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आपराधिक कानून
ज़ब्ती रिपोर्ट
14-May-2024
शेंटो वर्गीस बनाम जुल्फिकार हुसैन एवं अन्य पुलिस अधिकारी द्वारा ज़ब्ती की शीघ्र सूचना, क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय को न देने से ज़ब्ती आदेश रद्द नहीं होगा। न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति अरविंद कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि, जब विधि के अंतर्गत यह आदेश नहीं है कि, कृत्य एक युक्तियुक्त समयावधि के अंदर किया जाना चाहिये, तो इससे तात्पर्य यह होगा कि कृत्य के युक्तियुक्त समयावधि अंदर ही किया जाना चाहिये। यह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 102 (3) के संदर्भ में कहा गया था।
शेंटो वर्गीस बनाम जुल्फिकार हुसैन एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- आरोपी (प्रतिवादियों) ने अपीलकर्त्ता से 47 केरल मॉडल के सोने की चेन का ऑर्डर दिया, जो एक कंपनी में डिलीवरी एजेंट के रूप में काम करता था।
- आरोपी, अपीलकर्त्ता को सोने की चेन के बदले समान मूल्य की सोने की ईंट प्रदान करने के लिये तैयार था।
- अपीलकर्त्ता की शिकायत के अनुसार उसे जो सोने की ईंटें सौंपी गईं, वे नकली थीं।
- उन्होंने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की तथा पुलिस ने जाँच शुरू की और जाँच के दौरान पुलिस ने पाया कि आरोपियों के बैंक खातों में 19,83,036/- रुपए की कुछ धनराशि जमा की गई थी।
- जाँच अधिकारी ने 09 जनवरी 2023 को आरोपियों के बैंक खाते फ्रीज़ करने के लिये बैंक को निर्देश दिया।
- खाता फ्रीज़ करने के आदेश की सूचना 27 जनवरी 2023 को मजिस्ट्रेट को दी गई।
- आरोपियों ने ज़ब्त किये गए बैंक खातों को कब्ज़े में लेने के लिये क्षेत्राधिकारी मजिस्ट्रेट से संपर्क किया।
- इसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय में अपील की तथा CrPC की धारा 482 के तहत याचिका दायर कर बैंक खातों को डी-फ्रीज़ करने की मांग की।
- उच्च न्यायालय ने बैंक खातों को डी-फ्रीज़ करने का आदेश पारित किया तथा इसलिये ज़ब्ती के आदेश को केवल इस आधार पर अमान्य कर दिया कि ज़ब्ती के आदेश की सूचना अविलंब मजिस्ट्रेट को नहीं दी गई थी।
- उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय (SC) के समक्ष अपील दायर की गई थी।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि पूर्व निर्णयों की वह पंक्ति, जिसमें यह माना गया है कि रिपोर्टिंग के दायित्व अनुपालन में विलंब के लिये 'ज़ब्ती आदेश' को दूषित कर दिया गया है, स्पष्ट रूप से गलत घोषित किया गया है तथा तद्नुसार, खारिज कर दिया गया है।
- न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट को ज़ब्ती की रिपोर्ट करने की बाध्यता न तो ज़ब्ती की शक्ति का प्रयोग करने के लिये न्यायिक पूर्व-निर्णय की आवश्यकता है तथा न ही ऐसी शक्ति का प्रयोग करने के लिये रिपोर्टिंग के दायित्व के अनुपालन के अधीन है।
- चूँकि अधिकारी पर ज़ब्ती की ‘अविलंब’ रिपोर्ट करने का दायित्व है, इसलिये ‘अविलंब’ का अर्थ समझना आवश्यक है तथा उच्चतम न्यायालय ने अविलंब का अर्थ समझाया। अभिव्यक्ति ‘अविलंब’ का अर्थ है 'जितना जल्दी हो सके', 'उचित गति और शीघ्रता के साथ', 'तत्परता की भावना के साथ' तथा 'बिना किसी अनावश्यक विलंब के'।
- उस अर्थ में, 'अविलंब' शब्द की व्याख्या उस क्षेत्र पर निर्भर करेगी, जिसमें वह यात्रा करता है तथा मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर अपना निर्णय लेगा, जो कि परिवर्तनशील हो सकता है।
- इसलिये, यह तय करने में कि क्या पुलिस अधिकारी ने CrPC की धारा 102(3) के अधीन अपने दायित्व का पूर्ण निर्वहन किया है, मजिस्ट्रेट को सबसे पहले यह जाँच करनी होगी कि क्या ज़ब्ती की अविलंब सूचना दी गई थी।
- उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि इस तरह के विलंब के कारण ज़ब्ती का कार्य दूषित नहीं होगा।
कुछ संपत्ति ज़ब्त करने के पुलिस अधिकारी की शक्ति से संबंधित प्रावधान का विधिक इतिहास क्या है?
दण्ड प्रक्रिया संहिता |
धारा |
प्रावधानों का विवरण |
1882 |
धारा 523 |
किसी भी पुलिस-अधिकारी द्वारा धारा 51 के अंतर्गत ली गई संपत्ति की ज़ब्ती, या चोरी होने का आरोप या संदेह, या ऐसी परिस्थितियों में पाया जाना, जो किसी अपराध के घटित होने का संदेह पैदा करता है, तुरंत एक मजिस्ट्रेट को सूचित किया जाएगा, जो ऐसा आदेश देगा, जैसा कि वह ऐसी संपत्ति को उसके स्वामित्व के अधिकारी व्यक्ति को सौंपने के संबंध तो ऐसी संपत्ति की अभिरक्षा एवं उत्पादन के संबंध में में उचित समझता है, या, यदि ऐसे व्यक्ति को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। |
1898 |
धारा 550 |
कोई भी पुलिस कार्यालय, किसी भी संपत्ति को ज़ब्त कर सकता है जिस पर चोरी होने का आरोप हो या संदेह हो, या जो ऐसी परिस्थितियों में पाई जा सकती है, जो किसी अपराध के घटित होने का संदेह पैदा करती हो, ऐसा पुलिस-अधिकारी, यदि किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी कार्यालय के अधीनस्थ है, तो शीघ्र उस अधिकारी को ज़ब्ती की रिपोर्ट करेगा। |
1973 |
धारा 102 |
(1) कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी संपत्ति को ज़ब्त कर सकता है, जिस पर चोरी होने का आरोप या संदेह हो, या जो ऐसी परिस्थितियों में पाई जा सकती है, जो किसी अपराध के होने का संदेह पैदा करती है। (2) ऐसा पुलिस अधिकारी, यदि वह किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी के अधीनस्थ है, तो ज़ब्ती की रिपोर्ट तुरंत उस अधिकारी को देगा। (3) उप-धारा (1) के अनुसार कृत्य करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी तुरंत ज़ब्ती की रिपोर्ट अधिकार क्षेत्र वाले मजिस्ट्रेट को देगा और जहाँ ज़ब्त की गई संपत्ति ऐसी है कि इसे आसानी से न्यायालय में नहीं ले जाया जा सकता है, या जहाँ उचित आवास सुरक्षित करने में कठिनाई हो रही है, ऐसी संपत्ति की अभिरक्षा के लिये, या जहाँ संपत्ति को पुलिस अभिरक्षा में बनाए रखना जाँच के उद्देश्य के लिये आवश्यक नहीं माना जा सकता है, वह किसी भी व्यक्ति को उसके समक्ष संपत्ति का उत्पादन करने के लिये बांड निष्पादित करने पर उसकी अभिरक्षा दे सकता है। न्यायालय को जब भी आवश्यक हो तथा उसके निपटान के संबंध में न्यायालय के अगले आदेशों को प्रभावी करना होगा: बशर्ते कि जहाँ उपधारा (1) के अंतर्गत ज़ब्त की गई संपत्ति त्वरित एवं प्राकृतिक क्षय के अधीन है और यदि ऐसी संपत्ति के कब्ज़े का स्वामी व्यक्ति अज्ञात या अनुपस्थित है तथा ऐसी संपत्ति का मूल्य पाँच सौ रुपए से कम है, तो यह हो सकता है, पुलिस अधीक्षक के आदेशों के अधीन तुरंत नीलामी द्वारा बेचा जाएगा एवं धारा 457 तथा 458 के प्रावधान, जहाँ तक संभव हो, ऐसी बिक्री की शुद्ध आय पर लागू होंगे। |
2023 (भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता |
धारा 106 |
(1) कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी संपत्ति को ज़ब्त कर सकता है, जिस पर चोरी होने का आरोप या संदेह हो, या जो ऐसी परिस्थितियों में पाई जा सकती है, जो किसी अपराध के होने का संदेह पैदा करती है। (2) ऐसा पुलिस अधिकारी, यदि वह किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी के अधीनस्थ है, तो ज़ब्ती की रिपोर्ट तुरंत उस अधिकारी को देगा। (3) उप-धारा (1) के तहत कार्य करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी तुरंत ज़ब्ती की रिपोर्ट अधिकार क्षेत्र वाले मजिस्ट्रेट को देगा और जहाँ ज़ब्त की गई संपत्ति ऐसी है कि इसे आसानी से न्यायालय में नहीं ले जाया जा सकता है, या जहाँ उचित आवास सुरक्षित करने में कठिनाई हो रही है, ऐसी संपत्ति की अभिरक्षा के लिये, या जहाँ संपत्ति को पुलिस अभिरक्षा में रखना जाँच के प्रयोजन के लिये आवश्यक नहीं माना जा सकता है, वह न्यायालय के समक्ष संपत्ति की सुरक्षा करने के लिये बांड निष्पादित करने पर किसी भी व्यक्ति को उसकी अभिरक्षा दे सकता है। जब भी आवश्यक हो और उसके निपटान के संबंध में न्यायालय के अगले आदेशों को प्रभावी करना: बशर्ते कि जहाँ उपधारा (1) के तहत ज़ब्त की गई संपत्ति त्वरित और प्राकृतिक क्षय के अधीन है तथा यदि ऐसी संपत्ति के कब्ज़े का स्वामी अज्ञात या अनुपस्थित है एवं ऐसी संपत्ति का मूल्य पाँच सौ रुपए से कम है, तो यह हो सकता है पुलिस अधीक्षक के आदेश के तहत तुरंत नीलामी द्वारा बेचा जाएगा तथा धारा 505 और 506 के प्रावधान, जहाँ तक संभव हो, ऐसी बिक्री की शुद्ध आय पर लागू होंगे। |
CrPC की धारा 102 से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?
- नेवादा प्रॉपर्टीज़ प्राइवेट लिमिटेड (अपने निदेशकों के माध्यम से) बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2019):
- उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि CrPC की धारा 102 के अधीन 'किसी भी संपत्ति' शब्द में 'अचल संपत्ति' शामिल नहीं होगी।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि संहिता की धारा 102 के अधीन एक पुलिस अधिकारी की किसी संपत्ति को ज़ब्त करने की शक्ति, जो ऐसी परिस्थितियों में पाई जा सकती है, जो किसी अपराध के होने का संदेह पैदा करती है, में किसी अचल संपत्ति को कुर्क करने, ज़ब्त करने और सील करने की शक्ति शामिल नहीं होगी।
- रतन बाबूलाल लाठ बनाम कर्नाटक राज्य (2021):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन आरोपी व्यक्ति का बैंक खाता CrPC की धारा 102 लागू करके कुर्क नहीं किया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 102 का सहारा लेकर अपीलकर्त्ता के बैंक खाते को फ्रीज़ करना संभव नहीं है, क्योंकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम अपने आप में एक संहिता है।
सांविधानिक विधि
परित्यक्ता पुत्रियों को अनुकंपा नियुक्ति
14-May-2024
अख्तरी खातून बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य "अनुकंपा नियुक्ति पाने के लिये परित्यक्ता बेटियों को मृत कर्मचारी की मृत्यु के समय उस पर निर्भरता दिखानी होगी”। न्यायमूर्ति जे. जे. मुनीर |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति जे. जे. मुनीर की पीठ ने कहा कि "यदि कार्यरत कर्मचारी की मृत्यु की तिथि पर, यह सिद्ध किया जा सकता है कि एक विवाहित बेटी उस पर निर्भर है, या उसकी विधवा एवं अप्राप्तवय, परिवार के सदस्यों की देखभाल विवाहित द्वारा की जा सकती है, यदि बेटी को अनुकंपा नियुक्ति दी जाती है, तो यह दावे पर विचार करने और निषेधात्मक नियम की वैधता का निर्णय करने का मामला हो सकता है।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी अख्तरी खातून बनाम UP राज्य एवं अन्य के मामले में दी थी।
अख्तरी खातून बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता के पिता, नसीर अहमद, पूर्वाचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (निगम) के कर्मचारी थे, जिनकी कार्यस्थल पर मृत्यु हो गई।
- याचिकाकर्त्ता ने तलाकनामा के ज़रिए अपने पति निसार अहमद से परित्यक्ता होने का दावा किया।
- याचिकाकर्त्ता ने अपने मृत पिता के विधिक उत्तराधिकारी के रूप में निगम से अनुकंपा नियुक्ति एवं पारिवारिक पेंशन की मांग की।
- निगम ने उससे उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र मांगा, जो उसने ज़िला न्यायालय से प्राप्त किया तथा उसे अपने पिता के सेवानिवृत्त बकाए का अधिकारी घोषित किया।
- हालाँकि, याचिकाकर्त्ता ने याचिका दायर कर आरोप लगाया कि उसे वर्ष 2019-20 में शुरुआत में कुछ अवधि के लिये उसके पिता की सेवानिवृत्ति की बकाया राशि एवं पेंशन का भुगतान तो किया गया था, लेकिन निगम ने इसे बिना किसी उचित कारण के रोक भी दिया था।
- उसने अपने मृत पिता के विधिक उत्तराधिकारी के रूप में निगम से स्वयं को अनुकंपा नियुक्ति देने का निर्देश देने की मांग की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने कहा कि परित्यक्ता बेटियों को अनुकंपा नियुक्ति पाने के लिये मृत कर्मचारी की मृत्यु के समय उस पर निर्भरता दिखानी होगी।
- इसलिये, न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता यह सिद्ध करने में विफल रहा:
- उसकी मृत्यु के समय मृत कर्मचारी पर उसकी निर्भरता
- उसके तलाक को सिद्ध करने के लिये तलाकनामा की प्रामाणिकता
- मृतक के अन्य आश्रितों के विषय में पूर्ण विवरण, जिनका उसने समर्थन करने का दावा किया है।
- पारिवारिक पेंशन पर, न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता ने अपने पिता की सेवाओं के लिये पारिवारिक पेंशन प्राप्त करने का अधिकार देने वाले किसी भी वैधानिक नियम का उल्लेख नहीं किया है।
- याचिका खारिज कर दी गई।
अनुकंपा नियुक्ति पर महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?
- श्रीमती विमला श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2016)
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश में कार्यस्थल पर मरने वाले सरकारी सेवकों के आश्रितों की भर्ती नियम, 1974 के नियम 2 (c) (iii) में 'अविवाहित' अर्हक 'बेटी' शब्द को संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 15 के उल्लंघन के रूप में खारिज कर दिया।
- UP राज्य एवं अन्य बनाम माधवी मिश्रा एवं अन्य (2021):
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि एक विवाहित बेटी अधिकार के रूप में अनुकंपा नियुक्ति का दावा नहीं कर सकती।
- कर्नाटक में ट्रेजरी के निदेशक एवं अन्य बनाम वी. सौम्याश्री, (2021):
- उच्चतम न्यायालय ने अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति देने को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत का सारांश इस प्रकार दिया-
- अनुकंपा नियुक्ति, सामान्य नियम का अपवाद है;
- किसी भी अभ्यर्थी को अनुकंपा नियुक्ति का अधिकार नहीं है,
- राज्य की सेवा में किसी भी सार्वजनिक पद पर नियुक्ति, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 16 के अनुसार सिद्धांत के आधार पर की जानी है,
- अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति, केवल राज्य की नीति द्वारा निर्धारित मानदंडों को पूरा करने और/या नीति के अनुसार पात्रता मानदंडों की संतुष्टि पर ही की जा सकती है,
- आवेदन पर विचार की तिथि पर प्रचलित मानदंड अनुकंपा नियुक्ति के दावे पर विचार करने का आधार होना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति देने को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत का सारांश इस प्रकार दिया-
- महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य बनाम सुश्री माधुरी मारुति विधाते (2022):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि, मृत कर्मचारी की विवाहित बेटी को, विशेष रूप से कर्मचारी की मृत्यु के काफी समय बाद, उसकी मृत माँ के ऊपर निर्भर नहीं माना जा सकता है।
सिविल कानून
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 212
14-May-2024
गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय बनाम अनिल जिंदल "कंपनी अधिनियम के नियमों का पालन नहीं करने पर, किसी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारणों को सूचित करने की आवश्यकता नहीं है। अगर उसको औपचारिक रूप से गिरफ्तार नहीं किया गया है"। न्यायमूर्ति कुलदीप तिवारी |
स्रोत: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय बनाम अनिल जिंदल के मामले में कंपनी अधिनियम, 2013 के अधीन गंभीर धोखाधड़ी के मामलों में दिये गए ज़मानत आदेश को पलट दिया है।
गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय बनाम अनिल जिंदल मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में साझा विधिक प्रश्नों एवं राहत की माँग के कारण सामान्य निर्णयों की माँग करने वाली कई याचिकाएँ सम्मिलित हैं।
- इस मामले की जड़ वित्तीय घोटाले के आरोपी प्रतिवादियों को दिये गए ज़मानत आदेशों में निहित है।
- इस मामले का कथित सूत्रधार होने के बावजूद, उन्हें ट्रायल कोर्ट द्वारा नियमित ज़मानत दी गई थी।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि अदालत ने प्रतिवादियों की आर्थिक अपराध में संलिप्तता के महत्त्वपूर्ण साक्ष्यों को नज़रअंदाज़ कर दिया।
- याचिकाकर्त्ता ने 19 दिसंबर 2023 को दी गई ज़मानत को रद्द करने की माँग की।
- विशेषकर, प्रतिवादी की पहली तीन ज़मानत प्रयासों में विफलता के उपरांत, चौथा सफल प्रयास एवं उसके बाद का ज़मानत आदेश, याचिकाकर्त्ता के लिये विशेष रूप से निराशाजनक था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि केवल कंपनी अधिनियम नियमों में उल्लिखित औपचारिकताओं का पालन करने में विफल होने से, 2013 के अधिनियम की धारा 212(8) में उल्लिखित आदेश का उल्लंघन नहीं होता है, विशेषकर जब आरोपी व्यक्ति को औपचारिक रूप से गिरफ्तार नहीं किया गया हो।
- अधिनियम की धारा 212(8) के अधीन, यदि केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत SFIO के निदेशक, अतिरिक्त निदेशक या सहायक निदेशक को लिखित अभिलेखों के आधार पर विश्वास है, कि किसी व्यक्ति ने उल्लिखित धाराओं के अधीन दंडनीय अपराध किया है तो इन धाराओं के अंतर्गत, वे उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं तथा उन्हें गिरफ्तारी के कारणों के विषय में गिरफ्तार व्यक्ति को तुरंत सूचित करना होगा।
- न्यायालय ने पाया कि 2017 के नियमों के नियम 4 में उल्लिखित औपचारिकता का अनुपालन न करना, 2013 के अधिनियम की धारा 212(8) में दिये गए आदेश का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है, जैसा कि मौजूदा मामले में है। चूँकि कोई औपचारिक गिरफ्तारी नहीं हुई थी, अतः याचिकाकर्त्ता के लिये उपरोक्त नियमों का अनुपालन करने का कोई अवसर नहीं मिला, जो केवल तभी किया जा सकता था, जब याचिकाकर्त्ता द्वारा प्रतिवादी की औपचारिक गिरफ्तारी की गई थी”।
- इसके अलावा न्यायालय ने इस बात पर महत्त्व देते हुए कहा कि इन प्रावधानों को शामिल करने का मुख्य उद्देश्य अधिकृत अधिकारी की विवेकाधीन शक्तियों को सीमित करना तथा SFIO की गिरफ्तारी प्रक्रिया में निष्पक्षता एवं उत्तरदायित्व को समाहित करना है, विशेष रूप से यह देखते हुए कि गिरफ्तारी के बाद, आरोपी को 2013 अधिनियम की धारा 212(6) के प्रावधानों से गुज़रना होगा।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि चूँकि SFIO ने वारंट और न्यायिक अभिरक्षा रिमांड के लिये आवेदनों में विस्तृत सामग्री प्रदान करके सभी विधायी सुरक्षा उपायों का पालन किया था, अतः आरोपी के पास 2017 के नियमों के अनुसार "गिरफ्तारी आदेश" का अनुरोध करने का कोई कारण नहीं था, विशेषकर यह देखते हुए कि कोई औपचारिक गिरफ्तारी नहीं हुई थी।
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 212 क्या है?
- परिचय:
- धारा 212, गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय द्वारा कंपनी मामलों की जाँच से संबंधित है।
- यह केंद्र सरकार को गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (SFIO) द्वारा किसी कंपनी के मामलों की जाँच का आदेश देने का अधिकार देता है यदि SFIO को विश्वास है कि व्यवसाय धोखाधड़ी के इरादे से अथवा जनहित के लिये हानिकारक रूप से संचालित किया जा रहा है।
- यह धारा इस प्रकार की जाँच करने के लिये SFIO की शक्तियों, प्रक्रियाओं एवं अधिकारियों की रूपरेखा बनाती है तथा इसमें कंपनी धोखाधड़ी से संबंधित अपराध करने के संदेह में व्यक्तियों को गिरफ्तार करने की शक्ति भी निहित है।
- विधिक प्रावधान:
- धारा 212(8) यदि केंद्र सरकार के सामान्य अथवा विशेष आदेश द्वारा इस संबंध में अधिकृत गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय के निदेशक, अतिरिक्त निदेशक या सहायक निदेशक के पास मौजूद सामग्री के आधार पर विश्वास करने का कारण है (इस विश्वास का कारण लिखित रूप में होना चाहिये) कि कोई भी व्यक्ति उप-धारा (6) में निर्दिष्ट धाराओं के अधीन दण्डनीय अपराध का दोषी है, तो वह ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है तथा जितनी जल्दी हो सके, उस व्यक्ति को इस गिरफ़्तारी के आधार के विषय में सूचित करेगा।
- निर्णयज विधि:
- उच्चतम न्यायालय के पंकज बंसल बनाम भारत संघ और अन्य मामले में इस बात पर महत्त्व दिया गया कि 2013 अधिनियम की धारा 212(8) के प्रावधानों तथा 2017 के नियमों के नियम 4 का पालन करने में विफलता किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी को अमान्य कर देती है, तथा उसे नियमित ज़मानत का अधिकार प्रदान करती है।
कॉर्पोरेट धोखाधड़ी क्या है?
- भारत दशकों से कॉर्पोरेट धोखाधड़ी से जूझ रहा है, जिसमें 1950 के दशक में LIC /मुंदड़ा घोटाला जैसी उल्लेखनीय घटनाएँ शामिल हैं। हालाँकि उस समय के कंपनी अधिनियम ने 'धोखाधड़ी' की एक अलग परिभाषा प्रदान नहीं की थी क्योंकि भारतीय दंड संहिता में पहले से ही ऐसे अपराधों को व्यापक रूप से सम्मिलित किया गया था।
- ईरानी रिपोर्ट के आधार पर, 1956 के अधिनियम को बदलने के लिये प्रस्तावित 2008 के कंपनी विधेयक में धोखाधड़ी को संबोधित करने वाली धारा 447 जैसा कोई प्रावधान शामिल नहीं था।
- वर्ष 2007-08 के बड़े कॉर्पोरेट घोटालों ने संसदीय स्थायी समिति को निम्न अनुशंसाएँ करने के लिये प्रेरित किया:
- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 447 के अंतर्गत धोखाधड़ी की एक अलग परिभाषा प्रस्तुत करना।
- ऐसी धोखाधड़ी की जाँच के लिये अधिनियम की धारा 212 के अधीन गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (SFIO) की स्थापना करना।
कंपनी अधिनियम, 2013 में धोखाधड़ी के लिये विधिक प्रावधान क्या हैं?
- धारा 447 धोखाधड़ी के दण्ड से संबंधित है।
- इसमें प्रावधान है कि धोखाधड़ी का दोषी पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति को कम-से-कम छह महीने से लेकर अधिकतम दस वर्ष तक का कारावास हो सकता है। इसके अतिरिक्त, जितनी राशि की धोखाधड़ी की गई थी, उस राशि का तीन गुना तक ज़ुर्माना लगाया जा सकता है तथा यह ज़ुर्माना धोखाधड़ी की गई राशि से कम नहीं हो सकता है।
कॉर्पोरेट धोखाधड़ी के लिये दण्डनीय अपराध क्या हैं?
धोखाधड़ी से पहले के अपराध
प्रासंगिक धाराएँ |
अपराध की प्रकृति |
अपराध के लिये उत्तरदायी व्यक्ति |
धारा 7(5); 7(6); और 8(1) |
|
प्रवर्तक, प्रथम निदेशक और घोषणा करने वाले व्यक्ति। कंपनी के निदेशक और अधिकारी। |
धारा 34 |
गलत या भ्रामक सूचना वाला सूचीपत्र जारी करना। |
सूचीपत्र जारी करने के लिये किसी को अधिकृत करने वाला व्यक्ति |
धारा 36 |
झूठी, कपटपूर्ण , भ्रामक अथवा छुपाई गई सूचना के आधार पर व्यक्तियों को पैसा निवेश करने या बैंकों/वित्तीय संस्थानों से ऋण सुविधाएँ प्राप्त करने के लिये प्रेरित करना। |
दूसरे व्यक्ति को ऐसा प्रेरित करने वाला व्यक्ति |
धारा 38(1) |
छद्म नामों से आवेदन जमा करना अथवा शेयर प्राप्त करने के लिये कई आवेदन जमा करना अथवा कंपनी को छद्म नामों से शेयर आवंटित करने अथवा पंजीकृत करने के लिये राज़ी करना। |
वह व्यक्ति जो ऐसे आवेदन करता है तथा जो कंपनी को इस प्रकार राज़ी करता है। |
धारा 46(5) |
धोखाधड़ी के इरादे से जाली (नकली) शेयर प्रमाण-पत्र जारी करना। |
चूक करने वाले अधिकारी |
धारा 56(7) |
धोखाधड़ी के इरादे से, डिपॉजिटरी के माध्यम से शेयरों को स्थानांतरित करना अथवा प्रसारित करना। |
डिपॉजिटरी/डिपॉजिटरी भागीदार। |
धारा 66(10) |
ऐसे ऋणदाता की पहचान छिपाना जो या तो पूँजी में कमी पर आपत्ति करता है अथवा किसी ऋण की प्रकृति, राशि या दावे को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है। |
नाम छिपाने अथवा गलत बयानी करने वाले अधिकारी |
धोखाधड़ी के अपराध के बाद की स्थिति:
प्रासंगिक धाराएँ |
अपराध की प्रकृति |
अपराध के लिये उत्तरदायी व्यक्ति |
धारा 75(1) |
धोखाधड़ी के आशय से या कपटपूर्ण उद्देश्यों के लिये जमा स्वीकार करना या निर्दिष्ट समय-सीमा के अंदर जमा एवं ब्याज चुकाने में असफल होना। |
जमा स्वीकार करने के लिये प्रत्येक अधिकारी उत्तरदायी है। |
धारा 140(5) |
लेखापरीक्षकों को कपटपूर्ण गतिविधियों में शामिल पाया गया या कंपनी, उसके निदेशकों या अधिकारियों द्वारा की गई धोखाधड़ी में सहायता करने एवं बढ़ावा देने का दोषी पाया गया। |
ऑडिटर व्यक्तिगत रूप से या फर्म या ऑडिट फर्म के भागीदार संयुक्त रूप से या अलग-अलग |
धारा 206(4) |
कंपनी धोखाधड़ी या अविधिक उद्देश्यों के लिये व्यवसाय में संलग्न है। |
चूक करने वाले अधिकारी |
धारा 213 का परंतुक |
धोखाधड़ी या अविधिक आशय के साथ एक कंपनी बनाना या सदस्यों या लेनदारों को धोखा देने के उद्देश्य से व्यावसायिक परंपरा में संलग्न होना। |
चूक करने वाला अधिकारी और कंपनी के गठन/इसके मामलों के प्रबंधन से संबंधित व्यक्ति।
|
धारा 229 |
कंपनी की संपत्ति, परिसंपत्तियों या मामलों से संबंधित किसी दस्तावेज़ के विषय में गलत बयान देना या छेड़छाड़ करना, नष्ट करना, छिपाना या हटाना। |
ऐसा व्यक्ति, जो गलत जानकारी देता है अथवा किसी दस्तावेज़ को विकृत करता है, नष्ट करता है, छुपाता है, छेड़छाड़ करता है या हटा देता है। |
धारा 251(1) |
कंपनी की देनदारियों से बचने अथवा उसके लेनदारों या व्यक्तियों को धोखा देने के इरादे से कंपनी का नाम हटाने (स्वेच्छा से नाम काटने) के लिये आवेदन करना। |
कंपनी के प्रबंधन का प्रभारी व्यक्ति। |
धारा 266 (1) |
धन या संपत्ति का दुरुपयोग करने अथवा आर्थिक रूप से संकटग्रस्त कंपनी से संबंधित किसी गड़बड़ी में शामिल होने का दोषी पाया जाना। |
ऐसे किसी कदाचार का दोषी व्यक्ति |
धारा 339 (3) |
लेनदारों अथवा अन्य व्यक्तियों को धोखा देने के इरादे से व्यवसाय संचालित करना। |
वह व्यक्ति जो जानबूझकर कंपनी के कारोबार को चलाने में एक पक्ष था। |
धारा 448 |
किसी रिटर्न, रिपोर्ट, प्रमाण-पत्र, वित्तीय विवरण, विवरणिका आदि में गलत सूचना प्रदान करना। |
ऐसे गलत बयान देने वाला व्यक्ति |