फरार हो गया है और उसके तुरंत गिरफ्तार किये जाने की कोई संभावना नहीं है तो उस अपराध के लिये, जिसका परिवाद किया गया है, उस व्यक्ति का [विचारण करने के लिये या विचारण के लिये सुपुर्द करने के लिये सक्षमट न्यायालय अभियोजन की ओर से पेश किये गए साक्षियों की (यदि कोई हों), उसकी अनुपस्थिति में परीक्षा कर सकता है और उनका अभिसाक्ष्य अभिलिखित कर सकता है तथा ऐसा कोई अभिसाक्ष्य उस व्यक्ति के गिरफ्तार होने पर, उस अपराध की जाँच या विचारण में, जिसका उस पर आरोप है, उसके विरुद्ध साक्ष्य में दिया जा सकता है यदि अभिसाक्षी मर गया है, या साक्ष्य देने के लिये असमर्थ है, या मिल नहीं सकता है या उसकी हाज़िरी इतने विलंब, व्यय या असुविधा के बिना, जितनी कि मामले की परिस्थितियों में अनुचित होगी, नहीं कराई जा सकती है ।
  • यदि यह प्रतीत होता है कि मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय कोई अपराध किसी अज्ञात व्यक्ति या किन्हीं अज्ञात व्यक्तियों द्वारा किया गया है तो उच्च न्यायालय या सेशन न्यायाधीश निदेश दे सकता है कि कोई प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट जाँच करे और किन्हीं साक्षियों की जो अपराध के बारे में साक्ष्य दे सकते हों, परीक्षा करे और ऐसे लिया गया कोई अभिसाक्ष्य, किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जिस पर अपराध का तत्पश्चात् अभियोग लगाया जाता है, साक्ष्य में दिया जा सकता है यदि अभिसाक्षी मर जाता है या साक्ष्य देने के लिये असमर्थ हो जाता है या भारत की सीमाओं से परे है।

निर्णयज विधि:

  • निर्मल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2000) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने उन परिस्थितियों पर विचार-विमर्श किया जिसके तहत CrPC की धारा 299 के तहत दर्ज गवाह का बयान IEA की धारा 33 के तहत स्वीकार्य माना जाएगा। CrPC की धारा 299 को IEA की धारा 33 का अपवाद माना जाता है।
    • इस अपवाद का तात्पर्य यह है कि CrPC की धारा 299 के तहत दर्ज किये गए गवाहों के बयान IEA की धारा 33 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन नहीं हैं।
    • अनिवार्य रूप से, CrPC की धारा 299 के तहत दर्ज किये गए बयानों के माध्यम से प्राप्त साक्ष्य, जिरह के अवसर की अनुपस्थिति के बावजूद, विधिक रूप से स्वीकार्य हो सकते हैं।

IEA की धारा 33 

परिचय:

  • IEA की धारा 33 किसी साक्ष्य में कथित तथ्यों की सत्यता को पश्चात्वर्ती कार्यवाही में साबित करने के लिये उस साक्ष्य के सुसंगत से संबंधित है।
  • यह प्रावधान आमतौर पर तब लागू किया जाता है, जब गवाह मृत्यु, पता लगाने में असमर्थता, साक्ष्य देने में असमर्थता, या विरोधी पक्षकार द्वारा उनकी गवाही को रोकने के लिये जानबूझकर किये गए प्रयासों जैसे कारणों से बाद की कार्यवाही में गवाही देने के लिये अनुपलब्ध होता है।

विधिक प्रावधान:

  • IEA की धारा 33 बाद की कार्यवाही में, उसमें बताए गए तथ्यों की सत्यता को साबित करने के लिये कुछ साक्ष्यों की प्रासंगिकता से संबंधित है।
  • किसी साक्ष्य में कथित तथ्यों की सम्यता को प्रश्चात्वर्ती कार्यवाही में साबित करने के लिये उस साक्ष्य की सुसंगति- वह साक्ष्य, जो किसी साक्षी ने किसी न्यायिक कार्यवाही में, या किसी साक्षी ने किसी न्यायिक कार्यवाही में, या विधि द्वारा उसे लेने के लिये प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष दिया है, उन तथ्यों की सत्यता को, जो उस साक्ष्य में कथित है, किसी पश्चातवर्ती न्यायिक कार्यवाहि में या उसी न्यायिक कार्यवाही के आगामी प्रक्रम में साबित करने के प्रयोजन के लिये तब सुसंगत है; जबकि वह साक्षी मर गया है या मिल नहीं सकता है, या वह साक्ष्य देने के लिए असमर्थ है या प्रतिपक्षी द्वारा उसे पहुँच के बाहर कर दिया गया है अथवा यदि उसकी उपस्थिति इतने विलंब या व्यय के बिना, जितना कि मामले को परिस्थितियों में न्यायालय अयुक्तियुक्त समझता है, अभिप्राप्त नहीं की जा सकती।
    • इस धारा के प्रावधानों में यह प्रावधान है कि कार्यवाही उन्हीं पक्षकारों या उनके हितों के प्रतिनिधियों के बीच थी; जिनको पहली कार्यवाही में प्रतिकूल पक्षकार को जिरह करने का अधिकार और अवसर प्राप्त था।
    • यह कि मुद्दे में प्रश्न पहली कार्यवाही के समान ही थे और दूसरी कार्यवाही में भी।

सिविल कानून

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अंतर्गत अपील

 10-May-2024

गैरीसन इंजीनियर बनाम सुश्री सतेंद्र नाथ संजीव कुमार वास्तुकार, ठेकेदार/बिल्डर, सिविल इंजीनियर एवं कॉलोनाइजर के माध्यम से भारत संघ

“मध्यस्थता पंचाट  को तब तक रद्द करने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि यह “पेटेंट की अवैधता” से दूषित न हो”।

मुख्य न्यायमूर्ति अरुण भंसाली एवं न्यायमूर्ति विकास बुढ़वार

स्रोत: इलाहबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C  अधिनियम) की धारा 37 के अंतर्गत अपीलीय कार्यवाही में हस्तक्षेप का दायरा उन आधारों पर आधारित है, जो पंचाट को चुनौती देने के लिये A & C अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत उपलब्ध हैं।

गैरीसन इंजीनियर बनाम सुश्री सतेंद्र नाथ संजीव कुमार आर्किटेक्ट, ठेकेदार/बिल्डर, सिविल इंजीनियर और कॉलोनाइजर मामले के माध्यम से भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मौजूदा पैन प्रकार के शौचालयों में जल जनित स्वच्छता के प्रावधान के कार्य को निष्पादित करने के लिये अपीलकर्त्ता द्वारा एक निविदा जारी की गई थी।
  • कार्य पूरा होने की अवधि 12 महीने यानी 17 सितंबर 1986 थी, लेकिन विस्तार करने पर, कार्य 30 अप्रैल 1998 को समाप्त हुआ, जिस दिन प्रतिवादी ने भौतिक रूप से परियोजना को अपीलकर्त्ता को सौंप दिया।
  • विवाद और मतभेद शुरू हो गए तथा इसे एकमात्र मध्यस्थता के लिये संदर्भित किया गया।
  • प्राधिकरण ने प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय सुनाया।
  • अपीलकर्त्ता ने वाणिज्यिक न्यायालय के समक्ष प्राधिकरण द्वारा सुनाए गए निर्णय को चुनौती देने के लिये A & C अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया।
  • वाणिज्यिक न्यायालय ने आवेदन खारिज कर दिया तथा एकमात्र मध्यस्थ द्वारा सुनाए गए निर्णय की वैधता को यथावत रखा।
  • वाणिज्यिक न्यायालय के आदेश एवं एकमात्र मध्यस्थ के निर्णय को चुनौती देने के लिये अपील इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई थी।
  • पक्षकारों के मध्य विवाद की जड़ यह है कि वेतन आदि में वृद्धि मनमाना थी कि नहीं।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि संविदा की सामान्य शर्तों का खंड 58 उचित मज़दूरी के भुगतान से संबंधित है, जो कि मज़दूरी भुगतान अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित मज़दूरी से न्यूनतम नहीं होना चाहिये। उच्च न्यायालय ने कहा कि हमारी राय में वेतन वृद्धि को गैर-मध्यस्थता नहीं कहा जा सकता है।
  • पंचाट को तब तक रद्द करने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि यह "पेटेंट की अवैधता" द्वारा दूषित न हो जाए, जो इस चेतावनी के साथ रिकॉर्ड पर दिखाई दे कि पंचाट को केवल विधि के गलत आवेदन या साक्ष्य की प्रशंसा के आधार पर रद्द नहीं किया जाना चाहिये।
  • फिर भी, इसमें हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं है, विशेषकर, जब व्याख्या विश्वसनीय हो।
  • मामले को सभी तरह से देखते हुए, इस न्यायालय को यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि पंचाट किसी भी पेटेंट अवैधता से ग्रस्त नहीं है, जिससे वर्तमान कार्यवाही में हस्तक्षेप की आवश्यकता हो।
  • इसलिये, उच्च न्यायालय ने वाणिज्यिक न्यायालय के निर्णय को यथावत रखा।
  • तद्नुसार, अपील गुणहीन होने के कारण खारिज किये जाने योग्य है।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

A & C अधिनियम की धारा 34:

यह अनुभाग मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिये आवेदन से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-

(1) किसी मध्यस्थ पंचाट के विरुद्ध न्यायालय का सहारा केवल उप-धारा (2) एवं उप-धारा (3) के अनुसार ऐसे पंचाट को रद्द करने के लिये एक आवेदन द्वारा किया जा सकता है।

(2) किसी मध्यस्थ पंचाट को न्यायालय द्वारा केवल तभी रद्द किया जा सकता है यदि-

(a) आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थ न्यायाधिकरण के रिकॉर्ड के आधार पर यह स्थापित करता है कि-

(i) एक पक्षकार किसी अक्षमता के अधीन था, या

(ii) मध्यस्थता समझौता उस विधि के अंतर्गत वैध नहीं है, जिसके लिये पक्षकारों ने इसे अधीन किया है या, उस पर किसी भी संकेत के अभाव में, उस समय लागू विधि के अंतर्गत वैध नहीं है, या

(iii) आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थ की नियुक्ति या मध्यस्थ कार्यवाही की उचित सूचना नहीं दी गई थी या अन्यथा वह अपना मामला प्रस्तुत करने में असमर्थ था, या

(iv) मध्यस्थ पंचाट ऐसे विवाद से निपटता है, जिस पर विचार नहीं किया गया है या जो मध्यस्थता में प्रस्तुत करने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है, या इसमें मध्यस्थता में प्रस्तुत करने के दायरे से बाहर के मामलों पर निर्णय सम्मिलित हैं:

बशर्ते, यदि मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत मामलों पर निर्णयों को इस प्रकार प्रस्तुत नहीं किये गए मामलों से अलग किया जा सकता है, तो मध्यस्थता पंचाट का केवल वह हिस्सा जिसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत नहीं किये गए मामलों पर निर्णय शामिल हैं, को अलग रखा जा सकता है, या

(v) मध्यस्थ न्यायाधिकरण या मध्यस्थ प्रक्रिया की संरचना, पक्षकारों के समझौते के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा समझौता, इस भाग के प्रावधान के साथ संघर्ष में न हो, जिससे पक्षकार अपमानित नहीं हो सकतीं, या ऐसा न होने पर समझौता नहीं किया जा सकता था। इस भाग के अनुसार नहीं, या

(b) न्यायालय ने पाया कि-

(i) विवाद की विषय वस्तु फिलहाल लागू विधि के अंतर्गत मध्यस्थता द्वारा निपटाने में सक्षम नहीं है, या

(ii) मध्यस्थ निर्णय भारत की सार्वजनिक नीति के विपरीत है।

(2A) अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थताओं से उत्पन्न एक मध्यस्थ पंचाट को भी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है, यदि न्यायालय को पता चलता है कि पंचाट  पर दिखाई देने वाली पेटेंट की अवैधता से पंचाट दूषित हो गया है:

बशर्ते कि किसी पंचाट को केवल विधि के गलत प्रयोग या साक्ष्य की पुनर्मूल्यांकन के आधार पर रद्द नहीं किया जाएगा।

(3) अलग करने के लिये कोई आवेदन उस तिथि से तीन महीने बीत जाने के बाद नहीं किया जा सकता है जिस दिन उस आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थ पंचाट प्राप्त हुआ था या, यदि धारा 33 के तहत अनुरोध किया गया था, तो उस तिथि से जब वह अनुरोध को मध्यस्थ न्यायाधिकरण द्वारा निपटाया गया था:

बशर्ते कि यदि न्यायालय संतुष्ट है कि आवेदक को तीन महीने की उक्त अवधि के भीतर आवेदन करने से पर्याप्त कारण से रोका गया था, तो वह तीस दिनों की अतिरिक्त अवधि के भीतर आवेदन पर विचार कर सकता है, लेकिन उसके बाद नहीं।

(4) उप-धारा (1) के अंतर्गत एक आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायालय, जहाँ यह उचित हो और किसी पक्ष द्वारा ऐसा अनुरोध किया गया हो, मध्यस्थता देने के लिये कार्यवाही को उसके द्वारा निर्धारित समय की अवधि के लिये स्थगित कर सकता है। न्यायाधिकरण को मध्यस्थ कार्यवाही को फिर से शुरू करने या ऐसी अन्य कार्रवाई करने का अवसर मिलेगा, जो मध्यस्थ न्यायाधिकरण की राय में मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिये आधार को समाप्त कर देगा।

(5) इस धारा के अंतर्गत एक आवेदन, एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को पूर्व सूचना जारी करने के बाद ही दायर किया जाएगा तथा ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त आवश्यकता के अनुपालन का समर्थन करने वाला एक शपथ-पत्र संलग्न किया जाएगा।

(6) इस धारा के अंतर्गत एक आवेदन का निपटान शीघ्रता से किया जाएगा, तथा किसी भी घटना में, उस तिथि से एक वर्ष की अवधि के भीतर, जिस दिन उप-धारा (5) में निर्दिष्ट नोटिस दूसरे पक्ष को दिया जाएगा।

A&C अधिनियम की धारा 37:
यह धारा अपील योग्य आदेशों से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-

(1) किसी भी समय लागू किसी भी अन्य विधि में निहित किसी भी प्रावधान के बावजूद, एक अपील निम्नलिखित आदेशों से (और किसी अन्य से नहीं) आदेश पारित करने वाले न्यायालय के मूल डिक्री से अपील सुनने के लिये  विधि द्वारा अधिकृत न्यायालय में की जाएगी, अर्थात्:-

(a) धारा 8 के अंतर्गत पक्षकारों को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने से मना करना;

(b) धारा 9 के अंतर्गत कोई उपाय देना या देने से मना करना;

(c) धारा 34 के अंतर्गत किसी मध्यस्थ पंचाट को रद्द करना या रद्द करने से मना करना।

(2) मध्यस्थ न्यायाधिकरण के आदेश के विरुद्ध अपील भी न्यायालय में की जाएगी-

(a) धारा 16 की उपधारा (2) या उपधारा (3) में निर्दिष्ट याचिका को स्वीकार करना, या

(b) धारा 17 के अंतर्गत अंतरिम उपाय देना या देने से मना करना।

(3) इस धारा के अंतर्गत अपील में पारित आदेश के विरुद्ध कोई दूसरी अपील नहीं की जाएगी, लेकिन इस धारा में कुछ भी उच्चतम न्यायालय  में अपील करने के किसी भी अधिकार को प्रभावित या छीन नहीं लेगा।