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आपराधिक कानून

छल का अपराध

 10-Jun-2024

राजीव बंसल एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

वेतन अथवा परिलब्धियाँ रोकने से छल का अपराध सृजित नहीं होता है”।

न्यायमूर्ति एन. जे. जामदार

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?   

राजीव बंसल एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य के मामले में हाल ही में दिये गए निर्णय में यह माना गया कि वेतन अथवा परिलब्धियाँ रोकने से छल का अपराध सृजित नहीं होता है।

  • यह निर्णय एयर इंडिया लिमिटेड (AIL) और उसके कर्मचारियों के बीच रोके गए वेतन एवं परिलब्धियों को लेकर चल रही विधिक लड़ाई के बीच आया है, जहाँ न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस मामले में वेतन रोकना छल के मानदण्डों को पूरा नहीं करता है, क्योंकि इसमें छल या प्रलोभन के तत्त्व नहीं हैं, जो सामान्यतः इस अपराध से जुड़े होते हैं।

राजीव बंसल एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • राजीव बंसल और एयर इंडिया लिमिटेड (AIL) के वर्तमान और पूर्व निदेशकों/प्रबंधकों सहित अन्य याचिकाकर्त्ता एक विधिक मामले में शामिल थे तथा प्रतिवादी के. वी. जगन्नाथराव वर्ष 1987 में AIL में शामिल हुए थे।
  • वर्ष 2013 में, AIL ने वित्तीय कठिनाइयों के कारण औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (ID अधिनियम) की धारा 9A के अंतर्गत आवश्यक वैधानिक अधिसूचना जारी किये बिना, प्रदर्शन से जुड़ी प्रोत्साहन राशि का 25% रोक लेने की अधिसूचना जारी की।
  • इन अधिसूचनाओं के विरुद्ध रिट याचिकाएँ दायर की गईं, जिसके परिणामस्वरूप बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इन्हें अवैध घोषित कर दिया।
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कर्मचारी निर्णय के समय प्राप्त लाभों के अधिकारी हैं, तथा यदि AIL शर्तों में परिवर्तन करना चाहता है तो उसे 31 जुलाई 2014 तक अधिसूचना देनी होगी।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय के निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई, जो आज तक लंबित है।
  • AIL ने उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार कर्मचारियों को वेतन का बकाया हस्तांतरित कर दिया, परंतु कोई ब्याज नहीं दिया।
  • प्रतिवादी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 200 के अधीन एक सत्यापन बयान दायर किया, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 415 के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया।
    • मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने यह मामला, प्रथम दृष्टया याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 और 420 के अधीन स्वीकार किया।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने एक रिट याचिका के माध्यम से इस आदेश को चुनौती दी, जिसमें तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट ने शपथ पर सत्यापन बयान दर्ज किये बिना आदेश जारी कर तकनीकी रूप से गलती की है।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 9A के अंतर्गत बिना नोटिस दिये वेतन और परिलब्धियाँ रोकना छल या आपराधिक विश्वासघात नहीं माना जाता है।
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि सत्यापन विवरण मजिस्ट्रेट द्वारा उचित रूप से दर्ज किया गया था तथा बिना अधिसूचना के वेतन रोकने के पीछे कथित आपराधिक मंशा को देखते हुए सिविल उपचार के साथ-साथ आपराधिक कार्यवाही प्रारंभ करना वैध है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बावजूद, विवाद मुख्य रूप से AIL द्वारा भुगतान किये गए बकाया पर ब्याज के दावे से संबंधित था, न कि भुगतान से।
    • यह मानते हुए भी कि औद्योगिक आय अधिनियम की धारा 9A के अंतर्गत बिना अधिसूचना दिये AIL द्वारा वेतन/परिलब्धियों में कटौती अनुचित थी, परंतु फिर भी यह स्वतः ही छल का अपराध नहीं बनता।
    • छल में वंचना, कपट या बेईमानी से प्रलोभन देना शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप संपत्ति का वितरण या प्रतिधारण होता है।
  • वेतन/भत्ते रोकना छल के मानदण्डों के अनुरूप नहीं है, क्योंकि नियोक्ता की कार्यवाही में छल या प्रलोभन शामिल नहीं है और छल के लिये प्रारंभ से ही दुराशय की आवश्यकता होती है, जबकि AIL की कटौती नियोक्ता के रूप में उसके अधिकार के भीतर थी।
  • इसी प्रकार, आपराधिक विश्वासघात का अपराध सिद्ध नहीं होता, क्योंकि कर्मचारियों द्वारा नियोक्ता को कोई संपत्ति नहीं सौंपी गई थी।
    • नियोक्ता ने किसी विधिक अनुबंध का उल्लंघन नहीं किया, जो कि आपराधिक विश्वासघात के लिये आवश्यक है।
  • मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्त्ता का शपथ के अधीन सत्यापन बयान दर्ज न करके प्रक्रियागत गलती की, जैसा कि CrPC की धारा 200 के अधीन अनिवार्य है।

छल का अपराध क्या है?

परिचय:

  • भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के अधीन छल को एक आपराधिक कृत्य माना जाता है।
  • यह किसी कपटपूर्ण तरीके का उपयोग कर किसी अन्य व्यक्ति से लाभ या फायदा पाने के लिये किया जाता है।
  • धारा 415 में कहा गया है कि जो कोई, किसी व्यक्ति को धोखा देकर, कपटपूर्वक या बेईमानी से उस व्यक्ति को, किसी अन्य व्यक्ति को कोई संपत्ति सौंपने के लिये प्रेरित करता है, अथवा किसी व्यक्ति को किसी संपत्ति को रखने के लिये सहमति देने के लिये प्रेरित करता है, या उस व्यक्ति को जानबूझकर ऐसा कुछ करने या करने से मना करने के लिये प्रेरित करता है, जो वह नहीं करता यदि उसे इस प्रकार धोखा नहीं दिया गया होता तथा जो कार्य या चूक उस व्यक्ति के शरीर, मन, प्रतिष्ठा या संपत्ति को नुकसान पहुँचाती है या पहुँचाने की संभावना है, उसे "छल" कहा जाता है।
  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 417, 418 और 420 के अंतर्गत छल के सभी प्रकारों को एक ही प्रावधान अर्थात् भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 318 में सम्मिलित कर दिया गया है।

धारा 415:

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 415 छल के अपराध को दो अलग-अलग खंडों में विभाजित करती है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी अनिवार्यताएँ हैं:
  • प्रथम खंड:
    • प्रवंचना होनी चाहिये;
    • प्रलोभन होना चाहिये;
    • प्रलोभन या तो छलपूर्ण या बेईमान होना चाहिये;
    • किसी भी संपत्ति को रखने के लिये परिदान अथवा सहमति होनी चाहिये- प्रवंचित व्यक्ति द्वारा;
    • संपत्ति का परिदान किसी भी व्यक्ति को हो सकता है।
  • द्वितीय खंड:
    • प्रवंचना होनी चाहिये;
    • प्रलोभन होना चाहिये;
    • प्रलोभन जानबूझकर होना चाहिये;
    • प्रलोभन का उद्देश्य, प्रवंचित व्यक्ति को कुछ ऐसा करने या कुछ ऐसा न करने के लिये प्रेरित करना होना चाहिये जिसे वह प्रवंचित न होने की स्थिति में नहीं करता;
    • ऐसे किसी कार्य या चूक से उस व्यक्ति के शरीर, मन, प्रतिष्ठा या संपत्ति को क्षति या हानि पहुँचनी चाहिये या पहुँचने की संभावना होनी चाहिये।
  • तद्नुसार, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 415 के अंतर्गत, छल किसी व्यक्ति को प्रवंचना से या बेईमानी से इस धारा में निर्दिष्ट कार्य करने के लिये प्रेरित करके, या किसी व्यक्ति को जानबूझकर इस धारा में वर्णित कार्य करने या न करने के लिये प्रेरित करके की जा सकती है।

छल के अनिवार्य तत्त्व क्या हैं?

  • प्रवंचना: छल के अपराध के संदर्भ में, प्रवंचना तब होता है जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को झूठी या भ्रामक सूचना पर विश्वास करने के लिये प्रेरित करता है, जिससे वह गलती कर बैठता है।
    • विधि में उल्लिखित छल अपराध के दोनों खंडों में प्रवंचना एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।
  • प्रलोभन से पूर्व प्रवंचना: छल के अपराध को स्थापित करने के लिये, प्रवंचना को पहले होना चाहिये और दूसरे व्यक्ति को संपत्ति देने या रखने या कार्य या चूक करने के लिये प्रेरित करना चाहिये।
    • किसी विद्यमान तथ्य का कपटपूर्ण प्रस्तुतीकरण, जो सत्य नहीं है, छल कहलाता है तथा छल के अपराध का आधार बनता है।
    • प्रवंचना का निर्धारण प्रत्येक मामले में प्रस्तुत साक्ष्यों पर निर्भर करता है तथा विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार कर होता है।
  • जानबूझकर गलत बयान देना: छल करने के इरादे से जानबूझकर गलत बयान देना छल माना जाता है। हालाँकि यह स्थापित किया जाना चाहिये कि जिस समय गलत बयान दिया गया था, उस समय आरोपी को यह ज्ञात था कि वह गलत बयान दे रहा है ।
  • बेईमान आशय: किसी व्यक्ति को छल का दोषी ठहराने के लिये, यह प्रदर्शित करना आवश्यक है कि वादा या प्रतिनिधित्व करते समय उनके पास छल या बेईमान आशय था।
  • प्रलोभन: जिस व्यक्ति को प्रवंचित किया गया है, उसे जानबूझकर ऐसा कार्य करने के लिये प्रेरित किया गया होगा जो वह अन्यथा नहीं करता, यदि उसे प्रवंचित न किया जाता। केवल छल करना या छल या बेईमानी से कार्य करना पर्याप्त नहीं है।
    • छल या बेईमानी से किये गए कार्य का प्रभाव प्रवंचित व्यक्ति को संपत्ति सौंपने या कोई कार्रवाई करने (कार्य या चूक के रूप में) के लिये प्रेरित करने का होना चाहिये।

इस मामले में अन्य क्या प्रावधान शामिल हैं?

IPC की धारा 34:

  • धारा 34 कई व्यक्तियों द्वारा समान आशय को आगे बढ़ाने के लिये किये गए कार्यों से संबंधित है।
  • जब कोई आपराधिक कार्य कई व्यक्तियों द्वारा सभी के समान आशय को अग्रसर करने के लिये किया जाता है, तो ऐसे व्यक्तियों में से प्रत्येक उस कार्य के लिये उसी प्रकार उत्तरदायी होगा, मानो वह कार्य अकेले उसके द्वारा किया गया हो।

IPC की धारा 409:

  • धारा 409 लोक सेवक या बैंकर, व्यापारी या अभिकर्त्ता द्वारा आपराधिक विश्वासघात से संबंधित है।
  • जो कोई, जिसे किसी संपत्ति, या संपत्ति पर प्रभुत्व, एक लोक सेवक की हैसियत से या एक बैंकर, व्यापारी, फैक्टर, दलाल, वकील या एजेंट के रूप में सौंपी गई है, उस संपत्ति के संबंध में आपराधिक विश्वासघात करता है, उसे आजीवन कारावास, या किसी एक अवधि के लिये कारावास जो दस साल तक बढ़ाया जा सकता है के साथ दण्डित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये उत्तरदायी होगा।
  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406-409 के अधीन आपराधिक विश्वासघात को धारा 316 BNS के तहत एक प्रावधान में शामिल कर दिया गया है।

IPC की धारा 420:

  • धारा 420 छल के कुछ गंभीर रूपों या निर्दिष्ट वर्गों से संबंधित है। यह छल के मामलों से संबंधित है, जिसमें प्रवंचित व्यक्ति को बेईमानी से प्रेरित किया जाता है;
    • किसी भी व्यक्ति को कोई भी संपत्ति सौंपना।
    • बनाना, बदलना या नष्ट करना;
      • किसी मूल्यवान प्रतिभूति का संपूर्ण भाग या उसका कोई भाग।
      • कोई भी हस्ताक्षरित या मुहरबंद वस्तु जो मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित की जा सके।
  • यह सिद्ध करना आवश्यक है कि शिकायतकर्त्ता ने आरोपी के बेईमानी से प्रेरित होकर संपत्ति से अलग होने का निर्णय किया है। इस तरह से सौंपी गई संपत्ति का धोखाधड़ी करने वाले व्यक्ति के लिये कुछ मौद्रिक मूल्य होना चाहिये।
  • इस धारा के अंतर्गत अधिकतम दण्ड 7 वर्ष का कारावास और ज़ुर्माना है।

पारिवारिक कानून

माता-पिता का कार्यवाही जारी रखने का अधिकार

 10-Jun-2024

शताक्षी मिश्रा बनाम दीपक महेंद्र पांडे (मृतक) एवं अन्य

ऐसा विधिक प्रतिनिधि, जो दोनों पक्षों में से एक नहीं है तथा संबंधित विवाह के दंपत्ति में से एक नहीं है, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत दायर याचिका को आगे बढ़ा सकता है”।

न्यायमूर्ति विवेक कुमार बिड़ला और सैयद कमर हसन रिज़वी

स्रोत:  इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शताक्षी मिश्रा बनाम दीपक महेंद्र पांडे (मृतक) एवं अन्य के मामले में माना है कि पति की मृत्यु के बाद, उसके माता-पिता को विवाह को शून्य घोषित करने के उद्देश्य से सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XXII नियम 3 के तहत कार्यवाही को आगे बढ़ाने का अधिकार है।

शताक्षी मिश्रा बनाम दीपक महेंद्र पांडे (मृतक) एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, दीपक महेंद्र पांडे (प्रतिवादी) ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 11 के तहत इस आधार पर याचिका दायर की कि यह विवाह धोखाधड़ी का परिणाम था क्योंकि उन्हें ज्ञात हुआ है कि उनकी पत्नी शताक्षी मिश्रा (अपीलकर्त्ता) पहले से ही विवाहित थी, जबकि शादी के समय, उसने खुद को अविवाहित बताया था और इसलिये, याचिका दायर करने के उपरांत विवाह को शून्य घोषित किया जाना चाहिये।
  • दुर्भाग्यवश पति दीपक महेंद्र पांडे की 24 फरवरी 2023 को सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई।
  • अपने बेटे की मृत्यु के पश्चात् माता-पिता द्वारा दायर आवेदन को यह कहते हुए स्वीकार कर लिया गया कि वर्तमान मामले में CPC के आदेश XXII के प्रावधान लागू होते हैं तथा माता-पिता को याचिका को आगे बढ़ाने की कार्यवाही में पक्ष बनाया गया है।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई।
  • अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता द्वारा यह तर्क दिया गया कि वाद के लंबित रहने के दौरान पति-पत्नी में से किसी एक की मृत्यु के पश्चात् विवाद जारी नहीं रह सकता।
  • प्रतिवादी के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि अपीलकर्त्ता और मृतक के माता-पिता के संपत्ति अधिकार HMA की धारा 11 के तहत आवेदन के परिणाम पर निर्भर थे।
  • उच्च न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया क्योंकि इसमें कोई योग्यता नहीं थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति विवेक कुमार बिड़ला और न्यायमूर्ति सैयद कमर हसन रिज़वी की पीठ ने कहा ऐसा विधिक प्रतिनिधि, जो दोनों पक्षों में से एक नहीं है तथा संबंधित विवाह के दंपत्ति में से एक नहीं है, वह HMA की धारा 11 के तहत दायर याचिका को आगे बढ़ा सकता है कि विवाह को शून्य घोषित किया जाना चाहिये और इसलिये, CPC के आदेश XXII नियम 3 के तहत दायर उनका आवेदन स्वीकार्य होगा।
  • उच्च न्यायालय ने गरिमा सिंह बनाम प्रतिमा सिंह एवं अन्य (2023) मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय पर भरोसा किया।
    • यह कहा गया कि HMA की धारा 11 में "दोनों में से कोई भी पक्ष" तथा "दूसरे पक्ष के विरुद्ध" शब्दों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से पढ़ा जाना चाहिये। न्यायालय ने माना कि "दोनों में से कोई भी पक्ष" की संकीर्ण व्याख्या नहीं की जा सकती, जो समान संरक्षण को सीमित करती है।

इसमें प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

HMA की धारा 11:

परिचय:

  • HMA की धारा 11 शून्य विवाह के प्रावधान से संबंधित है।
  • यह धारा शून्य विवाह को परिभाषित नहीं करती है, बल्कि उन आधारों को बताती है जिनके आधार पर किसी विवाह को शून्य कहा जा सकता है।
  • इसमें कहा गया है कि इस अधिनियम के लागू होने के बाद किया गया कोई भी विवाह शून्य और अमान्य होगा तथा किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका पर शून्यता की डिक्री द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा, यदि वह धारा 5 के खंड (i), (iv) और (v) में निर्दिष्ट शर्तों में से किसी एक का उल्लंघन करता है।

आधार:

  • HMA के तहत कोई भी विवाह शून्य है यदि वह धारा 5 खंड (i), (iv) और (v) के तहत उल्लिखित शर्तों को पूरा नहीं करता है।
    • धारा 5 के खंड (i) के तहत विवाह के समय किसी भी पक्ष का कोई जीवनसाथी जीवित होता है।
    • धारा 5 के खंड (iv) के तहत पक्षकार निषिद्ध संबंध के अंतर्गत नहीं आते हैं जब तक कि उनमें से प्रत्येक पक्ष द्वारा मानी जाने वाली प्रथा दोनों के बीच विवाह की अनुमति नहीं देती है।
    • धारा 5 के खंड (v) के तहत पक्षकार एक दूसरे के सपिंड नहीं हैं, जब तक कि उनमें से प्रत्येक पक्ष द्वारा मानी जाने वाली प्रथा दोनों के बीच विवाह की अनुमति नहीं देती।

प्रभाव:

  • शून्य विवाह में पक्षकारों को पति-पत्नी का दर्जा प्राप्त नहीं होता।
  • अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चे HMA की धारा 16 के अनुसार वैध हैं।
    • रेवनसिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन (2023) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की है कि शून्य या शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुए बच्चे को मिताक्षरा विधि के तहत हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) की संपत्ति में अपने माता-पिता के हिस्से का दावा करने का अधिकार है।
      • हालाँकि, इस बात पर ज़ोर दिया गया कि ऐसे बच्चे को जन्म से ही HUF में स्वतः सहदायिक नहीं माना जा सकता।
  • शून्य विवाह में कोई पारस्परिक अधिकार और दायित्व उपस्थित नहीं होते हैं।

CPC का आदेश XXII नियम 3:

  • CPC का आदेश XXII पक्षकारों की मृत्यु, विवाह और दिवालियापन से संबंधित है।
  • आदेश XXII का नियम 3 कई वादियों में से एक या एकमात्र वादी की मृत्यु के मामले में प्रक्रिया से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि—

(1)जहाँ दो या अधिक वादियों में से एक की मृत्यु हो जाती है और वाद करने का अधिकार केवल जीवित वादी या वादियों को नहीं रहता है, या एकमात्र वादी या एकमात्र जीवित वादी की मृत्यु हो जाती है तथा वाद करने का अधिकार रहता है, तो न्यायालय उस संबंध में किये गए आवेदन पर, मृतक वादी के विधिक प्रतिनिधि को पक्षकार बनाएगा एवं वाद को आगे बढ़ाएगा।

(2) जहाँ विधि द्वारा सीमित समय के भीतर उपनियम (1) के अधीन कोई आवेदन नहीं किया जाता है, वहाँ, जहाँ तक ​​मृतक वादी का संबंध है, वाद उपशमित हो जाएगा और प्रतिवादी के आवेदन पर न्यायालय उसे वह लागत अधिनिर्णीत कर सकेगा जो उसने वाद का बचाव करने में व्यय की हो, जिसे मृतक वादी की संपदा से वसूल किया जाएगा।