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आपराधिक कानून

BNSS के अंतर्गत शांति भंग

 27-Jun-2024

श्री मिनोंड्रो अरेंग बनाम तालिका टी. संगमा

धारा 146, CrPC के अधीन कुर्की आदेश के लिये शांति भंग की संभावना के साक्ष्य की आवश्यकता होती है”।

न्यायमूर्ति बी. भट्टाचार्य

स्रोत:  मेघालय उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

मेघालय उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट केवल भूमि पर कब्ज़े का निर्धारण करने में असमर्थता के आधार पर दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 146 के अधीन कुर्की आदेश जारी नहीं कर सकता है।

  • श्री मिनोंड्रो अरेंग बनाम तालिका टी. संगमा के मामले में न्यायमूर्ति बी. भट्टाचार्य ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसे आदेशों के लिये शांति भंग होने के संभावित साक्ष्य की आवश्यकता होती है, जैसा कि CrPC की धारा 145 में निर्धारित है।
  • यह निर्णय भूमि विवाद मामलों में पक्षकारों के अधिकारों की रक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिये प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का पालन करने के महत्त्व को रेखांकित करता है।

श्री मिनोंड्रो अरेंग बनाम तालिका टी. संगमा की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • प्रतिवादी (तालिका टी. संगमा) ने 05 फरवरी 2021 को अम्पाती पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिकी दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्त्ता (श्री मिनोंड्रो अरेंग) दक्षिण-पश्चिम गारो हिल्स ज़िले के अम्पाती के इचाकुरी में उसकी ज़मीन पर बलात् कब्ज़ा करने का प्रयास कर रहा था।
  • पुलिस ने CrPC की धारा 145 के अधीन कार्यकारी मजिस्ट्रेट को एक रिपोर्ट भेजी और कार्यकारी मजिस्ट्रेट ने कार्यवाही प्रारंभ की।
  • 20 अप्रैल 2022 को कार्यकारी मजिस्ट्रेट ने आदेश पारित किया:
    • धारा 146(1) CrPC के अधीन विवादित भूमि की कुर्की का निर्देश दिया गया।
    • इसका उद्देश्य दोनों पक्षों को भूमि पर किसी भी आर्थिक गतिविधि में संलग्न होने से रोकना था।
    • यह निषेध कुर्की अवधि के दौरान या गारो हिल्स स्वायत्त ज़िला परिषद (GHADC) द्वारा प्रक्रिया और सीमांकन पूरा होने तक प्रभावी रहना था।
  • याचिकाकर्त्ता ने इस आदेश को इस आधार पर चुनौती दी कि:
    • कार्यपालक मजिस्ट्रेट ने CrPC की धारा 145 और 146(1) के प्रावधानों का पालन नहीं किया।
    • यह आदेश भूमि के कब्ज़े को लेकर पक्षों के बीच शांति भंग होने की संभावना को ध्यान में रखे बिना पारित किया गया।
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि:
    • यह कार्यवाही शांति भंग की आशंका से संबंधित पुलिस रिपोर्ट के आधार पर आरंभ की गई थी।
    • मौजूदा स्थिति और पक्षों के बीच सीमा विवाद से संबंधित 21 फरवरी 2020 के पिछले आदेश के कारण, कुर्की आदेश करना आवश्यक था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि धारा 146(1) CrPC के अधीन कुर्की का आदेश अनुचित था क्योंकि:
    • शांति भंग होने की किसी भी संभावना का अभाव था।
    • यह सिद्धांत कि केवल कब्ज़े का निर्धारण करने में असमर्थता ही कुर्की के लिये अपर्याप्त आधार है।
  • न्यायमूर्ति बी. भट्टाचार्य ने कहा कि संबंधित कार्यकारी मजिस्ट्रेट ने मौजूदा तथ्यात्मक स्थिति के आधार पर कोई निष्कर्ष दर्ज करने में विफल रहने की गलती की है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि प्रासंगिक समय पर विवादित भूमि पर किस पक्ष का कब्ज़ा था।
  • न्यायालय ने माना कि धारा 146(1) CrPC के अधीन कुर्की के वैध आदेश के लिये एक पूर्व शर्त धारा 145(1) CrPC के अधीन परिकल्पित स्थिति का अस्तित्व है, विशेष रूप से, विवादित भूमि पर कब्ज़े को लेकर पक्षों के बीच शांति भंग होने की संभावना।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धारा 145(4) CrPC में यह प्रावधान है कि कब्ज़े के प्रश्न का निर्णय, विवादित स्थल पर कब्ज़े के अधिकार के किसी भी पक्ष के गुण-दोष या दावे के संदर्भ के बिना किया जाना चाहिये।
  • धारा 145 CrPC के अधीन कार्यवाही में, कब्ज़े से संबंधित विवादों का निपटारा स्वामित्व के अभिलेखित साक्ष्यों के बजाय प्रस्तुत किये गए बयानों, दर्ज किये गए साक्ष्यों और पक्षों की सुनवाई के आधार पर किया जाना चाहिये।

BNSS की धारा 164 क्या है?

  • परिचय:
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 164 उस प्रक्रिया से संबंधित है जहाँ भूमि या जल से संबंधित विवाद से शांति भंग होने की संभावना हो।
    • इससे पहले यह मामला CrPC की धारा 145 के अधीन निपटाया जाता था।
    • BNSS की धारा 164(1) में कहा गया है कि जब भी कोई कार्यकारी मजिस्ट्रेट किसी पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या अन्य सूचना से संतुष्ट हो कि उसके स्थानीय अधिकार क्षेत्र के भीतर किसी भूमि या जलक्षेत्र या उसकी सीमाओं के संबंध में विवाद है, जिससे शांति भंग होने की संभावना है, तो वह अपने संतुष्ट होने के आधारों को बताते हुए लिखित रूप में आदेश देगा तथा ऐसे विवाद में संबंधित पक्षों को निर्दिष्ट तिथि और समय पर व्यक्तिगत रूप से या अधिवक्ता के माध्यम से न्यायालय में उपस्थित होने तथा विवादित स्थल के वास्तविक कब्ज़े के संबंध में अपने-अपने दावों के लिखित बयान देना होगा।
    • BNSS की धारा 164(4) में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट, विवादित स्थल पर कब्ज़े के अधिकार के संबंध में किसी भी पक्षकार के दावे या गुण-दोष पर ध्यान दिए बिना, इस प्रकार दिये गए बयानों का अध्ययन करेगा, पक्षकारों की सुनवाई करेगा, उनके द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले सभी साक्ष्य प्राप्त करेगा, यदि कोई हो, तथा ऐसा अतिरिक्त साक्ष्य स्वीकार करेगा जैसा वह आवश्यक समझे, और यदि संभव हो तो यह निर्णय करेगा कि उपधारा (1) के अधीन उसके द्वारा दिये गए आदेश की तिथि को विवादित स्थल कौन-से पक्षकार के कब्ज़े में था।
      • इसमें यह प्रावधान है कि यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि किसी पक्षकार को पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या अन्य सूचना मजिस्ट्रेट को प्राप्त होने की तिथि से ठीक दो महीने के भीतर या उस तिथि के पश्चात और उपधारा (1) के अधीन उसके आदेश की तिथि से पूर्व बलपूर्वक और अनुचित तरीके से निष्कासित किया गया है तो वह इस प्रकार निष्कासित किये गए पक्षकार को इस प्रकार मानेगा जैसे उपधारा (1) के अधीन उसके आदेश की तिथि को वह विवादित स्थल उसी पक्षकार के कब्ज़े में था।
  • BNSS की धारा 164 के लिये शर्त
    • पक्षों के बीच संघर्ष।
    • इस संघर्ष में शांति भंग होने (सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने) की संभावना है।
    • विवाद के विषय में शामिल हैं:
      • संरचनाएँ
      • वाणिज्यिक क्षेत्र
      • मछली पकड़ने का तालाब
      • कृषि उपज
      • संपत्ति की सीमाएँ
      • किराये की आय
      • संपत्ति से वित्तीय लाभ
    • दावा किया गया कि कब्ज़ा मजिस्ट्रेट के प्रारंभिक निर्देश से पूर्व 60 दिन की अवधि के भीतर हुआ था।
    • इस मामले पर निर्णय लेना मजिस्ट्रेट के विधिक अधिकार क्षेत्र में आता है।
  • निर्णयज विधियाँ:
    • मोहम्मद शाकिर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022): उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सिविल वादों के लंबित रहने के कारण धारा 145 CrPC के अधीन कार्यवाही को समाप्त करते समय, मजिस्ट्रेट संबंधित संपत्ति पर पक्षों के अधिकारों के संबंध में कोई टिप्पणी नहीं कर सकता है या कोई निष्कर्ष नहीं दे सकता है।

 BNSS की धारा 165 क्या है?

  • BNSS की धारा 165 विवाद के विषय को कुर्क करने तथा रिसीवर नियुक्त करने की शक्ति से संबंधित है।
    • इससे पहले यह मामला CrPC की धारा 146 के अधीन आता था।
  • इसमें कहा गया है कि यदि मजिस्ट्रेट धारा 164 की उपधारा (1) के अधीन आदेश देने के पश्चात किसी भी समय मामले को आपात स्थिति का समझता है, या यदि वह निर्णय करता है कि पक्षकारों में से कोई भी उस समय धारा 164 में निर्दिष्ट कब्ज़े में नहीं था, या यदि वह स्वयं यह तय करने में असमर्थ है कि उनमें से कौन-सा पक्षकार उस समय विवाद के विषय पर ऐसे कब्ज़े में था, तो वह विवाद के विषय को कुर्क कर सकता है जब तक कि सक्षम न्यायालय उस पर कब्ज़े के अधिकारी व्यक्ति के संबंध में, पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण नहीं कर देता है।
    • इसमें यह प्रावधान है कि यदि मजिस्ट्रेट को यह विश्वास हो जाए कि अब विवाद के विषय के संबंध में शांति भंग होने की कोई संभावना नहीं है तो वह किसी भी समय कुर्की वापस ले सकता है।
  • एक बार जब सिविल न्यायालय ने मामले को अपने अधिकार में ले लिया, तो BNSS की धारा 165/164 के अधीन कार्यवाही आगे नहीं बढ़ सकती और उसे समाप्त कर देना चाहिये।
    • स्वामित्व या कब्ज़े के संबंध में पक्षों के पारस्परिक अधिकारों का निर्धारण अंततः सिविल न्यायालय द्वारा किया जाएगा।

सिविल कानून

आवश्यक धार्मिक आचरण

 27-Jun-2024

ज़ैनब अब्दुल कय्यूम चौधरी एवं अन्य बनाम चेंबूर ट्रॉम्बे एजुकेशन सोसाइटी के एन. जी. आचार्य एवं डी. के. मराठे कॉलेज व अन्य।

“ड्रेस कोड जारी करने के पीछे उद्देश्य यह है कि किसी छात्र की पोशाक से उसका धर्म उजागर न हो, जो यह सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम है कि छात्र ज्ञान एवं शिक्षा प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करें जो उनके व्यापक हित में है”।

न्यायमूर्ति राजेश एस. पाटिल, न्यायमूर्ति ए. एस. चंदुरकर

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति राजेश एस. पाटिल एवं न्यायमूर्ति ए. एस. चंदुरकर की पीठ ने नौ छात्राओं द्वारा ड्रेस कोड के विरुद्ध दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्हें ड्रेस कोड का पालन करने की आवश्यकता थी, जिसके अंतर्गत उन्हें हिजाब या नकाब पहनने से रोका गया था।

  • बॉम्बे हाईकोर्ट ने जैनब अब्दुल कय्यूम चौधरी एवं अन्य बनाम चेंबूर ट्रॉम्बे एजुकेशन सोसाइटी के एन. जी. आचार्य एवं डी. के. मराठे कॉलेज व अन्य के मामले में रिट याचिका खारिज कर दी।

ज़ैनब अब्दुल कय्यूम चौधरी एवं अन्य बनाम चेंबूर ट्रॉम्बे एजुकेशन सोसाइटी के एन. जी. आचार्य एवं डी. के. मराठे कॉलेज व अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रथम प्रतिवादी- चेंबूर ट्रॉम्बे एजुकेशन सोसाइटी द्वारा संचालित कॉलेज में स्नातक पाठ्यक्रमों के लिये दूसरे एवं तीसरे वर्ष की शिक्षा प्राप्त कर रहे नौ छात्रों ने छात्रों को जारी किये गए निर्देशों को चुनौती दी है, जिसमें उन्हें निर्धारित ड्रेस कोड का पालन करने की आवश्यकता बताई गई है।
  • इसके अतिरिक्त, ड्रेस कोड का पालन करने के मामले में निर्देश जारी करने वाले 1 मई 2024 के व्हाट्सएप संदेश के द्वारा मिले नोटिस को भी चुनौती दी गई है।
  • याचिकाकर्त्ता ओं का आरोप है कि ड्रेस कोड का निर्धारण जिसके परिणामस्वरूप उन्हें हिजाब या नकाब पहनने से रोका गया है, मनमाना एवं भेदभावपूर्ण है तथा यह भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 19 (1) (a) एवं अनुच्छेद 25 का उल्लंघन है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि इसी प्रकार का एक मामला कर्नाटक उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के समक्ष प्रस्तुत किया गया था (रेशम बनाम कर्नाटक राज्य) जहाँ न्यायालय ने कहा था कि निर्धारित ड्रेस कोड का उद्देश्य संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की सेवा के लिये छात्रों को एक समरूप वर्ग के रूप में मानना ​​था।
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कर्नाटक उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ द्वारा दिये गए पूर्व निर्णय से सहमति व्यक्त की।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि ड्रेस कोड का विनियमन, संस्थान में अनुशासन बनाए रखने की दिशा में एक प्रयास है तथा यह अधिकार COI के अनुच्छेद 19(1)(g) एवं अनुच्छेद 26 से प्राप्त होता है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि ड्रेस कोड निर्धारित करने के पीछे उद्देश्य यह है कि छात्र का धर्म उजागर न हो।
  • यह देखा गया कि कॉलेज के प्रशासन एवं प्रबंधन को अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत शैक्षणिक संस्थान के प्रशासन करने का मौलिक अधिकार है तथा उस अधिकार के प्रयोग में व इस उद्देश्य से कि शिक्षा को गंभीरता से आगे बढ़ाया जा सके, निर्देश जारी किये गए हैं।
  • हिजाब को आवश्यक धार्मिक प्रथा का भाग मानने के मुद्दे पर, न्यायालय ने माना कि कंज़-उल-इमान एवं सुमान अबू दाऊद के अंग्रेज़ी अनुवाद के आधार पर यह कथन कि हिजाब एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है, याचिकाकर्त्ताओं के इस तर्क को कायम रखने के लिये कोई तथ्य सामग्री प्रस्तुत नहीं की है कि हिजाब व नकाब पहनना एक आवश्यक धार्मिक आचरण है।

धर्म की स्वतंत्रता क्या है?

  • धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर अनुच्छेद 28 के अंतर्गत आता है।
  • अनुच्छेद 25(1) में प्रावधान है कि सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता एवं स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य प्रावधानों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, आचरण करने एवं प्रचार करने का समान अधिकार है।
    • अनुच्छेद 25(2) में यह प्रावधान है कि इस अनुच्छेद का कोई प्रावधान किसी मौजूदा विधि के संचालन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई विधि निर्माण करने से नहीं रोकेगी—
      • किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित या प्रतिबंधित करना जो धार्मिक आचरण से जुड़ी हो सकती है।
      • सामाजिक कल्याण एवं सुधार या हिंदुओं के सभी वर्गों एवं उपवर्गों के लिये सार्वजनिक चरित्र के हिंदू धार्मिक संस्थानों को खोलने के लिये प्रावधान करना।
      • स्पष्टीकरण I- कृपाण पहनना एवं ले जाना सिख धर्म के पालन में शामिल माना जाएगा।
      • स्पष्टीकरण II- खंड (2) के उप-खंड (b) में, हिंदुओं के संदर्भ को सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म को मानने वाले व्यक्तियों के संदर्भ में शामिल किया जाएगा तथा हिंदू धार्मिक संस्थानों के संदर्भ को तद्नुसार माना जाएगा।
  • अनुच्छेद 26 में प्रावधान है कि सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता एवं स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को यह अधिकार होगा कि वह-
    • धार्मिक एवं धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये संस्थाओं की स्थापना व रखरखाव करना,
    • धार्मिक मामलों में अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन करना,
    • चल एवं अचल संपत्ति का स्वामित्व व अधिग्रहण करना, और
    • ऐसी धरोहर की विधि के अनुसार प्रशासन करना।
  • अनुच्छेद 27 में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को कोई कर देने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा, जिसकी आय किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय के संवर्धन या रखरखाव के लिये व्यय के भुगतान हेतु विनियोजित की जाती है।
  • अनुच्छेद 28 कुछ शैक्षणिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक पूजा में उपस्थिति की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
    • राज्य निधि से पूर्णतया संचालित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।
    • खंड (1) में कुछ भी ऐसी शैक्षणिक संस्था पर लागू नहीं होगा जो राज्य द्वारा प्रशासित है, लेकिन किसी ऐसे बंदोबस्ती या ट्रस्ट (न्यास) के अंतर्गत स्थापित की गई है, जिसके लिये यह आवश्यक है कि ऐसी संस्था में धार्मिक शिक्षा प्रदान की जाएगी।
    • राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाली किसी शैक्षणिक संस्था में अध्ययनरत किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली किसी धार्मिक शिक्षा में भाग लेने या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न किसी परिसर में आयोजित किसी धार्मिक पूजा में भाग लेने की आवश्यकता नहीं होगी, जब तक कि ऐसे व्यक्ति ने या यदि ऐसा व्यक्ति अवयस्क है तो उसके अभिभावक ने इसके लिये अपनी सहमति नहीं दे दी हो।

आवश्यक धार्मिक आचरण की अवधारणा क्या है?

  • आयुक्त, हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती, मद्रास बनाम श्री शिरुर मठ के लक्ष्मीन्द्र तीर्थ स्वामी (1954)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी धर्म का अनिवार्य भाग क्या है, यह मुख्य रूप से उस धर्म के सिद्धांतों के संदर्भ में ही पता लगाया जाना चाहिये।
    • यदि हिंदुओं के किसी धार्मिक संप्रदाय के सिद्धांत निर्धारित करते हैं:
      • दिन के विशेष समय पर मूर्ति को भोजन का प्रसाद चढ़ाया जाना चाहिये।
      • वर्ष के कुछ निश्चित समय पर निश्चित तरीके से आवधिक समारोह किये जाने चाहिये।
      • पवित्र ग्रंथों का दैनिक पाठ होना चाहिये या पवित्र अग्नि में आहुति देनी चाहिये।
      • ये सभी धर्म के अंग माने जाएंगे।
  • पुलिस आयुक्त एवं अन्य बनाम आचार्य जे. अवधूत (2004)
    • इस मामले में न्यायालय ने यह कसौटी निर्धारित की कि आवश्यक धार्मिक आचरण क्या होगा।
    • न्यायालय ने कहा कि धर्म का आवश्यक भाग” उस मूल आस्था से संबंधित है जिन पर धर्म आधारित है। आवश्यक आचरण का अर्थ है वह आचरण, जो धार्मिक आस्था का पालन करने के लिये मौलिक है।
      • धर्म की संरचना आवश्यक भागों या प्रथाओं की आधारशिला पर ही निर्मित होती है। जिसके बिना धर्म कोई धर्म नहीं रह जाता।
      • यह निर्धारित करने के लिये कि धर्म के लिये कोई रीति या प्रथा आवश्यक है या नहीं, यह पता लगाना होता है कि उस रीति या प्रथा के बिना धर्म की प्रकृति बदल जाएगी या नहीं।
      • यदि उस रीति या प्रथा को हटाने से उस धर्म के चरित्र या उसके विश्वास में कोई मौलिक परिवर्तन हो सकता है, तो ऐसे भाग को आवश्यक या अभिन्न अंग माना जा सकता है।
      • ऐसे भाग में कुछ जोड़ा या घटाया नहीं जा सकता।
      • क्योंकि यह उस धर्म का सार है तथा इसमें बदलाव से इसका मूल चरित्र बदल जाएगा। यह ऐसा स्थायी आवश्यक भाग है जिसे संविधान द्वारा संरक्षित किया गया है।

हिजाब प्रतिबंध पर अब तक क्या प्रगति हुई है?

  • रेशम बनाम कर्नाटक राज्य (2022)
    • 15 मार्च को कर्नाटक उच्च न्यायालय की 3 न्यायाधीशों की पीठ ने राज्य के शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध को यथावत् रखा।
    • न्यायालय ने माना कि हिजाब पहनना ‘आवश्यक धार्मिक प्रथा’ नहीं है।
    • इसके अतिरिक्त, यह माना गया कि प्रतिबंध भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करेगा क्योंकि यह सार्वजनिक स्थानों पर अनुशासन बनाए रखने के लिये एक उचित प्रतिबंध है।
  • ऐशत शिफा बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2022)
    • न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता एवं न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने इस मुद्दे पर विभाजित निर्णय दिया।
    • न्यायमूर्ति धूलिया ने प्रतिबंध को असंवैधानिक करार दिया, जबकि न्यायमूर्ति गुप्ता ने प्रतिबंध को यथावत् बनाए रखा।
    • इस मामले पर उच्चतम न्यायालय की बड़ी पीठ द्वारा निर्णय लिया जाना है।

सिविल कानून

साझा घर से तलाकशुदा पत्नी के निष्कासन पर प्रतिबंध

 27-Jun-2024

जयश्री बनाम इंद्रपालन एवं अन्य

“यह माना गया है कि पीड़िता और जिस व्यक्ति के विरुद्ध घरेलू हिंसा के आरोप के संबंध में राहत का दावा किया गया है, के बीच स्थायी घरेलू संबंध होना चाहिये”।

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने जयश्री बनाम इंद्रपालन एवं अन्य मामले में यह माना है कि तलाक से पहले या बाद में साझा घर में रह रही महिला को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त घर से निष्कासित नहीं किया जा सकता।

जयश्री बनाम इंद्रपालन और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता प्रतिवादी की पत्नी थी, जिसका एक नाबालिग बच्चा था।
    • प्रतिवादी ने 31 दिसंबर 2022 को परित्याग के आधार पर तलाक के लिये आवेदन दायर किया।
  • याचिकाकर्त्ता ने तलाक के आदेश के विरुद्ध केरल उच्च न्यायालय में अपील दायर की जिसे न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया था।
  • अपील के लंबित रहने के दौरान याचिकाकर्त्ता ने महिला संरक्षण एवं घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट न्यायालय में एक याचिका दायर की, ताकि उसे साझा घर से निष्कासित न किया जाए।
  • प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता के प्रतिउत्तर में न्यायालय को बताया कि कभी भी उनके बीच कोई साझा घर नहीं था।
  • प्रतिवादों पर विचार करते हुए मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्त्ता को निष्कासित करने का आदेश दिया तथा उसे एक माह के भीतर घर खाली करने का आदेश दिया।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय प्रभा त्यागी बनाम कमलेश देवी (2022) का उदाहरण देते हुए केरल उच्च न्यायालय में इस आदेश को चुनौती दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम की परिधि में आने के लिये मामले के लंबित रहने से पूर्व या उसके दौरान घरेलू संबंध का अस्तित्त्व होना चाहिये।
  • न्यायालय ने ‘घरेलू संबंध’ और ‘साझा घर’ शब्दों के अर्थ और परिधि को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित किया।
  • केरल उच्च न्यायालय ने ‘साझा घर में निवास करने के अधिकार’ की सीमा को भी परिभाषित किया, जहाँ यह कहा गया कि निवास के अधिकार का दावा तब भी किया जा सकता है जब कोई वास्तविक निवास न हो, इस प्रकार, घरेलू संबंध में किसी भी महिला को साझा घर में निवास करने का अधिकार है।
  • न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों और घरेलू संबंध की परिभाषा का उदाहरण देते हुए कहा कि तलाकशुदा महिला का तलाक के बाद कोई घरेलू संबंध नहीं रहता है तथा वह पिछले घरेलू संबंध के आधार पर निवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है।

घरेलू हिंसा अधिनियम के महत्त्वपूर्ण प्रावधान क्या हैं?

पीड़ित व्यक्ति:

  • धारा2(a): कोई भी महिला जो घरेलू संबंध में रह रही हो और घरेलू हिंसा का शिकार होने का आरोप लगाती हो।

घरेलू  संबंध:

  • धारा 2(f): इसमें कहा गया है कि विवाह, रक्त संबंध, अवैध विवाह, गोद लिये गए बच्चे के माध्यम से किसी महिला के साथ साझा घर का कोई भी संबंध साझा घर के अंतर्गत आता है।

साझा घर:

  • धारा 2(s): वह स्थान जहाँ पीड़िता या तो पति के साथ या अकेले रहती है या वह स्थान जहाँ से उसे निष्कासित कर दिया गया है, साझा घर कहलाता है।

निवास का अधिकार:

  • धारा 17: इस धारा में कहा गया है कि प्रत्येक पीड़ित महिला को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर, घरेलू संबंध वाले साझा घर में रहने का अधिकार है।

घरेलू हिंसा अधिनियम पर आधारित ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • प्रभा त्यागी बनाम कमलेश देवी (2022): इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निवास के अधिकार का दावा करने के लिये वास्तविक निवास की आवश्यकता नहीं है, यदि पीड़ित महिला उस व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है जिसके विरुद्ध शिकायत दर्ज की गई है, तो यह इस अधिकार का दावा करने के लिये पर्याप्त है।
  • इंद्रा शर्मा बनाम वी.के.वी. शर्मा (2013): इस मामले में घरेलू संबंध की व्यापक रूप से व्याख्या की गई, जहाँ यह माना गया कि विवाह की मात्र विशेषताएँ ही घरेलू संबंध कहलाने के लिये पर्याप्त होंगी।
  • वंधना बनाम टी. श्रीकांत (2007): इस मामले में साझा घर शब्द की परिधि को यह कहते हुए बढ़ा दिया गया था कि साझा घर में रहने के अधिकार का निर्धारण करते समय रहने की अवधि पर विचार नहीं किया जाना चाहिये, भले ही एक महिला ने एक दिन के लिये घर साझा किया हो, वह इस अधिकार के अधीन दावा कर सकती है यदि वह घरेलू संबंध में है।