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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

अप्राकृतिक अपराध

 04-Jun-2024

X बनाम Y

“पति द्वारा अपनी पत्नी, जो पंद्रह वर्ष से कम आयु की न हो, के साथ बनाया गया कोई भी यौन संबंध या कृत्य बलात्संग नहीं है, अतः इस संदर्भ में, सहमति महत्त्वहीन है”।

न्यायमूर्ति प्रेम नारायण सिंह

स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?    

न्यायमूर्ति प्रेम नारायण सिंह की पीठ ने कहा कि पति द्वारा अपनी विधिक रूप से विवाहित पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना अप्राकृतिक अपराध नहीं है। 

X बनाम Y मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध), 498-A (पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता), 294 (अश्लील कृत्य) तथा 506 (आपराधिक धमकी) के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • शिकायतकर्त्ता ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्त्ता नंबर 1 (पति) ने उसके साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाए, जिसके कारण उसके मुंह में संक्रमण हो गया।
  • शिकायतकर्त्ता ने यह आरोप भी लगाया कि याचिकाकर्त्ताओं ने उसे गर्भपात के लिये बाध्य किया तथा 20 लाख रुपए दहेज़ की माँग की एवं उसे मौखिक और शारीरिक यातनाएँ दीं।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन एक याचिका दायर की, जिसमें FIR और परिणामी कार्यवाही को रद्द करने की माँग की गई।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि आरोप झूठे हैं तथा वैवाहिक विवाद को आपराधिक रूप देने के लिये उनके विरुद्ध लगाए गए हैं।
    • उन्होंने तर्क दिया कि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के पिछले निर्णयों के अनुसार, पति द्वारा अपनी विधिक रूप से विवाहित पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध धारा 377 के अंतर्गत अपराध नहीं है।
  • प्रतिवादियों (शिकायतकर्त्ता और राज्य) ने याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध धारा 377 के अधीन अपराध है तथा इसमें उत्पीड़न, यातना और बलात् गर्भपात के विशिष्ट आरोप हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अधीन "बलात्कार" की संशोधित परिभाषा पर विश्वास जताया, जिसमें किसी महिला के मुख, मूत्रमार्ग या गुदा में लिंग डालना जैसे कृत्य शामिल हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि चूँकि शिकायतकर्त्ता (पत्नी) अपने विवाह के समय अपने पति के साथ रह रही थी और 15 वर्ष से अधिक आयु की पत्नी के साथ पति द्वारा किया गया कोई भी यौन कृत्य धारा 375 के अधीन बलात्कार नहीं माना जाता है, अतः पत्नी की सहमति महत्त्वहीन है। अतः FIR में लगाए गए आरोप याचिकाकर्त्ता संख्या 1 (पति) के विरुद्ध धारा 377 के अधीन कोई अपराध नहीं बनाते हैं।
    • न्यायालय ने प्रथम दृष्टया साक्ष्य के अभाव का हवाला देते हुए याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध धारा 294 (अश्लील कृत्य) और 506 (आपराधिक धमकी) के अधीन दर्ज अपराधों को भी रद्द कर दिया। 
  • हालाँकि, न्यायालय ने पाया कि दहेज़ की माँग और उत्पीड़न के आरोपों के आधार पर याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध प्रथम दृष्टया धारा 498-A (पति या रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता) के अधीन अपराध का मामला बनता है।
  • परिणामस्वरूप, याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया गया तथा धारा 377, 294 और 506 के अधीन अपराध को रद्द कर दिया गया, परंतु याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध धारा 498-A के अधीन अपराध को रद्द नहीं किया गया।

अप्राकृतिक अपराधों से संबंधित विधियाँ क्या हैं?

  • परिचय: 
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 "अप्राकृतिक अपराध" से संबंधित है तथा इसे किसी भी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति के विरुद्ध स्वैच्छिक शारीरिक संभोग के रूप में परिभाषित करती है।
    • यह पुरातन प्रावधान, निजी तौर पर वयस्कों की बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को, प्रभावी रूप से अपराध घोषित करता था।
    • इस धारा की अस्पष्ट भाषा एवं "प्रकृति के आदेश के विरुद्ध" की स्पष्ट परिभाषा के अभाव के कारण न्यायपालिका द्वारा काफी तर्क-वितर्क और व्याख्या की गई है।
  • अप्राकृतिक अपराधों के अनिवार्य तत्त्व:
    • किसी व्यक्ति ने किसी पुरुष, स्त्री या पशु के साथ शारीरिक (यौन) संभोग किया हो।
    • इस तरह का संभोग प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध था।
    • यह कार्य स्वेच्छा से किया गया था।
  • अप्राकृतिक अपराधों के प्रकार:
    • लेस्बियन (महिला समलैंगिकता)
    • पशुगमन (पशुओं के साथ यौन संबंध),
    • गुदामैथुन/अप्राकृतिक मैथुन (पुरुष या महिला के साथ गुदा मैथुन)।

अप्राकृतिक अपराध पर महत्त्वपूर्ण  निर्णयज मामले कौन-से हैं?

  • नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार (2009): 
    • दिल्ली उच्च न्यायालय ने वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया और कहा कि धारा 377 संविधान के समानता, गैर-भेदभाव और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित अनुच्छेद 14, 15 तथा 21 का उल्लंघन करती है।
  • सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन (2014): 
    • उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए कहा कि अनुच्छेद 21 के अधीन निजता का अधिकार समलैंगिकता पर लागू नहीं होता।
  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014): 
    • उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी तथा संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के अधीन उनके मौलिक अधिकारों को यथावत् रखा।
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम UOI: 
    • एक ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने एकांत में वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए सभी यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया तथा धारा 377 को आंशिक रूप से असंवैधानिक करार दिया।

पति और पत्नी के बीच अप्राकृतिक अपराध पर ऐतिहासिक निर्णयज मामले क्या हैं?

  • उमंग सिंघार बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022): 
    • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अधीन बलात्कार की संशोधित परिभाषा के मद्देनज़र, जिसमें पुरुष और महिला के बीच विभिन्न यौन कृत्य शामिल हैं भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के अधीन पति तथा पत्नी के बीच,अप्राकृतिक यौन संबंध के अपराध के लिये कोई स्थान नहीं है।
    • न्यायालय ने कहा कि पति और पत्नी के बीच संबंध केवल संतानोत्पत्ति तक ही सीमित नहीं हो सकता तथा यौन सुख उनके बंधन का अभिन्न अंग है।
  • मनीष साहू बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023): 
    • नवतेज सिंह जौहर निर्णय का समर्थन करते हुए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि पत्नी वैध विवाह के उपरांत अपने पति के साथ रह रही है, तो पति द्वारा 15 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ बनाया गया कोई भी यौन संबंध या यौन कृत्य बलात्कार नहीं माना जाएगा।
    • अतः अप्राकृतिक कृत्य के लिये पत्नी की सहमति का अभाव महत्त्वहीन हो जाता है, क्योंकि वैवाहिक बलात्कार को मान्यता नहीं दी जाती।

व्यापारिक सन्नियम

प्रारंभिक हित भ्रम का सिद्धांत

 04-Jun-2024

माउंटेन वैली स्प्रिंग्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम बेबी फॉरेस्ट आयुर्वेद प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य

“प्रारंभिक हित भ्रम से तात्पर्य उस भ्रम से है जो किसी लेन-देन के प्रारंभ में होता है, परंतु लेन-देन पूरा हो जाने के उपरांत समाप्त हो जाता है”।

न्यायमूर्ति विभु बाखरू और तारा वितस्ता गंझू 

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?    

 दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में संकेत दिया कि एकल न्यायाधीश ने आयुर्वेदिक सौंदर्य प्रसाधन कंपनी फॉरेस्ट एसेंशियल्स को आयुर्वेदिक शिशु देखभाल उत्पादों में विशेषज्ञता वाली कंपनी बेबी फॉरेस्ट के साथ ट्रेडमार्क (व्यापार चिह्न) विवाद में अंतरिम राहत देने से प्रतिषेध कर प्रथम दृष्टया त्रुटि की है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी माउंटेन वैली स्प्रिंग्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम बेबी फॉरेस्ट आयुर्वेद प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले में दी।

माउंटेन वैली स्प्रिंग्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम बेबी फॉरेस्ट आयुर्वेद प्राइवेट लिमिटेड और अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • व्यापक बिक्री एवं विपणन के साथ वर्ष 2000 से परिचालन में, फॉरेस्ट एसेंशियल्स कंपनी  के पास वर्ग 3 सहित विभिन्न वर्गों में "फॉरेस्ट एसेंशियल्स" के लिये ट्रेडमार्क हैं।
  • घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है, वे अनेक होटल शृंखलाओं को आपूर्ति करते हैं तथा 120 देशों को निर्यात करते हैं।
  • फॉरेस्ट एसेंशियल्स वर्ष 2006 से अपने ब्रांड के अधीन शिशु देखभाल उत्पादों की बिक्री कर रहा है, जिसकी वार्षिक बिक्री काफी अधिक है तथा विदेश मंत्रालय जैसी उल्लेखनीय संस्थाओं से भी इसका समर्थन प्राप्त है।
  • होटलों से प्राप्त ईमेल और सोशल मीडिया पर टिप्पणियों से यह पता चलता है कि उपभोक्ता, फॉरेस्ट एसेंशियल्स तथा प्रतिवादी बेबी फॉरेस्ट के बीच भ्रमित हैं।
  • फॉरेस्ट एसेंशियल्स ने "फॉरेस्ट एसेंशियल्स बेबी" के ट्रेडमार्क के लिये आवेदन किया है, जिसका बेबी फॉरेस्ट द्वारा विरोध किया गया है, जो प्रतिवादियों द्वारा संभावित भ्रम की पहचान को और अधिक स्पष्ट करता है।
  • बेबी फॉरेस्ट द्वारा फॉरेस्ट एसेंशियल्स के समान नाम एवं लोगो को अपनाना, साथ ही उनकी विपणन रणनीतियाँ तथा स्थान अपनाना, वादी की प्रतिष्ठा से लाभ उठाने का प्रयास प्रतीत होता है।
  • दोनों कंपनियाँ समान उत्पादों के माध्यम से समान उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनाती हैं, जिससे भ्रम की संभावना बढ़ जाती है।
  • वादी ने अपनी दीर्घकालिक प्रतिष्ठा पर ज़ोर दिया, साथ ही शिशु उत्पादों की प्रकृति के कारण समानता और संभावित सुरक्षा चिंताओं के उदाहरणों पर भी प्रकाश डाला।  
  • एकल न्यायाधीश न्यायालय ने कहा कि फॉरेस्ट एसेंशियल्स पृथक पंजीकरण के बिना "वन" शब्द पर विशिष्टता का दावा नहीं कर सकता।
    • इसने पैकेजिंग और लोगो में असमानताओं को भी चिह्नित किया तथा भ्रामक समानता के दावों को खारिज कर दिया।
    • व्यापक भ्रम को सिद्ध करने के लिये सोशल मीडिया संदर्भों को अपर्याप्त माना गया तथा गूगल के एल्गोरिदम की जटिलता के कारण गूगल खोज सुझावों को भ्रम का अपर्याप्त साक्ष्य माना गया।
  • इसके उपरांत अपीलकर्त्ता ने एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को चुनौती देने के लिये डिवीज़न बेंच में अपील दायर की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति विभु बाखरू और न्यायमूर्ति तारा वितस्ता गंझू की खंडपीठ ने प्रथम दृष्टया मामले को संबोधित करते हुए पाया कि एकल न्यायाधीश ने 'आरंभिक हित भ्रम' के सिद्धांत की व्याख्या में गलती की है, जिससे लेन-देन पूरा होने तक भ्रम की स्थिति बनी रहती है।
  • 'प्रारंभिक हित भ्रम' के सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि केवल प्रारंभिक चरण में ही भ्रम होता है तथा क्रय और विक्रय का लेन-देन पूरा होने पर कोई भ्रम नहीं होता।
  • जब विक्रय पूरा हो जाता  है तो ग्राहक को उस उत्पाद के विषय में कोई संदेह नहीं रहता जिसे वे क्रय कर रहे हैं। यह भ्रम केवल प्रारंभिक चरण में ही होता है।

ट्रेडमार्क क्या होता है?

  • ट्रेडमार्क, वस्तुओं एवं सेवाओं के लिये एक विशिष्ट पहचानकर्त्ता के रूप में कार्य करता है, जो ब्रांड और उसकी प्रतिष्ठा का प्रतिनिधित्व करता है।
  • ट्रेडमार्क का उल्लंघन न केवल बौद्धिक संपदा के मूल्य को कम करता है, बल्कि अनधिकृत पक्षों को, ब्रांड से जुड़ी प्रतिष्ठा से लाभ उठाने की अनुमति देकर व्यवसायों के लिये संकट भी उत्पन्न करता है।

ट्रेडमार्क के अंतर्गत प्रारंभिक हित भ्रम का सिद्धांत क्या है?

  • परिचय:
    • 'प्रारंभिक हित भ्रम', ट्रेडमार्क विधि की एक अवधारणा है, जहाँ उपभोक्ता के समक्ष किसी अन्य उत्पाद अथवा सेवा के समान ट्रेडमार्क वाला उत्पाद अथवा सेवा आने पर, प्रारंभ में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, भले ही वस्तु के क्रय करने से पूर्व ही यह भ्रम दूर हो जाए।
    • मूलतः यह एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है, जहाँ किसी उत्पाद या सेवा में उपभोक्ता की प्रारंभिक रुचि, किसी ज्ञात ट्रेडमार्क के साथ समानता के कारण आकर्षित होती है, जिससे संभावित भ्रम की स्थिति पैदा होती है, भले ही बाद में उस भ्रम का समाधान हो जाए।
    • इस सिद्धांत का उद्देश्य ट्रेडमार्क स्वामियों को, भ्रामक रूप से समान ट्रेडमार्क के कारण संभावित ग्राहकों की प्रारंभिक रुचि या ध्यान के विचलन से बचाना है, भले ही वस्तु का वास्तविक विक्रय हुआ हो अथवा नहीं।
  • उत्पत्ति:
    • प्रारंभिक हित सिद्धांत विश्व भर के विभिन्न न्यायक्षेत्रों में न्यायिक व्याख्याओं से उत्पन्न हुआ है।
    • जबकि किसी उत्पाद में निहित गुणवत्ता और प्रतिष्ठा के कारण उपभोक्ता की रुचि, विधिक रूप से समस्याजनक नहीं है, परंतु ट्रेडमार्क, साख या उत्पाद नाम के अविधिक उपयोग से उत्पन्न रुचि, इस विधि का उल्लंघन करती है, जैसा कि विश्व स्तर पर कई मामलों में स्थापित हुआ है।
    • प्रारंभिक हित भ्रम वास्तविक विक्रय से पूर्व होने वाले भ्रम से संबंधित है, जो विक्रय के समय होने वाले भ्रम से भिन्न है।
    • यह तब उत्पन्न होता है जब उपभोक्ता ने किसी उत्पाद पर निर्णय ले लिया है, परंतु अभी तक विक्रय स्थल पर नहीं पहुँचा है।
    • यह तब लागू नहीं होता जब उपभोक्ता विक्रय स्थल पर पहुँचने के उपरांत समान ट्रेडमार्क देखकर भ्रमित हो जाता है।
  • सिद्धांत से संबंधित कानूनी प्रावधान:
    • ट्रेडमार्क अधिनियम, 1999 की धारा 29(1) में प्रावधान है कि ट्रेडमार्क समानता के परिणामस्वरूप उल्लंघन स्थापित करने के लिये भ्रम की संभावना होनी चाहिये। 
    • ऐसे भ्रम के मामलों में, यह आमतौर पर विक्रय के समय होता है, जहाँ उल्लंघन करने वाला पक्ष ट्रेडमार्क की स्थापित प्रतिष्ठा का लाभ उठाता है।
    • इसके विपरीत, प्रारंभिक रुचि भ्रम की स्थिति में, विक्रय से पूर्व ही भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, परंतु उपभोक्ता लेन-देन पूरा करने से पहले असमानता का अनुभव होने के बावजूद भी उत्पाद के प्रति वरीयता विकसित कर लेता है।
    • यह विभिन्न तरीकों से हो सकता है, जैसे कि मेटा टैग के रूप में किसी दूसरे के ट्रेडमार्क का उपयोग करना। न्यायालयों ने कई निर्णयों में इसे लगातार उल्लंघन के रूप में मान्यता दी है।

प्रारंभिक हित भ्रम के सिद्धांत से संबंधित प्रमुख निर्णयज मामले क्या हैं?

  • कॉन्सिम इन्फो प्राइवेट लिमिटेड बनाम गूगल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य, (2010):
    • न्यायालय ने 'आरंभिक हित भ्रम' की अवधारणा पर चर्चा की तथा मेटाटैग में ट्रेडमार्क के अनधिकृत उपयोग से जुड़े मामलों में इसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला।
    • यह सिद्धांत बताता है कि ट्रेडमार्क उल्लंघन तब होता है जब वस्तु के विक्रय से पूर्व उपभोक्ता में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
    • हालाँकि सामान्यतः विक्रय के समय भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। विश्व भर में न्यायालयों ने इस मुद्दे से जूझना शुरू कर दिया है, विशेषतः इंटरनेट के संदर्भ में, जहाँ ट्रेडमार्क स्वामी की वेबसाइट की तलाश करने वाले उपयोगकर्त्ताओं को समान डोमेन नामों या प्रतिस्पर्धी द्वारा विज्ञापनों में ट्रेडमार्क के अनधिकृत उपयोग द्वारा पुनर्निर्देशित किया जाता है।