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आपराधिक कानून
आरोपों में परिवर्द्धन या परिवर्तन
17-May-2024
केरल राज्य बनाम अज़ीज़ “आरोप में परिवर्द्धन न्यायालय द्वारा अपनी संतुष्टि के आधार पर किया जाना चाहिये, न कि विचारण के दौरान किसी भी पक्ष के आवेदन पर”। न्यायमूर्ति बेचू कुरियन थॉमस |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने माना कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 216 के अधीन आरोप में परिवर्तन की शक्ति केवल न्यायालय के पास है तथा यह किसी भी पक्ष के आवेदन पर आधारित नहीं हो सकती है।
केरल राज्य बनाम अज़ीज़ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्ष 2006 में आरोपी ने दो महिलाओं को दुबई में सफाई का काम दिलाने का वचन दिया।
- पैसे एकत्र करने के बाद उन्हें दुबई ले जाया गया।
- जब वे दुबई पहुँचे तो उन्हें एक अपार्टमेंट में कैद कर दिया गया और आरोपियों ने नशीला पदार्थ खिलाकर उनके साथ बार-बार बलात्संग किया गया।
- उन्हें कई अजनबियों के साथ यौन संबंध स्थापित करने के लिये भी विवश किया गया।
- हालाँकि वे भागने में सफल रहे तथा परंतु भारतीय दूतावास की मदद से भारत वापस आ गए।
- उन्होंने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई।
- जाँच पूरी होने के बाद, एक अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, जिसमें आरोपियों द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 120 B के साथ पठित धारा 420, 376 एवं 342 के अधीन अपराध किये गए थे।
- मामला सत्र न्यायालय को सौंपा गया था तथा अतिरिक्त सत्र न्यायालय, एर्नाकुलम (महिलाओं एवं बच्चों के विरुद्ध अत्याचार एवं यौन हिंसा से संबंधित मामलों की सुनवाई के लिये ) में लंबित है।
- जब विचारण शुरू हुआ, तो अभियोजक ने आरोपी के विरुद्ध IPC की धारा 370 को भी एक अतिरिक्त अपराध के रूप में शामिल करने का अनुरोध किया।
- सत्र न्यायाधीश ने माना कि यह प्रावधान आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 द्वारा जोड़ा गया था तथा आरोप वर्ष 2006 में लगाए गए थे, इस प्रकार, IPC की धारा 370 के अधीन अपराध का कोई अनुप्रयोग नहीं हो सकता है।
- इसके बाद CrPC की धारा 216 के तहत आरोप में बदलाव के लिये CrPC की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्च न्यायालय ने पाया कि वर्ष 2013 से पहले, IPC की धारा 370 आयात, निर्यात, निष्कासन, क्रय, विक्रय या निपटान तथा यहाँ तक कि किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध दास के रूप में स्वीकार करना, या व्यक्तिगत अभिरक्षा में रखना दण्डनीय अपराध के रूप में वर्णित था, जिसमें सात वर्ष के कारावास की सज़ा का प्रावधान था।
- हालाँकि, वर्ष 2013 में IPC की धारा 370 को किसी व्यक्ति की तस्करी के प्रावधान से बदल दिया गया।
- उपरोक्त प्रतिस्थापन के बावजूद, पिछला प्रावधान 2013 के संशोधन अधिनियम के लागू होने तक किये गए अपराधों के लिये लागू होगा।
- उच्च न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 370 के अधीन आरोप में परिवर्द्धन का अनुरोध, जैसा कि वर्ष 2013 से पहले था, अभियोजन पक्ष के कहने पर नहीं किया जा सकता है।
- उच्च न्यायालय ने अभियोजन पक्ष द्वारा आरोप जोड़ने या बदलने के लिये आवेदन की गैर-मौजूदगी के कारण ट्रायल कोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।
- केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि ट्रायल कोर्ट संतुष्ट है, तो वह विधि के किसी भी प्रावधान के अंतर्गत आरोप में परिवर्द्धन या परिवर्तन पर स्वतंत्र रूप से विचार करने के लिये अधिकृत होगा।
आरोप क्या हैं?
- आपराधिक विधि के पीछे मुख्य विचार यह है कि अभियुक्त को उसके विरुद्ध लगाए गए आरोप की युक्तियुक्त प्रकृति के बारे में सूचित करने का अधिकार है।
- सरल शब्दों में, 'आरोप' आरोपी को उन आधारों के बारे में दी गई सूचना है, जिन पर उक्त आरोप लगाया गया है।
- निष्पक्ष सुनवाई की यह आवश्यकता है कि अभियुक्त को उसके आरोप के विषय में सूचित किया जाना चाहिये ताकि वह अपना न्यायिक बचाव कर सके।
- प्रत्येक आरोप में उस अपराध का उल्लेख होगा जिसके लिये अभियुक्त पर आरोप लगाया गया है।
- आरोप को आरोपी व्यक्ति को पढ़ा तथा समझाया जाना चाहिये।
- CrPC की धारा 2(b) ‘आरोप’ को परिभाषित करती है, जिसमें कहा गया है कि, आरोप में कोई भी अन्य आरोप शामिल होता है, जब आरोप में एक से अधिक कृत्य होते हैं।
- जाँच और पूछताछ के चरण के बाद तथा विचारण से पहले आरोप तय किये जाते हैं।
आरोपों में परिवर्तन या परिवर्द्धन क्या है?
- परिचय:
- निर्णय दिये जाने से पहले किसी भी स्तर पर न्यायालय द्वारा आरोप में परिवर्तन किया जा सकता है या परिवर्द्धन किया जा सकता है।
- CrPC की धारा 216:
- CrPC की धारा 216 के अनुसार न्यायालय आरोप में परिवर्तन कर सकती है। यह प्रावधान करता है कि न्यायालय के पास निर्णय दिये जाने से पहले किसी भी समय आरोप में परिवर्तन करने या जोड़ने की शक्ति होगी।
- जब न्यायालय को पता चलता है कि किसी भी अपराध को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य हैं, जो पहले न्यायालय द्वारा आरोपित नहीं किया गया था, तो विचारण के दौरान आरोप में परिवर्तन किया जा सकता है।
- यदि किसी आरोप में परिवर्तन या परिवर्द्धन से अभियुक्त पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है, तो न्यायालय मूल आरोप के साथ आगे बढ़ सकती है।
- उद्देश्य:
- इस प्रावधान का मुख्य उद्देश्य न्यायिक हितों की सेवा करना है।
- CrPC की धारा 217:
- CrPC की धारा 217 'आरोप में परिवर्तन करने पर साक्षी को वापस बुलाने' से संबंधित है।
- विचारण प्रारंभ होने के बाद जब न्यायालय द्वारा आरोप परिवर्तित किया जाता है या जोड़ा जाता है, तो न्यायालय साक्षी को वापस बुला सकता है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अंतर्गत आरोप में परिवर्द्धन या परिवर्तन:
- BNSS की धारा 239 में आरोप में परिवर्द्धन या परिवर्तन शामिल है।
- BNSS की धारा 240 में आरोप परिवर्तित होने पर साक्षियों को वापस बुलाना शामिल है।
इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण निर्णय कौन-से हैं?
- पी. कार्तिकालक्ष्मी बनाम श्री गणेश एवं अन्य (2017):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि आरोप तय करने में कोई चूक हुई है तथा यदि अपराध के विचारण करने वाले न्यायालय को इसकी सूचना मिलती है, तो शक्ति हमेशा न्यायालय में निहित होती है, जैसा कि CrPC की धारा 216 के अंतर्गत प्रदान किया गया है। आरोप में परिवर्तन या परिवर्द्धन तथा ऐसी शक्ति, निर्णय दिये जाने से पहले किसी भी समय, न्यायालय के पास उपलब्ध है।
- इस तरह के परिवर्तन या परिवर्द्धन के बाद, जब अंतिम निर्णय दिया जाएगा, तो पक्षकारों के लिये विधि के अनुसार वे अपने उपचारों पर कार्य करने के लिये स्वतंत्र होगा।
इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?
- CrPC की धारा 216: न्यायालय आरोप में परिवर्तन कर सकती है-
- कोई भी न्यायालय निर्णय सुनाने से पहले किसी भी समय किसी भी आरोप में परिवर्तन या परिवर्द्धन कर सकती है।
- ऐसे प्रत्येक परिवर्तन या परिवर्द्धन को अभियुक्त को पढ़ा तथा समझाया जाएगा।
- यदि किसी आरोप में परिवर्तन या परिवर्द्धन ऐसा है, कि विचारण के साथ तुरंत आगे बढ़ने से, न्यायालय की राय में, आरोपी को उसके बचाव में या अभियोजक को मामले के संचालन में प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है, तो न्यायालय अपने निर्णय में ऐसा कर सकती है। इस तरह के परिवर्तन या परिवर्द्धन के बाद, परीक्षण के साथ कैसे आगे बढ़ें, जैसे कि परिवर्तित या परिवर्द्धित आरोप, मूल आरोप से संबंधित रहा हो यह विवेकाधिकार केवल न्यायालय के पास होगा।
- यदि परिवर्तन या परिवर्द्धन ऐसा है कि विचारण के साथ, न्यायालय की राय में, अभियुक्त या अभियोजक पर पूर्वोक्त रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है, तो न्यायालय या तो एक नए अभियोजन का निर्देश दे सकता है या विचारण को ऐसी अवधि के लिये जैसा आवश्यक हो, स्थगित कर सकता है।
- यदि परिवर्तित या परिवर्द्धित आरोप में बताया गया अपराध, ऐसा है, जिसके अभियोजन के लिये पिछली स्वीकृति आवश्यक है, तो ऐसी स्वीकृति प्राप्त होने तक मामले को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा, जब तक कि उन्हीं तथ्यों पर अभियोजन के लिये स्वीकृति पहले ही प्राप्त न कर ली गई हो, जिस पर परिवर्तित या अतिरिक्त आरोप आधारित है।
आपराधिक कानून
दहेज़ हत्या के संबंध में दोष की धारणा
17-May-2024
राजा राम मंडल बनाम झारखंड राज्य यदि अभियोजन पक्ष, IPC की धारा 304B में उल्लेखित दहेज़ हत्या के सभी तत्त्वों को स्थापित करने में विफल रहता है, तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 113B के अंतर्गत अपराध की धारणा लागू नहीं होती है। न्यायमूर्ति सुभाष चंद एवं आनंद सेन |
स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजा राम मंडल बनाम झारखंड राज्य के मामले में झारखंड उच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113B में निर्धारित धारणा को प्रभावी बनाने के लिये, अभियोजन पक्ष को साक्ष्य के साथ यह प्रदर्शित करने की आवश्यकता है कि मृतक ने अपने वैवाहिक निवास में अपने अप्राकृतिक मृत्यु से कुछ समय पूर्व दहेज़ के संबंध में क्रूरता या उत्पीड़न का अनुभव किया था।
राजा राम मंडल बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एक सत्र विचारण में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-VII, धनबाद द्वारा दोषी ठहराए जाने तथा सुनाई गई दोषसिद्धि के निर्णय के विरुद्ध आपराधिक अपील दायर की गई थी।
- अपीलकर्त्ताओं को भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 304B के अंतर्गत दोषी ठहराया गया तथा दस वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा दी गई।
- अभियोजन पक्ष का मामला लगभग चार वर्ष पहले सूचना प्रदाता की बहन के राजा राम मंडल से विवाह पर केंद्रित था।
- विवाह के छह महीने के अंदर, दहेज़ की मांग पूरी न होने के कारण बहन को कथित तौर पर अपने ससुराल वालों और पति के द्वारा क्रूरता का सामना करना पड़ा।
- 2 मई 2009 को सूचना प्रदाता को सूचना प्राप्त हुई कि उसकी बहन की ससुराल में मौत हो गई है। आरोप है कि दहेज़ की मांग को लेकर हुए विवाद के कारण उसकी हत्या कर दी गई।
- आरोपियों पर IPC की धारा 304B के अधीन आरोप लगाए गए तथा ट्रायल कोर्ट ने उन्हें दोषी पाया। अभियुक्तों की ओर से आपराधिक अपीलें दायर की गईं, जिसमें कहा गया कि दोषसिद्धि एवं सज़ा, साक्ष्यों के उचित मूल्यांकन पर आधारित नहीं थी।
- उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 304B पर प्रकाश डाला, इस बात पर बल दिया कि अभियोजन पक्ष को पाँच महत्त्वपूर्ण बिंदु स्थापित करने चाहिये:
- मृत्यु का कारण,
- विवाह के संबंध में मृत्यु की समय-सीमा
- मृतिका को अपने पति या उसके रिश्तेदारों से क्रूरता या उत्पीड़न का सामना करना
- इस तरह के दुर्व्यवहार का संबंध दहेज़ की मांग से है
- उसकी मृत्यु से कुछ समय पहले इस दुर्व्यवहार की घटना।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायमूर्ति सुभाष चंद एवं आनंद सेन की खंडपीठ ने कहा, "IPC की धारा 304B एवं IEA की धारा 113B के संयुक्त पाठन से यह पता चलता है कि यह दिखाने के लिये उचित आधार होना चाहिये कि मृत्यु से तुरंत पहले, पीड़ित के साथ क्रूरता की गई थी या दहेज़ की मांग के आधार पर उत्पीड़न किया गया था”।
- “चूँकि अभियोजन पक्ष ने साक्ष्यों के द्वारा यह सिद्ध नहीं कर पाए कि विवाह के सात वर्ष के भीतर अपने वैवाहिक घर में अप्राकृतिक मृत्यु से ठीक पहले दहेज़ की मांग के संबंध में मृतक के साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया गया था।
- IEA की धारा 113B के अधीन वैधानिक अनुमान लागू नहीं हो सकता। यह धारणा तभी उत्पन्न होगी, जब अभियोजन पक्ष ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304B के अपराध के सभी तत्त्वों को सिद्ध कर दिया है।
- न्यायालय ने कहा कि संबंधित ट्रायल कोर्ट ने IPC की धारा 304B के अंतर्गत अपराध के संबंध में अपना निष्कर्ष दिये बिना अपीलकर्त्ता दोषी के विरुद्ध गलत अनुमान लगाया है।
- न्यायालय ने पाया कि दोषी, अपीलकर्त्ताओं के द्वारा दहेज़ के लिये किसी भी उत्पीड़न का संकेत देने वाला कोई साक्ष्य नहीं था।
- जबकि 2 मई 2009 को मृतक की मृत्यु वास्तव में अप्राकृतिक थी, अभियोजन पक्ष ने इस अप्राकृतिक मृत्यु को दहेज़ के लिये किये गए किसी उत्पीड़न से संबंधित साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किये।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष ने उचित संदेह से परे अपने मामले को पर्याप्त रूप से सिद्ध नहीं किया।
- दोषसिद्धि का निर्णय एवं ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सज़ा को त्रुटिपूर्ण निष्कर्षों पर आधारित माना गया, जिसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता थी तथा परिणामस्वरूप, दोनों आपराधिक अपीलों को अनुमति के योग्य माना गया।
दहेज़ मृत्यु के संबंध में क्या धारणा है?
- विधिक अवधारणा:
- विधि मानता है कि विवाह के सात वर्ष के अंदर एक महिला की मृत्यु, जहाँ उसकी मृत्यु से कुछ समय पूर्व दहेज़ की मांग से संबंधित क्रूरता या उत्पीड़न का साक्ष्य है, "दहेज़ मृत्यु" है।
- साक्ष्य का भार:
- यह सिद्ध करने का उत्तरदायित्व आरोपी पर होता है कि मृत्यु, दहेज़ की मांग या उत्पीड़न से संबंधित नहीं था। इससे तात्पर्य यह है कि आरोपियों को दहेज़ संबंधी आरोपों के संबंध में स्वयं की दोषमुक्ति सिद्ध करनी होगी।
- विधिक धाराएँ:
- दहेज़ हत्या की अवधारणा, IEA की धारा 113B एवं IPC की धारा 304B के अधीन प्रावधानित की गई है।
- समय-सीमा:
- यह अनुमान विवाह के सात वर्ष के अंदर होने वाले अप्राकृतिक मौतों पर लागू होता है। उक्त समय-सीमा, यह निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण है कि मृत्यु "दहेज़ मृत्यु" की विधिक परिभाषा के अंतर्गत आती है या नहीं।
- उद्देश्य:
- इस विधिक प्रावधान का उद्देश्य, दहेज़ से संबंधित अपराधों को सिद्ध करने की चुनौतियों का समाधान करना है, जो अक्सर परिवार के अंदर होते हैं तथा अभियोजन का विचारण कठिन होता है।
- विधिक धारणा बनाकर, विधि का उद्देश्य, महिलाओं को बेहतर सुरक्षा प्रदान करना एवं अपराधियों को दहेज़ से संबंधित हिंसा में शामिल होने से रोकना है।
दहेज़ हत्या के संबंध में अवधारणा के लिये विधिक प्रावधान क्या हैं?
- दहेज़ हत्या:
- IPC की धारा 304B दहेज़ हत्या से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जहाँ एक महिला की मृत्यु, किसी जलने या शारीरिक चोट के कारण होती है या उसकी विवाह के सात वर्ष के अंदर सामान्य परिस्थितियों के अतिरिक्त किसी अन्य स्थिति में होती है तथा यह दिखाया जाता है कि उसकी मृत्यु से ठीक पूर्व उसके पति द्वारा क्रूरता या उत्पीड़न किया गया था या दहेज़ की मांग के लिये या उसके संबंध में उसके पति के किसी भी रिश्तेदार के द्वारा किया गया दहेज़ मृत्यु कहा जाएगा और ऐसे पति या रिश्तेदार को उसकी मृत्यु का कारण माना जाएगा।
- दहेज़ हत्या के संबंध में उपधारणा:
- IEA की धारा 113B दहेज़ हत्या की धारणा से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जब प्रश्न यह है कि क्या किसी व्यक्ति ने किसी महिला की दहेज़ हत्या की है तथा यह दिखाया गया है कि उसकी मृत्यु से ठीक पूर्व उस महिला को दहेज़ की किसी भी मांग के लिये या उसके संबंध में उस व्यक्ति द्वारा क्रूरता या उत्पीड़न का शिकार बनाया गया था तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय यह मान लेगा कि ऐसे व्यक्ति ने दहेज़ हत्या कारित की है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) के अंतर्गत:
- BSA की धारा 118 दहेज़ हत्या के रूप में अनुमान के प्रावधान को शामिल करती है।
दहेज़ मृत्यु का अनुमान लगाने के लिये आवश्यक शर्तें क्या हैं?
- विवाह के सात वर्ष के अंदर मृत्यु:
- इस अवधारणा को लागू करने के लिये महिला की मृत्यु उसकी विवाह के सात वर्ष के भीतर होनी चाहिये। यह समय-सीमा महत्त्वपूर्ण है तथा मामले का विनिश्चय करने के लिये एक दिशा-निर्देश के रूप में कार्य करती है।
- दहेज़ उत्पीड़न के साक्ष्य:
- दहेज़ की मांग के संबंध में या उसके पति या ससुराल वालों द्वारा महिला के प्रति की गई क्रूरता या उत्पीड़न का साक्ष्य होना चाहिये।
- इस साक्ष्य में आमतौर पर साक्षियों की गवाही, मेडिकल रिपोर्ट या कोई अन्य प्रासंगिक दस्तावेज़ सम्मिलित होते हैं।
- उत्पीड़न का समय:
- उत्पीड़न या क्रूरता महिला की मृत्यु से "तुरंत पहले" हुई होगी।
- विधि द्वारा कोई निश्चित समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं है, लेकिन युक्तियुक्त संबंध स्थापित करने के लिये उत्पीड़न का समय मृत्यु के बहुत नज़दीक होना चाहिये।
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य:
- यह अनुमान, मृत्यु से जुड़े परिस्थितिजन्य साक्ष्यों एवं उससे जुड़ी परिस्थितियों के आधार पर लगाया गया है।
- इस साक्ष्य में महिला के बयान, परिवार की गवाही, या दहेज़ से संबंधित उत्पीड़न का संकेत देने वाली कोई अन्य प्रासंगिक जानकारी शामिल हो सकती है।
- अभियोजन पक्ष का दावा:
- यह अभियोजन पक्ष का उत्तरदायित्व है कि वह दहेज़ उत्पीड़न या महिला की मृत्यु के लिये उत्तरदायी क्रूरता के अस्तित्त्व पर बल दे तथा सिद्ध करे।
- अभियोजन पक्ष को दहेज़ हत्या के बारे में अनुमान लगाने के लिये साक्ष्य द्वारा समर्थित एक ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करना होगा।
अनुमान की प्रकृति क्या है?
- IEA की धारा 113B में ‘होगा’ एवं ‘नहीं हो सकता’ शब्द का उपयोग किया गया है तथा इसलिये यह एक विधिक धारणा है।
- न्यायालय के लिये यह अनुमान लगाना अनिवार्य हो जाता है कि अभियुक्त ने दहेज़ हत्या का कारण बना।
IEA की धारा 113B के अंतर्गत अनुमान से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- शांति बनाम हरियाणा राज्य (1990) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 304B एवं 498A परस्पर अनन्य नहीं हैं। न्यायालय ने निर्णय दिया है कि दहेज़-हत्या के आरोपी को दोषी सिद्ध करने के लिये अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करने वाले साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे कि दहेज की मांग के साथ उत्पीड़न एवं क्रूरता के कार्य भी किये गए थे।
- सतबीर सिंह एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (2021) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि IPC की धारा 304B में प्रयोग किये जाने वाले वाक्यांश 'अभी पहले' से तात्पर्य 'बिल्कुल पहले' नहीं समझा जा सकता है।
सांविधानिक विधि
साम्पत्तिक अधिकार का उप-अधिकार
17-May-2024
कोलकाता नगर निगम एवं अन्य बनाम बिमल कुमार शाह एवं अन्य "किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित करने से पहले, आवश्यक प्रक्रियाओं का निर्धारण करना अनुच्छेद 300A के अंतर्गत 'विधिक अधिकार' का एक अभिन्न अंग है”। न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति अरविंद कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने सांपत्तिक अधिकार को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक सिद्धांतों को यथावत रखा, आवश्यक उप-अधिकारों की पहचान की तथा निगम के कार्यों को अवैध एवं सांविधिक प्रावधानों और संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन पाया।
- उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी कोलकाता नगर निगम एवं अन्य बनाम बिमल कुमार शाह एवं अन्य के मामले में की।
कोलकाता नगर निगम एवं अन्य बनाम बिमल कुमार शाह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- तथ्य:
- कोलकाता नगर निगम (KMC) ने कोलकाता नगर निगम अधिनियम, 1980 की धारा 352 के अंतर्गत बिरिंची बिहारी शाह की संपत्ति प्राप्त करने का दावा किया है।
- विचाराधीन संपत्ति परिसर संख्या 106C है, जो नारिकेलडांगा नॉर्थ रोड, कोलकाता- 700011 पर स्थित है।
- बिरिंची शाह को अपने पिता द्वारा निष्पादित निपटान विलेख के माध्यम से संपत्ति मिली।
- वर्ष 2009 में, जब KMC ने संपत्ति पर बलपूर्वक कब्ज़ा करने का प्रयास किया, तो बिरंची शाह ने KMC के विरुद्ध प्रतिबंध आदेश की मांग करते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।
- वर्ष 2010 में, KMC ने मालिक के रूप में बिरिंची शाह का नाम हटा दिया तथा आधिकारिक रिकॉर्ड में अपना नाम डाल दिया, जिससे बिरिंची शाह द्वारा एक और रिट याचिका दायर की गई।
- ट्रायल कोर्ट (एकल न्यायाधीश) के विचार:
- एकल न्यायाधीश ने माना कि KMC के पास अधिनियम की धारा 352 के अंतर्गत अनिवार्य अधिग्रहण की कोई शक्ति नहीं है तथा कथित अधिग्रहण को रद्द कर दिया।
- उच्च न्यायालय (खंड पीठ) के विचार:
- खंडपीठ ने अपने निर्णय में एकल न्यायाधीश के आदेश की पुष्टि की तथा कहा कि धारा 352 के अंतर्गत अनिवार्य अधिग्रहण की कोई शक्ति नहीं है।
- खंड पीठ ने KMC को पाँच महीने के भीतर अधिनियम की धारा 536 या 537 के अंतर्गत अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू करने या संपत्ति के स्वामी के रूप में अंतिम दर्ज स्वामी का नाम बहाल करने का निर्देश दिया।
- उच्चतम न्यायालय से अपील:
- खंड पीठ के निर्णय के बाद, KMC ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या हैं?
- संपत्ति का संवैधानिक अधिकार:
- 44वें संशोधन द्वारा संशोधित, भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 300A सांपत्तिक अधिकार की रक्षा करता है तथा किसी भी व्यक्ति को उसकी अचल संपत्ति से वंचित करने से पहले निष्पक्ष प्रक्रिया के अनुपालन की आवश्यकता होती है।
- केवल क्षतिपूर्ति प्रदान करने से संपत्ति के वैध अधिग्रहण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।
- संपत्ति के अधिकार को शुरू में भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(f) तथा अनुच्छेद 31 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी।
- सांपत्तिक अधिकार को निर्मित करने वाले उप-अधिकार:
न्यायालय ने सात उप-अधिकारों की पहचान की, जो अनुच्छेद 300A के अंतर्गत संपत्ति के संवैधानिक अधिकार का भाग हैं:- संपत्ति अर्जित करने के आशय से सूचना का अधिकार
- प्रस्तावित अधिग्रहण के विरुद्ध सुनवाई एवं आपत्तियाँ उठाने का अधिकार।
- अधिग्रहण प्राधिकारी से तर्कसंगत निर्णय का अधिकार।
- केवल सार्वजनिक प्रयोजन के लिये संपत्ति अर्जित करना राज्य का कर्त्तव्य।
- क्षतिपूर्ति या उचित क्षतिपूर्ति पाने का संपत्ति के स्वामी का अधिकार।
- एक कुशल एवं शीघ्र अधिग्रहण की प्रक्रिया का अधिकार।
- निष्कर्ष का अधिकार अर्थात् प्रक्रिया पूरी करने के बाद संपत्ति का अंतिम रूप से राज्य में निहित होना।
- वैधानिक निगमन एवं न्यायिक मान्यता:
- भूमि अधिग्रहण पर संघ एवं राज्य के विधियों ने इन उप-अधिकारों को विभिन्न रूपों में सम्मिलित किया है।
- न्यायालयों ने वैधानिक प्रावधानों से स्वतंत्र होते हुए भी इन उप-अधिकारों के महत्त्व को पहचाना है।
- वर्तमान मामले में टिप्पणियाँ:
- अधिनियम की धारा 352 निजी संपत्ति प्राप्त करने की कोई प्रक्रिया प्रदान नहीं करती है।
- विधिक सलाहकारों द्वारा चिंता जताए जाने के बावजूद, अपीलकर्त्ता-निगम ने उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना संपत्ति हासिल करने के लिये कोलकाता म्युनिसिपल अधिनियम की धारा 352 (A) को लागू करके वैधानिक प्रावधानों का व्यापक उल्लंघन किया।
- धारा 352(A) के अंतर्गत अधिग्रहण अविधिक, अमान्य एवं अधिनियम के विरुद्ध था।
- अपील खारिज करना:
- उच्च न्यायालय ने रिट याचिका को सही माना तथा धारा 352 के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण के निगम के मामले को खारिज कर दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध निगम की अपील खारिज कर दी।
- निगम को 60 दिनों के अंदर प्रतिवादी को 5,00,000 रुपए की लागत का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था।
साम्पत्तिक अधिकार के उप-अधिकार क्या हैं?
- अधिग्रहण की सूचना का अधिकार:
- राज्य का कर्त्तव्य है कि वह व्यक्ति को स्पष्ट, ठोस एवं सार्थक नोटिस के माध्यम से उसकी संपत्ति प्राप्त करने के अपने आशय के विषय में सूचित करे।
- सुने जाने का अधिकार:
- नोटिस के बाद, संपत्ति धारक को अपनी आपत्तियों एवं चिंताओं को बताने का अधिकार है, जिसको सार्थक सुनवाई प्रदान करनी चाहिये न कि औपचारिक कार्यवाही।
- तर्कसंगत निर्णय का अधिकार:
- प्राधिकारी को एक सूचित निर्णय लेना चाहिये तथा आपत्तिकर्त्ता को एक तर्कसंगत आदेश के माध्यम से इसकी सूचना देनी चाहिये।
- केवल सार्वजनिक प्रयोजन के लिये अधिग्रहण करने का कर्त्तव्य:
- अधिग्रहण, एक सार्वजनिक उद्देश्य के लिये होना चाहिये, जो अधिग्रहण के उद्देश्य को निर्धारित करता है तथा बड़े संवैधानिक लक्ष्यों के अनुरूप होना चाहिये।
- क्षतिपूर्ति या उचित मुआवज़े का अधिकार:
- संपत्ति के अधिकार से वंचित करने की अनुमति केवल क्षतिपूर्ति पर ही दी जाती है, चाहे वह मौद्रिक मुआवज़ा हो, पुनर्वास हो, या इसी तरह का कोई साधन हो।
- उचित एवं युक्तियुक्त क्षतिपूर्ति किसी भी अधिग्रहण प्रक्रिया के लिये एक अनिवार्य शर्त है।
- एक कुशल एवं शीघ्र प्रक्रिया का अधिकार:
- प्रशासन को उचित समय के अंदर अधिग्रहण प्रक्रिया को पूरा करने में कुशल होना चाहिये, क्योंकि विलंब संपत्ति धारक के लिये पीड़ादायी होता है।
- निष्कर्ष का अधिकार:
- अधिग्रहण प्रक्रिया की परिणति केवल क्षतिपूर्ति का भुगतान नहीं है, बल्कि वास्तविक भौतिक कब्ज़ा लेना तथा राज्य में संपत्ति का अंतिम अधिकार प्राप्त करना भी है।