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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम के तहत मध्यस्थ की नियुक्ति

 15-May-2024

मेसर्स श्री स्वामीनारायण ट्रेवल्स बनाम मेसर्स ऑयल नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड

“न्यायालय धारा 11(6) के अंतर्गत मध्यस्थ तभी नियुक्त कर सकती है जब दोनों पक्ष नोटिस के बाद भी विवाद को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने में विफल रहते हैं”।

 मुख्य न्यायमूर्ति धीरज सिंह ठाकुर

स्रोत: आंध्र प्रदेश उच्च न्यायलय

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में एक मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 11(6) के तहत एक आवेदन को मान्य करने के लिये, आवेदक को यह प्रदर्शित करना होगा कि प्रतिवादियों ने मध्यस्थता के लिये निर्धारित आवश्यकताओं का पालन नहीं किया है एवं मध्यस्थता को सक्रिय करने के लिये नोटिस दिये जाने के बावजूद विवादों को मध्यस्थ को संदर्भित करने में विफल रहे हैं।

मेसर्स श्री स्वामीनारायण ट्रेवल्स बनाम मेसर्स ऑयल नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (ONGC) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • ONGC ने चार वर्षों में 24 घंटे की ड्यूटी के लिये आठ 25 सीटों वाली एसी शिफ्ट बसों को किराए पर लेने के लिये एक निविदा जारी की।
  • याचिकाकर्त्ता ने अनुबंध सुरक्षित कर लिया और 08.04.2019 को एक समझौता किया।
  • विवाद उत्पन्न हुआ, ONGC ने बाद के बिलों से 65,61,300/- रुपए की वसूली की माँग की।
  • याचिकाकर्त्ता ने बाहरी विशेषज्ञ समिति (OEC) के माध्यम से समाधान का अनुरोध किया परंतु उसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
  • याचिकाकर्त्ता ने A&C अधिनियम की धारा 11(6) के तहत आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।
  • प्रतिवादियों ने समझौते के अनुसार मध्यस्थता के माध्यम से निर्णय के लिये तर्क दिया।
  • उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि धारा 11 आवेदन के लिये पूर्व मध्यस्थता नोटिस की आवश्यकता है।
  • समझौते के खंड 27.1.3 और A&C अधिनियम की धारा 21 के अनुसार नोटिस की अनुपस्थिति के कारण आवेदन खारिज कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • अदालत ने कहा कि अनुबंध का खंड 27.1 निर्दिष्ट करता है कि मध्यस्थता समझौते में अनिवार्य विवाद नोटिस जारी होने के उपरांत केवल 60 दिन की अवधि के बाद ही शुरू की जा सकती है।
  • खंड 27.3 विवाद समाधान प्रक्रिया की रूपरेखा प्रस्तुत करता है, जिसके लिये किसी भी पक्ष द्वारा विरोधी पक्ष के अधिकारी को एक लिखित विवाद नोटिस देना आवश्यक है।दोनों पक्षों को गोपनीयता बनाए रखते हुए निर्दिष्ट 60 दिन की अवधि के भीतर एक सौहार्दपूर्ण समाधान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये।
  • आगे न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता द्वारा OEC द्वारा सुलह के माध्यम से विवादों को हल करने के स्पष्ट प्रयास के बावजूद, 60 दिन की अवधि समाप्त होने के उपरांत भी प्रतिवादियों को मध्यस्थता खंड लागू करने का कोई औपचारिक नोटिस नहीं दिया गया था।
  • उच्च न्यायालय ने A&C अधिनियम की धारा 11(6) का हवाला दिया, जो दोनों पक्षों को मध्यस्थ के पास विवाद संदर्भ के लिये आवेदन करने का अधिकार देता है यदि दूसरा पक्ष निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने में विफल हो जाता है।
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 11(6) के तहत एक आवेदन को बनाए रखने के लिये, याचिकाकर्त्ता को यह प्रदर्शित करना आवश्यक था कि प्रतिवादी मध्यस्थता खंड का पालन करने में विफल रहे एवं मध्यस्थता खंड को लागू करने वाला नोटिस प्राप्त करने के उपरांत भी विवादों को मध्यस्थ के पास नहीं भेजा।
  • साथ ही, उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि A&C अधिनियम की धारा 11 के तहत आवेदन प्रारंभ करना, मध्यस्थता के लिये नामित दावों के संबंध में, मध्यस्थता की सूचना देने के बाद ही स्वीकार्य है।
  • हालाँकि, उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि, समझौते के खंड 27.1.3 और A&C अधिनियम की धारा 21 के अनुसार प्रतिवादियों को दिये गए किसी भी नोटिस की अनुपस्थिति के कारण, विवादों को निर्णय के लिये एक स्वतंत्र मध्यस्थ के पास नहीं भेजा जा सकता है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 क्या है?

  • A&C अधिनियम की धारा 11 में हाल के वर्षों में विभिन्न निर्वचन एवं संशोधन हुए हैं।
  • भारतीय न्यायालय परंपरागत रूप से मानते थे कि धारा 11 के अंतर्गत जाँच का दायरा मध्यस्थता समझौते के अस्तित्त्व का निर्धारण करने तक ही सीमित था।
  • धारा 11 के अंतर्गत न्यायपालिका की भूमिका, विवाद के विवरण को बिना जाने, मध्यस्थता समझौते और विवाद की प्रारंभिक पहचान करने तक सीमित थी।
  • धारा 11 के अंतर्गत एक आवेदन ने न्यायालय को अपनी भागीदारी का आकलन करने के लिये बाध्य किया जिसके बिंदु निम्नवत हैं :
    • क्या पार्टियों के बीच वैध मध्यस्थता समझौता मौजूद है, और
    • यदि ऐसे समझौते से उत्पन्न होने वाले किसी भी विवाद के लिये मध्यस्थ की नियुक्ति आवश्यकता है।
  • हालाँकि, हाल के निर्णयों में इस स्थापित सिद्धांत से विचलन देखा गया है। न्यायालय अब न केवल मध्यस्थता समझौते की पहचान करती हैं बल्कि संबंधित प्रथम दृष्टया प्रश्नों की जाँच एवं निर्धारण भी करती हैं।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 की रूपरेखा क्या है?

  • अधिनियम की धारा 11, मध्यस्थता कार्यवाही में मध्यस्थों की नियुक्ति को संबोधित करती है।
  • यह पक्षों को मध्यस्थों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सहमत होने के विकल्प प्रदान करता है।
  • यदि पक्ष मध्यस्थ नियुक्तियों पर सहमत नहीं हो सकते हैं, तो धारा 11 उन्हें उप-धारा (4), (5) और (6) के माध्यम से ऐसी नियुक्तियों के लिये माननीय सर्वोच्च न्यायालय या माननीय उच्च न्यायालय से संपर्क करने में सक्षम बनाती है।
  • धारा 11 में संशोधन, मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 ("2015 संशोधन") तथा मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019 ("2019 संशोधन"), के माध्यम से निहित किये गए हैं।
  • वर्ष 2015 के संशोधन ने धारा 11 में उपधारा 6 A जोड़ दी, जिससे अदालत की जाँच केवल मध्यस्थता समझौते के 'अस्तित्त्व' तक सीमित हो गई।
  • 2019 संशोधन ने सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा, मध्यस्थों की नियुक्ति की शक्ति को, न्यायालयों से नामित मध्यस्थ संस्थानों में स्थानांतरित कर दिया, हालाँकि यह संशोधन अभी तक प्रभावी नहीं है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 से संबंधित प्रमुख संशोधन क्या हैं?

  • संशोधन 2015:
    • मध्यस्थों की नियुक्ति अब भारत के मुख्य न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के बजाए मामले की प्रकृति के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा की जाएगी।
    • मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये आवेदनों का तुरंत निपटान किया जाएगा, विरोधी पक्ष को नोटिस की तारीख से 60 दिन की अवधि के भीतर उन्हें हल करने का प्रयास किया जाएगा।
    • उच्च न्यायालय को मध्यस्थ न्यायाधिकरण की फीस तथा ऐसे भुगतान के तरीके बका निर्धारण के लिये नियम स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। इन नियमों के लिये अधिनियम की चौथी अनुसूची में उल्लिखित शुल्क दरों पर विचार करना चाहिये।
  • संशोधन 2019:
    • 2019 संशोधन अधिनियम, उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट की अनुशंसाओं के आधार पर, संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था।
    • प्रमुख संशोधनों में सम्मिलित हैं:
      • स्वतंत्र एवं स्वायत्त "भारतीय मध्यस्थता परिषद" की स्थापना।
    • अधिनियम की धारा 11 में, विशेष रूप से "मध्यस्थों की नियुक्ति" पर ध्यान केंद्रित करते हुए संशोधन करना ।
    • इस संशोधन के माध्यम से उप-धारा (6-A) और (7) को निरस्त कर दिया गया।
    • ACA की संशोधित धारा 11(6) यह अनिवार्य करती है कि मध्यस्थों को नामित मध्यस्थ संस्था द्वारा नियुक्त किया जाए।
    • नियुक्ति प्रक्रिया पक्षों के आवेदन पर आधारित होती है एवं अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिये सर्वोच्च न्यायालय अथवा अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थता के लिये उच्च न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था द्वारा की जाती है।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • दोनों में, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम नरभेराम पावर एंड स्टील प्राइवेट लिमिटेड और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम हुंडे इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन (2018) में उच्चतम न्यायालय ने मध्यस्थता करार के अस्तित्त्व की पहचान करने के अतिरिक्त, जाँच किया कि क्या मध्यस्थता करार को प्रभावी बनाने के लिये संविदा में निर्धारित शर्तें पूरी की गई हैं।
  • गरवरे वॉल रोप्स लिमिटेड बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन्स एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड (2018) मामले में उच्चतम न्यायालय की राय थी कि धारा 11 के अंतर्गत एक आवेदन पर तभी निर्णय लिया जा सकता है, जब मध्यस्थता खंड या मध्यस्थता खंड वाले संविदा पर पर्याप्त मुहर लगी हो। उप-धारा (6-A) पर विचार करते हुए कोई यह तर्क दे सकता है कि मध्यस्थता करार के अस्तित्त्व की जाँच में यह शामिल नहीं है कि क्या इस तरह के करार पर पर्याप्त मुहर लगी है।

सिविल कानून

उपभोक्ता संरक्षण अ धिनियम, 2019 के अंतर्गत अधिवक्ताओं को उत्तरदायित्व से मुक्ति

 15-May-2024

बार ऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी.के.गांधी

“विधिक व्यवसाय करने वाले अधिवक्ताओं के विरुद्ध "सेवा में कमी" का आरोप लगाने वाली शिकायत, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति योग्य नहीं मानी जाएगी”।

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं पंकज मिथल की खंडपीठ ने कहा कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत सेवाओं में कमी के लिये अधिवक्ताओं को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी बार ऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी.के. गांधी के मामले में दी।

बार ऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी.के. गांधी मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • प्रारंभ:
    • श्री डी. के. गांधी ने 20,000 रुपए का चेक बाउंस होने पर श्री कमल शर्मा के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के अंतर्गत मामला दर्ज करने के लिये एक अधिवक्ता की सेवाएँ लीं।
    • न्यायालयी कार्यवाही के दौरान श्री कमल शर्मा, श्री डी. के. गांधी को बाउंस हुए चेक के लिये 20,000 रुपए तथा न्यायालयी व्यय के रूप में 5000 रुपए देने पर सहमत हुए।
    • श्री कमल शर्मा ने अधिवक्ता को श्री डी. के. गांधी की ओर से 20,000 रुपए का डीडी/पे ऑर्डर तथा 5000 रुपए का एक अकाउंट पेयी चेक दिया।
    • हालाँकि अधिवक्ता ने इन्हें श्री डी. के. गांधी को नहीं दिया, इसके बजाय अधिवक्ता ने श्री डी. के. गांधी से अपनी फीस के रूप में 5000 रुपए नकद की मांग की।
    • अधिवक्ता ने श्री डी. के. गांधी से फीस के रूप में 5,000/- रूपए के लिये लघु वाद न्यायालय में वाद दायर किया।
    • बाद में, अधिवक्ता ने श्री डी. के. गांधी को डीडी एवं चेक दिया, लेकिन श्री कमल शर्मा ने अधिवक्ता के कहने पर 5,000/- के चेक का राशि-भुगतान रोक दिया।
  • सेवा में कमी की शिकायत:
    • डी. के. गांधी ने सेवा में कमी का आरोप लगाते हुए ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम के समक्ष अधिवक्ता के विरुद्ध उपभोक्ता शिकायत दायर की तथा मुआवज़े की मांग की।
  • उपभोक्ता फोरम का निर्णय:
    • ज़िला फोरम ने डी. के. गांधी की शिकायत को स्वीकार कर लिया, लेकिन राज्य आयोग ने अधिवक्ताओं की अपील को यह कहते हुए अनुमति दे दी कि अधिवक्ताओं की सेवाएँ उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में "सेवा" की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आती हैं।
    • हालाँकि राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) ने डी. के. गांधी की पुनरीक्षण याचिका को यह कहते हुए अनुमति दे दी कि अधिवक्ताओं की सेवाओं में कमी का आरोप लगाने वाली शिकायतें उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सुनवाई योग्य होंगी।
  • उच्चतम न्यायालय में अपील:
    • इससे व्यथित होकर बार ऑफ इंडियन लॉयर्स, दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन, बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं स्वयं उस अधिवक्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का विधायी आशय एवं उद्देश्य:
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि वर्ष 2019 में पुनः अधिनियमित उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 का उद्देश्य केवल उपभोक्ताओं को अनुचित व्यापारिक प्रथाओं एवं अनैतिक व्यापार प्रथाओं से बचाना था।
    • यह सुझाव देने के लिये रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है कि विधायिका का आशय, पेशेवरों द्वारा प्रदान किये गए व्यवसायों या सेवाओं को अधिनियम के दायरे में शामिल करना था।

  • विधिक व्यवसाय सुई जेनेरिस है:
    • न्यायालय ने कहा कि विधिक व्यवसाय सुई जेनरिस अर्थात् प्रकृति में अद्वितीय है तथा इसकी तुलना किसी अन्य व्यवसाय से नहीं की जा सकती।
    • पेशेवरों के रूप में अधिवक्ताओं की भूमिका, स्थिति एवं कर्त्तव्यों को ध्यान में रखते हुए, विधिक व्यवसाय की तुलना, किसी अन्य पारंपरिक व्यवसाय से नहीं की जा सकती है।
    • न्यायालय ने कहा कि यह प्रकृति में वाणिज्यिक नहीं है, बल्कि मूल रूप से एक सेवा-उन्मुख, महान व्यवसाय है।
  • अधिवक्ताओं की सेवाएँ ‘व्यक्तिगत सेवा संविदा’ के अंतर्गत आती हैं:
    • न्यायालय ने माना कि किसी अधिवक्ता को किराये पर ली गई या ली गई सेवा "व्यक्तिगत सेवा के संविदा" के अंतर्गत एक सेवा होगी तथा इसलिये इसे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2(42) के अंतर्गत "सेवा" की परिभाषा से बाहर रखा जाएगा।
    • ऐसा इसलिये है, क्योंकि एक अधिवक्ता रोज़गार के दौरान सेवाएँ कैसे प्रदान करता है, इस पर ग्राहक द्वारा सीमा से परे प्रत्यक्ष नियंत्रण का प्रयोग किया जाता है।
  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत अधिवक्ताओं के विरुद्ध शिकायतें सुनवाई योग्य नहीं:
    • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विधिक व्यवसाय करने वाले अधिवक्ताओं के विरुद्ध "सेवा में कमी" का आरोप लगाने वाली शिकायत उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत सुनवाई योग्य नहीं होगी।
    • न्यायालय ने NCDRC के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जो इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी.पी. शांता एवं अन्य (1996) मामले के आधार पर था जिसका उद्देश्य अधिवक्ताओं को अधिनियम के दायरे में लाना था।
      • न्यायालय ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन मामले को एक बड़ी पीठ के पास विचार के लिये भेज दिया क्योंकि यह पुनः विचार करने योग्य है।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत सेवा क्या है?

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 2(1)(o) और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 की धारा 2(42) के अंतर्गत "सेवा" की परिभाषा का उल्लेख किया गया है।
    • इससे तात्पर्य संभावित उपयोगकर्त्ताओं को उपलब्ध कराई गई किसी भी विवरण की सेवा है।
    • इसमें बैंकिंग, बीमा, परिवहन आदि से संबंधित सुविधाओं का प्रावधान शामिल है।
    • नि:शुल्क या व्यक्तिगत सेवा के संविदा के अंतर्गत कोई भी सेवा प्रदान करना शामिल नहीं है।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अंतर्गत ‘सेवाओं की कमी’ क्या है?

  • परिभाषा:
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (g) और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (11) "कमी" को गुणवत्ता, प्रकृति एवं तरीके में किसी भी प्रकार की गलती, अपूर्णता, कमी या अपर्याप्तता के रूप में परिभाषित करती है। किसी भी विधि के अंतर्गत बनाए रखने के लिये आवश्यक प्रदर्शन या किसी संविदा के अंतर्गत या अन्यथा किसी सेवा के संबंध में किसी व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला प्रदर्शन इसमें शामिल है:
      • सेवा प्रदाता द्वारा किया गया कोई भी लापरवाही या चूक या कमीशन, जिससे उपभोक्ता को हानि या चोट पहुँचती है।
      • सेवा प्रदाता द्वारा जानबूझकर उपभोक्ता से प्रासंगिक जानकारी छिपाना।
  • अवधारणा:
    • "सेवाओं की कमी" की अवधारणा में उपभोक्ताओं को प्रदान की जाने वाली सेवाओं के अपेक्षित मानक में कोई विफलता, कमी या चूक सम्मिलित है।
    • इसमें ऐसे उदाहरण शामिल हैं जहाँ प्रदान की गई सेवा विधिक आवश्यकताओं, संविदात्मक दायित्वों या उपभोक्ता की उचित अपेक्षाओं से कम है।
    • सेवा प्रदाता द्वारा लापरवाही या जानबूझकर किये गए कार्यों या चूक के कारण कमी उत्पन्न हो सकती है, जिससे उपभोक्ता में असंतोष, असुविधा या हानि हो सकता है।
  • शिकायत:
    • यदि किसी उपभोक्ता को प्रदान की गई सेवाओं में कमी का सामना करना पड़ता है, तो वे अधिनियम के अंतर्गत स्थापित उचित उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज कर सकते हैं।
    • शिकायत में शिकायतकर्त्ता, सेवा प्रदाता, मामले के तथ्य, कथित कमी, मांगी गई राहत एवं सहायक दस्तावेज़ का विवरण शामिल होना चाहिये।
  • निवारण तंत्र:
    • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 उपभोक्ता शिकायतों के निवारण के लिये एक त्रि-स्तरीय अर्ध-न्यायिक तंत्र स्थापित करता है:
      • ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम: एक करोड़ रुपए तक के दावों के लिये।
      • राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग: एक करोड़ से लेकर दस करोड़ के दावों के लिये।
      • NCDRC: दस करोड़ रुपए से अधिक के दावों के लिये।

इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?

  • धारंगधरा केमिकल वर्क्स लिमिटेड बनाम सौराष्ट्र राज्य एवं अन्य (1957):
  • न्यायालय ने 'सेवा के संविदा’ को 'सेवाओं के संविदा’ से निश्चित रूप से अलग करने में कठिनाई को पहचाना तथा निम्नलिखित परीक्षण निर्धारित किया:
    • "इसलिये, दृष्टिकोण का सही तरीका यह विचार करना होगा कि क्या कार्य की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए नियोक्ता द्वारा उचित नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण किया गया था"।
  • बायरम पेस्टनजी गरीवाला बनाम यूनियन बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य (1992):
    • इसमें सामान्य विधिक परंपराओं में निहित भारतीय विधिक प्रणाली की अनूठी प्रकृति पर चर्चा की गई।
  • उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य विधि अधिकारी संघ एवं अन्य (1994):
    • इसने विधिक व्यवसाय को अनिवार्य रूप से एक सेवा-उन्मुख, महान व्यवसाय के रूप में मान्यता दी।
  • इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी. पी. शांता एवं अन्य (1996):
    • यह माना गया कि CP अधिनियम के अंतर्गत 'सेवा' की व्यापक परिभाषा में चिकित्सकों द्वारा प्रदान की गई चिकित्सकीय सेवाएँ शामिल होंगी (यह मामला एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार के लिये भेजा गया था)।
  • हिमालयन कोऑपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी बनाम बलवान सिंह एवं अन्य (2015):
    • इसमें अधिवक्ता -ग्राहक संबंध एवं अधिवक्ता पर ग्राहक द्वारा प्रयोग किये जाने वाले नियंत्रण पर चर्चा की गई।

सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 144

 15-May-2024

भीकचंद पुत्र धोंडीराम मुथा (मृतक) के विधिक प्रतिनिधि बनाम शामा बाई धनराज गुगले (मृतक) के विधिक प्रतिनिधि

वादी के पक्ष में किसी राशि की वसूली की डिक्री को उसकी पूरी संपत्ति बेचकर निर्णित ऋणी का शोषण नहीं माना जाना चाहिये।

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि नीलाम विक्रय में यह न्यायालय  के लिये अनिवार्य है कि संपत्ति का केवल उतना ही हिस्सा बेचा जाए जो डिक्री को संतुष्ट करता हो, पूर्ण संपत्ति को नहीं।

भीकचंद पुत्र धोंडीराम मुथा (मृतक) के विधिक प्रतिनिधि बनाम शामाबाई धनराज गुगले (मृतक) के विधिक प्रतिनिधि  की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • शामाबाई के पति धनराज गुगले (मूल वादी/डिक्री धारक) ने वर्ष 1969 में प्रतिवादी (अपीलकर्त्ता/निर्णित ऋणी) को 8000/- रुपए का ऋण दिया।
  • अपीलकर्त्ता ऋण राशि चुकाने में विफल रहा।
  • मूल वादी ने ऋण राशि की वसूली के लिये 2880/- रुपए ब्याज के साथ, 12% प्रतिवर्ष की दर से पेंडेंट लाइट और डिक्री के बाद ब्याज तथा अन्य सहायक राहत एवं लागत के लिये एक सिविल मुकदमा दायर किया
  • संयुक्त सिविल न्यायाधीश, सीनियर डिवीज़न, पुणे ने मुकदमे में आंशिक रूप से निर्णय दिया
  • दावेदारों ने अपने दावे के एक हिस्से को अस्वीकार करने की अपील कीउसी अपील फैसले में, ऋणी ने विरोधी तर्कों का समर्थन किया
  • इस अपील के लंबित रहने के दौरान, उन्होंने निष्पादन आवेदन को भी प्राथमिकता दी, जिसे सिविल जज, सीनियर डिवीज़न, अहमदनगर को स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि निर्णित ऋणी की संपत्ति जिसके खिलाफ डिक्री राशि की वसूली की जानी थी, अहमदनगर में स्थित थी।
  • निष्पादन कार्यवाही में, न्यायालय ने निर्णित ऋणी की तीन संपत्तियों की कुर्की और बिक्री का आदेश दिया।
  • लेकिन अपील को ज़िला न्यायालय ने खारिज कर दिया और प्रतिवादी की आपत्तियों को स्वीकार कर लिया।
  • अपीलीय न्यायालय ने प्री-सूट और पेंडेंट लाइट/भविष्य के ब्याज दोनों के लिये ब्याज दर को 12% प्रतिवर्ष से घटाकर 6% प्रतिवर्ष कर दिया। इस प्रकार कुल डिक्री राशि 27694/- रुपए कम होकर 17120/- रुपए हो गई।
  • अपीलीय न्यायालय के निर्णय से पहले, वादी ने डिक्री निष्पादित की और निर्णित ऋणी की संपत्तियों को नीलामी में रखा गया तथा मूल वादी द्वारा स्वयं 34000/-रुपए में खरीदा गया तथा एक संपत्ति प्रतिवादी संख्या 3 को 3.9 लाख रुपए में बेची गई।
  • वर्ष 1990 में निर्णित ऋणी ने नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 144 के तहत प्रत्यास्थापन के लिये एक आवेदन दायर किया, इस आधार पर कि मूल डिक्री में काफी बदलाव किया गया है, निष्पादन बिक्री को रद्द कर दिया जाना चाहिये और प्रत्यास्थापन के माध्यम से परिवर्तित किया जाना चाहिये तथा उन्होंने समस्त डिक्री राशि भी जमा कर दिया
  • अपीलीय न्यायालय (उच्च न्यायालय) ने प्रत्यास्थापन के आवेदन को खारिज कर दिया क्योंकि निर्णित ऋणी ने न्यायालय में कोई राशि जमा नहीं की थी।
  • वर्तमान अपील निर्णित ऋणी द्वारा उच्चतम न्यायालय (SC) के समक्ष दायर की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?  

  • उच्चतम न्यायालय ने ऋणी के तर्क से आश्वस्त किया कि यह एक ऐसा मामला है जहाँ डिक्री को बाद में संशोधित/परिवर्तित किया गया है और डिक्री राशि 27,694/- रुपए से घटाकर 17,120/- रुपए कर दी गई है तथा कुर्क की गई तीनों संपत्तियों की बिक्री बिल्कुल भी आवश्यक नहीं थी
  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि निष्पादन न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं किया कि संलग्न संपत्ति के एक हिस्से की बिक्री डिक्री को पूरा करने के लिये पर्याप्त होगी या नहीं। न्यायालय ने कुर्क की गई समस्त संपत्ति की नीलामी तथा कुर्क की गई तीनों संपत्तियों की बिक्री कर निर्णय ऋणी के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया गया है।
  • मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में कम कीमत पर संपत्तियों की बिक्री के साथ पढ़ी गई डिक्री की भिन्नता से निर्णय लेने वाले ऋणी को भारी नुकसान हुआ है, जहाँ निष्पादन बिक्री को अलग करके प्रत्यास्थापन ही एकमात्र उपाय है।
  • उच्चतम न्यायालय इस तर्क से सहमत नहीं था कि निष्पादन बिक्री को इस चरण में रद्द नहीं किया जा सकता है जब निर्णित ऋणी ने मूल डिक्री या संशोधित डिक्री को संतुष्ट करने के लिये कोई राशि का भुगतान नहीं किया है और न ही उसने किसी भी अनुमेय पर नीलामी बिक्री की वैधता को चुनौती दी है। जैसा कि सीपीसी के आदेश XXI में विचार किया गया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायालय सीपीसी की धारा 144 के तहत कोई भी आदेश दे सकता है। इस शक्ति का प्रयोग करते हुए हमने संपूर्ण संपत्ति की कुर्की द्वारा डिक्री के निष्पादन के पहलू पर विचार किया है, जबकि संपत्ति का एक हिस्सा डिक्री को संतुष्ट कर सकता था।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और सीपीसी की धारा 144 के तहत अपीलकर्त्ता के आवेदन की अनुमति दी तथा निर्णित ऋणी से संबंधित संलग्न संपत्तियों की बिक्री को रद्द कर दिया।
  • पक्षकारों को उस स्थिति में वापस बहाल कर दिया जाता है जहाँ निर्णित ऋणी की अचल संपत्तियों की कुर्की से पहले किया गया था

इस मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड बनाम एम.पी. राज्य एवं अन्य (2003):
    • इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्युत्पत्ति संबंधी अर्थों में "पुनर्स्थापन" शब्द का अर्थ समझाया, जिसका अर्थ है किसी डिक्री अथवा आदेश के संशोधन, परिवर्तन पर उस पक्ष को बहाल करना, जिस पक्ष की हानि, न्यायालय की डिक्री या आदेश के निष्पादन में अथवा किसी डिक्री या आदेश के प्रत्यक्ष परिणाम में हुई है।
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 144 के अलावा भी, पक्षों के बीच पूर्ण न्याय प्रदान करने के लिये प्रत्यास्थापन का आदेश देना उसके पास अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र है।
  • चिन्नमल और अन्य बनाम अरुमुघम और अन्य (1990):
    • इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने माना कि जो व्यक्ति डिक्री के खिलाफ लंबित अपील की जानकारी के साथ न्यायालय नीलामी में संपत्ति खरीदता है, वह प्रत्यास्थापन का विरोध नहीं कर सकता है।
    • यह अच्छी तरह से याद रखना चाहिये कि सिविल प्रक्रिया संहिता न्याय की सुविधा के लिये डिज़ाइन किया गया प्रक्रियात्मक कानून का एक निकाय है और इसे दंड तथा ज़ुर्माने का प्रावधान करने वाले अधिनियम के रूप में नहीं माना जाना चाहिये।
  • बिनायक स्वैन बनाम रमेश चंद्र पाणिग्रही और अन्य (1966):
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि डिक्री के उलटने या संशोधित होने पर प्रत्यास्थापन की बाध्यता स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है और गलत डिक्री के तहत जो कुछ भी किया गया है, उसकी प्रत्यास्थापन का अधिकार आवश्यक रूप से उसमे सम्मिलित होता है।
    • प्रत्यास्थापन करने में न्यायालय पक्षकारों को बहाल करने के लिये बाध्य है, जहाँ तक ​​उन्हें उसी स्थिति में बहाल किया जा सकता है, जिस समय वे उस समय थे जब न्यायालय ने अपनी गलत कार्रवाई से उन्हें विस्थापित कर दिया था।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?

CPC की धारा 144: प्रत्यास्थापन के लिये आवेदन—

(1) जहाँ की ​​और जहाँ तक ​​डिक्री या आदेश किसी अपील, पुनरीक्षण या अन्य कार्यवाही में भिन्न या उलट दी जाती है या डिक्री पारित करने वाले न्यायालय के उद्देश्य के लिये स्थापित किसी भी मुकदमे में अलग कर दी जाती है या संशोधित की जाती है या आदेश पुनर्स्थापन के माध्यम से या अन्यथा किसी भी लाभ के हकदार किसी भी पक्ष के आवेदन पर, ऐसा पुनर्स्थापन कराएगा जिससे, जहाँ तक ​​हो सके, पार्टियों को उस स्थिति में रखा जा सके जिसमें वे होते यदि वह डिक्री या आदेश या उसका वह भाग जिसमे फेरफार किया गया है या जिसे उल्टा गया है या अपास्त किया गया है या उपांतरित किया गया है, न दिया गया होता और न्यायालय इस प्रयोजन से कोई ऐसे आदेश जिनके अंतर्गत खर्चों के प्रतिदाय के लिये एवं ब्याज, नुकसानी, प्रतिकर तथा अंतःकालीन लाभों के संदाय के लिये आदेश होंगे, कर सकेगा जो उस डिक्री या आदेश को ऐसे फेरफार करने, उलटने, आपस्त करने या उपांतरण के उचित रूप में पारिणामिक है।

स्पष्टीकरण: उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिये, “वह न्यायालय जिसने डिक्री या आदेश पारित किया था” पद के बारे में यह समझा जाएगा कि उसके अंतर्गत निम्नलिखित बिंदु शामिल हैं-

उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिये, शब्द "न्यायालय जिसने डिक्री या आदेश जारी किया" शामिल है।

(a) जहाँ डिक्री या आदेश में फेरफार या उलटाव अपीली या पुनरीक्षण अधिकारिता के प्रयोग में किया गया है वहाँ प्रथम दृष्टया न्यायालय।

(b) जहाँ डिक्री या आदेश पृथक वाद में आपस्त किया गया है वहाँ प्रथम दृष्टया न्यायालय जिसने ऐसी डिक्री या आदेश को पारित किया था।

(c) जहाँ प्रथम दृष्टया न्यायालय विद्यमान नहीं रहा है या उसकी निष्पादित करने की अधिकारिता नहीं रही है वहाँ न्यायालय, जिसे ऐसे वाद का विचरण करने की अधिकारिता होती, यदि वह वाद जिसमे डिक्री या आदेश पारित किया गया था, इस धारा के अधीन प्रत्यास्थापन के लिये आवेदन किये जाने के समय संस्थित किया गया होता।

(2) कोई भी वाद ऐसा कोई प्रत्यास्थापन या अन्य अनुतोष अभिप्राप्त करने के प्रयोजन से संस्थित नहीं किया जाएगा जो उपधारा (1) के अधीन आवेदन द्वारा अभिप्राप्त किया जा सकता था।