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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

किशोर न्यायालय की कार्य पद्धति

 19-Jun-2024

XYZ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

क्लर्क द्वारा न्यायालय के आदेश की कथित अवहेलना के उपरांत किशोर न्यायालय के संचालन की जाँच के निर्देश दिये गए”।

न्यायमूर्ति ए. एस. गडकरी और न्यायमूर्ति नीला गोखले

स्रोत: बॉम्बे उच्च  न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में XYZ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने किशोर न्यायालय के क्लर्क सुधीर पवार द्वारा न्यायालय के आदेश के बावजूद आरोप-पत्र स्वीकार करने से इनकार करने पर संज्ञान लिया। इस अवज्ञा के कारण, न्यायालय ने न्याय में बाधा डालने के लिये पवार की आलोचना की तथा पीठासीन अधिकारी श्रीमती सीमा घुटे की लापरवाही के विषय में चिंता जताई।

  • न्यायालय ने पवार के कार्यों की जाँच करने तथा भिवंडी किशोर न्यायालय के समग्र कामकाज का मूल्यांकन करने के लिये तत्काल अवमानना ​​कार्यवाही के स्थान पर, ठाणे के प्रधान ज़िला न्यायाधीश द्वारा विस्तृत जाँच का विकल्प चुना।

XYZ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • जाँच एजेंसी को 12 दिसंबर, 2023 के न्यायालय के आदेश द्वारा अपनी जाँच पूरी करने के उपरांत आरोप-पत्र दायर करने के लिये अधिकृत किया गया था।
  • हालाँकि, जब जाँच अधिकारी (IO) ने भिवंडी के किशोर न्यायालय में आरोप-पत्र दाखिल करने का प्रयास किया, तो क्लर्क सुधीर पवार ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया, क्योंकि संबंधित किशोर उपस्थित नहीं था।
  • 8 अप्रैल, 2024 को न्यायालय के आदेश के बावजूद, जिसमें किशोर की उपस्थिति के बिना आरोप पत्र दाखिल करने की स्पष्ट अनुमति दी गई थी, सुधीर पवार ने आरोप-पत्र स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
  • इसके परिणामस्वरूप अभियोजक ने 11 जून, 2024 को न्यायालय को सूचित किया कि उच्च न्यायालय के दो आदेशों के बावजूद, जाँच अधिकारी को अभी भी बाधा का सामना करना पड़ रहा है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने भिवंडी किशोर न्यायालय के क्लर्क सुधीर पवार द्वारा न्यायालय के आदेशों की घोर अवहेलना करने के लिये कड़ी आलोचना की तथा इसे आपराधिक न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप माना।
  • न्यायालय ने पीठासीन अधिकारी श्रीमती सीमा घुटे द्वारा अपने न्यायालय पर नियंत्रण की स्पष्ट कमी पर भी चिंता व्यक्त की तथा सुझाव दिया कि प्रधान ज़िला न्यायाधीश द्वारा उनकी भूमिका की जाँच की जानी चाहिये।
  • अवमानना ​​कार्यवाही तुरंत प्रारंभ करने के स्थान पर, न्यायालय ने ठाणे के प्रधान ज़िला न्यायाधीश द्वारा विस्तृत जाँच का आदेश दिया।
    • यह विस्तृत जाँच, पवार के आचरण का मूल्यांकन करेगी और भिवंडी स्थित किशोर न्यायालय के समग्र कामकाज का आकलन करेगी।
  • संबंधित पुलिस अधिकारी ने न्यायालय के निर्देश पर मामले का विवरण देते हुए 12 जून, 2024 एक शपथ-पत्र प्रस्तुत किया।
    • प्रधान ज़िला न्यायाधीश को एक सप्ताह के भीतर जाँच पूरी कर उच्च न्यायालय को एक विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया।
  • जाँच लंबित रहने तक, प्रधान ज़िला न्यायाधीश को यह अधिकार दिया गया कि यदि आवश्यक हो तो वे पवार को निलंबित कर सकते हैं तथा गहन जाँच के लिये अन्य उचित विधिक कार्यवाही कर सकते हैं।

 किशोर न्याय प्रणाली क्या है?

  • किशोर न्याय प्रणाली उन बालकों से संबंधित है जो विधि का उल्लंघन करते हैं तथा जिन्हें देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता होती है।
  • भारत में 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को किशोर माना जाता है।
  • अल्पवयस्क वह व्यक्ति है जो पूर्ण विधिक उत्तरदायित्व की आयु प्राप्त नहीं कर पाया है तथा किशोर वह अल्पवयस्क है जिसने कोई अपराध किया है तथा जिसे देखरेख एवं संरक्षण की आवश्यकता है।
  • भारत में 7 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को किसी भी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि डोली इनकैपैक्स सिद्धांत का अर्थ है अपराध करने का इरादा करने में असमर्थ होना।

किशोर न्याय प्रणाली का उद्देश्य क्या है?

  • युवा अपराधियों का पुनर्वास करना और उन्हें दूसरा अवसर देना।
  • इस संरक्षण का मुख्य कारण यह है कि बच्चों का मस्तिष्क पूरी तरह विकसित नहीं होता है, तथा उन्हें गलत और सही का पूरा ज्ञान नहीं होता है।
  • जब माता-पिता द्वारा पालन-पोषण खराब हो, घर में दुर्व्यवहार हो, घर में हिंसा हो, एकल अभिभावक हों जो अपने बच्चों को लंबे समय तक बिना देखरेख के छोड़ देते हों।
  • समाचार, फिल्में, वेब सीरीज़, सोशल मीडिया का प्रभाव और शिक्षा की कमी भी ऐसे कारण हैं जिनके कारण बच्चे आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं।

किशोर न्यायालय की शक्ति और कार्य क्या है?

  • किशोर न्याय (बालकों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 8 बोर्ड की शक्तियों, कार्यों और ज़िम्मेदारियों से संबंधित है।
    • बोर्ड की शक्तियाँ:
      • किसी भी ज़िले के लिये गठित बोर्ड के पास इस अधिनियम के अंतर्गत बालकों से संबंधित सभी कार्यवाहियों को अनन्य रूप से निपटाने की शक्ति होगी।
      • इस अधिनियम द्वारा या इसके अधीन बोर्ड को प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग उच्च न्यायालय और बाल न्यायालय द्वारा भी किया जा सकेगा, जब कार्यवाही धारा 19 के अधीन अपील, पुनरीक्षण या अन्यथा उनके समक्ष आती है।
    • बोर्ड के कार्य:
      • प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में बालक और उसके माता-पिता या अभिभावक की सूचित भागीदारी सुनिश्चित करना;
      • यह सुनिश्चित करना कि बालक को पकड़ने, पूछताछ, देखरेख एवं पुनर्वास की पूरी प्रक्रिया के दौरान बालक के अधिकारों की रक्षा की जाए;
      • विधिक सेवा संस्थाओं के माध्यम से बालकों के लिये विधिक सहायता की उपलब्धता सुनिश्चित करना;
      • जहाँ भी आवश्यक हो, बोर्ड बालक को, यदि वह कार्यवाही में प्रयुक्त भाषा को समझने में असफल रहता है, एक दुभाषिया या अनुवादक उपलब्ध कराएगा, जिसके पास ऐसी योग्यताएँ, अनुभव हो तथा निर्धारित शुल्क का भुगतान किया जाए;
      • परिवीक्षा अधिकारी, अथवा यदि परिवीक्षा अधिकारी उपलब्ध न हो तो बाल कल्याण अधिकारी या सामाजिक कार्यकर्त्ता को, मामले की सामाजिक जाँच करने तथा बोर्ड के समक्ष प्रथम प्रस्तुति की तिथि से पंद्रह दिनों की अवधि के भीतर सामाजिक जाँच रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश देना, ताकि उन परिस्थितियों का पता लगाया जा सके जिनमें कथित अपराध किया गया था;
      • धारा 14 में निर्दिष्ट जाँच प्रक्रिया के अनुसार विधि का उल्लंघन करने वाले बालकों के मामलों का न्यायनिर्णयन और निपटान करना;
      • विधि का उल्लंघन करने वाले कथित बालक से संबंधित मामलों को समिति को हस्तांतरित करना, जिसे किसी भी स्तर पर देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता बताई गई है, जिससे यह मान्यता मिलती है कि विधि का उल्लंघन करने वाला बालक एक देखभाल की आवश्यकता वाला बालक भी हो सकता है अतः इसमें समिति तथा बोर्ड दोनों को शामिल करने की आवश्यकता है;
      • मामले का निपटारा करना और अंतिम आदेश पारित करना जिसमें बालक के पुनर्वास के लिये एक व्यक्तिगत देखभाल योजना शामिल है, जिसमें आवश्यकतानुसार परिवीक्षा अधिकारी या ज़िला बाल संरक्षण इकाई या किसी गैर-सरकारी संगठन के सदस्य द्वारा अनुवर्ती कार्रवाई भी शामिल है;
      • विधि से संघर्षरत बालकों की देखरेख के संबंध में योग्य व्यक्तियों की घोषणा के लिये जाँच का संचालन करना;
      • विधि-संघर्षरत बालकों के लिये आवासीय सुविधाओं का प्रत्येक माह कम-से-कम एक निरीक्षण दौरा करना तथा ज़िला बाल संरक्षण इकाई और राज्य सरकार को सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिये  कार्रवाई की सिफारिश करना;
      • इस अधिनियम या किसी अन्य वर्तमान विधि के अधीन विधि का उल्लंघन करने वाले किसी भी बालक के विरुद्ध किये गए अपराधों के लिये इस संबंध में की गई शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के लिये पुलिस को आदेश देना;
      • इस अधिनियम या किसी अन्य वर्तमान विधि के अंतर्गत देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले किसी भी बालक के विरुद्ध किये गए अपराधों के लिये, इस संबंध में एक समिति द्वारा लिखित शिकायत पर, प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के लिये पुलिस को आदेश देना;
      • वयस्कों के लिये बने जेलों का नियमित निरीक्षण करना, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या कोई बालक ऐसी जेलों में बंद है तथा उस बच्चे को पर्यवेक्षण गृह या सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने के लिये तत्काल उपाय करना, चाहे जैसा भी मामला हो; तथा
      • कोई अन्य कार्य जो निर्धारित किया जा सकता है।

आपराधिक कानून

विवाह सदृश संबंध

 19-Jun-2024

पी. जयचंद्रन बनाम ए. येसुरंथिनम (मृत)

"सहजीवन विधिक विवाह के विपरीत, विशुद्ध रूप से पक्षों के मध्य महज़ एक करार है।"

न्यायमूर्ति आर. एम. टी. टीका रमन

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति आर. एम. टी. टीका रमन की पीठ ने विवाह जैसे प्रकृति के रिश्तों से संबंधित टिप्पणियाँ कीं।

  • मद्रास उच्च न्यायालय ने पी. जयचंद्रन बनाम ए. येसुरंथिनम (मृत) के मामले में टिप्पणियाँ कीं।

पी. जयचंद्रन बनाम ए. येसुरंथिनम (मृत) मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • ए. येसुरंथिनम (वादी/प्रतिवादी) ने पी. जयचंद्रन (प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता) से एक संपत्ति पर स्वामित्व की घोषणा तथा संपत्ति पर कब्ज़ा करने की मांग करते हुए वाद दायर किया।
  • प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता ने एक करार विलेख (पूर्व A2) निष्पादित किया था, जिसमें संपत्ति को वाई. मार्गरेट अरुलमोझी को अंतरित किया गया था, जिसमें उन्हें अपनी पत्नी बताया गया था। मार्गरेट अरुलमोझी की बाद में 24 जनवरी 2013 को मृत्यु हो गई।
  • प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता ने दावा किया कि उसने अपनी पहली पत्नी स्टेला को एक प्रथागत विवाह विच्छेद के माध्यम से विवाह विच्छेद कर लिया तथा फिर मार्गरेट अरुलमोझी से विवाह कर लिया। उसने सेवा रिकॉर्ड पर विश्वास किया, जहाँ मार्गरेट ने उसे अपने पति के रूप में नामित किया था।
  • वादी/प्रतिवादी ने दावा किया कि प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता एवं मार्गरेट केवल सहजीवन संबंध (लिव-इन रिलेशनशिप) में थे क्योंकि प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता का स्टेला से विवाह अभी भी कायम था।
  • विवाद इसलिये उत्पन्न हुआ क्योंकि प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 114 पर विश्वास किया, जो मार्गरेट के साथ उसके लंबे समय तक सहजीवन एवं सेवा अभिलेखों में उसे पति के रूप में नामित करने पर आधारित थी, जबकि वादी/प्रतिवादी ने तर्क दिया कि यह संबंध ईसाई विधियों के अंतर्गत विधिक विवाह नहीं था।
  • ट्रायल कोर्ट ने वादी/प्रतिवादी का पक्ष लिया तथा माना कि प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता का मौजूदा विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के अनुसार भंग नहीं हुआ था, जिससे ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 की धारा 60 का उल्लंघन हुआ, जिसमें एक विवाह की आवश्यकता होती है।
  • प्रतिवादी/अपीलकर्त्ता ने तब उच्च न्यायालय में अपील की, जिसे यह निर्धारित करना था कि क्या IEA के अधीन अनुमान की वैधता को नियंत्रित करने वाले क्रिश्चियन पर्सनल लॉ के स्पष्ट प्रावधानों को आच्छादित कर सकते हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • टिप्पणी:
    • न्यायालय ने विधिक रूप से वैध ‘वैवाहिक संबंध’ एवं ‘सहजीवन’ या ‘विवाह सदृश’ के मध्य अंतर स्थापित किया।
      • न्यायालय ने कहा कि विधि ने विधिक रूप से वैध विवाह एवं अनौपचारिक सहजीवन की व्यवस्था से उत्पन्न अधिकारों और दायित्वों में अंतर स्थापित किया है।
    • न्यायालय ने इंद्रा शर्मा बनाम वी. के. वी. शर्मा (2013) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का उदहारण देते हुए कहा कि हालाँकि लिव-इन रिलेशनशिप अवैध नहीं हैं, लेकिन उन्हें विधिक विवाह के तुल्य नहीं माना जा सकता।
      • एक विधिक विवाह में औपचारिकता, प्रचार, विशिष्टता एवं बाध्यकारी विधिक परिणामों की विधिक आवश्यकताएँ शामिल होती हैं।
    • न्यायालय ने कहा कि सहजीवन संबंध, विधिक विवाह के विपरीत, विशुद्ध रूप से पक्षों के मध्य एक करार है।
      • यदि एक पक्ष यह निर्णय लेता है कि वह अब लिव-इन रिलेशनशिप जारी नहीं रखना चाहता, तो यह संबंध समाप्त हो जाता है।
    • दूसरी ओर, विधिक रूप से वैध "वैवाहिक संबंध" मतभेदों या वैवाहिक अशांति के बावजूद बना रहता है, क्योंकि यह विधि पर आधारित होता है, न कि केवल पक्षों के मध्य एक करार।
    • न्यायालय ने कहा कि स्टेला से विवाहित होने के बावजूद मार्गरेट अरुलमोझी के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में प्रवेश करके, प्रतिवादी ने स्वयं को अपनी विधिक पत्नी एवं बच्चों से अलग करके "वैवाहिक संबंधों में हस्तक्षेप का जानबूझकर अपराध" किया।
    • इसने उच्चतम न्यायालय के इस दृष्टिकोण पर ध्यान दिया कि सभी लिव-इन रिलेशनशिप को "विवाह की प्रकृति वाले संबंध" नहीं माना जा सकता।
      • किसी रिश्ते को विवाह के समान माना जाने के लिये, उसे कुछ मानदंडों को पूरा करना होगा, जैसे विशिष्टता, विवाह के लिये अन्यथा योग्य होना तथा सार्वजनिक आचरण जो उन्हें जीवनसाथी के समान दर्शाता हो।
  • निर्णय:
    • किसी रिश्ते को विवाह के समान माना जाने के लिये, उसे कुछ मानदंडों को पूरा करना होगा, जैसे विशिष्टता, विवाह के लिये अन्यथा योग्य होना तथा सार्वजनिक आचरण जो उन्हें जीवनसाथी के समान दर्शाता हो।
    • करार विलेख (पूर्व A2) द्वारा मार्गरेट अरुलमोझी को संपत्ति का स्वामी बना दिया गया।
      • उसकी मृत्यु के उपरांत पिता वादी/प्रतिवादी भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत संपत्ति के विधिक उत्तराधिकारी होंगे।

इस मामले में विधिक प्रावधान क्या हैं?

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 114:

  • धारा 114 न्यायालय को घटनाओं/मानव आचरण के प्राकृतिक क्रम के आधार पर कुछ तथ्यों के अस्तित्त्व को मानने की अनुमति देती है।
  • इसमें कहा गया है कि न्यायालय किसी भी तथ्य के अस्तित्त्व को मान सकता है, जिसके विषय में उसे लगता है कि वह घटित हुआ होगा, विशेष मामले के तथ्यों के संबंध में प्राकृतिक घटनाओं, मानवीय आचरण और सार्वजनिक एवं निजी व्यवसाय के सामान्य क्रम को ध्यान में रखते हुए।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 119 इस प्रावधान से संबंधित है।

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 122:

  • धारा 122 में कहा गया है कि अचल संपत्ति के उपहार को वैध बनाने के लिये, अंतरण पंजीकृत विलेख द्वारा किया जाना चाहिये तथा संपत्ति का कब्ज़ा अंतरिती को दिया जाना चाहिये।

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 42:

  • धारा 42 के अनुसार, बिना वसीयत के पिता को उनकी संपत्ति का पहला विधिक उत्तराधिकारी माना जाएगा।
  • धारा 45 के अनुसार, यदि पिता की मृत्यु हो जाती है, तो संपत्ति माता एवं किसी भी पूर्व-मृत बच्चे के बच्चों को समान रूप से प्राप्त होगी।

भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 की धारा 5 एवं 60:

  • धारा 5 ईसाई विवाह को संपन्न करने की औपचारिकताओं को निर्धारित करती है।
  • धारा 60 में यह भी कहा गया है कि विवाह के समय, किसी भी पक्ष के पास पहले के विवाह से कोई जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिये।
  • यह एकविवाह के सिद्धांत को कायम रखता है- कि एक व्यक्ति के पास एक ही समय में दो जीवनसाथी नहीं हो सकते।
  • किसी पूर्व के वैध विवाह के अस्तित्त्व के दौरान किया गया कोई भी विवाह शून्य माना जाएगा।

भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 10:

  • धारा 10 में उन विशिष्ट आधारों का उल्लेख किया गया है, जिनके आधार पर किसी ईसाई विवाह को सक्षम न्यायालय से विवाह विच्छेद के आदेश द्वारा भंग किया जा सकता है।
  • इन आधारों में व्यभिचार, क्रूरता, 2+ वर्षों तक परित्याग, किसी अन्य धर्म में धर्मांतरण करके ईसाई न रहना आदि शामिल हैं।
  • यह अधिनियम विवाह विच्छेद के प्रथागत रूपों को मान्यता नहीं देता है, जैसा कि हिंदू विधि जैसे अन्य व्यक्तिगत विधियों में अनुमति दी जा सकती है।
  • दूसरा विवाह करने के लिये, एक ईसाई को पहले पहले विवाह को भंग करने के लिये एक वैध विवाह विच्छेद का आदेश प्राप्त करना होगा।

आपराधिक कानून

उत्तर प्रदेश संपरिवर्तन प्रतिषेध विधि

 19-Jun-2024

रुक्सार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

यदि प्रारंभिक चरण में अभियोजन में लगातार हस्तक्षेप होता है, तो उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 अपने इच्छित उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल हो जाएगा”।

न्यायमूर्ति जे. जे. मुनीर और अरुण कुमार सिंह देशवाल

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रुक्सार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि यदि प्रारंभिक चरण में अभियोजन में बार-बार हस्तक्षेप किया जाता है तो उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 (2021 का अधिनियम) अपने इच्छित उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल हो जाएगा।

रुक्सार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) और 2021 के अधिनियम की धारा 3 तथा 5 (1) के प्रावधानों के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया है।
  • याचिकाकर्त्ता और सह-आरोपी अब्दुल रहमान के विरुद्ध आरोप यह है कि अब्दुल रहमान वर्ष 2022 से पीड़िता का पीछा कर रहा था, जब वह दसवीं कक्षा में पढ़ती थी।
  • वह उसका पीछा मंदिर और कॉलेज में करता था। यह भी कहा गया है कि एक बार याचिकाकर्त्ता ने पीड़िता को अपने घर बुलाया और उसके साथ बलात्कार किया। बाद में, यह एक नियमित कार्य हो गया।
  • अब्दुल रहमान शादीशुदा था और उसका भाई इरफान उर्फ ​​छोटू, सूचनाप्रदाता का पीछा करने लगा। उसने सूचनाप्रदाता से दोस्ती कर ली। उन्होंने सूचनाप्रदाता को उसकी प्रतिष्ठा खोने और उसकी ज़िंदगी बर्बाद होने का डर दिखाया।
  • याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध आरोप यह है कि उसने पीड़िता को सुझाव दिया था कि वह इस्लाम धर्म अपना ले तथा इरफान उर्फ ​​छोटू से शादी कर ले।
  • 30 मार्च 2024 को सभी आरोपियों ने साजिश के तहत पीड़िता को मिलने के बहाने अपने घर बुलाया, हाँ इरफान ने उसके साथ दुष्कर्म किया। इरफान उसे मजार पर ले गया और उसे बुर्का पहनने के लिये बाध्य किया।
  • इस दरिंदगी के बाद आरोपी ने उसे कर्वी जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया और वापस भेज दिया। कर्वी स्टेशन पर अब्दुल रहमान ने सूचनाप्रदाता को पकड़ लिया और उसे जान से मारने की धमकी दी तथा कहा कि अगर उसने किसी को कुछ भी बताया तो उसके पूरे परिवार को मार दिया जाएगा।
  • याचिकाकर्त्ता ने कार्यवाही रद्द करने के लिये इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
  • याचिका को अस्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि यह मामला आरोपी को राहत देने के लिये उपयुक्त नहीं है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति जे. जे. मुनीर और अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने कहा कि 2021 का अधिनियम एक नया विधान है जिसे समाज में व्याप्त कुप्रथा को रोकने के लिये विधायिका द्वारा अधिनियमित किया गया है। यदि 2021 के अधिनियम के अधीन प्रारंभिक चरण के अभियोजन में ही लगातार हस्तक्षेप होता है, तो यह विधान जो अभी नया है तथा समाज में व्याप्त कुप्रथा को रोकने के लिये बनाया गया है, वह अटक जाएगा और अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल हो जाएगा।
  • न्यायालय ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि, विशेषकर विधिक कार्यवाही के प्रारंभिक चरणों में इस तरह के हस्तक्षेप, विधान की प्रभावशीलता को कमज़ोर कर सकते हैं।

धर्म संपरिवर्तन से संबंधित प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

धार्मिक संपरिवर्तन के विषय में:

  • धार्मिक संपरिवर्तन एक विशेष धार्मिक संप्रदाय से जुड़ी मान्यताओं को अपनाना है, जिसमें अन्य को शामिल नहीं किया जाता।
  • इसका अर्थ है- एक धार्मिक संप्रदाय के प्रति निष्ठा को त्यागकर दूसरे संप्रदाय से सम्बद्ध होना।
  • कुछ मामलों में, धार्मिक संपरिवर्तन धार्मिक पहचान में परिवर्तन का प्रतीक है और इसे विशेष अनुष्ठानों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

भारत में धर्म संपरिवर्तन विरोधी विधियों की स्थिति:

संवैधानिक प्रावधान:

  • भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धर्म को मानने, प्रचार करने एवं आचरण करने की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है तथा सभी धार्मिक वर्गों को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन, धर्म के मामलों में अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन करने की अनुमति दी गई है।
  • हालाँकि, कोई भी व्यक्ति अपने धार्मिक विश्वासों को किसी और पर थोपने के लिये स्वतंत्र नहीं है तथा परिणामस्वरूप, किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी भी धर्म का पालन करने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिये।

मौजूदा विधि:

  • वर्तमान में धार्मिक संपरिवर्तनों को प्रतिबंधित या विनियमित करने वाला कोई केंद्रीय विधान उपस्थित नहीं है।
  • हालाँकि, वर्ष 1954 के बाद से, कई अवसरों पर, धार्मिक संपरिवार्तनों को विनियमित करने के लिये संसद में निजी सदस्य विधेयक पेश किये गए (परंतु कभी भी स्वीकृत नहीं हुए)।
  • इसके अतिरिक्त, वर्ष 2015 में केंद्रीय विधि मंत्रालय ने कहा कि संसद के पास धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध विधान पारित करने की विधायी क्षमता नहीं है।

विभिन्न राज्यों में धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध विधियाँ:

  • पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों ने बलपूर्वक, धोखाधड़ी या प्रलोभन से किये जाने वाले धर्म संपरिवर्तन को प्रतिबंधित करने के लिये विधान बनाए हैं।
  • उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, ओडिशा और उत्तराखंड सहित भारत के कई राज्यों ने धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध विधान लागू किये हैं।

धर्म संपरिवर्तन पर उच्चतम न्यायालय:

  • रेव. स्टैनिस्लॉस बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1977- उच्चतम न्यायालय ने माना कि COI का अनुच्छेद 25 अन्य व्यक्तियों को अपने धर्म में परिवर्तित करने का अधिकार नहीं देता है, बल्कि अपने सिद्धांतों की व्याख्या करके अपने धर्म को प्रसारित करने का अधिकार देता है।
  • हादिया केस (शफीन जहान बनाम अशोकन के.एम.), 2017 - उच्चतम न्यायालय ने माना कि पहनावा और भोजन, विचार और विचारधारा, प्रेम और साझेदारी के मामले, पहचान के केंद्रीय आयामों में आते हैं। यह भी माना गया कि अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।

उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 क्या है?

परिचय:

  • वर्ष 2021 में, उत्तर प्रदेश विधानसभा ने इस अधिनियम को पारित किया, जिसने नवंबर 2020 में उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 का स्थान लिया।
  • उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा ने 24 नवंबर 2020 को इस अध्यादेश को स्वीकृति दी, जिसके उपरांत 28 नवंबर 2020 को राज्य की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने इसे अनुमोदित और हस्ताक्षरित किया।
  • उत्तर प्रदेश राज्य में लागू, यह उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अधिनियमित एक धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध विधान है।
  • यह अधिनियम गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, जबरदस्ती, प्रलोभन या किसी धोखाधड़ी के माध्यम से या विवाह द्वारा एक धर्म से दूसरे धर्म में अवैध रूप से धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है।

उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020:

  • यह विधेयक विवाह के लिये धर्म परिवर्तन को गैर-ज़मानती अपराध बनाता है और प्रतिवादी पर यह सिद्ध करने का दायित्व होगा कि धर्म परिवर्तन, विवाह के लिये नहीं किया गया था।
  • धर्म परिवर्तन के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट को अधिसूचना देने की अवधि दो महीने है।
  • यदि किसी महिला द्वारा केवल विवाह के उद्देश्य से धर्म परिवर्तन किया जाता है तो विवाह अमान्य घोषित कर दिया जाएगा।
  • विधिक प्रावधानों का उल्लंघन करने पर कम-से-कम एक वर्ष के कारावास का दण्ड दिया जाएगा जिसे बढ़ाकर पाँच वर्ष किया जा सकता है तथा 15,000 रुपए का अर्थदण्ड भी लगाया जा सकता है।
  • यदि कोई अल्पवयस्क महिला या अनुसूचित जाति (SC) या अनुसूचित जनजाति (ST) की महिला धर्म परिवर्तन करती है, तो कारावास की अवधि न्यूनतम तीन वर्ष होगी और 25,000 रुपए के अर्थदण्ड के साथ इसे 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
  • अध्यादेश में सामूहिक धर्म संपरिवर्तन कराने वाले सामाजिक संगठनों का पंजीकरण रद्द करने सहित सख्त कार्यवाही का प्रावधान है, जिसके लिये कम-से-कम तीन वर्ष से लेकर अधिकतम 10 वर्ष तक के कारावास का दण्ड एवं 50,000 रुपए तक का अर्थदण्ड हो सकता है।