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आपराधिक कानून

मृत्युकालिक घोषणा के सिद्धांत

 27-May-2024

राजेंद्र पुत्र रामदास कोल्हे बनाम महाराष्ट्र राज्य

एक बार जब मृत्युकालिक घोषणा न्यायालय  के विश्वास को प्रेरित करने वाली प्रामाणिक पाई जाती है, तो उस पर विश्वास किया जा सकता है तथा यह बिना किसी पुष्टि के दोषसिद्धि का एकमात्र आधार हो सकता है।

न्यायमूर्ति अभय एस ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मृत्यु पूर्व दिये गए बयान को स्वीकार करने से पहले, न्यायालय को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि यह स्वेच्छा से दिया गया है और सुसंगत एवं विश्वसनीय है तथा इसमें किसी भी प्रकार का प्रशिक्षण नहीं है।

राजेंद्र पुत्र रामदास कोल्हे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता (पति) सेना में कार्यरत था और उसकी पत्नी (रेखा) पुलिस कांस्टेबल थी तथा पुलिस कॉलोनी में रहती थी।
  • अपीलकर्त्ता अवकाश पर था और घर आया था।
  • 22 जुलाई, 2002 को रेखा जलकर घायल हो गई। अभियोजन पक्ष के अनुसार रेखा पर उसके पति, देवर, सास, ससुर और ननद द्वारा क्रूरता की जाती थी।
  • घटना वाले दिन उसके पति एवं जेठ ने उसके साथ मारपीट की और उसके हाथ-पैर तौलिये से बाँध दिये तथा उसका मुँह बंद कर दिया, इसके बाद उन्होंने उस पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी।
  • पड़ोसियों द्वारा उसे अस्पताल ले जाया गया। वह पूरी तरह जल चुकी थी।
  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 307, 498A, 342, 323 एवं 504 के अधीन अपराध के लिये आरोपी व्यक्तियों (अपीलकर्त्ता एवं उसका परिवार) के विरुद्ध पुलिस स्टेशन में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • अस्पताल में सहायक उपनिरीक्षक द्वारा उसकी मृत्युकालिक घोषणा दर्ज की गई थी। लेकिन उसका कथन दर्ज करने से पहले उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि रेखा बयान देने की स्थिति में है।
  • विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा एक और मृत्युकालिक घोषणा दर्ज की गई। इसके बाद रेखा की जलने से मृत्यु हो गई। FIR में IPC की धारा 302 जोड़ी गई।
  • अपनी मृत्युकालिक घोषणा में उसने कहा कि उसके पति एवं ससुराल वालों ने विवाह के 15 दिन बाद ही उसके साथ इस आधार पर दुर्व्यवहार करना शुरू कर दिया कि उसने उन्हें अपना वेतन नहीं दिया था। 22 जुलाई, 2002 को उसके पति एवं जेठ ने उस पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी। घटना के समय ससुराल के अन्य लोग मौजूद थे तथा पड़ोसियों ने उसे अस्पताल पहुँचाया। उसका पति एवं ससुरालवाले भाग गए।
  • विवेचना पूरी होने के बाद आरोप-पत्र दाखिल किया गया तथा सभी आरोपियों के विरुद्ध आरोप तय किये गए।
  • ट्रायल कोर्ट को सास, ससुर एवं ननद के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं मिला, उन सभी को ट्रायल कोर्ट ने दोषमुक्त कर दिया।
  • ट्रायल कोर्ट ने मृत्यु पूर्व दिये गए दोनों बयानों पर विश्वास किया तथा माना कि अपीलकर्त्ता एवं उसके भाई ने सामान्य आशय से हत्या का अपराध किया है। ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को सज़ा सुनाई तथा उसके भाई को किशोर न्याय बोर्ड में भेज दिया गया, क्योंकि वह अप्राप्तवय था।
  • अपीलकर्त्ता ने इस सज़ा के विरुद्ध बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
  • उच्च न्यायालय ने मृत्युकालिक घोषणा पर विश्वास किया तथा निचली न्यायालय के दोषसिद्धि के निर्णय को यथावत रखा।
  • इसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
  • अपीलकर्त्ता का बचाव यह था कि अभियोजन पक्ष के साक्षियों के साक्ष्य में भौतिक विरोधाभास पाया गया। यह घोषणा की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह उत्पन्न करता है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि रेखा ने अपनी मृत्युकालिक घोषणा में उस घटना में पति (अपीलकर्त्ता) एवं देवर की भूमिका के बारे में स्पष्ट रूप से बताया था, जिसके कारण वह जल गई थी।
  • मृत्युकालिक घोषणा के तथ्य सिद्ध हो चुके हैं। हालाँकि उनके साक्ष्यों में कुछ विसंगतियाँ हैं, जो कि बिल्कुल स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त वे महत्त्वपूर्ण नहीं हैं तथा उनके बयान के उप-स्तर को प्रभावित नहीं करते हैं।
  • न्यायालय ने माना कि यदि मृत्युकालिक घोषणा स्वैच्छिक, विश्वसनीय एवं सुसंगत है, तो मृत्यु से पहले दिये गए कथन में काफी हद तक सत्यता होती है तथा यह दोषसिद्धि का एकमात्र आधार बन सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हमारे पास मृतक के मृत्युकालिक कथन की सत्यता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है, जो साक्ष्यों में सिद्ध हो चुका है।
  • मृत्युकालिक कथन का सार डॉक्टर द्वारा दर्ज किये गए मरीज़ के चिकित्सकीय जाँच से भी पता चलता है, जिसे साक्ष्य में भी सिद्ध किया गया है।
  • ऐसी स्थिति होने पर रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य सभी उचित संदेहों से परे अपीलकर्त्ता के अपराध को स्पष्ट रूप से स्थापित करता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय एवं ट्रायल कोर्ट के निर्णय को यथावत रखा। यह माना गया कि अपीलकर्त्ता अपराध करने का दोषी है तथा अपराध सभी उचित संदेहों से परे सिद्ध हो चुका है।

मृत्युकालिक घोषणा क्या है?

  • 'मृत्युकालिक घोषणा' शब्द 'लेटरम मॉर्टम' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है 'मृत्यु से पहले कहे गए कथन'।
  • मृत्युकालिक घोषणा का अर्थ है, मृत्यु से पहले किसी व्यक्ति द्वारा दिया गया कथन, जिसमें मृत्यु का कारण या लेन-देन की परिस्थितियाँ शामिल होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हुई।
  • मृत्युकालिक कथन की अवधारणा के पीछे तर्क यह है कि जब कोई व्यक्ति मृत्यु-शय्या पर हो तो वह असत्य नहीं बोल सकता।
  • यह अवधारणा लैटिन कहावत 'निमो मोरिटुरस प्रेसुमितूर मेंटर' से उत्पन्न हुई है, जिसका अर्थ है 'कोई व्यक्ति अपने निर्माता या भगवान से मुँह में असत्य लेकर नहीं मिलेगा।'
  • मृत्यु पूर्व दिया गया बयान न्यायालय में स्वीकार्य है तथा इसे विश्वसनीय साक्ष्य माना जाता है।
  • मृत्यु पूर्व घोषणा मौखिक या लिखित रूप में हो सकती है और यहाँ तक कि यह संकेतों या मौखिक संचार के माध्यम से भी की जा सकती है।
  • मृत्यु पूर्व कथन से संबंधित विधि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 32 (1) के अधीन दी गई है।
  • सामान्य नियम यह है कि श्रुत (सुने गए) साक्ष्य स्वीकार्य नहीं होते। जब तक प्रस्तुत किये गए साक्ष्य को प्रतिपरीक्षा द्वारा परखा नहीं जाता, वह श्रेयस्कर नहीं है। हालाँकि IEA की धारा 32(1) इस सामान्य नियम का अपवाद है।

 मृत्युकालिक घोषणा से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णय कौन से हैं?

  • कुशल राव बनाम बॉम्बे राज्य (1958)
    • उच्चतम न्यायालय ने मृत्युकालिक घोषणा को स्वीकार करने के लिये निम्नलिखित सिद्धांतों की जाँच की:
    • यह विधि के पूर्ण नियम के रूप में निर्धारित नहीं किया जा सकता है कि मृत्यु पूर्व दिया गया बयान दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं बन सकता, जब तक कि इसकी पुष्टि न हो जाए।
    • प्रत्येक मामले का निर्धारण उसके अपने तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिये, उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जिनमें मृत्युकालिक घोषणा की गई थी।
    • इसे एक सामान्य प्रस्ताव के रूप में नहीं रखा जा सकता है कि मृत्यु पूर्व दिया गया बयान अन्य साक्ष्यों की तुलना में कमज़ोर प्रकार का साक्ष्य है।
    • मृत्यु पूर्व दिया गया बयान किसी अन्य साक्ष्य के समान ही होता है। इसका निर्णय आस-पास की परिस्थितियों के आलोक में तथा साक्ष्यों के दबाव को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों के संदर्भ में किया जाना चाहिये।
    • एक सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा उचित तरीके से दर्ज की गई मृत्युकालिक घोषणा, मृत्यु पूर्व दिये गए बयान की तुलना में बहुत ऊँचे स्तर की होती है, जो मौखिक गवाही पर निर्भर करती है, जो मानव स्मृति एवं मानव चरित्र की सभी कमज़ोरियों से ग्रस्त हो सकती है।
    • मृत्युकालिक घोषणा की विश्वसनीयता का परीक्षण करने के लिये न्यायालय को ऐसा बयान देने वाले संबंधित व्यक्ति की स्थिति सहित विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा, यह बिना किसी तैयारी के बनाया गया है तथा यह इच्छुक पक्षकारों द्वारा किसी तरह के प्रशिक्षण का परिणाम नहीं है।
  • शेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2008)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि मृत्यु पूर्व दिये गए बयान की स्वीकार्यता अधिक है, क्योंकि यह बयान चरम सीमा पर दिया गया होता है। जब कोई पक्षकार मृत्यु की कगार पर होता है, तो असत्य बोलने का शायद ही कोई कारण मिलता है।
    • यही कारण है कि मृत्यु पूर्व बयान के मामले में शपथ एवं प्रतिपरीक्षा की आवश्यकता को समाप्त कर दिया जाता है।
  • अमोल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2008)
    • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि एक मृत्युकालिक घोषणा एवं दूसरे के मध्य विसंगतियाँ हैं, तो न्यायालय को विसंगतियों की प्रकृति की जाँच करनी होगी कि वे भौतिक हैं या नहीं।

 मृत्युकालिक घोषणा से संबंधित विधिक प्रावधान क्या है?

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32 (1) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 26 (a) में निम्नलिखित शामिल हैं:
  • ऐसे मामले जिनमें ऐसे व्यक्ति द्वारा प्रासंगिक तथ्य का बयान, जो मर चुका है या नहीं पाया जा सकता, प्रासंगिक है।

ऐसे व्यक्ति द्वारा दिये गए प्रासंगिक तथ्यों के लिखित या मौखिक बयान, जो मर चुका है, या जिसे पाया नहीं जा सकता है, या जो साक्ष्य देने में असमर्थ हो गया है, या जिसकी उपस्थिति बिना किसी विलंब या व्यय के प्राप्त नहीं की जा सकती है, जो परिस्थितियों में मामले के, जो न्यायालय को अनुचित प्रतीत होते हैं, निम्नलिखित मामलों में स्वयं प्रासंगिक तथ्य हैं: -

(1) जब यह मृत्यु के कारण से संबंधित हो - जब किसी व्यक्ति द्वारा उसकी मृत्यु के कारण के विषय में या संव्यवहार की किसी भी परिस्थिति के विषय में बयान दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हुई, तो ऐसे मामलों में जहाँ उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्न में आता है।

इस तरह के बयान प्रासंगिक हैं, चाहे जिस व्यक्ति ने उन्हें बनाया है, उस समय जब वे दिये गए थे, वह मृत्यु की प्रत्याशा में था या नहीं था, और कार्यवाही की प्रकृति जो भी हो, जिसमें उसकी मृत्यु का कारण प्रश्न में आता है।


आपराधिक कानून

CrPC की धारा 188

 27-May-2024

एम. अमानुल्ला खान बनाम सजीना वहाब एवं अन्य

CrPC की धारा 188 तभी लागू होती है जब संपूर्ण अपराध भारत के बाहर किया गया हो।”

न्यायामूर्ति के. बाबू

स्रोत : केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एम. अमानुल्ला खान बनाम सजीना वहाब एवं अन्य के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 188 के प्रावधान केवल तभी लागू होते हैं जब संपूर्ण अपराध भारत के बाहर हुआ हो।

एम. अमानुल्ला खान बनाम सजीना वहाब एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने अपने विरुद्ध दर्ज FIR को रद्द करने के लिये केरल उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।
  • याचिकाकर्त्ता दुबई में काम कर रहा था तथा उस पर पद की शक्ति का दुरुपयोग करके कंपनी के खाते से अनधिकृत रूप से पैसे निकालने का आरोप है।
  • इस प्रकार गबन की गई राशि, कोल्लम ज़िले के विभिन्न बैंकों में सके व्यक्तिगत खाते तथा उसकी पत्नी के खाते में स्थानांतरित कर दी गई ।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने कहा कि चूँकि अपराध भारत के बाहर किये गए थे, अतः जाँच एजेंसी CrPC की धारा 188 के अनुसार दी गई  केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के अतिरिक्त आरोपों की जाँच करने में सक्षम नहीं थी।
  • इस मामले को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया क्योंकि यह मामला चलाने योग्य नहीं था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति के. बाबू ने कहा कि यदि अपराध पूरी तरह से भारत के बाहर नहीं किया गया है, तो मामला CrPC की धारा 188 के दायरे में नहीं आएगा तथा धारा 188 के प्रावधानों के अनुसार किसी भी अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि स्थापित विधि के कारण CrPC की धारा 188 पर निर्भर याचिकाकर्त्ता की दलील विफल हो जाती है।

CrPC  की धारा 188 क्या है?

परिचय:

  • CrPC की धारा 188 में एक अतिरिक्त-क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार लागू होने पर परीक्षण एवं पूछताछ का प्रावधान है। यह भारत के बाहर किये गए अपराधों से संबंधित है।

विधिक प्रावधान:

यह धारा बताती है कि जब कोई अपराध भारत के बाहर किया जाता है—

(a) भारत के नागरिक द्वारा, चाहे वह खुले समुद्र में हो या कहीं और; या

(b) भारत में पंजीकृत किसी जहाज़ अथवा विमान पर ऐसे व्यक्ति द्वारा, जो भारत का नागरिक नहीं है।

इस अपराध के संबंध में उस व्यक्ति से इस तरह से बर्ताव किया जा सकता है जैसे कि यह अपराध भारत के भीतर किसी स्थान पर किया गया हो, जहाँ पर वह उपस्थित था।

बशर्ते कि इस अध्याय के किसी भी पूर्ववर्ती खंड में कुछ भी प्रावधान होने के बावजूद केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना भारत में ऐसे किसी भी अपराध की जाँच अथवा मुकदमा नहीं चलाया जाएगा।

निर्णयज विधियाँ:

  • नेरेल्ला चिरंजीवी अरुण कुमार बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2021) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 188 के अनुसार, किसी भारतीय नागरिक के विरुद्ध भारत के बाहर किये गए अपराधों के लिये आपराधिक मामले की सुनवाई, भारत की केंद्र सरकार की अनुमति के बिना प्रारंभ नहीं हो सकती।
  • सरताज खान बनाम उत्तराखंड राज्य (2022) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 188 के अधीन केंद्र सरकार की अनुमति केवल तभी आवश्यक है जब संपूर्ण अपराध भारत के बाहर किया गया हो।

वाणिज्यिक विधि

फ्रैंचाइज़ करार

 27-May-2024

आयुक्त वाणिज्यिक कर बनाम पान पराग इंडिया लिमिटेड

फ्रेंचाइज़ करार में फ्रेंचाइज़र नियंत्रण अपने पास रखता है तथा कई फ्रेंचाइज़ी को समान अधिकारों का लाइसेंस (अनुज्ञप्ति) दे सकता है, जिससे पूर्ण अंतरण के बजाय लाइसेंसिंग ढाँचे को सशक्त किया जा सकता है।

न्यायमूर्ति शेखर बी. सराफ

स्रोत: इलाहबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति शेखर बी. सराफ की पीठ ने कहा कि फ्रेंचाइज़ करार में फ्रेंचाइज़र नियंत्रण अपने पास रखता है तथा कई फ्रेंचाइज़ी को समान अधिकारों का लाइसेंस (अनुज्ञप्ति) दे सकता है, जिससे पूर्ण अंतरण के बजाय लाइसेंसिंग ढाँचे को सशक्त किया जा सकता है।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी कमिश्नर कॉमर्शियल टैक्स बनाम पान पराग इंडिया लिमिटेड के मामले में दी।

कमिश्नर कॉमर्शियल टैक्स बनाम पान पराग इंडिया लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • प्रतिवादी (डीलर) ने विभिन्न पक्षों के साथ फ्रैंचाइज़ करार किया, जिससे उन्हें प्रतिवादी के ब्रांड नाम/शीर्षक का उपयोग करने का अधिकार मिल गया।
  • कॉमर्शियल टैक्स डिपार्टमेंट ने आकलन किया कि प्रतिवादी ने फ्रेंचाइज़ी करार के अंतर्गत अपना ब्रांड नाम/शीर्षक बेचा था तथा उस पर मूल्यवर्द्धित कर (VAT) लगाया था।
  • प्रथम अपीलीय प्राधिकारी ने VAT लेवी को बरकरार रखा तथा निष्कर्ष निकाला कि फ्रैंचाइज़ करार में ब्रांड नाम/शीर्षक की बिक्री शामिल है।
  • कॉमर्शियल टैक्स न्यायाधिकरण ने मैकडॉनल्ड्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम व्यापार कर आयुक्त (2019) मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय पर विश्वास जताया तथा माना कि चूँकि फ्रैंचाइज़ ने ट्रेडमार्क का उपयोग करने का एक गैर-विशिष्ट अधिकार दिया है, इसलिये यह माल के उपयोग के अधिकार का अंतरण नहीं है तथा इसलिये कोई VAT नहीं लगाया जा सकता है।
  • इसलिये इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
    • विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या व्यापार चिह्न (ट्रेडमार्क) का फ्रैंचाइज़ माल के उपयोग के अधिकार का अंतरण है, जिससे यह VAT के अधीन हो जाता है?

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने वित्त अधिनियम, 1994 की धारा 65(47) के अंतर्गत 'फ्रैंचाइज़' की परिभाषा का विश्लेषण किया, जिसमें यह कहा गया है कि एक फ्रैंचाइज़ी करार केवल प्रतिनिधित्व का अधिकार देता है, न कि माल विक्रय करने/निर्माण का विशेष अधिकार।
  • न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि ट्रेडमार्क लाइसेंसिंग में ट्रेडमार्क की प्रतिष्ठा एवं विधिक सुरक्षा की निरंतरता को बनाए रखते हुए लाइसेंसधारी द्वारा चिह्न के उपयोग को मालिक का उपयोग माना जाता है।
  • न्यायालय ने पाया कि फ्रैंचाइज़ करार में मुख्य रूप से मूर्त वस्तुओं की बिक्री के बजाय अमूर्त संपत्तियों, जैसे- ट्रेडमार्क एवं व्यावसायिक तरीकों का लाइसेंस शामिल होता है।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि फ्रैंचाइज़ करार में फ़्रैंचाइज़र एवं फ़्रैंचाइज़ी के मध्य एक सतत् संबंध निहित होता है, जिसमें माल की एकमुश्त बिक्री के विपरीत प्रशिक्षण, समर्थन एवं निरंतर सहायता शामिल होती है।
  • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में प्रतिवादी ने फ्रेंचाइज़ से प्राप्त रॉयल्टी राशि पर पहले ही सेवा कर का भुगतान कर दिया है तथा इस प्रकार उस पर VAT नहीं लगाया जा सकता है।
  • उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले में फ्रैंचाइज़ करार में माल के उपयोग के अधिकार के अंतरण के बजाय एक गैर-विशिष्ट लाइसेंस प्रदान किया जाता है तथा इसलिये लेन-देन पर UPVAT अधिनियम के अंतर्गत मूल्यवर्द्धित कर नहीं लगता है।
  • परिणामस्वरूप न्यायालय ने पुनरीक्षण आवेदन को खारिज कर दिया तथा कॉमर्शियल टैक्स न्याधिकरण के आदेश को यथावत रखा, क्योंकि अपने दृष्टिकोण में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया।

फ्रैंचाइज़ करार क्या है?

  • तथ्य:
    • फ्रैंचाइज़ करार दो पक्षों -फ्रैंचाइज़र एवं फ्रैंचाइज़ी के मध्य एक संविदा है।
    • फ्रेंचाइज़र एक ट्रेडमार्क, ब्रांड नाम एवं व्यापार प्रणाली का स्वामी है, जबकि फ्रेंचाइज़ी को इन बौद्धिक संपदा संपत्तियों का उपयोग करने और फ्रेंचाइज़र के तरीकों एवं प्रक्रियाओं का पालन करते हुए व्यवसाय संचालित करने का अधिकार दिया जाता है।
  • वित्त अधिनियम, 1994 की धारा 65(47):
    • यह 'फ्रैंचाइज़' को इस प्रकार परिभाषित करता है "एक करार, जिसके द्वारा फ्रैंचाइज़ को माल विक्रय करने या निर्माण करने या सेवा प्रदान करने या फ्रैंचाइज़र के साथ करार की गई किसी भी प्रक्रिया को करने का प्रतिनिधिक अधिकार दिया जाता है, चाहे वह ट्रेडमार्क, सेवा चिह्न, व्यापार नाम या लोगो (चिह्न) या कोई हो या नहीं, जैसा भी मामला हो, ऐसा प्रतीक शामिल है।"
  • मुख्य बिंदु:
    • अधिकारों का अनुदान: फ्रेंचाइज़र फ्रेंचाइज़ी को एक परिभाषित क्षेत्र के भीतर अपने ट्रेडमार्क, व्यापार नाम, चिह्न एवं व्यवसायिक स्वामित्व की विधियों एवं प्रणालियों का उपयोग करने का अधिकार देता है।
    • गैर-अनन्य अधिकार: धारा 65(47) के अनुसार, फ्रैंचाइज़ करार केवल प्रतिनिधिक अधिकार देता है, फ्रैंचाइज़ को माल विक्रय करने/निर्माण करने का विशेष अधिकार नहीं देता है।
    • क्षेत्रीय प्रतिबंध: करार, उस भौगोलिक क्षेत्र को निर्दिष्ट करता है, जिसमें फ्रेंचाइज़ी फ्रेंचाइज़र के ब्रांड के अंतर्गत काम कर सकती है।
    • परिचालन मानक: फ्रेंचाइज़र ब्रांड की स्थिरता बनाए रखने के लिये उत्पाद की गुणवत्ता, सेवा वितरण, विपणन आदि के संबंध में फ्रेंचाइज़ी के लिये मानक निर्धारित करता है।
    • शुल्क एवं रॉयल्टी: फ्रेंचाइज़ी फ्रेंचाइज़र को प्रारंभिक फ्रेंचाइज़ शुल्क एवं चालू रॉयल्टी शुल्क का भुगतान करती है, जो आमतौर पर बिक्री/राजस्व के प्रतिशत पर आधारित होती है।
    • अवधि एवं नवीनीकरण: फ्रैंचाइज़ी करार में एक परिभाषित अवधि होती है, जिसमें अक्सर कुछ शर्तों के अधीन नवीनीकरण के प्रावधान होते हैं।
    • प्रशिक्षण एवं सहायता: फ्रेंचाइज़र फ्रेंचाइज़ी को प्रारंभिक एवं चालू प्रशिक्षण, परिचालन सहायता और सहायता प्रदान करता है।

फ्रेंचाइज़ करार से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?

  • भारत संचार निगम लिमिटेड बनाम भारत संघ (2006):
    • उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिये एक परीक्षण निर्धारित किया कि क्या संव्यवहार के मामले में माल के उपयोग के अधिकार का अंतरण निहित है:
      • डिलीवरी के लिये माल की उपलब्धता,
      • माल की पहचान पर सहमति,
      • अंतरिती को माल का उपयोग करने का विधिक अधिकार,
      • स्थानांतरण अवधि के दौरान स्थानांतरणकर्त्ता का बहिष्कार, एवं
      • उस अवधि के दौरान समान अधिकार दूसरों को अंतरित करने में स्वामी की असमर्थता।
  • मैकडॉनल्ड्स इंडिया प्रा. लिमिटेड बनाम कॉमर्शियल टैक्स कमिश्नर (2017):
    • दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि चूँकि फ्रेंचाइज़ी करार केवल एक गैर-विशिष्ट अधिकार प्रदान करता है, इसलिये यह माल के उपयोग के अधिकार का अंतरण नहीं है।
  • मालाबार गोल्ड प्राइवेट लिमिटेड बनाम कॉमर्शियल टैक्स अधिकारी (2013):
    • केरल उच्च न्यायालय ने माना कि फ्रैंचाइज़ करार केरल मूल्यवर्द्धित कर अधिनियम के अंतर्गत एक मानी गई बिक्री नहीं है, क्योंकि फ्रेंचाइज़र प्रभावी नियंत्रण एवं स्वामित्व यथावत् रखता है, तथा लेन-देन में गैर-विशिष्ट अधिकार शामिल होते हैं।
  • गॉडफ्रे फिलिप्स इंडिया लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2005):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि संविधान करों के आच्छादन की अनुमति नहीं देता है तथा एक बार जब कोई गतिविधि सेवा के रूप में कर योग्य हो जाती है, तो उस पर बिक्री के रूप में या माल की बिक्री के रूप में कर नहीं लगाया जा सकता है।