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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

BNSS के अंतर्गत अग्रिम ज़मानत

 18-Jun-2024

दिलीप शर्मा बनाम राजस्थान राज्य

“आरोपों की प्रकृति एवं मामले की गंभीरता को देखते हुए, यह न्यायालय इन ज़मानत के आवेदनों को स्वीकार करना उचित नहीं समझता।”

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड

स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड की पीठ ने अपराध के कई पहलुओं पर विचार करते हुए आरोपी को अग्रिम ज़मानत देने से मना कर दिया।

  • राजस्थान उच्च न्यायालय ने दिलीप शर्मा बनाम राजस्थान राज्य मामले में ज़मानत देने से मना कर दिया।

दिलीप शर्मा बनाम राजस्थान राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्त्ता दिलीप शर्मा के विरुद्ध कई FIR दर्ज की गईं, जिसमें आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुछ भूमि पट्टों (शीर्षक विलेखों) का मनगढ़ंत एवं जाली दस्तावेज़ बनाया है, जो अजमेर विकास प्राधिकरण (ADA) द्वारा कभी निर्गत नहीं किये गए थे।
  • याचिकाकर्त्ता को गिरफ्तार किया गया तथा ज़मानत मिलने से पहले वह एक सप्ताह तक पुलिस अभिरक्षा में रहा।
  • याचिकाकर्त्ता की गिरफ्तारी से पहले, पुलिस अधीक्षक के आदेश पर सभी चार FIR की जाँच एक साथ कर दी गई थी। हालाँकि याचिकाकर्त्ता को अन्य तीन FIR में गिरफ्तार नहीं किया गया।
  • आरोप-पत्र दाखिल करते समय, जाँच एजेंसी ने निष्कर्ष निकाला कि दस्तावेज़ों को गढ़ने के बाद, याचिकाकर्त्ता ने जाली पट्टे एवं दस्तावेज़ तैयार करने में प्रयोग किये गए साक्ष्य व तस्वीरें नष्ट कर दी थीं।
  • याचिकाकर्त्ता ने अलग-अलग याचिकाएँ दायर करके सभी चार FIR की वैधता को उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसमें उसे अंतरिम संरक्षण प्रदान किया गया।
    • अंतरिम संरक्षण का आनंद लेते हुए, याचिकाकर्त्ता ने कथित तौर पर साक्षी, जिसका बयान दर्ज किया गया था, एवं शिकायतकर्त्ता को धमकी दी।
  • याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट (शहर), अजमेर के समक्ष दो आपराधिक शिकायतें दर्ज की गईं, जिन्होंने प्रथम दृष्टया मामला पाया और याचिकाकर्त्ता को छह महीने तक शांति बनाए रखने का निर्देश दिया।
    एक ऑडियो बातचीत सामने आई जिसमें याचिकाकर्त्ता ने 50 लाख रुपए की जगह 42 लाख रुपए वापस करने की बात स्वीकार की, जिसके कारण उसके विरुद्ध एक और FIR दर्ज की गई।
  • इन तथ्यों एवं आरोपों के आधार पर याचिकाकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 482) के अधीन अग्रिम ज़मानत आवेदन दायर किया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने सभी FIR याचिकाकर्त्ता की अग्रिम ज़मानत याचिकाओं को खारिज कर दिया।
  • न्यायालय ने आरोपों की प्रकृति एवं गंभीरता, साक्षियों को प्रभावित करने की संभावना तथा अभिरक्षा में पूछताछ की आवश्यकता जैसे कारकों पर विचार किया।
  • बार-बार FIR दर्ज होने एवं पूछताछ के लिये पहले से उपलब्धता के बारे में याचिकाकर्त्ता की दलीलों के बावजूद, न्यायालय ने आरोपों को इतना गंभीर पाया कि अग्रिम ज़मानत नहीं दी जा सकी।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अंतर्गत अग्रिम ज़मानत  से संबंधित विधियाँ क्या है?

  • उपधारा (1): ज़मानत निर्देश के लिये आवेदन
    • कोई भी व्यक्ति जो मानता है कि उसे गैर-ज़मानती अपराध के लिये गिरफ्तार किया जा सकता है, वह उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
    • न्यायालय, यदि उचित समझे, तो निर्देश दे सकता है कि गिरफ्तारी की स्थिति में व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा किया जाए।
  • उपधारा (2): ज़मानत निर्देश के लिये शर्तें
    • उपधारा (1) के अधीन ज़मानत के लिये निर्देश जारी करते समय, न्यायालय मामले की सूक्ष्मता के आधार पर शर्तें लगा सकती है, जिनमें शामिल हैं:
      • (i) व्यक्ति को जब भी आवश्यक हो पुलिस पूछताछ के लिये उपलब्ध होना चाहिये।
      • (ii) व्यक्ति को मामले से संबंधित किसी भी व्यक्ति को न्यायालय या पुलिस के सामने तथ्य का प्रकटन करने से रोकने के लिये धमकी नहीं देनी चाहिये, प्रेरित नहीं करना चाहिये या वचन नहीं देना चाहिये।
      • (iii) व्यक्ति को न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना भारत नहीं छोड़ना चाहिये।
      • (iv) कोई अन्य शर्त जो धारा 480 की उपधारा (3) के अंतर्गत लगाई जा सकती है, जैसे कि उस धारा के अंतर्गत ज़मानत दी गई हो।
  • उपधारा (3): गिरफ्तारी एवं ज़मानत प्रक्रिया
    • यदि व्यक्ति को पुलिस अधिकारी द्वारा उक्त आरोप के आधार पर बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता है तथा वह गिरफ्तारी के समय या अभिरक्षा में रहते हुए ज़मानत देने को तैयार है, तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जाना चाहिये।
    • यदि मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेते हुए यह निर्णय लेता है कि आरंभ में वारंट जारी किया जाना चाहिये, तो उसे उपधारा (1) के अधीन न्यायालय के निर्देशानुसार ज़मानती वारंट जारी करना चाहिये।
  • उपधारा (4): विशिष्ट अपराधों के लिये बहिष्करण
    • यह धारा भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 65 एवं धारा 70 की उपधारा (2) के अधीन अपराधों के लिये गिरफ्तारी से जुड़े मामलों पर लागू नहीं होगी।

अग्रिम ज़मानत पर महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?

  • प्रशांत कुमार सरकार बनाम आशीष चटर्जी एवं अन्य (2010):
    • उच्चतम न्यायालय ने अग्रिम ज़मानत के लिये विचार किये जाने वाले कारकों पर प्रकाश डाला, जिनमें आरोप के लिये प्रथम दृष्टया आधार, आरोप की प्रकृति एवं गंभीरता, दण्ड की कठोरता, फरार होने की संभावना, आरोपी का आचरण, साक्षियों को प्रभावित करने की संभावना व न्याय के विफल होने का खतरा शामिल है।
  • मसरूर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2009):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ज़मानत देते समय साक्ष्यों की सूक्ष्मता से जाँच से बचना चाहिये, ताकि अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह न हो, लेकिन प्रथम दृष्टया ज़मानत देने के कारणों का उल्लेख किया जाना चाहिये, विशेष रूप से गंभीर अपराधों में।
  • निम्मगड्डा प्रसाद बनाम सीबीआई (2013):
    • न्यायालय ने कहा कि ज़मानत देते समय आरोपों की प्रकृति, साक्ष्य, सज़ा की गंभीरता, आरोपी का चरित्र, उपस्थिति सुनिश्चित करने की संभावना, साक्षियों को प्रभावित करने की आशंका, जनहित आदि पर विचार किया जाना चाहिये।
    • इस स्तर पर केवल वास्तविक मामले पर उचित विश्वास की आवश्यकता है, न कि संदेह से परे अपराध को स्थापित करने वाले साक्ष्य की।

आपराधिक कानून

पुनरीक्षण की शक्ति

 18-Jun-2024

करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य

"दोषपूर्ण सज़ा- आदेश के विरुद्ध अपील करने में राज्य की विफलता उच्च न्यायालय को उसकी पुनरीक्षण शक्तियों का उपयोग करने से नहीं रोकती है।"

न्यायमूर्ति मीनाक्षी मदन राय एवं न्यायमूर्ति भास्कर राज प्रधान

स्रोत:  सिक्किम उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य के मामले ने ध्यान आकर्षित किया है क्योंकि सिक्किम उच्च न्यायालय ने धारा 376D IPC के अधीन सामूहिक बलात्संग के लिये ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सज़ा की समीक्षा की है। उच्च न्यायालय ने CrPC की धारा 397 के अधीन अपने अधिकार पर बल दिया कि राज्य द्वारा अपील करने में विफल रहने के बावजूद सज़ा को संशोधित किया जा सकता है, जिससे ऐसे अपराधों के लिये बीस वर्ष के कारावास की सांविधिक न्यूनतम सज़ा का अनुपालन सुनिश्चित हो सके।

  • यह मामला सज़ा संबंधी त्रुटियों को सुधारने तथा राज्य द्वारा अपील न किये जाने की स्थिति में भी सांविधिक न्यूनतम दण्ड का पालन सुनिश्चित करने के लिये उच्च न्यायालय के अधिकार पर प्रकाश डालता है।

करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • करण छेत्री बनाम सिक्किम राज्य तथा नीमा शेरपा उर्फ नानी को बाऊ बनाम सिक्किम राज्य, दोनों मामले एक ही FIR से उत्पन्न हुए थे।
  • आरोपी को दोषी पाया गया तथा ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ताओं को धारा 376D भारतीय दण्ड संहिता 1860 (IPC) के अधीन सामूहिक बलात्संग के अपराध के लिये 12 वर्ष के कारावास की सज़ा सुनाई थी।
  • अपीलकर्त्ताओं ने सिक्किम के ग्यालशिंग में फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की विभिन्न धाराओं के अधीन अपनी सज़ा को चुनौती दी, जिसमें धारा 450 (घर में बलपूर्वक अनाधिकृत प्रवेश), 376D (सामूहिक बलात्संग) एवं 376(2)(l) (बलात्संग का दोहरा अपराध) शामिल है।
  • अपील सिक्किम उच्च न्यायालय में दायर की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • खंडपीठ, ट्रायल कोर्ट द्वारा सामूहिक बलात्संग के लिये अभियुक्तों को दोषी ठहराए जाने के विरुद्ध उनकी अपील की समीक्षा कर रही थी।
  • सिक्किम उच्च न्यायालय ने दोषपूर्ण सज़ा आदेश के विरुद्ध अपील करने में राज्य की विफलता के बावजूद CrPC की धारा 397 के अधीन पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करने के अपने अधिकार की पुष्टि की।
  • इसने इस बात पर बल दिया कि दोषपूर्ण सज़ा के विरुद्ध अपील न करने में राज्य की लापरवाही उच्च न्यायालय को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 एवं धारा 401 के अधीन अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का उपयोग करने से नहीं रोकती है ताकि सज़ा को संभावित रूप से बढ़ाया जा सके।
  • न्यायालय ने कहा कि दोषी को विधिवत अधिसूचित किया जाना चाहिये तथा सज़ा के मामले पर व्यक्तिगत रूप से या विधिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से विचारण का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।

BNSS क्या है?

परिचय:

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) केंद्र सरकार द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) को प्रतिस्थापित करने के लिये प्रस्तुत किये गए तीन आपराधिक विधि विधेयकों में से एक है।
  • BNSS को 20 दिसंबर, 2023 को लोकसभा में तथा 21 दिसंबर, 2023 को राज्यसभा में पारित किया गया।
  • 25 दिसंबर, 2023 को राष्ट्रपति ने तीन नए आपराधिक संहिता विधेयकों को अपनी स्वीकृति दी।

BNSS की धारा 438 क्या है?

परिचय:

  • BNSS की धारा 438 पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेखों को मांगने से संबंधित है, जिसे पहले CrPC की धारा 398 के अधीन निपटाया गया था। इसमें कहा गया है कि-
  • उच्च न्यायालय या कोई सत्र न्यायाधीश अपने स्थानीय क्षेत्राधिकार में स्थित किसी अवर दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही के अभिलेख को मांग सकता है तथा उसकी जाँच कर सकता है ताकि वह स्वयं को किसी निष्कर्ष, दण्डादेश या आदेश की शुद्धता, वैधानिकता या औचित्य के विषय में संतुष्ट कर सके, जो दर्ज किया गया हो या पारित किया गया हो और ऐसे अवर न्यायालय की किसी कार्यवाही की नियमितता के बारे में तथा ऐसा अभिलेख मांगते समय निर्देश दे सकता है कि किसी दण्डादेश या आदेश के निष्पादन को निलंबित कर दिया जाए और यदि अभियुक्त कारावास में है तो उसे अभिलेख की जाँच लंबित रहने तक अपने बाॅण्ड या ज़मानत  बाॅण्ड पर रिहा कर दिया जाए।
    स्पष्टीकरण- सभी मजिस्ट्रेट, चाहे वे कार्यपालक हों या न्यायिक और चाहे वे आरंभिक या अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करते हों, इस उपधारा एवं धारा 439 के प्रयोजनों के लिये    सेशन न्यायाधीश से कनिष्ठ समझे जाएंगे।
  • उप-धारा (1) द्वारा प्रदत्त पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग किसी अपील, जाँच, परीक्षण या अन्य कार्यवाही में पारित किसी मध्यवर्ती आदेश के संबंध में नहीं किया जाएगा।
  • यदि इस धारा के अधीन कोई आवेदन किसी व्यक्ति द्वारा उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश के समक्ष किया गया है, तो उसी व्यक्ति द्वारा किया गया कोई और आवेदन उनमें से किसी अन्य द्वारा स्वीकार नहीं किया जाएगा।

BNSS की धारा 442 क्या है?

BNSS की धारा 422 उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्तियों से संबंधित है, जिसका निपटारा CrPC की धारा 401 के अधीन किया गया था। इसमें कहा गया है कि-

  • किसी कार्यवाही के मामले में जिसका रिकॉर्ड स्वयं उच्च न्यायालय द्वारा मांगा गया है या जो अन्यथा उसके ज्ञान में आता है, उच्च न्यायालय अपने विवेकानुसार धारा 427, 430, 431 एवं 432 द्वारा अपील न्यायालय को या धारा 344 द्वारा सत्र न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों में से किसी का भी प्रयोग कर सकता है तथा जब पुनरीक्षण न्यायालय के न्यायाधीशों की राय समान रूप से विभाजित हो, तो मामले का निपटारा धारा 433 द्वारा प्रदान की गई विधि से किया जाएगा।
  • इस धारा के अंतर्गत कोई भी आदेश अभियुक्त या अन्य व्यक्ति के प्रतिकूल तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि उसे व्यक्तिगत रूप से या अपने बचाव में अधिवक्ता द्वारा विचारण का अवसर न मिल गया हो।
  • इस धारा की कोई भी बात उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि में परिवर्तित करने के लिये प्राधिकृत करने वाली नहीं समझी जाएगी।
  • जहाँ इस संहिता के अंतर्गत कोई अपील होती है तथा कोई अपील नहीं की जाती है, वहाँ उस पक्षकार के कहने पर पुनरीक्षण के माध्यम से कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी जो अपील कर सकता था।
  • जहाँ इस संहिता के अधीन कोई अपील होती है, किंतु किसी व्यक्ति द्वारा उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण के लिये आवेदन किया गया है तथा उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा आवेदन इस दोषपूर्ण विश्वास के अधीन किया गया था कि उसमें कोई अपील नहीं हो सकती और न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है, वहाँ उच्च न्यायालय पुनरीक्षण के लिये आवेदन को अपील याचिका के रूप में मान सकेगा और तद्नुसार उस पर कार्यवाही कर सकेगा।

निर्णयज विधियाँ:

  • ईश्वरमूर्ति बनाम एन. कृष्णास्वामी (2006) में मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 397(1) में उल्लिखित शब्द 'दण्ड या आदेश के निष्पादन को निलंबित करने का निर्देश देते हैं' को शब्दों एवं यदि अभियुक्त कारावास में है तो उसे रिकॉर्ड की जाँच लंबित रहने तक ज़मानत पर या उसके बाॅण्ड पर रिहा किया जाना चाहिये से 'विसंगत रूप से' पढ़ा जाना चाहिये।
  • मोहम्मद हासिम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2016) में यह माना गया कि जब विधि के अंतर्गत न्यूनतम सज़ा निर्धारित हो तो न्यायालयों के पास सज़ा कम करने का विवेकाधिकार नहीं है।

आपराधिक कानून

अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956 की धारा 5

 18-Jun-2024

श्रीमती X बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य

वेश्यावृत्ति की शिकार महिला को अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956 की धारा 5 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये दण्डित नहीं किया जा सकता है।

न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना

स्रोत:  कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने श्रीमती X बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले में कहा है कि वेश्यावृत्ति की शिकार महिला को अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956 (अधिनियम) की धारा 5 के अंतर्गत दण्डनीय अपराधों के लिये दण्डित नहीं किया जा सकता है।

श्रीमती X बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • शिकायत का आधार यह है कि 13 जनवरी, 2013 को कुंडापुरा पुलिस स्टेशन की अपराध शाखा से जुड़े पुलिस उपनिरीक्षक को सूचना मिली कि कुछ लड़कियों को वेश्यावृत्ति में डालने के उद्देश्य से एक टेम्पो ट्रैवलर में अवैध रूप से उडुपी से गोवा ले जाया जा रहा है।
  • बाद में यह तथ्य सामने आया कि आरोपी संख्या 1, आरोपी संख्या 9 के साथ मिलकर, याचिकाकर्त्ता (आरोपी संख्या 8) तथा अन्य को वेश्यावृत्ति में शामिल करने के लिये 10-10 हज़ार रुपए देकर ले जा रहे थे।
  • उक्त घटना के आधार पर अपराध पंजीकृत किया गया और पुलिस ने जाँच के उपरांत, याचिकाकर्त्ता सहित सभी आरोपियों के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल किया, जिसे आरोपी संख्या 8 बनाया गया है।
  • संबंधित न्यायालय याचिकाकर्त्ता सहित अन्य के विरुद्ध अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत दण्डनीय अपराध का संज्ञान लेता है।
  • इसके उपरांत, याचिकाकर्त्ता (आरोपी संख्या 8) के विरुद्ध कार्यवाही रद्द करने के लिये कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक याचिका दायर की जाती है।
  • याचिकाकर्त्ता की ओर से उपस्थित अधिवक्ता ने दृढ़तापूर्वक तर्क दिया कि याचिकाकर्त्ता अन्य आरोपियों के द्वारा वेश्यावृत्ति की शिकार है अतः याचिकाकर्त्ता पर वाद चलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
  • आपराधिक याचिका को उच्च न्यायालय द्वारा अनुमति दे दी गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की एकल पीठ ने कहा कि अधिनियम के प्रावधानों या उद्देश्य का लक्ष्य, वेश्याओं या वेश्यावृत्ति को समाप्त करना नहीं है। विधि के तहत ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो वेश्यावृत्ति में लिप्त पीड़ित को दण्डित करता हो।
  • इसमें आगे कहा गया कि अधिनियम की धारा 5 में कहीं भी यह संकेत नहीं दिया गया है कि वेश्यावृत्ति की शिकार महिला को अधिनियम की धारा 5 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये दण्डित किया जाना चाहिये। इसमें स्पष्ट रूप से संकेत दिया गया है कि कोई भी व्यक्ति जो वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से किसी महिला या लड़की को क्रय करता है या क्रय करने का प्रयास करता है, वह इस प्रकार के अभियोजन के लिये उत्तरदायी होगा।

अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956 की धारा 5 क्या है?

परिचय:

  • इस अधिनियम का उद्देश्य अनैतिक कार्यों के व्यावसायीकरण और महिलाओं की तस्करी को रोकना है।
  • यह यौन कार्य से संबंधित विधिक ढाँचे को रेखांकित करता है।
  • हालाँकि यह अधिनियम यौन कार्य को अवैध घोषित नहीं करता, परंतु यह वेश्यालय चलाने पर रोक लगाता है। वेश्यावृत्ति में शामिल होना विधिक रूप से मान्यता प्राप्त है, परंतु लोगों को बहला-फुसलाकर यौन गतिविधियों में शामिल करना अवैध माना जाता है।

वेश्यावृत्ति की परिभाषा:

  • अधिनियम के अनुसार वेश्यावृत्ति, व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये व्यक्तियों का यौन शोषण या दुर्व्यवहार है

धारा 5:

  • यह धारा वेश्यावृत्ति के लिये किसी व्यक्ति को क्रय करने, प्रेरित करने या ले जाने से संबंधित है।
  • यह कहती है कि-

(1) कोई भी व्यक्ति जो-

(a) किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति के प्रयोजन के लिये, चाहे उसकी सहमति से या उसके बिना, क्रय करता है या क्रय करने का प्रयास करता है; या

(b) किसी व्यक्ति को एक स्थान से जाने के लिये इस आशय से प्रेरित करना कि वह वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से वेश्यालय का निवासी बन जाए या वहाँ बार-बार जाए; या

(c) किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति कराने के लिये पालने के उद्देश्य से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है या ले जाने का प्रयास करता है, या ले जाने का कारण बनता है; या

(d) किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति करने के लिये प्रेरित करना या उसका माध्यम बनना;

दोषसिद्धि पर कम-से-कम तीन वर्ष और अधिक-से-अधिक सात वर्ष की अवधि के कठोर कारावास से दण्डनीय होगा तथा साथ ही दो हज़ार रुपए तक का अर्थदण्ड भी होगा तथा यदि इस उपधारा के अधीन कोई अपराध किसी व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध किया जाता है तो सात वर्ष की अवधि के कारावास के दण्ड को बढ़ाकर चौदह वर्ष की अवधि के कारावास तक किया जा सकेगा।

परंतु यदि वह व्यक्ति जिसके संबंध में इस उपधारा के अधीन कोई अपराध किया गया है, -

(i) यदि वह बालक है, तो इस उपधारा के अधीन दण्ड कम-से-कम सात वर्ष की अवधि के कठोर कारावास तक, किंतु आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकेगा; तथा

(ii) यदि वह अल्पवयस्क है, तो इस उपधारा के अंतर्गत उसे कम-से-कम सात वर्ष तथा अधिक-से-अधिक चौदह वर्ष की अवधि के कठोर कारावास का दण्ड दिया जाएगा।

(3) इस धारा के अंतर्गत किया गया अपराध विचारणीय होगा-

(a) वह स्थान जहाँ से किसी व्यक्ति को प्राप्त किया जाता है, जाने के लिये प्रेरित किया जाता है, ले जाया जाता है या जहाँ से ऐसे व्यक्ति को प्राप्त करने या ले जाने का प्रयास किया जाता है; या

(b) उस स्थान पर जहाँ वह उत्प्रेरण के परिणामस्वरूप गया हो या जहाँ उसे ले जाया गया हो या ले जाने का कारण बना हो या जहाँ उसे ले जाने का प्रयास किया गया हो।

भारत में यौन कार्यों की वैधता क्या है?

पेशे के रूप में यौन कार्य:

  • बुद्धदेव करमास्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2022) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यौन कार्य को एक “पेशे” के रूप में मान्यता दी है और कहा है कि इसके कर्मी विधि के समान संरक्षण के अधिकारी हैं तथा आपराधिक विधि सभी मामलों में ‘आयु’ एवं ‘सहमति’ के आधार पर समान रूप से लागू होनी चाहिये।
  • न्यायालय ने माना कि स्वैच्छिक यौन संबंध कोई अपराध नहीं है।

बुद्धदेव करमास्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2022) में निर्णय की मुख्य विशेषताएँ :

  • आपराधिक विधि:
    • यौनकर्मियों को विधि का समान संरक्षण प्राप्त है और आपराधिक विधि सभी मामलों में ‘आयु’ एवं ‘सहमति’ के आधार पर समान रूप से लागू होनी चाहिये।
    • जब यह स्पष्ट हो जाए कि यौनकर्मी वयस्क है तथा इस कार्य में सहमति से भाग ले रही है, तो पुलिस को हस्तक्षेप करने या कोई आपराधिक कार्यवाही करने से बचना चाहिये।
    • भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा। यह अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों को उपलब्ध है।
    • जब भी किसी वेश्यालय पर छापा मारा जाए तो यौनकर्मियों को “गिरफ्तार या दण्डित या परेशान या पीड़ित नहीं किया जाना चाहिये”, “क्योंकि स्वैच्छिक यौन कार्य अवैध नहीं है और केवल वेश्यालय चलाना ही विधिविरुद्ध है”।
  • यौन कर्मी के बच्चे के अधिकार:
    • किसी यौन कर्मी के बच्चे को केवल इस आधार पर उसकी माँ से अलग नहीं किया जाना चाहिये कि उसकी माँ यौन व्यापार में शामिल है।
    • मानवीय शालीनता और गरिमा की बुनियादी सुरक्षा यौनकर्मियों और उनके बच्चों तक विस्तारित है।
    • इसके अलावा, यदि कोई अल्पवयस्क वेश्यालय में या यौनकर्मियों के साथ रहता हुआ पाया जाता है, तो यह नहीं माना जाना चाहिये कि बच्चे की तस्करी की गई थी।
    • यदि यौनकर्मी यह दावा करता है कि वह उसका बेटा/बेटी है, तो यह निर्धारित करने के लिये परीक्षण किया जा सकता है कि क्या यह दावा सही है और यदि ऐसा है, तो उस अल्पवयस्क को बलात अलग नहीं किया जाना चाहिये।
  • चिकित्सा देखभाल:
    • यौन उत्पीड़न की शिकार यौनकर्मियों को तत्काल चिकित्सा-कानूनी देखभाल सहित हर सुविधा उपलब्ध कराई जानी चाहिये।
  • मीडिया की भूमिका:
    • मीडिया को गिरफ्तारी, छापेमारी और बचाव अभियान के दौरान यौनकर्मियों की पहचान उजागर न करने के लिये अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिये, चाहे वे पीड़ित हों या आरोपी और ऐसी कोई भी तस्वीर प्रकाशित या प्रसारित न की जाए जिससे उनकी पहचान उजागर हो जाए।

सिविल कानून

विशेष विवाह अधिनियम, 1954

 18-Jun-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अंतर-धार्मिक विवाह याचिका के संबंध में एक विवादास्पद आदेश दिया, जिसमें विधि की संभावित दोषपूर्ण व्याख्या एवं विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (SMA) के निहितार्थ पर चिंता जताई गई। यह मामला अविवाहित हिंदू-मुस्लिम जोड़े से जुड़ा था, जो सुरक्षा की मांग कर रहे थे, उच्च न्यायालय ने SMA के अंतर्गत उनके विवाह की वैधता पर प्रश्न किया था।

विशेष विवाह अधिनियम, 1954 क्या है?

  • भारत में पर्सनल लॉ व्यक्ति के धर्म के आधार पर तय होते हैं। उदाहरण के लिये हिंदू विवाह अधिनियम का पालन हिंदू करते हैं, ईसाई भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम का पालन करते हैं, तथा पारसी विवाह अधिनियम का पालन पारसी करते हैं। दूसरी ओर, मुस्लिम, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 के अंतर्गत शासित होते हैं।
  • विवाह, उत्तराधिकार एवं गोद लेने जैसे विभिन्न पहलुओं को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम और हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम जैसे विधियों द्वारा विनियमित किया जाता है।
  • इससे पहले, अंतर-धार्मिक विवाहों को नियंत्रित करने या सरकारी अधिकारियों द्वारा कराए गए सिविल विवाहों को विधिक मान्यता प्रदान करने के लिये कोई मौजूदा विधि नहीं थी। इस अंतर के कारण 1954 में SMA की शुरुआत हुई।
  • यह अधिनियम देश के अंदर एवं विदेश में भारतीय नागरिकों के मध्य होने वाले सिविल विवाहों की निगरानी के लिये बनाया गया था, चाहे उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो।
  • SMA सभी भारतीय राज्यों एवं अन्य देशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है। यह किसी भी दो व्यक्तियों को, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, इसके प्रावधानों के अंतर्गत विवाह करने की अनुमति देता है। इससे तात्पर्य यह है कि एक ही धर्म के व्यक्ति भी अगर चाहें तो SMA के अंतर्गत विवाह कर सकते हैं।

SMA के उद्देश्य क्या हैं?

  • विशेष विवाह अधिनियम (SMA), 1954 का उद्देश्य लोगों के लिये विवाह के लिये विशेष प्रावधान करना है, चाहे वे किसी भी धर्म या आस्था को मानते हों।
  • इसका उद्देश्य अंतर-धार्मिक एवं अंतर-जातीय विवाहों को सुविधाजनक बनाने के लिये एक विधिक ढाँचा प्रदान करना है जो व्यक्तियों को अपने साथी के धर्म में धर्मांतरण किये बिना विवाह करने की अनुमति देता है।
  • यह अधिनियम धर्मनिरपेक्षता, विवाह में व्यक्तिगत पसंद की स्वतंत्रता और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये बनाया गया है, ताकि आपसी सहमति एवं धार्मिक बाधाओं के बिना विवाह को सक्षम बनाया जा सके।

SMA, 1954 में विवाह करने की शर्तें क्या हैं?

  • किसी भी पक्ष का जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिये। यदि दोनों में से कोई पहले से विवाहित है, तो यह महत्त्वपूर्ण है कि SMA के अंतर्गत विवाह करने से पहले पिछला विवाह विधिक रूप से भंग हो जाए।
  • दोनों व्यक्तियों को विवाह के लिये स्वतंत्र एवं पूर्ण रूप से सहमति देने में सक्षम होना चाहिये।
  • विवाह के लिये आवेदन करते समय महिला साथी की आयु कम-से-कम 18 वर्ष होनी चाहिये , तथा पुरुष साथी की आयु 21 वर्ष होनी चाहिये।
  • यदि दोनों पक्ष किसी भी पक्ष के रीति-रिवाज़ों के अनुसार निषिद्ध श्रेणी के संबंध में आते हैं तो विवाह संपन्न नहीं हो सकता। ये निषेध अलग-अलग हो सकते हैं।
  • हिंदू विधि में भाई-बहन, चाचा-भतीजी, चाची-भतीजे या भाई-बहनों के बच्चों के मध्य विवाह निषिद्ध है।

विशेष विवाह अधिनियम के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

धारा 4: अधिनियम की धारा 4 में कुछ शर्तें निर्धारित की गई हैं:

  • इसमें कहा गया है कि दोनों पक्षों में से किसी का भी कोई जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिये।
  • दोनों पक्षों को सहमति देने में सक्षम होना चाहिये, विवाह के समय वे स्वस्थ होने चाहिये।
  • दोनों पक्षों के मध्य विधि के अंतर्गत निर्धारित निषिद्ध संबंधों की सीमा नहीं होनी चाहिये।
  • आयु पर विचार करते समय, पुरुष की आयु कम-से-कम 21 वर्ष एवं महिला की आयु कम-से-कम 18 वर्ष होनी चाहिये।

धारा 5 एवं 6:

  • इन धाराओं के अंतर्गत, विवाह करने के इच्छुक पक्षों को अपने विवाह की सूचना उस क्षेत्र के विवाह अधिकारी को देनी होती है, जहाँ पति-पत्नी में से कोई एक पिछले 30 दिनों से रह रहा हो।
  • इसके बाद, विवाह अधिकारी अपने कार्यालय में विवाह की सूचना प्रकाशित करता है।
  • यदि किसी को विवाह पर कोई आपत्ति है तो वह 30 दिनों के भीतर इसके विरुद्ध शिकायत दर्ज करा सकता है।
  • यदि विवाह अधिकारी को विवाह के विरुद्ध कोई आपत्ति है तो विवाह को खारिज किया जा सकता है।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय की कमियाँ क्या हैं?

अनुच्छेद 21 का उल्लंघन:

  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि क्या अंतर-धार्मिक जोड़े का विवाह वैध होगा, बजाय इसके कि उन्हें जिन खतरों का सामना करना पड़ रहा है तथा उनकी सुरक्षा की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाए।
  • इस दृष्टिकोण ने भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उनके मूल अधिकार को अनदेखा कर दिया है, जो उनके जीवन एवं स्वतंत्रता की रक्षा करता है, भले ही उनका विवाह पंजीकृत हो या नहीं।
  • अप्रासंगिक संदर्भ:
  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का आदेश विशेष विवाह अधिनियम के मूल सिद्धांतों एवं उद्देश्यों का खंडन करता है।
  • मोहम्मद सलीम बनाम शम्सुद्दीन (2019) के मामले का उहारण देते हुए, मुस्लिम-हिंदू विवाह में संपत्ति उत्तराधिकार से संबंधित एक उच्चतम न्यायालय का पूर्वनिर्णय, न्यायालय ने अंतर-धार्मिक विवाहों की वैधता एवं पुलिस सुरक्षा प्रदान करने का निर्णय करने के लिये इसे अनुचित रूप से लागू किया, जो उसे नहीं करना चाहिये था।

SMA की धारा 4:

  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा विशेष विवाह अधिनियम की धारा 4 पर विश्वास करना, जो निषिद्ध डिग्री के अंतर्गत विवाह से संबंधित है, मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है।
  • यह प्रावधान विशेष रूप से उन व्यक्तियों के मध्य विवाह को प्रतिबंधित करता है जो निकट संबंधी हैं, न कि अलग-अलग धर्मों के हैं।
  • न्यायालय यह स्वीकार करने में विफल रही कि अधिनियम का उद्देश्य किसी भी दो भारतीय नागरिकों के मध्य विवाह को विधिक मान्यता देना है, चाहे उनकी धार्मिक संबद्धता कुछ भी हो।

अंतर-धार्मिक एवं अंतर-जातीय विवाह

  • आज के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में अंतर-धार्मिक एवं अंतर-जातीय विवाहों को सतर्कता का सामना करना पड़ता है, विशेषकर तब जब माता-पिता द्वारा इसे स्वीकृति नहीं दी जाती है। "लव जिहाद" एवं दक्षिणपंथी प्रचार जैसी अवधारणाओं से यह और भी बढ़ जाता है।

शफीन जहान बनाम के.एम. अशोकन (2018)

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि वयस्क व्यक्तियों के मामले में विवाह की वैधता का निर्णय न्यायालय द्वारा नहीं किया जा सकता।
  • भारत के संविधान में विवाह करने के अधिकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन इसकी व्याख्या अनुच्छेद 21 द्वारा निर्देशित की जा सकती है, जो जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान करता है।
  • हाल की व्याख्याओं को स्वायत्तता, गोपनीयता एवं स्वतंत्रता के संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिये , ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विवाह जैसे मामलों में व्यक्तिगत विकल्पों को सामाजिक मानदंडों या पूर्वाग्रहों के अनुचित हस्तक्षेप के बिना संरक्षित किया जा सके।

निष्कर्ष:

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के लक्ष्यों के विरुद्ध है। इसमें शामिल व्यक्तियों के मूल अधिकारों की रक्षा करने के बजाय अंतर-धार्मिक विवाह की वैधता पर प्रश्न करके, न्यायालय ने लोगों को अपने जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता का समर्थन करने एवं समानता को बढ़ावा देने के अधिनियम के उद्देश्य की अनदेखी की है। यह स्थिति यह सुनिश्चित करने के महत्त्व को उजागर करती है कि न्यायिक निर्णय सामाजिक चुनौतियों या धार्मिक मतभेदों के बावजूद व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखें।